Thursday, February 5, 2009

आर.पी. शर्मा "महरिष" की तीन ग़ज़लें











श्री आर.पी. शर्मा "महरिष" का जन्म 7 मार्च 1922 ई को गोंडा में (उ.प्र.) में हुआ। अपने जीवन-सफर के 85 वर्ष पूर्ण कर चुके श्री शर्मा जी की साहित्यिक रुचि आज भी निरंतर बनी हुई है। ग़ज़ल संसार में वे "पिंगलाचार्य" की उपाधि से सम्मानित हुए हैं।

प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी गज़ल संरचना-एक परिचय , ग़ज़ल-निर्देशिका,गज़ल-विधा ,गज़ल-लेखन कला ,व्यहवारिक छंद-शास्त्र ,नागफनियों ने सजाईं महफिलें (ग़ज़ल-संग्रह),गज़ल और गज़ल की तकनीक। पेश हैं उनकी तीन ग़ज़लें.

ग़ज़ल








नाम दुनिया में कमाना चाहिये
कारनामा कर दिखाना चाहिये

चुटकियों में कोई फ़न आता नहीं
सीखने को इक ज़माना चाहिये

जोड़कर तिनके परिदों की तरह
आशियां अपना बनाना चाहिये

तालियाँ भी बज उठेंगी ख़ुद-ब-ख़ुद
शेर कहना भी तो आना चाहिये

लफ्ज़ ‘महरिष’, हो पुराना, तो भी क्या?
इक नये मानी में लाना चाहिये.

बहरे-रमल


ग़ज़ल








सोचते ही ये अहले-सुख़न रह गये
गुनगुना कर वो भंवरे भी क्या कह गये

इस तरह भी इशारों में बातें हुई
लफ़्ज़ सारे धरे के धरे रह गये

नाख़ुदाई का दावा था जिनको बहुत
रौ में ख़ुदा अपने जज़्बात की बह गये

लब, कि ढूँढा किये क़ाफ़िये ही मगर
अश्क आये तो पूरी ग़ज़ल कह गये

'महरिष' उन कोकिलाओं के बौराए स्वर
अनकहे, अनछुए-से कथन कह गये.

चार फ़ाइलुन
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम


ग़ज़ल









नाकर्दा गुनाहों की मिली यूँ भी सज़ा है
साकी नज़र अंदाज़ हमें करके चला है

क्या होती है ये आग भी क्या जाने समंदर
कब तिश्नालबी का उसे एहसास हुआ है

उस शख़्स के बदले हुए अंदाज़ तो देखो
जो टूट के मिलता था, तक़ल्लुफ़ से मिला है

पूछा जो मिज़ाज उसने कभी राह में रस्मन
रस्मन ही कहा मैंने कि सब उसकी दुआ है

महफ़िल में कभी जो मिरी शिरकत से ख़फ़ा था
महफ़िल में वो अब मेरे न आने से ख़फा है

क्यों उसपे जफाएँ भी न तूफान उठाएँ
जिस राह पे निकला हूँ मैं वो राहे-वफा है

पीते थे न 'महरिष, तो सभी कहते थे ज़ाहिद
अब जाम उठाया है तो हंगामा बपा है .

बहरे-हजज़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन

22 11 22 11 22 11 22



एक बहुत महत्वपूर्ण लिंक है: यहाँ आप ग़ज़ल की बारीकियाँ सीख सकते हैं ये धारावाहिक लेख आर.पी शर्मा जी ने ही लिखा है क्लिक करें....ग़ज़ल लेखन..द्वारा आर.पी शर्मा "अभिव्यक्ति" पर .

Friday, January 30, 2009

दोस्त मोहम्मद खान की ग़ज़लें











जनाब दोस्त मोहम्मद खान राज्य सभा मे डिपटी डायरेक्टर की हैसीयत से काम कर रहे हैं और उर्दू में एम.फ़िल. किया है.शायरी के शौक़ीन हैं और कालेज के ज़माने से लिख रहे हैं. आज हम उनकी दो ग़ज़लें यहाँ पेश कर रहे हैं.


ग़ज़ल






हम को जीने का हुनर आया बहुत देर के बाद
ज़िन्दगी, हमने तुझे पाया बहुत देर के बाद

यूँ तो मिलने को मिले लोग हज़ारों लेकिन
जिसको मिलना था, वही आया बहुत देर के बाद

दिल की बात उस से कहें, कैसे कहें, या न कहें
मसअला हमने ये सुलझाया बहुत देर के बाद

दिल तो क्या चीज़ है, हम जान भी हाज़िर करते
मेहरबाँ आप ने फरमाया बहुत देर के बाद

बात अशआर के परदे में भी हो सकती है
भेद यह 'दोस्त' ने अब पाया बहुत देर के बाद


ग़ज़ल








दिल के ज़ख्म को धो लेते हैं
तन्हाई में रो लेते हैं

दर्द की फसलें काट रहे हैं
फिर भी सपने बो लेते हैं

जो भी लगता है अपना सा
साथ उसी के हो लेते हैं

दीवानों -सा हाल हुआ है
हँस देते हैं, रो लेते हैं

'दोस्त' अभी कुछ दर्द भी कम है
आओ थोड़ा सो लेते हैं.

Tuesday, January 20, 2009

अमित रंजन गोरखपुरी की दो ग़ज़लें











उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हैं और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादतकर रहे हैं. जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करेंगे.उनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं आप सब के लिए.


ग़ज़ल









मुझे अब रौशनी दिखने लगी है,
धुएं के बीच आखिर लौ जली है

यहां हाथों में है फिर से तिरंगा,
वहां लाचार सी दहशत खडी है

सम्भल जाओ ज़रा अब हुक्मरानों,
यहां आवाम की ताकत बडी है

हिला पाओगे क्या जज़्बे को इसके,
ये मेरी जान मेरी मुम्बई है

घिरा फिर मुल्क जंगी बादलों से,
कि "रंजन" घर में कुछ राशन नही है

ग़ज़ल








हो तल्ख जाम तो शीरीन बना लेता हूं,
गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं

हरेक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ

कहीं फरेब न हो जा‌ए उनकी आँखों से,
मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ

गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ

इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ

सुलगती आग के धु‌एँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ

चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसु‌ओं को क‌ई बार बहा लेता हूँ

तमाम फिक्र-ए-मसा‌इल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ न‌ए दोस्त बना लेता हूँ

मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दु‌आ लेता हूं

तमाम ज़ख्म मिल चुके हैं इन बहारों से,
मैं अब खिज़ान तले काम चला लेता हूँ

जला रहे वो चिरागों को, चलो अच्छा है,
उन्ही को सोच के सिगरेट जला लेता हूँ

खुदा का शुक्र है नशे में आज भी "रंजन",
मैं पूछने पे अपना नाम बता लेता हूँ

Wednesday, January 14, 2009

बिरजीस राशिद आरफ़ी की ग़ज़लें











जुलाई, १९४३ को क़स्बा चाँद्पुर (देहरादून) में जन्मे जनाबे-बिरजीस राशिद आरफ़ी साहब को भारत के लगभग तमाम नामी-गिरामी शायरों की मौजूदगी में अपने फ़न का जादू जगा चुके हैं. "राशिद आरफ़ी साहब की ग़ज़लों का एक-एक शेर उनके चिन्तन की गहराई और विधा पर उनकी मज़बूत पकड़ का जादू सुनने-पढ़ने वालों के सर चढ़कर बोलने की क़ाबिलियत रखता है, यह मैंने उनका शेरी मजमूआ (काव्य-संग्रह) "जैसा भी है" पढ़कर महसूस किया है." -द्विजेन्द्र 'द्विज'
आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी ये तीन ग़ज़लें:


ग़ज़ल






धूम ऐसी मचा गया कोहरा
जैसे सूरज को खा गया कोहरा

बन के अफ़वाह छा गया कोहरा
बंद कमरों मे आ गया कोहरा

तेरे पन्नों पे आज ऐ अख़बार
कितनी लाशें बिछा गया कोहरा

साँस के साथ दिल की रग-रग में
बर्फ़ की तह जमा गया कोहरा

अपने बच्चों से क्या कहे मज़दूर
घर का चूल्हा बुझा गया कोहरा

धूप कितनी अज़ीम नेमत है
चार दिन में बता गया कोहरा

उनके चेहरे पे सुरमई आँचल
चाँद पे जैसे छा गया कोहरा.

ग़ज़ल








रात भर ढूँढता फिरा जुगनू
सुब्ह को ख़ुद ही खो गया जुगनू

रोशनी सब की खा गया सूरज
चाँद ,तारे, शमा, दिया, जुगनू

तीरगी से यह जंग जारी रख
हौसला तेरा मरहवा जुगनू

क्यों न ख़ुश हो ग़रीब की बिटिया
उसकी मुठ्ठी में आ गया जुगनू

नूर तो हर जगह पहुँचता है
कूड़ियों में पला-बढ़ा जुगनू

धुँधले-धुँधले- से हो गए तारे
मिस्ले कन्दील जब उड़ा जुगनू

चेहरे बच्चों के बुझ गए 'राशिद'
माँ के आँचल में मर गया जुगनू.

ग़ज़ल








भूल पाए न थे ट्रेन का हादसा
आज फिर हो गया एक नया हादसा

जाने क्या हो गया आजकल दोस्तो
रोज़ होता है कल से बड़ा हादसा

बाप का साया और काँच की चूड़ियाँ
एक ही पल में सब ले गय हादसा

ऐ ख़ुदा, ईश्चर,गाड, वाहे गुरु
तेरे घर में भी होने लगा हादसा

मैं हूँ शायर, हक़ीक़त करूँगा बयाँ
साज़िशों को कहूँ, क्यों भला हादसा?

किसको फ़ुर्सत है,ये कौन सोचे यहाँ
हो गया किस गुनाह की सज़ा हादसा

तेरे घर के सभी लोग महफ़ूज़ हैं
भूल जा 'आरफ़ी' जो हुआ हादसा.



