क्या हुआ ग़र खुशी नहीं बस में मुस्कुराना तो इख़्तियार में है
"आज की ग़ज़ल" का ये पौधा ३ साल पहले लगाया था और अब आप सब की दुआओं से शाखों पर कोंपलें फूंट आईं हैं और जब कोंपलें फूंट रही हों तो "फ़रहत शहज़ाद साहब" याद आ जाते हैं।मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ उनका कि मेरी इक विनती पर उन्होंने इस मंच के लिए अपनी दो ग़ज़लें भेजी हैं। यूँ तो उनकी बहुत सारी ग़ज़लें नेट पर हैं लेकिन उनकी पसंदीदा ग़ज़लें जब उनके द्वारा भेजी गई हों तो बात कुछ और हो जाती है। फ़रहत साहब किसी परिवय के मोहताज नहीं हैं। शायरी से ज़रा सा तअल्लुक रखने वाला उनके नाम से वाकिफ़ है।
ग़मों ने बाँट लिया है मुझे यूँ अपस में कि जैसे मैं कोई लूटा हुआ खज़ाना था
मेहदी साब ने इनकी बहुत सी ग़ज़लें गाईं और वो तमाम ग़ज़लें अमर हो गईं। फिर चाहे वो-तनहा-तनहा मत सोचा कर हो, या खुली जो आँख तो"..हो, ये सब ग़ज़लें हमें अपने साथ बहा ले जाती हैं और शायर का अनुभव , पूरी दुनिया का अनुभव बन जाता है। आपबीती , जगबीती बन जाती है और यही बात किसी एक शायर को बुलंदियों तक लेके जाती है।
ज़िन्दगी को उदास कर भी गया वो कि मौसम था एक गुज़र भी गया
साथ ज़माना है लेकिन तनहा तनहा रहता हूँ
धड़कन धड़कन ज़ख़्मी है फिर भी हँसता रहता हूँ
खाकर ज़ख़्म दुआ दी हमने बस यूँ उम्र बिता दी हमने
एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा मैंने जो संग तराशा वो ख़ुदा हो बैठा
कितने ऐसे अशआर हैं जो इस कलम से निकले हैं और हम लोगों तक पहुँचे और अमर हो गए। मैं बड़े आदर के साथ ये ग़ज़लें यहाँ पेश कर रहा हूँ-
ग़ज़ल
जानना मुझको मेरी जान बहुत आम नहीं मेरे हाथों में जो खाली है मेरा जाम नहीं
जीत और हार मुक़द्दर है मगर जाने-अज़ीज वक़्त की लहर मिटा पाए मैं वो नाम नहीं
साथ रख मुझको, कठिन वक़्त में काम आऊंगा दश्त में, आस का साया हूँ, कड़ी शाम नहीं
आइना घर है मेरा, ढूँढने वालो, मुझको नाम सब मेरे हैं, और मेरा कोई नाम नहीं
साथ चलने की ज़रा सोच के हामी भरना उम्र,दो गाम सही,ज़िंदगी दो गाम नहीं
कौन है,क्यों है,कहाँ से है,कहाँ तक तू है जब से सोचा है तुझे,ज़हन को आराम नहीं
मेरे सीने में समंदर है, तो लब पर सहरा प्यास,आग़ाज़ सही,तिशनगी,अंजाम नहीं
न जाने किस तरह काँटो से भर गया दामन सफ़र तो हमने किया था शुरू गुलशन से
को पढ़ने के बाद मैनें उनसे गुज़ारिश की थी कि इस मिसरे में ऐसा लगता है कुछ टाइप करने से रह गया है तो उन्होंने ये जवाब दिया-
"Mujhey khushi hey ke tum ne itni tawajja se par-ha ke ye sawal zehen men uthey. Let me answer them in your sequence only.
1)Nahin, pehley misrey men kuchh type honey se nahin chhota. ChoNkey SHUROO, dar-asl Sheen, Ray, Wa-o and Ain mil ker banta hey aur Ain ko poorey taur per sab pronounce nahin ker patey, is liy-e is lafz ka wazan jan-ney ke liy-e zaroori hey ke isey "SHUROOK" ke taur per par-ho, wazan poora hoja-ey ga aur dar-haqeeqat yahi is lafz ka sahi wazan hey.
2)"Hijr-Sawan", "Dil-Ghar", "Sukoon-AaNgan" waghera do lafz jor ker aik bana-ee huee tarkeebein hein jo original Urdu meN aam taur per ista-maal hoti theen lekin ab kam sha-er inhein istamaal kertey hein. "Hijr-Sawan", yani, Hijr ka sawan, "Dil-Ghar", yani Dil ka ghar n "Sukoon-AaNgan" yani Sukoon ka aaNgan waghera.Mein ne kafi purani tarkeeboN ko naya kerney ki koshish ki hey aur ye alfaaz us koshish ka aik hissa hein.
Agar further koi baat, sawaal zehen meN aa-ey to be-jhijak likh dena."
Tumhara, FS
और आइए अब उनका ये दिलकश-अंदाज़ देखते और सुनते हैं जिसे उन्होंने समंदर के किनारे शूट किया है-
अहमद अली बर्की साहब का शुक्रिया उन्होंने ग़ज़लों को उर्दु मे टाइप करके उसे इमेज में तबदील किया और फ़रहत साहब का तहे-दिल से शुक्रिया इस मंच के लिए ग़ज़लें भेजने का।
1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.
लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं
वो कुछ तो बूढ़े अरमाँ हैं कुछ शोख़ -से सपने निकले हैं
ऐ रहबर ! अपनी आँख उठा, कुछ देख ज़रा, पहचान ज़रा
ग़ैरों-से जो तुझको लगते हैं वो तेरे अपने निकले हैं
बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं
बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं
जिस हद में हमारे कदमों को कुछ ज़ंजीरों से जकड़ा है
बिन तोड़े उन ज़ंजीरों को उस हद से गुज़रने निकले हैं
हम आज भगत सिंह के जज़्बों को ले कर अपने सीनों में
जो राह दिखाई गांधी ने वो राह परखने निकले हैं
1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक मासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं, जिन्हें पढ़कर ये समझा जा सकता है कि गज़लीयत क्या होती है। बहुत ही आदर के साथ ये ग़ज़ले मैं शाया कर रहा हूँ-
जब ख़यालों के समंदर में उतर जाता हूँ
मैं तेरी ज़ुल्फ़ की मानिंद बिखर जाता हूँ
वक़्त की इतनी ख़राशें हैं मेरे चेहरे पर
आईना सामने आ जाए तो डर जाता हूँ
लेके उम्मीद निकलता हूँ मैं क्या- क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ
कितने बेनूर उजाले हैं मेरे चारों ओर
रोशनी चीखती मिलती है जिधर जाता हूँ
टूटने की मेरे आवाज़ नहीं हो पाती
अपने एहसास में ख़ामोश बिखर जाता हूँ
पार जाना है तो तूफ़ान से डरना कैसा
कश्तियाँ तोड़ के दरिया में उतर जाता हूँ
अपने जज़्बात वो ऐसे भी बता देते हैं
जब कोई हाथ मिलाता है दबा देते हैं
ख़त तो लिखते हैं अज़ीज़ों को बहुत खुश होकर
और बातों में कुछ आँसू भी मिला देते हैं
बैठ जाते हैं जो शाखों पे परिंदे आकर
पेड़ को फूलने -फलने की दुआ देते हैं
तुमने देखी ही नहीं उनकी करिश्मा साज़ी
नाव काग़ज़ की जो पानी पे चला देते हैं
रास्ते मैं तो बनाता हूँ कि पहुँचूं उन तक
और वो राह को दीवार बना देते हैं
देखते हैं जो दरख्तों पे फलों का आना
हम भी अपना सरे -तस्लीम झुका देते हैं
दोनों ग़ज़लें बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल में कहीं गईं हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22 शायर का पता-
ईमेल :sukhanwar12@gmail.com
मोबाइल :09893663536
पर तो अता किये मगर परवाज़ छीन ली अंदाज़ दे के खूबी-ए-अंदाज़ छीन ली मुझको सिला मिला है मेरे किस गुनाह का अलफ़ाज़ तो दिये मगर आवाज़ छीन ली
1930 में जन्मे कँवल ज़िआई साहब बहुत अच्छे शायर हैं। जिन्होंने बहुत से मुशायरों में शिरकत की और आप सिने स्टार राजेन्द्र कुमार के सहपाठी भी रहे हैं। मै इनके बारे में क्या कहूँ, छोटा मुँह और बड़ी बात हो जाएगी। कुछ दिन पहले इनका ग़ज़ल संग्रह "प्यासे जाम" इनके बेटे यशवंत दत्त्ता जॊ की बदौलत पढ़ने को मिला। आप हमारे बजुर्ग शायर हैं, हमारे रहनुमा हैं। भगवान इनको लम्बी उम्र और सेहत बख़्शे । राजेन्द्र कुमार जी ने कभी मजाक में कहा था कि आप शक्ल से जमींदार लगते हैं तो आप ने फ़रमाया था-
शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर है, मगर मेरे दिल को मेरे शेरो में उतर कर देखिये
कुछ दिन पहले २७ मई को इनकी शादी की सालगिरह थी। सो एक बार फिर दिली मुबारक़बाद। आप आर्मी से रिटायर हैं और अभी देहरादून में हैं।बहुत शोहरत कमाई है आपने और कई महफ़िलों की जान रहे हैं आप। ज़िंदगी के प्रति काफ़ी पैनी नज़र रखते हैं-
बात करनी है मुझे इक वक़्त से बात छोटी है मगर छोटी नहीं ज़िन्दगी को और भी कुछ चाहिये ज़िन्दगी दो वक़्त की रोटी नहीं
उम्र के इस पड़ाव पर ख़ुद को आइने में देखकर कुछ यूँ कहते हैं-
जानी पहचानी सी सूरत जाने पहचाने से नक्श वो यक़ीनन मैं नहीं लेकिन ये मुझ सा कौन है एक ही उलझन में सारी रात मैंने काट दी जिसको आईने में देखा था वो बूढ़ा कौन है
इनकी ग़ज़ल हाज़िर है-
कोई भी मसअला मरने का मारने का नहीं सवाल हक़ का है दामन पसारने का नहीं
मैं एक पल का ही मेहमां हूँ लौट जाऊंगा मेरा ख़याल यहाँ शब गुजारने का नहीं
उन्हें भी सादगी मेरी पसंद आती है मुझे भी शौक नया रूप धारने का नहीं
हदूद-ए-शहर में अब जंगबाज़ आ पहुंचे ये वक़्त रेशमी जुल्फें सवांरने का नहीं