ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस साल की अंतिम पोस्ट आपकी नज़्र है। वसीम बरेलवी की एक ग़ज़ल आज पहली बार "आज की ग़ज़ल" पर छाया कर रहा हूँ, ग़ज़ल से पहले दो शे’र वसीम बरेलवी के-
न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है
अब ये ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंटों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
निदा फ़ाज़ली की इस दुआ के साथ-
"चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला"
इस साल को विदा कहते हैं और आने वाले साल का स्वागत करते हैं । जगजीत की मख़मली आवाज़ में इसे सुनिए-
11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है. इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं - आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-
एक
मैं मंज़र हूँ *पस मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत आख़िर मेरी पेशानी पे सूरज चमका बहुत
जाने कौन से *इस्मे-अना के हम *ज़िन्दानी थे तेरे नाम को लेकर हमने ख़ुद को चाहा बहुत
उनसे क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत
कैसी *मसाफ़त सामने थी और सफ़र था कैसा लहू मैंने उसको उसने मुझको मुड़ के देखा बहुत
है दरिया के *लम्स पे नाज़ाँ इक काग़ज़ की नाव सूरज से बातें करता है एक दरीचा बहुत
सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका शायद 'तूर' मेरे अन्दर इक शख़्स था ज़िन्दा बहुत
(6फ़ेलुन+1फ़े) पस मंज़र=पृष्ठभूमि,*इस्मे-अना -अहम का नाम,ज़िन्दानी -कै़दी,मसाफ़त-सफ़र की दूरी,लम्स-स्पर्श
दो
अब सामने लाएँ आईना क्या हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या
ये दिल है इसे तो टूटना था दुनिया से बचाएँ आईना क्या
इस में जो अक्स है ख़बर है अब देखें दिखाएँ आईना क्या
क्या *दहर को *इज़ने-आगही दें पत्थर को दिखाएँ आईना क्या
उस *रश्क़े-क़मर से वस्ल रक्खें पहलू में सुलाएँ आईना क्या
हम भी तो मिसाले-आईना हैं अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या
रश्क़े-क़मर - चाँद से हसीन,*दहर -दुनिया,इज़्न-इजाज़त,आगही-जानकारी
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल मफ़ऊलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन 222 212 122 या 2211 212 122 तीन
तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की मिसाले-ताज़ा रही वो दिले-हज़ारी की
था कुछ ज़माने का बर्ताव भी *सितम आमेज़ थी लौ भी तेज़ कुछ अपनी अना-ख़ुमारी की
ये किसके नाम का अब गूँजता है अनहदनाद ये कौन जिसने मेरे दिल पे मीनाकारी की
कभी-कभी ही हुई मेरी फ़स्ले-जाँ सर सब्ज़ कभी कभी ही मेरे इश्क़ ने पुकारी की
अगर वो सामने आए तो उससे पूछूँ मैं ये किस की फ़र्दे-अमल मेरे नाम जारी की
सदा-ए-दर्द पड़ी भी तो बहरे कानों में हमारे दिल ने अगर्चे बहुत पुकारी की
जो हम ज़माने में बरबाद हो गए हैं तो क्या सज़ा तो मिलनी थी आख़िर ख़ुद अख़्तियारी की
जिसे न पासे महब्बत न दोस्ती का लिहाज़ ये ‘तूर’ तुमने भी किस बेवफ़ा से यारी की
*सितम आमेज़- जुल्म से भरा हुआ,अना-ख़ुमारी -अहम का नशा, अश्कबारी-आँसुओं की बरसात
इस बार कुछ देरी से ये पोस्ट लगा रहा हूँ लेकिन अब कोशिश करूँगा कि आपको अच्छी ग़ज़लें पढ़वाता रहूँ। इस बार 1973 में जन्में संजीव गौतम की दो ग़ज़लें हाज़िर कर रहा हूँ। इन्होंने हिंदी मे एम.ए. की है और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपते रहते हैं। आशा है कि आपको ग़ज़लें पसंद आयेंगी।
ग़ज़ल
कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की परिंदों का यक़ीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में
अजब हैं माअनी इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में
नज़र-अंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में
(बहरे-हज़ज सालिम) मुफ़ाईलुनx4
ग़ज़ल
बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो
हमने दुनिया से दोस्ती कर ली हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो
उफ़! ये कितना डरावना मंज़र बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो
खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते रह गयी हैं कहानियाँ अब तो
