Tuesday, April 12, 2011
पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की ग़ज़ल
पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की एक खूबसूरत ग़ज़ल आपकी नज़्र कर रहा हूँ । जनाब बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और ग़ज़ल के मिज़ाज से वाक़िफ़ हैं। ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
सूरज उगा तो फूल-सा महका है कौन-कौन
अब देखना यही है कि जागा है कौन-कौन
बाहर से अपने रूप को पहचानते है सब
भीतर से अपने आप को जाना है कौन-कौन
लेने के साँस यों तो गुनेहगार हैं सभी
यह देखिए कि शह्र में ज़िन्दा है कौन-कौन
अपना वजूद यों तो समेटे हुए हैं हम
देखो इन आँधियों में बिखरता है कौन-कौन
दावे तो सब के सुन लिए "आज़र" मगर ये देख
तारे गगन से तोड़ के लाता है कौन-कौन
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल
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