संपर्क: बिरजीस राशिद 'आरफ़ी',
ग्राम:हरिपुर ,ज़िला: देहरादून- 248142
पोस्ट:हरबर्टपुर,ज़िला: देहरादून(उत्तराखण्ड)
दूरभाष 01360-258728
09897448028

Saturday, January 10, 2009

धीरज आमेटा 'धीर' की दो ग़ज़लें










धीरज आमेटा 'धीर' राजस्थान के उदयपुर के रहने वाले हैं. महज़ 26 साल की उम्र मे उम्दा ग़ज़लें कहते हैं .गुड़ग़ाव में एक हार्डवेयर कम्पनी में काम कर रहे हैं. जनाब सरवर आलम राज़ 'सरवर' के शागिर्द हैं .पेश हैं उनकी दो ग़ज़लें.


ग़ज़ल








उमीदें जब भी दुनिया से लगाता है,
दिल ए नादाँ फ़क़त धोखे ही खाता है!

ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,
ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!

जो पैराहन तले नश्तर छिपाता है,
लहू इक दिन वो अपना ही बहाता है!

जो बचपन में तुझे उंगली थमाता था,
उसे तू आज बैसाखी थमाता है ?

जुदा है क़ाफ़िले से रहगुज़र जिस की,
वो ही इक दिन नया रस्ता दिखाता है!

तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!

हजज़
(1222 x3)


ग़ज़ल







कोई गुंचा टूट के गिर गया, कोई शाख गुल की लचक गयी,
कहीं हिज्र आया नसीब में, कहीं ज़ुल्फ़ ए वस्ल महक गयी!

जो अज़ीयतों की शराब थी, वो ही कागज़ों पे छलक गयी,
मेरे शेर ओ नग्में मचल उठे, मेरी शायरी ही बहक गयी!

कभी शम्स है तो क़मर कभी, कभी याद मर्ज़, कभी दवा,
कभी फूल बन के महक गयी, कभी आग बन के दहक गयी!

भले तीर दिल में चुभे रहें, मगर होँठ फिर भी सिले रहे,
न सही गयी तो क़लम के रस्ते,ख़लिश जिगर की झलक गयी!

तुझे कोई रन्ज-ओ-मलाल था, कि तेरी नज़र में सवाल था,
तेरे होँठ जिस को न कह सके,तेरी आँख फिर भी छलक गयी!

भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!

सर-ए-शाम घर को ये वापसी मेरे हम-नफ़स की ही देन है,
मुझे आते देखा तो राह तकती निगाह कैसी चमक गयी!

(11212 x4)
मुतफ़ाइलुन x4

comments:

seema gupta said...
ये दिल कम्बख्त जब रोने पे आता है,ज़रा सी बात पे दरिया बहाता है!" सुंदर प्रस्तुती, दिले नादाँ की बात ही अजब है , कभी जरा सी बात पे दरिया बहता है और कभी हजारों गम चुपचाप सह जाता है....गज़ल अच्छी लगी"regards
January 12, 2009 3:02 AM
रंजन गोरखपुरी said...
बेहद उम्दा!! इन मुश्किल बहरों पे इतनी सहजता से सजी दोनों ग़ज़ल आपके फन को साफ़ दर्शाती है! धीर साहब की लाजवाब शायरी से पहले भी रूबरू हुए हैं और उनके ये शेर तो आज भी ज़हन में बिलकुल ताजा है:
नमी बाकी रहे आँखों में दामन तर नहीं करना,
रहे गौहर समंदर में उस बेघर नहीं करना
रसोई में रखे बर्तन तो ज़ाहिर है की खनकेंगे,
ज़रा सी बात पे हाल-ए-वतन बद्तर नहीं करना
(बिना इजाज़त पेश करने की गुस्ताखी के लिए मुआफी चाहता हूँ पर अपने आप को रोक नहीं पाया :) )बेशक धीर साहब आने वाले दौर के अनमोल गौहर हैं!! खुदा आपकी अर्शिया कलम को और बरक़त अता करे!!
January 12, 2009 3:18 AM
"अर्श" said...
पहली दफा ही इस ब्लॉग पे आया हूँ और धीर भाई की बेहतरीन ग़ज़लों को पढ़ने का मौका मिला ,उम्दा लेखा है बहोत खूब लिखा है इन्होने ढेरो बधाई कुबूल करें...अर्श
January 12, 2009 5:44 AM
श्रद्धा जैन said...
Dheer ki gazlen hamesha hi padi haishayad hi koi gazal ho jo padi nahi homagar inke gazlen bolne ka andaaz gazal ko chaar chand laga deta haiguzarish hai ki inki hi aawaz main inke pasand ke kuch sher sunaye jaaye dono hi gazal bhaut shaandaar rahi khaskar ye sherतुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
January 12, 2009 6:24 AM
Abhishek Krishnan said...
Indeed its very nice "Ghazal". I don't know much urdu but I always appreciate/understand when he explained his "Ghazals" to me. Keep writing..
January 12, 2009 7:17 AM
नीरज गोस्वामी said...
सुभान अल्लाह....इस उम्र में ये तेवर...खुदा नजरे बद से बचाए...कमाल की शायरी...नीरज
January 12, 2009 8:49 AM
Manish Kumar said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!bahut khoob likha hai dheer ne
January 12, 2009 8:50 AM
गौतम राजरिशी said...
पढ़ कर बस उफ़-उफ़ किये जा रहा हूं...पहली बार पढ़ रहा हूं धीर जी कोदूसरी गज़ल तो खास कर-एक-एक शेर कहर ढ़ाता हुआ है...और पढ़वायें इनको सतपाल जीदुसरी गज़ल के बहर पर कुछ जानना चाहता था.क्या यही "रज़ज" भी है २२१२ वाली?
January 12, 2009 9:40 AM
Udan Tashtari said...
भलाऐसे इश्क़ में लुत्फ़ क्या,न होंजिसमें शिकवे,शिकायतें,
मगर, आह! तेरी ये ख़ामोशी, मेरे दिल को आज खटक गयी!--वाह!! बहुत बेहतरीन!
January 12, 2009 4:14 PM
NirjharNeer said...
तुम्हारा चूमना पेशानी को मेरी,
मेरे माथें की हर सलवट मिटाता है!
bahot khoob dheer bhaini:sandeh khoobsurat bayangii kabil-e-daad
January 12, 2009 9:05 PM
सतपाल said...
गौतम जी,ये बहरे-कामिल है..एक मशहूर ग़ज़ल आपने सुनी होगी..वो जो हममे तुम मे करार था, तुझे याद हो कि न याद हो..इसी बहर मे है.बहुत खूबसूरत बहर है.
January 12, 2009 9:26 PM
सतपाल said...
Gautam ji,aapne jo savaal poocha hai us ka samadhaan bahut zaroori hai, ki kya rajaz(2212) or behre-kaamil(11212)ke arkaan alag hai lekin agar hum kahen ke 2 laghu ki jagah ek guru ka istemaal ho sakta hai to phir kya 2212 or (11)212 barabar nahiN haiN.ye ghalat paRaya jata hai ki do laghu ki jagah ek guru lete haiN, ye shoot kissi -kissi bahar me hai, koii niyam nahi. agar ye nizam hota to bahre-kaamil ki kya zaroorat thee. Pran ji ne sahity shilpi par samjhane ke liye faailaatun ko 21211 likh dia tha maine vahaN savaal bhi uthaya tha.mai phir kahta hooN ki do laghu ki jagah guru ki छoot har behr me nahi hai. jiska udahran aapke saamne hai. ab aap khud dekheN..ye misra paRiye..vo jo ham me tum me karaar tha tujhe yaad ho ki na yaad ho( kaamil)...iske baad ise paRen..ye dil ye paagal dil mera kyon bujh gya aawargee..( rajaz)dono ki lay me farq se sab zaahir ho jata hai.
January 13, 2009 1:28 AM

Wednesday, January 7, 2009

राज कुमार कै़स की ग़ज़लें










पंजाब मे जन्मे राज कुमार कै़स बहुत अच्छे शायर हैं. इनका एक ग़ज़ल संग्रह "सहरा-सहरा" प्रकाशित हो चुका है. इनकी ग़ज़लों मे खास बात ये है कि ग़जलों मे एक दिलकश रवानगी है.इनका यही अंदाज़ इन्हें औरों से जुदा करता है. पेश है उनकी दो ग़ज़लें.


ग़ज़ल:









देख तेरे दीवाने की अब जान पे क्या बन आई है
चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है.

बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल, सहरा-सहरा घूमे हैं
हमने तेरी खोज मे अब तक कितनी खाक उड़ाई है.

दिल अपना सुनसान नगर है, फिर भी कितनी रौनक है
सपनो की बारात सजी है, यादों की शहनाई है.

यूँ तो सब कुछ हार चुके हैं, फिर भी माला-माल है हम
बातें करने को सन्नाटा, सोहबत को तनहाई है.

मेरे दिल का चौंक सा जाना, इक मामूली जज़्बा है
वो तो तेरी शोख नज़र थी, जिसने बात बढ़ाई है.

यूँ तो तेरे मयखाने मे, रंगा-रंग शराबे हैं
आज वही ऊंड़ेल जो तेरी, आँखों ने छलकाई है.

आज तो मय का इक-इक कतरा, झूम रहा है मस्ती मे
शायद मेरे ज़ाम से कोई, खास नज़र टकराई है.

आज समंदर की लहरें, ऊँची भी हैं जोशीली भी
या पानी की बेचैनी है , या तेरी अंगड़ाई है.

पहलू-पहलू दर्द उठा है, करवट-करवट रोये हैं
तुझ को क्या मालूम कि हमने ,कैसे रात बिताई है.

मोड़ -मोड़ पर बिजली लपकी, मंज़िल-मंज़िल तीर गिरे
मर-मर कर इस राह मे हमने, अपनी जान बचाई है.

देखने वाले ध्यान से देखें ,हुस्न नही है जादू है
या तो इसका मंत्र ढूँढें ,या फिर शामत आई है.

कहने को तो वस्ल की दावत ,लेके कोई आया है
हो न हो मेरी तनहाई ,भेस बदल कर आई है.

