Monday, March 31, 2008

कवि कुलवंत जी की एक ग़ज़ल













नाम : कवि कुलवंत सिंह
जन्म: 1967 उतरांचल(रुड़की)
शिक्षा: आई आई टी रुड़की.(अभियंत्रिकी)
प्रकाशित पुस्तकें: निकुंज (काव्य संग्रह)
रुचियां - कवि सम्मेलनो में भाग लेना। मंच संचालन। क्विज मास्टर। विज्ञान प्रश्न मंच प्रतियोगिता आयोजन। मानव सेवा धर्म - डायबिटीज, जोड़ों का दर्द, आर्थराइटिस, कोलेस्ट्रोल का प्राकृतिक रूप से स्थाई एवं मुफ़्त इलाज।
निवास: मुम्बई.
फ़ोन: 09819173477
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ग़ज़ल- तप कर गमों की आग में ..
बहर - 2212 1211 2212 12

तप कर गमों की आग में कुंदन बने हैं हम


खुशबू उड़ा रहा दिल चंदन सने हैं हम


रब का पयाम ले कर अंबर पे छा गए


बिखरा रहे खुशी जग बादल घने हैं हम


सच की पकड़ के बाँह ही चलते रहे सदा


कितने बने रकीब हैं फ़िर भी तने हैं हम


छुप कर करो न घात रे बाली नहीं हूँ मैं.


हमला करो कि अस्त्र बिना सामने हैं हम


खोये किसी की याद में मदहोश है किया


छेड़ो न साज़ दिल के हुए अनमने हैं हम.


Friday, March 28, 2008

डा. प्रेम भारद्वाज जी की तीन ग़ज़लें

डा. प्रेम भारद्वाज

जन्म: 25 दिसम्बर ,1946. नगरोटा बगवाँ (हिमाचल प्रदेश)
शिक्षा: बी.एस.सी.(आनर्ज़),एम.ए.(हिन्दी, समाज शास्त्र),एम.एड.,एम.फ़िल.(गोल्ड मैडल)पी.एच.डी.
पुस्तकें :तीन ग़ज़ल संग्रह: मौसम ख़राब है,कई रूप रंग,मौसम मौसम, अपनी ज़मीन से
शोध: मनोसामाजिक अध्ययन—लोक कथा मानस
सम्मान: हिमसचल केसरी,, काँगड़ा श्री, राज्य स्तरीय पहाड़ी साहित्य सम्मान,प्रदेश सरकार द्वारा पहाड़ी गाँधी, सम्मान, साहित्य रत्न ,महापंजाब सम्मान .
सम्प्रति:प्राचार्य,शरण महिला शिक्षा महाविद्यालय,घुरकड़ी
फोन: 01892—252044,मो. 094182—18200



1.ग़ज़ल

साफ़गोई से कहा कोरा कहा
जो कहा डट कर कहा सीधा कहा

फिर पुरानी सोच पीछे पड़ गई
शे'र हमने जब कोई ताज़ा कहा

ख़ुदनुमाई हाक़िमों की क्या हुई
टट्टुओं को नस्ल का घोड़ा कहा

अक़्स अपना ढूँढते रह जाओगे
हर हसीं चेहरे को शीशा कहा

कर दिया मजबूर किसने आपको
आपने फिर क्यूँ हमें अपना कहा

बात करते हैं ग़ज़लगो प्रेम की
यार लोगों ने उन्हें क्या— क्या कहा.


बहर: रमल: फ़ायलातुन,फ़ायलातुन फ़ायलुन:2122,2122,212

2.ग़ज़ल

रिश्ते तमाम तोड़ कर अपनी ज़मीन से
अपने निशाँ तलाशियेगा खुर्दबीन से

सर पर हवा के तो नहीँ है बीज का वजूद
बरगद हुआ तभी जो मिला है ज़मीन से

देते रहेंगे उनको सदा मख़मली सुकून
हैं देखने पहाड़ जिन्हें दूरबीन से

रन्दों की रेगमार की थी फिर मजाल क्या
कटते न देवदार जो आरा—मशीन से

अख़्लाक़ के हिमायती बन्दे उसूल के
खुल खेलते रहे किसी पर्दानशीन से

रक्खा था मैनें जिसको कभी दिल में पालकर
निकला है साँप बन के मेरी आस्तीन से

इक शे'र पर भी दाद न दी बे लिहाज़ ने
गो हमने खूब शे'र कहे बेहतरीन से

इक दूसरे की टाँग जो खींची गई यहाँ
होने न पाए आप तभी चार तीन से

वो लड़खड़ाहटें नहीं अपनी ज़बान में
हम जो कहेंगे बात कहेंगे यक़ीन से

इन्सानियत बटोरती दहशत रही यहाँ
रूहानियत, रिवायतों, ईमान—ओ—दीन से

देगी नजात देखना यह प्रेम की मिठास
कड़वाहटों भरी फ़ज़ा ताज़ातरीन से.