सिर्फ़् अपने दुखों को जाने हैं ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो
सबकी आँखों में सिर्फ़ ग़ुस्सा है और हाथों में तख़्तियाँ अब तो
ख़ुद अपनी राह चलते हैं, ख़ुद अपनी मान लेते हैं हम अहले-दिल किसी का कब भला अहसान लेते हैं
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला , हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं
मुख़ालिफ़ वक़्त भी उन पर बहुत आसां गुज़रता है ख़ुदा के हुक्म को जो ख़ुशदिली से मान लेते हैं
उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
असर रहता है क़ायम मुस्तक़िल तहरीर में उनकी सुख़नसाज़ी में फ़िक्र-ओ-फ़न का जो मीज़ान लेते हैं
बदल ले लाख अब 'मुफ़लिस' तू रंगत अपने चेहरे की तेरे तर्ज़े-बयाँ से सब तुझे पहचान लेते हैं
अहले-दिल=दिल वासी ,मुख़ालिफ़=विरोधी,मुस्तक़िल=हमेशा, स्थायी, तहरीर=लिखावट ,सुख़नसाज़ी=लेखन प्रक्रिया फिक्रो फ़न=चिंतन और कला,मीज़ान=तराज़ू ,तर्ज़-ए-बयाँ=कथन शैली
छोटी सी सूचना - दोस्तो ! एक छोटी सी सूचना है , मेरी आवाज़ में मेरी कुछ ग़ज़लें और शे’र रिकार्ड हुए हैं और इसे आप urdu-anjuman पर सुन सकते हैं। समय मिले तो ६ मिंन्ट ज़रूर सुनियेगा ये रहा लिंक- http://www.bazm.urduanjuman.com/index.php?topic=4279.0
उर्दू अदब को जाने बिना ग़ज़ल कहना बैसा ही है जैसे कबीर को पढ़े बिना दोहा लिखना।गा़लिब से परिचित हुए बगैर कोई ग़ज़ल नहीं कह सकता है। खै़र,आज हम ग़ज़लें पेश कर रहे हैं,1934 में हरियाणा में जन्में बलवीर राठी की, जिनके अब तक ३ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।बज़ुर्ग शायर हैं और बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और हरियाणा साहित्य अकादमी से सम्मान हासिल कर चुके हैं।
एक
गो पुरानी हो चुकी अब होश में आने की बात लोग फिर भी कर रहे हैं मुझको समझाने की बात
रफ़्ता-रफ़्ता ढल गई है सैंकड़ों नग़मात में ए दिले-मासूम तेरे एक अफ़साने कि बात
अपना-अपना ग़म लिए फिरते हैं इस दुनिया में लोग कौन समझेगा यहाँ अब तेरे दीवाने की बात
ज़िंदगी उलझी हुई है और ही जंजाल में अब कहां वो साग़रो-मीना की, मयखाने की बात
अजनबी माहौल में अपने तो लब खुलते नहीं तुम ही छेड़ो आज इस रंगीन अफ़साने की बात
(रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल)
दो
तेज़ लपटों में ढल गया हूँ मैं कोई सूरज निगल गया हूँ मैं
कितने राहत-फ़िज़ा थे अंगारे बर्फ लगते ही जल गया हूँ मैं
तुमने बांधा था जिन हदों मे मुझे उन हदों से निकल गया हूँ मैं
हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं
मत बुलंदी की बात कर "राठी" अब वहां से फिसल गया हूँ मैं
(बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल) फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन 2122 1212 22
तीन
हमें साथ मिल तो गया था किसी का मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का
कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का
वफ़ा एक मुद्दत हुई मिट चुकी है कहाँ नाम लेते हो अब दोस्ती का
अगर साथ होते वो इन रास्तों पर तो क्या हाल होता मेरी आगही का
मेरे हाल पर मुस्करा कर गए हैं चलो हक़ अदा हो गया दोस्ती का
बहरे-मुतका़रिब मसम्मन सालिम (चार फ़ऊलुन )122x4
शायर का पता- 3836 अरबन इस्टेट जींद- हरियाणा फोन-01681-247351
1957 में जन्में गिरीश पंकज की अब तक 28 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और एक ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही प्रकाशित हो रहा है।आप दिल्ली साहित्य अकादमी के सदस्य हैं और सद्भावना दर्पण नामक पत्रिका के संपादक भी हैं। "आज की ग़ज़ल" पर पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-
एक
मै अँधेरे में उजाला देखता हूँ भूख में रोटी-निवाला देखता हूँ
आदमी के दर्द की जो दे खबर भी है कहीं क्या वो रिसाला देखता हूँ
हो गए आजाद तो फिर किसलिए मैं आदमी के लब पे ताला देखता हूँ
हूँ बहुत प्यासा मगर मैं क्या करूं अब तृप्त हाथों में ही प्याला देखता हूँ
कोई तो मिल जाए बन्दा नेकदिल सा ढूंढता मस्जिद, शिवाला देखता हूँ
दो
तुम मिले तो दर्द भी जाता रहा देर तक फ़िर दिल मेरा गाता रहा