सारी सखियाँ पूछ रहीं हैं ,आज हमारी राधा से
तेरे मन के बरिंदावन मे ,किसने रास रचाई है.

(8,7 गुरु)

ग़ज़ल:







करम देखे ,वफ़ा देखी, सितम देखे , जफ़ा देखी
अजब अंदाज़ थे तेरे अजब तेरी अदा देखी.

न जाने कब तुझे पाया न जाने कब तुझे खोया
न हमने इब्तिदा देखी न हमने इंतिहा देखी.

तुम्हारी बज़्म मे जब हम न थे तो क्या कहें तुम से
अजब सूना समां देखा अजब सू्नी फ़ज़ा देखी.

इधर हम सर-ब-सिजदा थे तुम्हारी राह मे जानां
उधर गै़रों की आँखों मे हवस देखी हवा देखी.

अजब बुत है कि हर जानिब हज़ारों चाँद रौशन हैं
ख़ुदा शाहिद है हम ने आज तनवीरे-ख़दा देखी

फ़ना का वक्त था फिर भी बका़ के गीत गाता था
तुम्हारे कै़स कि कल शब अनोखी ही अदा देखी.

(हज़ज)

******
COMMENTS:


Parul said...
bahut khuub..sahi hai..ravangi hai..aabhaar padhvaaney ka
January 7, 2009 1:27 AM
नीरज गोस्वामी said...
बहुत खूब...इनकी ग़ज़लों में गुज़रे ज़माने की बहुत रसीली पेशकश है...आज कल ऐसी ग़ज़लें अमूनन नहीं लिखी पढ़ी जाती...आप का शुक्रिया.नीरज
January 7, 2009 1:45 AM
दिगम्बर नासवा said...
दोनों ही गज़लों में गज़ब की रवानगी है, ग़ज़ल गा कर और भी सुंदर लगेगी, हर शेर लाजवाब है, मुझे खासकर ये बहोत पसंद आया यूँ तो तेरे मयखाने मे, रंगा-रंग शराबे हैंआज वही ऊंड़ेल जो तेरी, आँखों ने छलकाई है.
January 8, 2009 4:33 AM
गौतम राजरिशी said...
बड़े दिनों बाद ये नाजुकी गज़ल की दिखी है...पहले गज़ल का मतला "देख तेरे दीवाने की अब जान पे क्या बन आई है / चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है"....कहर ढ़ाता हैपूरी गज़ल में एक स्वाभाविक सी गेयता और वो रूमानियत कि हाय~~~~~...सतपाल जी आप का तहे दिल से शुक्रिया.यदि संभव हो तो शायरों का संपर्क-सुत्र भी दें
January 8, 2009 7:56 AM
सतपाल said...
Dear gautamclick this link to read more about poet and his poetryhttp://www.tanhaa.net/anmol/qais/thanks
सतपाल said...
इन ग़ज़लों के बारे मे कल द्विज जी से बात हुई तो मैने उनसे ये सवाल किया था कि रिवायती, क्लासिकल और समकालीन शायरी परकुछ कहें .तो उन्होंने बताया कि रिवायती या traditional से ही ज्यादातर शुरुआत होती है लेकिन शायर धीरे-धीरे अपना रंग या अंदाज़ बना लेता है.जो आने वाले कल के लिये रिवायत बन जाता है और क्लासिकल औए रिवायती मे बहुत एक thin line का फ़र्क है.
dwij said...
'चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है'
वाह-वाह!क्लासिकल रचाव की ऐसी शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती गेयता ही तो है.
चुप साधें तो दम घुटता है बोलें तो रुसवाई है
ऐसी दुविधा को 'शुज़ा'ख़ावर साहब न्रे अपने एक शेर में कुछ यूँ बयान किया है:
"कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अन्दर से 'शुज़ा'
और कुछ बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा"
यहाँ आकर अस्तित्व की दुविधा भी सामने आती है लेकिन ज़रा और भी व्यापक अर्थों में.बस शेर का संदर्भ ग़मे-जाना से ग़मे-दौराँ की तरफ हो गया.Subjective से objective हो गया.शायद यहीं से रिवायती और जदीद शायरी की विभाजक रेखा भी साफ-साफ दिखाई देना शुरू हो जानी चाहिए.
January 8, 2009 11:23 PM

Dr. Ahmad Ali Barqi Azmi said...
क़ैस के अशआर मेँ है फिकरो फन की ताज़गी
उनके अंदाज़े बयाँ मेँ है नेहायत दिलकशी
अहदे हाज़िर मेँ ग़ज़ल है इम्तेज़ाजे फिकरो फन
इस कसौटी पर खरी है उनकी बर्क़ी शसायरी
डा. अहमद अली बर्की आज़मी
January 8, 2009 11:32 PM


Anonymous said...
Sabase pahale main yah batana chahta hoon ki blog par apni tippadi dene ke vajaya yahan par apne vichar vyakta kar raha hoon kyonki wahan main devnagari lipi man nahin likh paunga. main chahata hoon ki ye vichar wahan devnagari men hi dikhen, atah yadi aap chahen to mera sandharbh dekar in vicharon ko wahan de sakate hain.
Pahale riwayati,classical aur samkaalin shayari ke bare men apne vichar likh raha hoon,
(1)Riwayati yani paramparavadi (Traitional) wah ghazalen hain jo purane bimbon pratikon aur paramparaon ki prashthabhoomi par likhi hon jaise purane husna aur isk par adharit ghazalen.
(2)Shastriya(Classical) wah ghazalen jo uchcha stariya sahityik prashtha bhoomi par likhi hon.
(3)Samsamayik ya samkaalin ghazalen ve ghazalen hain jo aaj ke samay ke sandharbhon vishayon aur sarokaron ki prashthabhoomi par likhi gayeen hon.
Ab Shri Rajkumar 'Kais' ki ghazalon ke bare men, Maine abhi unki pahali ghazal hi dhyan se padi hai. ismen koi shak nahin ki inki ghazal ko pad kar ek khas prakar ki ravanagi mahsoos hoti hai. Bahut sunder ghazal hai. Meri aur se unhen aur aapko hardik badhai. Is ghazal ke kuchh misare padane men atakate hain, jaise (i) yoon to tere mayakhane men rangarang sharaben hain, iska doosara misara padane men atakta hai ise hona chahiye tha-"aaj undel use jo teri aankhon ne chhalkai hai" (ii)isi tarah "dekhanewale dhyan se dekhen husna nahin yah jadu hai" iska doosara misara bhi padane men atakta hai,doosare misare men "mantra" ki jagah par "mantar' aata to thik rahata.(iii)"kahane ko to vasla ki dawat leke koi aaya hai", iska bhi doosara misara atakta hai, ismen "ho na ho"ki jagah agar "lagata hai" hota to rawani bani rahati.(iv)makte men bhi doosara misara doshpurna hai kyonki "shabd birandaavan"likha hai jabki yah "vrandaavan" hona tha, fir "Raas" pulling hai atah "kisne raas rachaaya hai" aayega naki "kisna raas rachai hai.Maine yah sab bina kisi durbhavana ke likh diya hai ise swastha drashti se dekhen.Dhanyawad.
Chandrabhan Bhardwaj

Anonymous said...
Qais SaHeb kee shaa'iree kaa aik alag hee andaaz aur rang hai. in ghazloN pe meree hazaar_haa daad. dheer
January 9, 2009 6:57 AM
श्रद्धा जैन said...
wah gazal ke pahile hi sher ne shayar ki kalam ka loha mahnva diyabahut kamaal kahte hainSatpaal ji inse milwane ke liye bahut bahut shukriya

Thursday, January 1, 2009

नये साल की आमद पर- विशेष

नए साल की सब को बधाई और इस मौके पर कुछ ग़ज़लें प्रस्तुत हैं. मै सब शायरों का आभारी हूँ जिन्होंने अपना-अपना कलाम हमें भेजा.
.

प्राण शर्मा की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

छेड़ ऐसी ग़ज़ल इस नए साल में
झूमे मन का कँवल इस नए साल में

कोई ग़मगीन माहौल क्यों हो भला
हर तरफ़ हो चहल इस नए साल में

गिर न पाये कभी है यही आरजू
हसरतों का महल इस नए साल में

याद आए सदा कारनामा तेरा
मुश्किलें कर सहल इस नए साल में

नेकियों की तेरी यूँ कमी तो नहीं
हर बदी से निकल इस नए साल में

पहले ख़ुद को बदल कर दिखा हमसफ़र
फिर तू जग को बदल इस नये साल में

रोज़ इतना ही काफी है तेरे लिए
मुस्करा पल दो पल इस नए साल में

बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
(फ़ाइलुन x4)


देवी नागरानी की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

मुबारक नया साल फिर आ रहा है
जिसे देखिये झूमकर गा रहा है

हूआ ख़त्म आंसू बहाने का मौसम
ख़ुशी देके हमको वो हर्षा रहा है

नए साल ने भर दिए है ख़ज़ाने
जिसे देखिये वो ही इतरा रहा है

है मस्ती दिलों में नशा है निराला
कोई जाम पर जाम छलका रहा है

भरो अपना दामन बड़ों की दुआ से
नया साल हमको ये समझा रहा है

यह पुरकैफ़ माहौल देवी है भाया
जिसे देखिये खुश नज़र आ रहा है

फ़ऊलुन x4
बहरे-मुतकारिब मसम्मन सालिम


डा. अहमद अली वर्की आज़मी की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

नया साल है और नई यह ग़ज़ल
सभी का हो उज्जवल यह आज और कल

ग़ज़ल का है इस दौर मेँ यह मेज़ाज
है हालात पर तबसेरा बर महल

बहुत तल्ख़ है गर्दिशे रोज़गार
न फिर जाए उम्मीद पर मेरी जल

मेरी दोस्ती का जो भरते हैँ दम
छुपाए हैँ ख़ंजर वह ज़ेरे बग़ल

न हो ग़म तो क्या फिर ख़ुशी का मज़ा
मुसीबत से इंसाँ को मिलता है बल

वह आएगा उसका हूँ मैं मुंतज़िर
न जाए खुशी से मेरा दम निकल

है बेकैफ हर चीज़ उसके बग़ैर
नहीँ चैन मिलता मुझे एक पल

न समझेँ अगर ग़म को ग़म हम सभी
तो हो जाएँगी मुशकिले सारी हल

सभी को है मेरी यह शुभकामना
नया साल सबके लिए हो सफल

ख़ुदा से है बर्की मेरी यह दुआ
ज़माने से हो दूर जंगो जदल

मुतकारिब की मुजाहिफ़ शक्ल
122 122 122 12


चन्द्रभान भारद्वाज की एक ग़ज़ल:










गज़ल:

पड़ी मांग सूनी कटी है कलाई;
नये साल की बंधु कैसी बधाई।

खड़ा है खुले आम दुश्मन हमारा,
कुटिल उसका मन आंख में बॆहयाई।

बनाकर गये धूल चंदन वतन की,
हमें गर्व है उन शहीदों पे भाई।

सधे थे कदम हाथ लाखों जुड़े थे,
बहे आँसुओं ने शमा जब जलाई।

वो बलिदान है आरती इस वतन की,
जलाई जो लौ हर तरफ जगमगाई ।

ये इतिहास भूगोल बदले तुम्हारा,
'भारद्वाज'सरहद अगर फिर जगाई।

फ़ऊलुन x4
बहरे-मुतकारिब मसम्मन सालिम


द्विजेन्द्र द्विज की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में

सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में

ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में

है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में

बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में

राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में

वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में

ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में

हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में

अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में

काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में

देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में

कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.


बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
(फ़ाइलुन x4)** शादमानी - प्रसन्नता ; जाफ़रानी-केसर जैसी सुगन्ध जैसी ; पासबानी-सुरक्षा ; हुक्मरानी-सत्ता,शासन ;
हक़-बयानी : सच कहने की आदत ; कामरानी-सफलता; मरहले-पड़ाव


देवमणि पांडेय की एक ग़ज़ल:










गज़ल:

नया साल हमसे दग़ा न करे
गए साल जैसी ख़ता न करे

अभी तक है छलनी हमारा शहर
नया ज़ख़्म खाए ख़ुदा न करे

नए साल में रब से मांग दुआ
किसी को किसी से जुदा न करे

सभी के लिए ज़िंदगी है मेरी
भले कोई मुझसे वफ़ा न करे

फरिश्ता तुझे मान लेगा जहां
अगर तू किसी का बुरा न करे

मोहब्बत से कह दो परे वो रहे
मेरी ज़िंदगी बेमज़ा न करे

झमेले बहुत ज़िंदगानी के हैं
तुझे भूल जाऊं ख़ुदा न करे

न टूटे कोई ख़्वाब इसके सबब
कुछ ऐसा ये बादे-सबा न करे

तो ख़्वाबों की ताबीर मुमकिन नहीं
अगर ज़िंदगानी वफ़ा न करे

अमीरों के दर से न पाएगा कुछ
भिखारी से कह दो दुआ न करे

बहरे-मुतकारिब मुजाहिफ़ शक्ल


गौतम राजऋषि की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्‍ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को

पेड़ों की फुनगी पर आकर बैठ गयी जो धूप जरा
आँगन में ठिठकी सर्दी को भी आये तो गरमाने को

टेढ़ी भौंहों से तो कोई बात नहीं बनने वाली
मुट्ठी कब तक भींचेंगे हम,हाथ मिले याराने को

हुस्नो-इश्क पुरानी बातें,कैसे इनसे शेर सजे
आज गज़ल तो तेवर लायी सोती रूह जगाने को

साहिल पर यूं सहमे-सहमे वक्‍त गंवाना क्या यारों
लहरों से टकराना होगा पार समन्दर जाने को

प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को

साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को

अपने हाथों की रेखायें कर ले तू अपने वश में
’गौतम’ तेरी रूठी किस्मत आये कौन मनाने को

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सतपाल ख्याल की एक ग़ज़ल:









गज़ल:

जश्न है हर सू , साल नया है
हम भी देखें क्या बदला है.

गै़र के घर की रौनक है वो
अब वो मेरा क्या लगता है.

दुनिया पीछे दिलबर आगे
मन दुविधा मे सोच रहा है.

तख्ती पे 'क' 'ख' लिखता वो-
बचपन पीछे छूट गया है.

नाती-पोतों ने जिद की तो
अम्मा का संदूक खुला है.

याद ख्याल आई फिर उसकी
आँख से फिर आँसू टपका है.

दहशत के लम्हात समेटे
आठ गया अब नौ आता है.


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Friday, December 19, 2008

पूर्णिमा वर्मन की ग़ज़लें और परिचय













जन्म :27 जून 1955

शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।

कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों मे जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आज तक इनके साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।

संप्रति: पिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।

प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह ( "वक्त के साथ" जो वेब पर उपलब्ध)

मझे बहुत खुशी हो रही है उनकी ग़ज़लें यहाँ पेश करते हुए. साहित्य की सेवा जो उन्होंने अनुभुति और अभिव्यक्ति द्वारा की है वो सराहनीय है और आने वाले कल का सरमाया है.उनकी नई रचनाएँ इस चिठ्ठे पर यहाँ पढ़ें

ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com

पेश है उनकी तीन ग़ज़लें:

ग़ज़ल:






खुद को जला रहा था सूरज
दुनिया सजा रहा था सूरज

दिनभर के लंबे दौरे से
थक कर नहा रहा था सूरज

केसर का चरणामृत पीकर
दोना बहा रहा था सूरज

दिन सलवट सलवट बिखरा था
कोना तहा रहा था सूरज

शांत नगर का धीरे धीरे
होना बता रहा था सूरज

लेने वाला कोई नहीं था
सोना बहा रहा था सूरज


ग़ज़ल








शब्दों का जंजाल है दुनिया
मीठा एक ख़याल है दुनिया

फूल कली दूब और क्यारी
रंग-रंगीला थाल है दुनिया

हाथ विदा का रेशम रेशम
लहराता रूमाल है दुनिया

कभी दर्द है कभी सर्द है
मौसम बड़ा निहाल है दुनिया

अपनों की गोदी में सोई
सपनों का अहवाल है दुनिया

खुशियों में तितली सी उड़ती
दुख में खड़ा बवाल है दुनिया

जंगल में है मोर नाचता
घर में रोटी दाल है दुनिया

रोज़ रोज़ की हड़तालों में
गुमी हुई पड़ताल है दुनिया

भीड़ भड़क्का आना जाना
हलचल हालचाल है दुनिया

रेशम के ताने बाने में
उलझा हुआ सवाल है दुनिया

तुझे फूँकने ले जाएगी
लकड़ी वाली टाल है दुनिया

(वज़्न है: आठ गुरु)

ग़ज़ल








बाँधकर ढोया नहीं था आसमाँ
हमने पर खोया नहीं था आसमाँ

राह में तारे बहुत टूटे मगर
दर्द से रोया नहीं था आसमाँ

हाथ थामे चल रहा था रात दिन
थक के भी सोया नहीं था आसमाँ

फिर ज़मीं समझा रही थी रौब से
क्लास में गोया नहीं था आसमाँ

चाह थी हर एक को उसकी मगर
खेत में बोया नहीं था आसमाँ

किस तरह बूँदें गिरी ये दूब पर
रात ने धोया नहीं था आसमां

बहेर-रमल(2122 2122 212 )


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Friday, December 5, 2008

चंद्रभान भारद्वाज- परिचय और तीन ग़ज़लें













नाम- चंद्रभान भारद्वाज
जन्म - ४, जनवरी , 1938।
स्थान- गोंमत (अलीगढ) (उ प्र।)
इनके अभी तक चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पगडंडियाँ,शीशे की किरचें ,चिनगारियाँ और हवा आवाज़ देती है. देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में गज़लें प्रकाशित होती रहीं हैं।आकाशवाणी से भी रचनाओं का प्रसारण होता रहा है। ये 1970 से अनवरत रूप से ग़ज़ल लेखन में संलग्न हैं.एक खा़स अंदाज़ की गज़ले आप सब के लिए.

ग़ज़ल 1







हुआ मन साधु का डेरा यहाँ अपना पराया क्या;
समर्पण कर दिया उसको जगत की मोह माया क्या।

धरा आकाश हैं आँगन खिलौना हैं सभी उसके,
सितारे चाँद सूरज आग पानी धूप छाया क्या।

बचाले लाख नज़रों से छिपाले लाख परदों में,
उसे मालूम है तुमने दुराया क्या चुराया क्या.

लिखे हैं ज़िन्दगी ने झूठ के सारे बहीखाते,
बताती है मगर सच मौत खोया और पाया क्या।

नज़र की सिर्फ़ चाहत है मिले दीदार प्रियतम का,
कहाँ है होश अब इतना पिया क्या और खाया क्या।

धधकती प्यार की इस आग में जब कूदकर निकले,
निखर कर हो गए कंचन हमें उसने तपाया क्या।

खड़ा जो बेच कर ईमान 'भारद्वाज' पूछो तो,
कि उसने आत्मा के नाम जोड़ा क्या घटाया क्या।

बहरे-हज़ज सालिम

ग़ज़ल 2










अब खुशी कोई नहीं लगती खुशी तेरे बिना;
ज़िन्दगी लगती नहीं अब ज़िन्दगी तेरे बिना।

रात में भी अब जलाते हम नहीं घर में दिया,
आँख में चुभने लगी है रोशनी तेरे बिना।

बात करते हैं अगर हम और आईना कभी,
आँख पर अक्सर उभर आती नमी तेरे बिना।

चाहते हम क्या हमें भी ख़ुद नहीं मालूम कुछ,
हर समय मन में कसकती फांस सी तेरे बिना।

सेहरा बाँधा समय ने कामयाबी का मगर,
चेहरे पर अक्श उभरे मातमी तेरे बिना।

पूर्ण है आकाश मेरा पूर्ण है मेरी धरा,
पर क्षितिज पर कुछ न कुछ लगती कमी तेरे बिना।

हम भले अब और अपना यह अकेलापन भला,
क्या किसी से दुश्मनी क्या दोस्ती तेरे बिना।

बहरे रमल

ग़ज़ल 3










दर्द की सारी कथाएँ करवटों से पूछ लो,
प्यार की मधुरिम व्यथाएं सिलवटों से पूछ लो।

आपबीती तो कहेगा आँख का काजल स्वयं,
बात पिय की पातियों की पनघटों से पूछ लो।

ज़िन्दगी कितनी गुजारी है प्रतीक्षा में खड़े,
द्वार खिड़की देहरी या चौखटों से पूछ लो।

क्या बताएगा नज़र की उलझनें दर्पण तुम्हें,
पूछना चाहो अगर उलझी लटों से पूछ लो।

चाहती है तो न होगी कैद परदों में कहीं,
लौट आएगी नज़र ख़ुद घूंघटों से पूछ लो।

आप होंगे यह समझ कर दौड़ते हैं द्वार तक,
पांव की आती हुई सब आहटों से पूछ लो।
बहरे-रमल

Monday, December 1, 2008

मुनव्वर राना की आज के हालात पर एक ग़ज़ल









ग़ज़ल

नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मुलाक़ातों पे हँसते बोलते हैं मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मेरा दुश्मन मुझे तकता है मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं

***













तमाम सैनिकों को सैल्यूट जिन्होंने हाल ही मे मुंबई मे हुए आतंकी हमले मे अपनी जान देकर इस देश को बचाया और हमले में मरे सब लोग भी शहीद ही हैं.उन सब लोगों को शत-शत नमन.ऐसा हादिसा कभी दोबारा न हो इसके लिए उस मालिक से दुआ करते हैं .

शिव ओम अंबर जी ने ठीक कहा है:

राजभवनों की तरफ़ न जायें फरियादें,
पत्थरों के पास अभ्यंतर नहीं होता
ये सियासत की तवायफ़ का टुप्पटा है
ये किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।


....और दुआ करते हैं कि सियासतदानॊं को भी कुछ सबक मिले

Tuesday, November 11, 2008

धर्मपाल 'अनवर' की ग़ज़लें और परिचय













श्री धर्मपाल 'अनवर' हिन्दी,पंजाबी और उर्दू भाषाओं में
समान अधिकार के साथ ग़ज़ल कहते हैं । 'तनहा ज़िन्दगी' (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2002) ,'मैं ,तड़प और ज़िन्दगी' (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह-2008), 'पीड़ाँ दी पगडंडी' (पंजाबी लघु कथा संकलन-2008) और 'शाम दी दहलीज़ ते' (पंजाबी ग़ज़ल संग्रह-2005) इन की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं आप अमलोह, ज़िला फ़तेहगढ़ साहिब (पंजाब) में रहते हैं।
प्रस्तुत हैं श्री धर्मपाल 'अनवर' की चार ग़ज़लें जो उनके हाल ही में प्रकाशित हिन्दी ग़ज़ल संग्रह 'मैं ,तड़प और ज़िन्दगी' से हैं:

१.







बात सच्ची जो कह दे सभी को
कौन चाहेगा उस आदमी को

देखकर आज की दोस्ती को
शर्म आने लगी दोस्ती को

सब ही मतलब के रोने हैं रोते
कौन रोता है अब आदमी को

देखने को तो सब ख़ुश हैं यारो
सब तरसते हैं लेकिन ख़ुशी को

आँखें रो-रो के पथरा गई हैं
होंठ तरसें किसी के हँसी को

रातें रंगीं यहाँ हैं किसी की
दिन में तरसे कोई रोशनी को

पाए यह दिल सुकूँ जिससे 'अनवर'
कर ले हासिल तू उस आगही को.

212,212,212,2
**

२.








ज़िन्दगी से रोज़ो-शब मरते रहे
मौत से लेकिन सदा डरते रहे

वो भला मंज़िल पाते किस तरह
ख़्वाब में ही जो सफ़र करते रहे

परदे के पीछे किये ज़ुल्मो-सितम
दम शराफ़त का मगर भरते रहे

पूछिए उनसे तरक्की देश की
भूखे रह कर जो गुज़र करते रहे

अम्न का उपदेश देकर दोस्तो
आप ख़ुद फ़ितनागरी करते रहे

पेट 'अनवर' हसरतों की भूख का
मुद्दतों वादों से वो भरते रहे.
2122,2122,212
**
३.









ढक सके न जिस्म को जो पैरहन
आबरू कि लाश का वो है क़फ़न

धुन्ध वो मायूसियों की आ गई
आस की दिखती नहीं कोई किरन

थे चहकते दिल में जो अरमा कहीं
आज सीने में वो कर डाले दफ़न

दनदनाते देखी अक्सर है क़ज़ा
ज़िन्दगी महसूस करती है घुटन

ख़ार तो बदनाम यूँ ही हो गये
ज़ख़्म देते हैं दिलों को गुलबदन

है भँवर में अब भी कश्ती देश की
नाख़ुदाओं का रहा ऐसा चलन

देख 'अनवर' चन्द सिक्कों के लिए
बेच देते हैं कई अपना वतन.

2122,2122,212
**
४.









सह के दुख भी जो हँसती रही है
नाम उसका ही तो ज़िन्दगी है

कौन आएगा तुझ को मनाने
सूनी राहों को क्या देखती है

क्या तू समझाए दुनिया को नादाँ
तुझसे ज़्यादा यह ख़ुद जानती है

मोल हर साँस का तो बहुत है
ज़िन्दगी फिर भी सस्ती बड़ी है

रंग जैसा है जिस आईने का
उसमें वैसी ही दुनिया दिखी है

नाम उल्फ़त नहीं है हवस का
ये तो महबूब की बंदगी है

इश्क़ आसाँ नहीं इतना 'अनवर'
जिसको कहते हैं आफ़त यही है.

212,212,212,2

Sunday, October 26, 2008

मुशायरा

आदाब !

मुशायरे मे आए सभी शायरों / ग़ज़लकारों का मैं स्वागत करता हूँ . आज हमारे बीच बैठे हैं: सर्व श्री बृज कुमार अग्रवाल , कृश्न कुमार “तूर” , सरवर राज़ ‘सरवर’ सुरेश चन्द्र “शौक़” , प्राण शर्मा , महावीर शर्मा ,चाँद शुक्ला हादियाबादी , द्विजेन्द्र ‘द्विज’, अहमद अली बर्क़ी आज़मी, डा. प्रेम भारद्वाज ,पवनेंद्र ‘पवन’ ,ज़हीर कुरैशी , देव मणि पाँडे , नीरज गोस्वामी, देवी नांगरानी ,अमित रंजन ,नवनीत शर्मा ,दीपक गुप्ता, और विजय धीमान । कोशिश की है कि इस मुशायरे में आज की ग़ज़ल में प्रकाशित तमाम शायरों को एक साथ पेश करूँ और इसके अलावा कुछ ऐसे शायर भी जो पहले आज की ग़ज़ल में पहले नहीं आए. आशा करता हूँ कि आप सब को ये प्रयास पसंद आयेगा.
सबसे पहले मैं कृश्न कुमार “तूर” साहब को दावते क़लाम देना चाहता हूँ। जिनका क़लाम देश-विदेश के उर्दू-हिंदी रिसालों की ज़ीनत बनता है । कृश्न कुमार “तूर” साहब से गुज़ारिश है कि मुशायरे का आग़ाज़ अपने क़लाम से करें

कृश्न कुमार “तूर” साहब














अना का दायरा टूटे तो मैं दिखाई दूँ
वह अपनी आँख को खोले तो मैं दिखाई दूँ

हूँ उसके सामने लेकिन नज़र नहीं आता
वह मुझको देखना चाहे तो मैं दिखाई दूँ


मैं अपने आपको देखूँ तो वो दिखाई दे
वो अपने आपको देखे तो मैं दिखाई दूँ

बुलन्दियों से उसे मैं नज़र न आऊँगा
फ़राज़ से जो वो उतरे तो मैं दिखाई दूँ

है “तूर” उसकी नज़र ख़ुद ही उसपे बार अब तो
वो मेरे सामने आए तो मैं दिखाई दूँ
वाह-वाह तूर साहब! कया ख़ूब क़लाम है। इस ग़ज़ल के “मैं” को आपने कितने कुशादा माअनी अता फ़रमाए हैं ।
अब मुशायरे को एक खूबसूरत शेर के साथ और आगे बढ़ाते हैं। शे’र मुलाएज़ा फ़रमाने का है:
दिन गुज़रता है मेरा बुझ-बुझ कर
शाम को ख़ूब जगमगाता हूँ
इस फ़क़ीर शायर की शायरी भी दिन—रात जगमगाने वाली शायरी है। दावते—सुख़न दे रहा हूँ जनाब—ए—सुरेश चन्द्र “शौक” साहब को।आप अपने फ़न का जादू देश-विदेश के कोने- कोने में बिखेर चुके हैं । और नये लिखने वालों के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं :

सुरेश चन्द्र “शौक”:













ग़ज़ल पेश है:

चुप है हर वक़्त का रोने वाला
कुछ न कुछ आज है होने वाला

एक भी अश्क नहीं आँखों में
सख़्त-जाँ कितना है रोने वाला

आज काँटों का भी हक़दार नहीं
हार फूलों के पिरोने वाला

खो गया दर्द की तस्वीरों में
प्यार के रंग भिगोने वाला

फ़स्ल अश्कों की उग आई कैसे
क्या कहे क़हक़हे बोने वाला

बाँटता फिरता है औरों को हँसी
ख़ुद को अश्कों में डुबोने वाला

मुतमुइन अब हैं यही सोच के हम
हो रहेगा है जो होने वाला

'शौक़'!तुम जिसके लिए मरते हो
वो तुम्हारा नहीं होने वाला ।





रोते फिरते हैं सारी सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना
कुछ नहीं हम मिसाल-ऐ- उनका लेक
शहर शहर इश्तिहार है अपना
इसी टीस, इसी दर्द और इसी कमाल का नाम है ग़ज़ल. सीधी सी बात को कमाल से कह जाना ही ग़ज़ल है. मीर के इन अशआर के बाद मैं सरवर साहब को मंच पर बुलाता हूँ कि वे अपना कलाम पढ़ें :

सरवर राज़ साहब:













कूचा-कूचा , नगर-नगर देखा
खुद में देखा उसे अगर देखा.