बहर : मुज़ारे मशमन अखरब मक्ज़ूफ़,महजूफ़: मफ़ऊल, फ़ायलात, मुफ़ाईल,फ़ायलुन
(221,2121,1221 ,212)


3.ग़ज़ल

अगर मुजरों में बिकनी शायरी है
सही कहने की किसको क्या पड़ी है

हैं बाहर गर अँधेरे ही अँधेरे
ये क्या अन्दर है जिसकी रौशनी है

यूँ ही चर्चे यहाँ फ़िरदौस के हैं
बनेगा देवता जो आदमी है

हुई ख़ुश्बू फ़िदा है जिस अदा पर
बला की सादगी है ताज़गी है

करे तारीफ़ अब दुश्मन भी अपना
हुई जो आप से ये दोस्ती है

समुन्दर के लिए नदिया की चल—चल
है उसकी बन्दगी या तिश्नगी है

ज़माना प्रेम के पीछे पड़ेगा
महब्ब्त से पुरानी दुश्मनी है.

बहर:हज़ज की एक सूरत: मुफ़ायेलुन,मुफ़ायेलुन,फ़ऊलुन 1222,1222,122

आपके विचारों का इंतजा़र रहेगा.

Monday, March 17, 2008

द्विज जी की पांच ग़ज़लें











पाँच ग़ज़लें

ग़ज़ल

पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
पत्थरों से प्रार्थनाएँ हैं

मूक जब संवेदनाएँ हैं
सामने संभावनाएँ हैं

साज़िशें हैं सूर्य हरने की
ये जो 'तम' से प्रार्थनाएँ हैं

हो रहा है 'सूर्य' का स्वागत
आँधियों की सूचनाएँ हैं

रास्तों पर ठीक शब्दों के
दनदनाती वर्जनाएँ हैं

घूमते हैं घाटियों में हम
और काँधों पर गुफ़ाएँ हैं

आदमी के रक्त पर पलतीं
आज भी आदिम प्रथाएँ हैं

फूल हैं हाथों में लोगों के
पर दिलों में बद्दुआएँ हैं

स्वार्थो के रास्ते चल कर
डगमगाती आस्थाएँ हैं

छोड़िए भी… फिर कभी सुनना
ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं

ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं

यह ग़ज़ल रमल की एक सूरत.फ़ायलातुन, फ़ायलातुन,फ़ा
2122,2122,2


ग़ज़ल

बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम

आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम

जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम

आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम

ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम

मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम

रमल:फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
2122,2122,2122,212



ग़ज़ल ३ और ४ एक बहर में हैं:.रमल की एक सूरत :
फ़ायलातुन,फ़िइलातुन फ़िइलातुन,फ़िइलुन

2122,1122,1122,112



ग़ज़ल

आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक

टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक

रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक

अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक

फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ महज़ब का
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक

उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक

देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक

रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक

इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक

पुरसुकून आपका चेहरा ये चमकती आँखें
आप भी शह्र में लगता है नये हैं अब तक

ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई
यूँ तो हमने भी कई शे'र कहे हैं अब तक

दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल
और 'द्विज'! आप तो दो कोस चले हैं अब तक

ग़ज़ल

ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता

कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं नहीं रहने देता

आस्माँ भी वो दिखाता है परिन्दों को नए
हाँ, मगर उनपे कोई 'पर' नहीं रहने देता

ख़ुश्क़ आँखों में उमड़ आता है बादल बन कर
दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता

एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता

उनमें इक रेत के दरिया–सा ठहर जाता है
ख़ौफ़ आँखों में समन्दर नहीं रहने देता

हादिसों का ही धुँधलका–सा 'द्विज' आँखों में मेरी
ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता.