देख कर तुमको लगा हरदम मुझे जन्मों-जन्मो का कोई नाता रहा
दूर मुझसे हो गया तो क्या हुआ दिल में उसको हर घड़ी पाता रहा
अब उसे जा कर मिली मंजिल कहीं जो सदा ही ठोकरे खाता रहा
मुफलिसी के दिन फिरेंगे एक दिन मै था पागल ख़ुद को समझाता रहा
ज़िन्दगी है ये किराये का मकां इक गया तो दूसरा आता रहा
तीन
आपकी शुभकामनाएँ साथ हैं क्या हुआ गर कुछ बलाएँ साथ हैं
हारने का अर्थ यह भी जानिए जीत की संभावनाएं साथ हैं
इस अँधेरे को फतह कर लेंगे हम रौशनी की कुछ कथाएँ साथ हैं
मर ही जाता मैं शहर में बच गया गाँव की शीतल हवाएं साथ हैं
ये सफ़र अंतिम हैं खाली हाथ लोग पर हजारों वासनाएँ साथ हैं
(बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्लों मे कही गई ग़ज़लें)
शायर का पता- संपादक, " सद्भावना दर्पण" जी-३१, नया पंचशील नगर, रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१ मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०
1975 में जन्में जतिन्दर "परवाज़" की तीन ग़ज़लें हम पेश कर रहे हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" भाग-२ में इनकी ग़ज़लें शामिल हैं । युवा शायर हैं और बहुत अच्छे शे’र कहते हैं। आल इंडिया मुशायरों में शिरकत कर चुके हैं। इनसे अदब को बहुत उम्मीदें हैं। इनका ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही आ रहा है।
एक
शजर पर एक ही पत्ता बचा है हवा की आँख में चुभने लगा है
नदी दम तोड़ बैठी तिशनगी से समंदर बारिशों में भीगता है
कभी जुगनू कभी तितली के पीछे मेरा बचपन अभी तक भागता है
सभी के खून में गैरत नही पर लहू सब की रगों में दोड़ता है
जवानी क्या मेरे बेटे पे आई मेरी आँखों में आँखे डालता है
चलो हम भी किनारे बैठ जायें ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन 1222 1222 122.
दो
ख़्वाब देखें थे घर में क्या क्या कुछ मुश्किलें हैं सफ़र में क्या क्या कुछ
फूल से जिस्म चाँद से चेहरे तैरता है नज़र में क्या क्या कुछ
तेरी यादें भी अहले-दुनिया भी हम ने रक्खा है सर में क्या क्या कुछ
ढूढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता था हमारे भी घर में क्या क्या कुछ
शाम तक तो नगर सलामत था हो गया रात भर में क्या क्या कुछ
हम से पूछो न जिंदगी 'परवाज़' थी हमारी नज़र में क्या क्या कुछ
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन 2122 1212 22
तीन
यार पुराने छूट गए तो छूट गए कांच के बर्तन टूट गए तो टूट गए
सोच समझ कर होंट हिलाने पड़ते हैं तीर कमाँ से छूट गए तो छूट गए
शहज़ादे के खेल खिलोने थोड़ी थे मेरे सपने टूट गए तो टूट गए
इस बस्ती में कौन किसी का दुख रोये भाग किसी के फूट गए तू फूट गए
छोड़ो रोना धोना रिश्ते नातों पर कच्चे धागे टूट गए तो टूट गए
अब के बिछड़े तो मर जाएंगे 'परवाज़' हाथ अगर अब छूट गए तो छूट गए
जैसे दिवाली चराग़ों के बिना अधूरी लगती है वैसे ही शायरी भी चरागों के बिना अधूरी है। ऐसा शायद ही कोई शायर हो जिसने चराग़ पर दो-चार शे’र न कहें हों। दिवाली का मौक़ा है , तो सोचा क्यों न चरागों को एक जगह तरतीब से जलाया जाए। शायर जो चराग़ जलाता है वो चराग़ कहीं तो अँधेरा चूसते हैं, कहीं आँधियों से टक्कर लेते हैं, कहीं दमागों को रौशन करते हैं और कहीं तनहाइयों के साथी हैं। आजकल शायर शम्मा कम जलाते हैं लेकिन चराग़ हर जगह रौशन करते हैं। दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ मुलाहिज़ा फ़रमांए चरागों पर कहे ये खूबसूरत अशआर-
दिल है गोया चराग किसी मुफलिस का शाम ही से बुझा सा रहता है..मीर
बू-ए-गुल, नालह-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-मह्फ़िल जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशां निकला..गा़लिब
यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़ तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़..फ़िराक़
ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है..बशीर बद्र
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए कहाँ चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए.. दुश्यंत
दिल में दिए जला के अंधेरे में जीना सीख बुझते हुए चिराग़ का मातम फ़ुज़ूल है..कौसर सद्दीकी
मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या ये चिराग़ कोई चिराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ..बशीर बद्र
हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना. रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन.. अहमद फ़राज़
आज की शब ज़रा ख़ामोश रहें सारे चराग़ आज महफिल में कोई शम्अ फ़रोजां होगी..नुसरत मेंहदी
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है..वसीम बरेलवी
ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी कोई चिराग़ नहीं और रोशनी है बहुत..किर्श्न बिहारी नूर
जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.. वसीम बरेलवी
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद, कोई तारा जो चिराग़ बुझ गए हैं तेरी अंजुमन में जल के
मेरे मन की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली अभी तो झलकता है राम का बनवास आँखों में..साग़र पालमपुरी
यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ..महताब हैदर नक़बी
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो ..अहमद फ़राज़
हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़ अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है..जां निसार अख़तर
आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम, कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं
चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे
अजब चराग हूँ दिन रात जलता रहता हूँ मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे
मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे, तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे,.
तूने जलाईं बस्तियाँ ले-ले के मशअलें अपना चराग़ अपने ही हाथों बुझा के देख.. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'
रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिए जिया..चिराग जैन
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़ जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर..जां निसार अख़तर
अंधेरे जश्न मनाने की भूल करते हैं चिराग़ अब भी हवाओं पे वार करता है..इसहाक़ असर इन्दौरी
जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को, सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं .. कैफ़ी आज़मी
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़ लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़
कहाँ से ढूँढ के लाऊं चराग़ से वो बदन तरस गई हैं निगाहें कंवल-कंवल के लिए
चिराग़ हो कि ना हो, दिल जला के रखते हैं हम आंधियों में भी तेवर बला के रखते हैं मिला..हसती
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ ...इकबाल
इस एक ज़ौम में जलते हैं ताबदार चराग़ हवा के होश उड़ाएँगे बार - बार चराग़...बुनियाद हुसैन ज़हीन
उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग हैं हमें तेरे ख्याल में मिली फकत चुभन चुभन ..मरयम गजाला
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ
हवाओं को थाम लो ये फुर्क़त की शाम है आहिस्ता साँस लो कि अब बुझता चराग है
चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे
चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
हरेक मठ में जला फिर दिया दिवाली का, हरेक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का अजब बहार का है दिन बना दिवाली का..नज़ीर
तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों मे चराग जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए
उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते ..द्विजेंद्र द्विज
आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह..सतपाल ख़याल
अब एक शे’र बहुत ही अज़ीम शायर का ,मोहतरम खुमार बाराबंकवी जिनका अंदाज़ ही निराला था।
आँखों के चराग़ों मे उजाले न रहेंगे आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे
और इस सुहावनी शाम को खुमार साहब की ग़ज़ल सुनिए जिसे गाया है मेरे मनपसंद गायक हंस राज हंस ने जिसकी आवाज़ दरगाहों में जलते चरागों सी रौशन है -
आज की ग़ज़ल से जुड़े तमाम शायरों और पाठकों को दीवाली की ढेर सारी शुभकामनाएं!!