किस्सा-ए-जीस्त मुख़्तसर देखा
जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा.

दर ही देखा न तूने घर देखा
जिंदगी ! तुझको खूब कर देखा.

कोई हसरत रही न उसके बाद
उसको हसरत से इक नज़र देखा.

हमको दैरो-हरम से क्या निसबत
उस को दिल में ही जलवागर देखा.

हाले-दिल दीदानी मेरा कब था
देखता कैसे ? हाँ मगर देखा.

सच कहूँ बज़्मे-शे'र मे तुमने
कोई सरवर सा बे-हुनर देखा ?

बहुत शुक्रिया सरवर साहब!


न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यूँ होता तो क्या होता


इसी फ़कीरी का नाम शायरी है .और इस फ़कीर शायर के ज़िक्र के बाद अब मै मंच पर प्राण शर्मा जी को बुलाता हूँ. वो मंच पर आकर अपना कलाम पेश करें:प्राण जी ग़ज़ल में अपनी अनूठी भाषा के लिये जाने जाते हैं. गुजा़रिश करूँगा कि वो अपना कलाम पेश करें.

प्राण शर्मा:








आदाब!

मतला पेश कर रहा हूँ

खुशी अपनी करे साँझी बता किस से कोई प्यारे.
पड़ोसी को जलाती है पड़ोसी की खुशी प्यारे.

तेरा मन भी तरसता होगा मुझसे बात करने को
चलो हम भूल जायें अब पुरानी दुशमनी प्यारे


तुम्हारे घर के रौशनदान ही हैं बंद बरसों से
तुम्हारे घर नहीं आती करे क्या रौशनी प्यारे

सवेरे उठके जाया कर बगीचे में टहलने को
कि तुझमें भी ज़रा आए कली की ताज़गी प्यारे

कभी कोई शिकायत है कभी कोई शिकायत है
बनी रहती है अपनो की सदा नाराज़गी प्यारे.

कोई चाहे कि न चाहे ये सबके साथ चलती है
किसी की दुशमनी प्यारे , किसी की दोस्ती प्यारे

कोई शय छिप नही सकती निगाहों से कभी इनकी
ये आँखे ढूँढ लेती हैं सुई खोई हुई प्यारे.

बहुत खूब ! प्राण साहब, क्या बात है ! और अब मैं मंच पर सादर आमंत्रित कर रहा हूँ एक ऐसे रचनाकार को जो ब्लाग पर खूबसूरत मुशायरों के आयोजन के लिए चर्चित हैं । इनकी शायरी भी इनके द्वारा आयोजित मुशयरों की तरह ख़ूबसूरत है। आप हैं , महावीर शर्मा साहब, आइए, आपका स्वागत है :









तिरे सांसों की ख़ुशबू से ख़िज़ाँ की रुत बदल जाए,
जिधर को फैल जाए, आब-दीदा भी बहल जाए।

ज़माने को मुहब्बत की नज़र से देखने वाले,
किसी के प्यार की शमअ तिरे दिल में भी जल जाए।

मिरे तुम पास ना आना मिरा दिल मोम जैसा है,
तिरे सांसों की गरमी से कहीं ये दिल पिघल जाए।

कभी कोई किसी की ज़िन्दगी से प्यार न छीने,
वो है किस काम का जिस फूल से ख़ुशबू निकल जाए

तमन्ना है कि मिल जाए कोई टूटे हुए दिल को,
बनफ़शी हाथों से छू ले, किसी का दिल बहल जाए।

ज़रा बैठो, ग़मे-दिल का ये अफ़साना अधूरा है,
तुम्हीं अनजाम लिख देना, मिरा गर दम निकल जाए।

मिरी आंखें जुदा करके मिरी तुर्बत पे रख देना,
नज़र भर देख लूं उसको, ये हसरत भी निकल जाए।

महावीर शर्मा साहब आपका बहुत—बहुत शुक्रिया ।

अब दावते सुख़न दे रहा हूँ डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी साहब को।
डा. बर्क़ी की शायरी अपने क्लासिकल अंदाज़ के लिए जानी जाती है:

डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी :








हैं किसी की यह करम फर्माइयाँ
बज रही हैँ ज़ेहन मेँ शहनाइयाँ

उसका आना एक फ़ाले नेक है
ज़िंदगी में हैं मेरी रानाइयाँ

मुर्तइश हो जाता है तारे वजूद
जिस घड़ी लेता है वह अंगडाइयाँ

उसकी चशमे नीलगूँ है ऐसी झील
जिसकी ला महदूद हैं गहराइयाँ

चाहता है दिल यह उसमें डूब जाएँ
दिलनशीं हैं ये ख़याल आराइयाँ

मेरे पहलू में नहीं होता वह जब
होती हैं सब्र आज़मा तन्हाइयाँ

तल्ख़ हो जाती है मेरी ज़िंदगी
करती हैं वहशतज़दा परछाइयाँ

इश्क़ है सूदो ज़ियाँ से बेनेयाज़
इश्क़ मे पुरकैफ़ हैँ रुसवाइयाँ

वलवला अंगेज़ हैं मेरे लिए
उसकी “बर्क़ी” हौसला अफज़ाइयाँ
बर्क़ी साहब , कलाम पेश करने के लिए हम आपके शुक्रगुज़ार हैं।


ख्वाजा मीर दर्द का अपना अंदाज़ था वो बातचीत की तरह ग़ज़ल कहते थे.ये अंदाजे़-बयां ही है जो हमे एक -दूसरे से जुदा करता है , बातें तो वही हैं , मसले भी वही हैं , ऐसा कोई विषय नही होगा जो कहा न गया हो. बस शायर अपने अंदाज़ से उसको जुदा कर देता है. अब मैं मंच पर सादर आमंत्रित करता हूँ आदरणीय बृज कुमार अग्रवाल साहब को । अग्रवाल साहब ग़ज़ल में अपने अलग अंदाज़े-बयाँ के लिए जाने जाते हैं:

बृज कुमार अग्रवाल :













जब नहीं तुझको यक़ीं अपना समझता क्यूँ है ?
रिश्ता रखता है तो फिर रोज़ परखता क्यूँ है ?

हमसफ़र छूट गए मैं जो तेरे साथ चला
वक़्त! तू साथ मेरे चाल ये चलता क्यूँ है ?

मैंने माना कि नहीं प्यार तो फिर इतना बता
कुछ नहीं दिल में तो आँखों से छलकता क्यूँ है ?

कह तो दी बात तेरे दिल की तेरी आँखों ने
मुँह से कहने की निभा रस्म तू डरता क्यूँ है ?

दाग़-ए-दिल जिसने दिया ज़िक्र जब आए उसका
दिल के कोने में कहीं दीप- सा जलता क्यूँ है ?

रख के पलकों पे तू नज़रों से गिरा देता है
मैं वही हूँ तेरा अन्दाज़ बदलता क्यूँ है ?
वाह-वाह क्या बात है !





“पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना सपना ही रह जाता है.”
इस शायर का नाम मैं मुशायरे के अंत मे बताऊंगा लेकिन एक बात तो तय है दर्द का दरिया पार किये बिना कोई शायर नहीं बन सकता.यही दर्द और टीस कुंदन बन कर ग़ज़लों मे उतरता है.देर न करते हुए मैं मंच पर देव मणि पाँडे साहेब को बुलाता हूँ.एक अच्छे गीतकार भी हैं पाँडे जी, पिंज़र के लिए गीत भी लिखे हैं इन्होनें. आइए देव मणि जी:
देव मणि पाँडे :









मतला पेश कर रहा हूँ:

दिल ने चाहा बहुत पर मिला कुछ नहीं
ज़िन्दगी हसरतों के सिवा कुछ नहीं

उसने रुसवा सरेआम मुझको किया
उसके बारे में मैंने कहा कुछ नहीं

इश्क़ ने हमको सौग़ात में क्या दिया
ज़ख़्म ऐसे कि जिनकी दवा कुछ नहीं

पढ़के देखीं किताबें मोहब्बत की सब
आँसुओं के अलावा लिखा कुछ नहीं

हर ख़ुशी मिल भी जाए तो क्या फ़ायदा
ग़म अगर न मिले तो मज़ा कुछ नहीं

ज़िन्दगी ये बता तुझसे कैसे मिलें
जीने वालों को तेरा पता कुछ नहीं

**
वाह ! वाह !वाह! अमीर खुसरो जी ने भी हाथ अजमाया इस विधा में और आने वाले कल के लिये एक नींव डाली.और अब मै ज़हीर कुरैशी साहेब को मंच पर बुलाता हूँ कि वो अपनी ग़ज़ल सुनाएँ हिन्दी सुभाव की ग़ज़ल में अपने अलग मुहावरे के लिए जाने जाते हैं ज़हीर कुरेशी साहब.