ग़ज़ल

न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
ज़मीं पे रह के ज़मीं पर कहाँ हैं सब के सब

कोई भी अब तो किसी की मुख़ाल्फ़त में नहीं
अब एक-दूसरे के राज़दाँ हैं सब के सब

क़दम-कदम पे अँधेरे सवाल करते हैं
ये कैसे नूर का तर्ज़े-बयाँ हैं सब के सब

वो बोलते हैं मगर बात रख नहीं पाते
ज़बान रखते हैं पर बेज़बाँ हैं सब के सब

सुई के गिरने की आहट से गूँज उठते हैं
गिरफ़्त-ए-खौफ़ में ख़ाली मकाँ हैं सब के सब

झुकाए सर जो खड़े हैं ख़िलाफ़ ज़ुल्मों के
'द्विज',ऐसा लगता है वो बेज़बाँ हैं सब के सब.

मजत्तस की एक सूरत:
मुफ़ायलुन,फ़िइलातुन,मुफ़ायलुन,फ़िइलुन
I212,1122,1212,112


आप के विचारों का इंतजा़र रहेगा.

आपका द्विज.

Saturday, March 15, 2008

मेरे गुरु जी का परिचय और उनकी ग़ज़लें











नाम: द्विजेन्द्र ‘द्विज’

पिता का नाम: स्व. मनोहर शर्मा‘साग़र’ पालमपुरी
जन्म तिथि: 10 अक्तूबर,1962.
शिक्षा: हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय के सेन्टर फ़ार पोस्ट्ग्रेजुएट स्ट्डीज़,धर्मशाला से
अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री
प्रकाशन: जन-गण-मन(ग़ज़ल संग्रह)प्रकाशन वर्ष-२००३
सम्पादन: डा. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा संपादित पात्रिका रचना के ग़ज़ल अंक का अतिथि सम्पादन
रचनाएं: * दीक्षित दनकौरी के सम्पादन में‘ग़ज़ल …दुष्यन्त के बाद’ (वाणी प्रकाशन) ,
* डा.प्रेम भारद्वाज के संपादन में ‘सीराँ’(नैशनल बुक ट्रस्ट),
*उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ की पत्रिका साहित्य भारती के नागरी ग़ज़ल अंक,
*रमेश नील कमल के सम्पादन में दर्द अभी तक हमसाए हैं ,
*इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी द्वारा संपादित चांद सितारे,
*नासिर यूसुफ़ज़ई द्वारा संपादित कुछ पत्ते पीले कुछ हरे इत्यादि संकलनों में संकलित
*नवनीत,उद्भावना,नयापथ,मसिकागद,बराबर,सुपरबाज़ारपत्रिका,इरावती,विपाशा,हिमप्रस्थ,कारख़ाना,
अर्बाब-ए-क़लम,गुफ़्तगू,गोलकोंडा दर्पण, क्षितिज, ग़ज़ल, नई ग़ज़ल,सार्थक,शीराज़ा(हिन्दी),पुन:,
तर्जनी, शब्दसंस्कृति, शिवम, उद्गार, भभूति, पोइटक्रिट, हिमाचल मित्र, संवाद,सर्जक,
रचना, फ़नकार, इत्यादि पत्रिकाओं मेंI
*दैनिक ट्रिब्यून ,जनसत्ता, इंडियन एक्सप्रेस,लोकमत समाचार,राष्ट्रीय सहारा, दैनिक भास्कर,
अमर उजाला, दैनिक जागरण, अजीत समाचार,भारतेन्दु शिखर, गिरिराज, दैनिक मिलाप,
वीर प्रताप,पंजाब केसरी,दिव्य हिमाचल, अजीत समाचारइत्यादि पत्रों में
*कई राष्ट्र एवं राज्य स्तरीय कवि सम्मेलनों मुशायरों में प्रतिभाग
*पहाड़ी भाषा में ग़ज़लें, कहानियाँ
*आकाशवाणी से प्रसारित
सम्प्रति: प्राध्यापक:अँग्रेज़ी,ग़ज़लकार, समीक्षक
पत्राचार: राजकीय पालीटेक्निक, कांगड़ा -176001 (हिमाचल प्रदेश)
ई-मेल : dwij.ghazal@gmail.com


आज इस कड़ी में द्विज जी की एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं. बाकी गज़लें वो कल भेजेंगे और हमे इस ग़ज़ल के बारे में भी बताऎंगे.


ग़ज़ल

ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी

बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी
कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी

बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !
बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी

ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी

नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी

क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की
मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी

यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी

भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी

हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी

मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी

तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं
कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी

अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है
कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी

बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी

बुला रही है तुझे धूप 'द्विज' पहाड़ों की
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी