ग़ज़ल
ज़मीं पर बस लहू बिखरा हमारा
अभी बिखरा नहीं जज़्बा हमारा
हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई
सलामत गर रहे सहरा हमारा
मिलाकर हाथ सूरज की किरन से
मुखालिफ़ हो गया साया हमारा
रकीब अब वो हमारे हैं जिन्होंने
नमक ताज़िन्दगी खाया हमारा
है जब तक साथ बंजारामिज़ाजी
कहाँ मंज़िल कहाँ रस्ता हमारा
तअल्लुक तर्क कर के हो गया है
ये रिश्ता और भी गहरा हमारा
बहुत कोशिश की लेकिन जुड़ न पाया
तुम्हारे नाम में आधा हमारा
इधर सब हमको कातिल कह रहे हैं
उधर ख़तरे में था कुनबा हमारा