ज़हीर कुरैशी :









वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
जो मुँह से बोलेगा उसका 'निदान' कर देंगे


वे आस्था के सवालों को यूं उठायेंगे
खुदा के नाम तुम्हारा मकान कर देंगे


तुम्हारी 'चुप' को समर्थन का नाम दे देंगे
बयान अपना, तुम्हारा बयान कर देंगे


तुम उन पे रोक लगाओगे किस तरीके से
वे अपने 'बाज' की 'बुलबुल' में जान कर देंगे


कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक
तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे


वे शेखचिल्ली की शैली में, एक ही पल में
निरस्त अच्छा-भला 'संविधान' कर देंगे


तुम्हें पिलायेंगे कुछ इस तरह धरम-घुट्टी
वे चार दिन में तुम्हें 'बुद्धिमान' कर देंगे
वाह ! वाह! इन दियों को हवाओं में रखना ।

एक और अज़ीम शख़्सियत हमारे मुशायरे को ज़ीनत अता फ़रमा रही है और उस का नाम है ‘चाँद’ शुक्ला हादियाबादी। आप रेडियो सबरंग , डेनमार्क के डायेरेक्टर हैं










इन दियों को हवाओं में रखना
हमको अपनी दुआओं में रखना

वो जो वाली है दो जहानों का
उसको दिल की सदाओं में रखना

कोई तुम से वफ़ा करे न करे
नेक नीयत वफ़ाओं में रखना

हुस्न और इश्क़ उसकी नेमत हैं
तू हुनर इन अदाओं में रखना

हर तमन्ना गुलाब-सी महके
चाँद-तारों की छाओँ में रखना

खूब सूरत क़लाम के लिए शुक्रिया !
और अब मैं नीरज गोस्वामी जी को अपने क़लाम का जादू जगाने के किए लिए आमंत्रित करता हूँ।


नीरज गोस्वामी :







प्यार की तान जब सुनाई है
भैरवी हर किसी ने गाई है

लाख चाहो मगर नहीं छुपता
इश्क में बस ये ही बुराई है

खवाब देखा है रात में तेरा
नींद में भी हुई कमाई है

बाँध रक्खा है याद ने हमको
आप से कब मिली रिहाई है

जीत का मोल जानिए उस से
हार जिसके नसीब आई है

चाहतें मेमने सी भोली हैं
पर जमाना बड़ा कसाई है

आस छोडो नहीं कभी "नीरज"
दर्दे दिल की यही दवाई है.

बहुत ख़ूब, भाई नीरज जी!
अब मैं डा. प्रेम भारद्वाज को सादर आमंत्रित करता हूँ कि वे अपनी ग़ज़ल हमें सुनाएँ।
डा. प्रेम भारद्वाज:








मैं मिट कर जब हम हो जाए
दर्दे-दुनिया कम हो जाए

टूटे हैं मरहम हो जाए
फूलों पर शबनम हो जाए

गीत बहारों के गा कर ही
पतझड़ का मातम हो जाए

जीवन की उलझन के चलते
सीधा-सा हमदम हो जाए

क्या कहने,गर ठोस हक़ीक़त
ज़ुल्फ़ों का बस ख़म हो जाए

ख़ुशियाँ हों या ग़म के क़िस्से
पीने का आलम हो जाए

दाद नहीं कुछ इसके आगे
आँख झुके और नम हो जाए

रिश्तों के बंधन में आकर
प्रेम करें तो ग़म हो जाए

खूबसूरत ग़ज़ल के लिए शुक्रिया।





पवनेंद्र पवन साहब भी मुशायरे में आ चुके हैं.उनसे भी अनुरोध कि वे अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत करें

पवनेंद्र पवन:


कहने को वरदान है बेटी
अनचाही संतान है बेटी


कपड़ा ,पैसा ,दान समझ कर
कर दी जाती दान है बेटी

खूब ठहाके लाता बेटा
बुझती—सी मुस्कान है बेटी

लेना—देना दो बापों का
हो जाती क़ुर्बान है बेटी

पूछ नहीं है घर में लेकिन
घर की इज़्ज़त-मान है बेटी

सास कहे है ग़ैर की जाई
माँ के घर मेहमान है बेटी.
बहुत ही मार्मिक ग़ज़ल के लिए मैं पवन जी का आभारी हूँ.
और अब मैं भाई नवनीत को उनकी ग़ज़ल के साथ आमंत्रित करता हूँ
नवनीत शर्मा :








रोज़ ही शह्र में ग़दर होना
कितना मुश्किल है यूँ बसर होना

क्या ज़रूरी था ये क़हर होना
मेरा साहिल तेरा लहर होना

हम मकाँ ग़ैर के बनाते हैं
अपना मुमकिन नहीं है घर होना

क्या ज़रूरी था ये ग़दर होना
दिल की बस्ती में उनका घर होना

किसको भाया है किसको भायेगा
तेरे क़ूचे से दर—बदर होना

ज़िन्दगी के क़रीब लाता है
तेरी बस्ती में मेरा घर होना

रास्ता मैं अगर बनूँ हमदम
तुम किनारों के सब शजर होना

यह जो नवनीत कह रहा है ग़ज़ल
सब को लाज़िम है यह ख़बर होना.

बहुत खूब, भाई नवनीत !


ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई
हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त भेजा
आप की तरह से मेहमान बुलाए कोई
जिसने दा़ग साहेब को नहीं पढ़ा उसने कुछ नही पढ़ा.मीर के बाद सादा और साफ़ कलाम दा़ग साहेब ने पेश किया और ग़ज़ल को फ़ारसी के भारी भरकम शब्दों से ग़ज़ल को निजा़त दिलाई.
न्यू जर्सी से तशरीफ़ लाई देवी नांगरानी जी को दावते सुख़न दे रहा हूँ:
नांगरानी जी भी अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ मंच पर हैं. आइए:

देवी नांगरानी:









ग़ज़ल हाजि़र है:
इरशाद।

दिल से दिल तक जुड़ी हुई है ग़ज़ल
बीच में उनके पुल बनी है ग़ज़ल

छू ले पत्थर तो वो पिघल जाए
ऐसा जादू भी कर गई है ग़ज़ल

सात रंगों की है धनुष जैसी
स्वप्न -संसार रच रही है ग़ज़ल

सोच को अपनी क्या कहूँ यारो
रतजगे करके कह रही है ग़ज़ल

रूह को देती है ये सुकूं 'देवी'
ऐसी मीठी-सी रागिनी है ग़ज़ल.
**
धन्यवाद देवी जी
बेश्क ग़ज़ल एक मीठी रागिनी है.
“यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़
दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग”
फ़िराक साहेब ने गंगा-जमनी तहज़ीब की नींव रखी और उसको निभाया भी.वो हमेशा हिंदी मे लिखी जाने वाली ग़ज़ल से खफ़ा रहते थे क्योंकि हिंदी मे लिखने वाले अरुज़ को संजी़दगी से नही लेते थे लेकिन आज दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल अपनी बाल अवस्था से निकल कर जवान होने लगी है. बाकी ये तो झगड़ा ही बेकार है.बात वही जो दिल को भाए वो उर्दू मे हो या हिंदी मे.खैर मैं अब मंच पर बुला रहा हूँ रंजन गोरखपुरी सहेब को कि वो अपना कलाम पेश करें.
रंजन जी:








बड़ा बेचैन होता जा रहा हूं,
न जाने क्यूं नहीं लिख पा रहा हूं

तुम्हे ये भी लिखूं वो भी बताऊं,
मगर अल्फ़ाज़ ढूंढे जा रहा हूं

मोहब्बत का यही आ़गाज़ होगा,
जिधर देखूं तुम्ही को पा रहा हूं

कभी सूखी ज़मीं हस्ती थी मेरी,
ज़रा देखो मैं बरसा जा रहा हूं

किसी दिन इत्तेफ़ाकन ही मिलेंगे,
पुराने ख्वाब हैं दोहरा रहा हूं

मुझे आगोश में ले लो हवाओं,
गुलों से बोतलों में जा रहा हूं

शरारत का नया अंदाज़ होगा,
मैं शायद बेवजह घबरा रहा हूं

किसे परवाह है अब मंज़िलों की,
मोहब्बत के सफ़र पर जा रहा हूं

दिलों की नाज़ुकी समझे हैं कब वो,
दिमागों को मगर समझा रहा हूं

शब-ए-फ़ुरकत की बेबस हिचकियों से,
तसल्ली है कि मैं याद आ रहा हूं

मोहब्बत थी कहां हिस्से में "रंजन",
गज़ल से यूं ही दिल बहला रहा हूं


वाह ! क्या बात है, रंजन जी.

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
दुष्यन्त के इन अशआर के बाद मैं दीपक गुप्ता जी को मंच पर आमंत्रित करता हूँ:
दीपक गुप्ता :








दुनिया ने इतना भरमाया
जीवन क्या है समझ न पाया

मैंने दुःख का , दुःख ने मेरा
कैसे - कैसे साथ निभाया

हद है मुझसे मेरा तारुफ़
पूछ रहा है मेरा साया

मेरी हालत यूँ है जैसे
लौट के बुद्धू घर को आया

जाने क्यों ये आँखें बरसीं
बादल ने जब जल बरसाया .

दीपक जी, कलाम के लिए शुक्रिया।


अगर यों ही ये दिल सताता रहेगा
तो इक दिन मेरा जी ही जाता रहेगा


मैं जाता हूँ दिल को तेरे पास छोड़े
मेरी याद तुझको दिलाता रहेगा
वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है , कुछ साल पहले मै द्विज जी को पोस्ट कार्ड पर ग़ज़लें लिखकर भेजता था अब मेल करता हूँ । आजकल लोग गूगल मे खोजते हैं कि गज़ल कैसे लिखें और अगले दिन ग़ज़ल लिख कर ब्लाग पर लग जाती है और उस पर कुछ लोग जिन्हें ग़ज़ल की रत्ती भर भी जानकारी नहीं वो आ जाते हैं टिप्पणी करने और कुछ लोग जो हर सुबह यही करते हैं ब्लागबाणी से ब्लाग भम्रण. "बहुत अच्छा. बहुत खूब..उम्दा..क्या ग़ज़ल है !" वो हर ब्लाग पर टिप्पणी छोड़ेंगे और दूसरों को कहेंगे आप भी आइए. लोग ब्लाग की टी.आर.पी बढ़ा रहे हैं.और कई नौसिखिए अच्छी-अच्छी वेब-साइटों पर मिल जाते हैं.एक अपनी छोटी सी ग़ज़ल सांझा करना चाहता हूँ.
करे अब तबसिरा कु्छ भी कि हमने दिल की कह दी है
किसे परवाह दुनिया कि ये दुनिया कुछ भी कहती है.
मेरी ग़ज़लें नही मोहताज़ तेरे फ़ैसलों की सुन
कि इनका ठाठ है अपना रवानी इनकी अपनी है
और अब मैं अब अपने एक बहुत ही पुराने मित्र को स्टेज पर बुलाता हूँ कि वो आकर ग़ज़ल कहें. विजय धीमान:










एक जीवन क्या हताशा देखिए
मौजे-दरिया भी ज़रा सा देखिए.

नट तमाशी है यहाँ पर सच मगर
झूठ किस्से हैं तमाशा देखिए.

थाप इक बस जिंदगी के साज़ पर
क्यों नही होता खुलासा देखिए.

खुद का ही प्रतिबिंब आएगा नज़र
दीन को देकेर दिलासा देखिए.

बीज मिटटी से मिले तो पेड़ हो
और ऊँचा सर झुका सा देखिए.

वाह ! क्या बात है...
पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है.
तो हाज़रीन ये शे'र कहा है “द्विज” जी ने और मैं उनसे गुजा़रिश करता हूँ कि वो अपना कलाम पेश करें और दो-शब्द कहें.
आइए सर !

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ :









ये मेरी बहुत पुरानी ,कालेज के दिनों कि ग़ज़ल है और सतपाल की ज़िद पर मैं यही प्रस्तुत कर रहा हूँ :

पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है

‘जयद्रथ’ हो या ‘दुर्योधन’हो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठाते ‘अर्जुन’ भी घबराता है

जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है

दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है

प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती -गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है

सब कुछ जाने ‘ब्रह्मा’ किस मुँह पीछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताँडव-सा डमरू कौन बजाता है

‘द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है।

अब मैं इस मुशायरे को आपके सामने लाने वाले सतपाल “ख्याल” को मंच पर बुलाता हूँ कि वो अपनी ग़ज़ल कहें और इस बेहतरीन मुशायरे के लिए सतपाल को बधाई देता हूँ.



बहुत ही उम्दा ग़ज़ल जो पिछले १५ सालों से दिल मे बसी है.शायरी का ये हुनर उस्ताद के बिना अधूरा है. और मै खुशनसीब हूँ कि द्विज जी जैसे गुरू मुझे मिले.द्विज जी का बहुत शुक्रिया, ये सब उनकी ही मेहनत है कि ये मुशायरा पुरा हुआ.
















ग़ज़ल

चलूँ ताजा़ ख्यालों से मै इस महिफ़िल को महकाऊँ
है मौसम कोंपलों का क्यों कहानी जदॅ दुहराऊँ.

कसे हैं साज के ए दिल ! जो मैने तार हिम्मत से
मुझे तुम रोक लेना गर पुराना गीत मैं गाऊँ.

मेरे दिल को न कर तकसीम इन आंखों को हिम्मत दे
खुदा मैं फ़िर किसी गुल की मुह्व्बत मे न मर जाऊँ.

जलाकर हाथ भी अपने मुझे कुछ गम नहीं यारो
मै लेकर लौ मुहव्ब्त की अब आंगन तक तो आ जाऊँ.

ख्याल अपने ख्यालों की करो अब शम्मा तुम रौशन
उधर से वो चले आएं, इधर से मैं चला आऊं,










पग-पग पे 'तम' को हरती हों दीप-श्रृंखलाएँ
जीवन हो एक उत्सव, पूरी हों कामनाएँ

आँगन में अल्पना की चित्रावली मुबारिक
फूलों की, फुलझड़ी की, शब्दावली मुबारिक

'तम' पर विजय की सुन्दर दृश्यावली मुबारिक
दीपावली मुबारिक, दीपावली मुबारिक

-द्विजेन्द्र द्विज







मुशायरे मे आए सब शायरों का शुक्रिया और सबको दीपोत्सव की शुभकामनायें.


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Udan Tashtari said...
वाह साहब वाह, एक से एक उम्दा गजलें एवं एक से एक महारथी..आनन्द आ गया दिवाली का. बहुत जानदार और शानदार मुशायरा.

दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

October 28, 2008 5:10 AM


युग-विमर्श said...
इस मंच के माध्यम से निश्चित रूप से कुछ अच्छे शेर पढ़ने को मिले.

October 28, 2008 11:02 AM


रंजन गोरखपुरी said...
मुशायरे में शिरकत बेहद लाजवाब रही!
आपका और द्विज साहब का दिल से आभार!!

October 28, 2008 10:42 PM


Devmani said... दीपपर्व के शुभ अवसर पर इतने अच्छे मुशायरे के आयोजन के लिए लिए बधाई इस ख़ूबसूरत सिलसिले को आगे भी जारी रखें इसके ज़रिए पूरी दुनिया में लिखी जा रही शायरी के रंग और मिजाज़ से परिचय कराना बहुत सराहनीय कार्य है

देवमणि पाण्डेय, मुम्बई

October 29, 2008 2:53 AM


Pran Sharma said...
Mushayre ke behtreen aayojan ke
liye aapko badhaaee.Kaee naye
gazalkaron ke parichay ke saath-
saath unkee gazlen achchhee lagee.

October 30, 2008 5:17 AM


नीरज गोस्वामी said...
सतपाल जी
मुझे जिंदगी में इतनी खुशी कभी नसीब नहीं हुई...आपने मुझ जैसे एक अदना से ग़ज़लगो को इतने बड़े बड़े उस्तादों के बीच खड़ा कर जो इज्जत बक्शी है उसे ज़िन्दगी भर भुला पाना नामुमकिन है...समझ नहीं आ रहा की आप का शुक्रिया कैसे अदा करूँ...हर उस्ताद का कलाम कमाल का है, मैं इस लायक नहीं की उनपर कुछ कह सकूँ...एक बार फ़िर तहे दिल से शुक्रिया.
नीरज

October 31, 2008 7:19 AM


महावीर said...
कुछ दिनों से निजी कारणों से नेट से दूर रहना पड़ा। आज की ग़ज़ल पर मुशायरा देख कर आनंद आगया। एक बहुत ही सुंदर और सफल आयोजन के लिए ढेर सारी बधाईयां स्वीकारें। मैं आपका शुक्रगुज़ार हूं कि प्रतिष्ठावान शायरों के साथ मेरी रचना सम्मलित की गई जो मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है। एक बार फिर आयोजकों का आभार व्यक्त करता हूं।
महावीर शर्मा
महावीर शर्मा

October 31, 2008 11:14 AM


सतपाल said...
Here is ghazal by Ahmad ali :

मुशायरा – आज की ग़ज़ल.ब्लागस्पाट.काम

डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी



है तर्जुमाने अहदे रवाँ आज की ग़ज़ल

है बेनेयाज़े सूदो ज़ेयाँ आज की ग़ज़ल



है यह ब्लाग और ब्लागोँ से मुख़तलिफ

सत्पाल का है अज़मे जवाँ आज की ग़ज़ल



बरपा किया है उसने यहाँ जो मुशायरा

उस से अयाँ है अब है कहाँ आज की ग़ज़ल



महफ़िल मेँ उसकी जो भी हैँ शायर ग़ज़ल सरा

अज़मत का उनकी है यह निशाँ आज की ग़ज़ल



सरवर,प्राण शर्मा, महावीर और द्विज

सबका अलग है तर्ज़े बयाँ आज की ग़ज़ल



नीरज,पवन, ज़हीर क़ुरैशी, अमित, धिमान

है सबके फिकरो फन का निशाँ आज की ग़ज़ल



हैँ चाँद शुक्ला,देवमणि और तूर भी

बज़मे सुख़न की रूहे रवाँ आज की ग़ज़ल



अहमद अली भी साथ है सबके ग़ज़ल सरा

है फिकरो फन की जुए रवाँ आज की ग़ज़ल

October 31, 2008 9:23 PM


Dr. Sudha Om Dhingra said...
मुशायरे का आन्नद आ गया. इस मंच से इतनी उम्दा ग़ज़लें मिलीं---भारत के मुशायरों की याद आ गई. ऐसे मुशायरे करते रहिये.
उत्तम शायरी हम तक पहुँचती रहे--यही कामना है...धन्यवाद!
सुधा ओम ढींगरा

November 3, 2008 3:35 PM
गौतम राजरिशी said...
क्या बात है सतपाल जी...इस शानदार प्रस्तुती के लिये...सारे के सारे नगीने एक साथ.ये तो अभी कई-कई दिन तक पढते रहना पड़ेगा.एक साथ महीनों की खुराक....शुक्रिया आपका

---और पिछले पोस्ट में जब आपने मुशायरे की घोषणा की थी मैं अपनी नादानी में गुस्ताखी कर पूछ बैठा था खुद के शिरकत करने को.हाः--इन दिग्गजों के समकक्ष तो मैं मंच के करिब आने के भी काबिल नहीं...

इनमें से कुछ गज़ल अगर मैं अपने मेल पर मंगाना चाहूं,तो कोई उपाय है क्या?

November 5, 2008 7:45 PM


Devi Nangrani said...
satpal ji
mubarak ho aapko is safal prayaas ke liye. Desh videsh ke beech ka setu bani hai shayari.
गजलः ९१
लगती है मन को अच्छी, शाइर गज़ल तुम्हारी
आवाज़ है ये दिल की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
ये नैन-होंट चुप है, फिर भी सुनी है हमने
उन्वां थी गुफ्तगू की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
ये रात का अँधेरा, तन्हाइयों का आलम
ऐसे में सिर्फ साथी, शाइर गज़ल तुम्हारी.
नाचे हैं राधा मोहन, नाचे है सारा गोकुल
मोहक ये कितनी लगती, शाइर गज़ल तुम्हारी.
है ताल दादरा ये, और राग भैरवी है
सँगीत ने सजाई, शाइर गज़ल तुम्हारी.
मन की ये भावनायें, शब्दों में हैं पिरोई
है ये बड़ी रसीली, शाइर गज़ल तुम्हारी.
अहसास की रवानी, हर एक लफ्ज़ में है
है शान शाइरी की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
अनजान कोई रिश्ता, दिल में पनप रहा है
धड़कन ये है उसीकी, शाइर गज़ल तुम्हारी.
दो अक्षरों का पाया जो ग्यान तुमने ‘देवी’
उससे निखर के आई, शायर गजल तुम्हारी.
DEvi nangrani

November 9, 2008 10:50 PM