बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
15 फ़ेलुऩ
22 22 22 22 22 22 22 2
इसका एक उदाहरण-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
अब किस एक गुरू(फ़ेलुन) के स्थान पर दो लघु(फ़’इ’लुन) आने हैं इसके भी नियम हैं जिनका सख़्ताई से पालन नहीं होता । अमूमन पहले और अंतिम गुरू(फ़ेलुन) को छोड़कर बीच का कोई गुरू दो लघुओं से रिपलेस कर लिया जाता है जैसे कि इस उदाहरण मे-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
S SS S S । ।S SS SS S S। । S
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
S | | S S S S S S S| | S S S| | S
पहले मिसरे में छटे स्थान पर १४ वें स्थान पर, दूसरे में दूसरे, दसवें और १४ वें स्थान का गुरू दो लघुओं से रिपलेस हुआ। ( हिंदी मे स्थानों की गिनती और होगी)सो ये दूसरी ग़ज़लों में कुछ और हो सकता है । अमूमन पहले और अंतिम स्थान पर गुरू का प्रयोग होता है। अब बात करते हैं मात्रिक छंद की -
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
S SS S S । ।S SS SS S S। । S = 30 मात्राएँ
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
S | | S S S S S S S| | S S S| | S = 30 मात्राएँ
कुछ शायर बहर(फ़ेलुन) की इस तरकीब को नहीं निभाते बस मात्रा गिनकर ग़ज़ल का हिंदीकरण कर देते हैं और इसे मात्रिक छंद बता देते हैं। मैनें इसी विषय पर आर.पी शर्मा जी से भी बात की । मैनें उनसे ये पूछा कि छंद या बहर लय के लिए ही बने हैं । आपको इन दो प्रकारों में "मात्रिक और बहर अनुरूप" किस रूप में लगता है कि लय बेहतर है तो उन्होंने कहा कि बहर में तो लय शत-प्रतिशत सुनिश्चित ही है लेकिन अगर ग़ज़ल मात्रिक है तो भी सही है। मुझे मेरा जवाब मिल गया और आइए अब एक काम करते हैं-
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
इस मिसरे में थोड़ा सा हेर-फ़ेर करते हैं फ़िर देखते हैं कि लय पर क्या असर पड़ता है-
इस मिसरे को यूँ कर देते हैं-
ज़रा एक ये दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
अब पूरा शे’र इसी रूप में-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
ज़रा एक ये दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
और अब इसे पढ़िए-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
फ़र्क़ आपके सामने है। मात्राएँ दोनों तरह ३० ही हैं लेकिन लय बिगड़ गई। क्योंकि बहर के अनुरूप पहला शे’र नहीं है। क़तील साहब ने इस मीटर में कई ग़ज़लें कहीं और इसे अमूमन हिंदी मीटर या मीर का मीटर भी कह लेते हैं। इस मीटर में जो लय है वो दूसरी बहरों में नहीं, बहुत आनंद आता है इस मीटर में लिखी ग़ज़लों को पढ़कर । जब मात्रिक छंदों के लिहाज़ से बात करते हैं तो मुफ़ाईलुन(1222)और फ़ाइलातुन (2122) में कोई फ़र्क नहीं मिलता दोनों की मात्राओं की गिनती एक जैसी है और बहर के लिहाज़ से ज़मीन आसमान का फ़र्क़ पड़ जाता है। अगर हम छंद के हिसाब से भी लिखें तो उस छंद के कायदे-क़ानून का तो पालन करें और कम से कम मात्रिक छंदों में मात्रा तो न गिराएँ। अगर मात्रिक छंद मे मात्रा को ही गिरा दिया तो फिर क्या फ़ायदा। जिस छंद में लिख रहे हैं उसका पालन तो कर लें।
उदाहरण के लिए-
बहरे-मुतकारिब
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
हिंदी में में इससे मिलता-जुलता भुजंगपयात के वर्ण वृत प्रति चरण चार रगण(।SS) और मात्रिक के हिसाब से प्रति चरण बीस मात्राएँ और मात्रिक रूप में भी ये शर्त है कि पहली, छठी,ग्यारवीं और सोलवीं मात्रा लघु हो। अब कम से कम इस शर्त को तो हम मान लें और अगर हम वर्ण व्रुतों में लिखें फिर तो झगड़ा ही ख़त्म हो जाता है। आखिर ये बहर-विज्ञान भी तो संस्कृत से ही निकला है। थोड़ी सी मेहनत तो लाज़िमी है ही। सारी बहरें हर शायर के अवचेतन मन में होती हैं ,जब थोड़ा ज्ञान हो जाता है तो पता चल जाता है कि ये मिसरा जो मैं गुनगुना रहा था ये तो फ़लां बहर में है।
और द्विज जी ने एक बार समझाया था कि बहर तो खाल या साँचे की की तरह होती है और शब्द उसमें ठूसा जाने वाला भूसा मात्र है, शब्द टूट सकते हैं( कबीरा , कबिरा हो सकता है) लेकिन लय/बहर नहीं। बहर सही में आत्मा है और शब्द शरीर।इस लिंक को ज़रूर पढ़े बहुत महत्वपूर्ण लिंक है-
http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/ghazal/ghazal10.htm
ये मेरा निजी विचार है कि अगर हम बहरों को ज्यूँ का त्यूँ स्वीकार कर लें और उर्दू के तय नियमों को मानकर देवनागरी में लिखें तो ज़्यादा अच्छा है जो कई शायर कर भी रहे हैं और जिस भाषा का दामन जितना बड़ा होता है वो उतनी अमीर होती है। ये बहर-विज्ञान स्वीकार कर लेने में किसी के अहम को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। एक भाषा दूसरी भाषा से सीखती है और अमीर होती है। और मैं तो ये मानता हूँ कि हिंदी और उर्दू भारत की भाषाएँ हैं और रहेंगी।
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
यही हमारी तहजीब है जो आज भी हम सब को बांधे हुए है।
हाँ बात तो क़तील साहब से शुरू हुई थी । क़तील साहब का जन्म पाकिस्तान में १९१९ में हुआ और उनके गीत ग़ज़ल बड़े-बड़े गायकों ने गाए और फ़िल्मों में भी उन्होंने कई गीत लिखे। जगजीत- चित्रा नें भी कई ग़ज़लें गाईं। २००१ में वो चल बसे । उन्होंने हिंदी मीटर में कई गज़लें कहीं। उनमें से दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा
पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा
लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है
पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जायेगा
दिन में हँसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं
एक भयानक सपना मुझको सारी रात डरायेगा
मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको सर मेरा झुक जायेगा
सूख गई जब इन आँखों में प्यार की नीली झील "क़तील"
तेरे दर्द का ज़र्द समन्दर काहे शोर मचायेगा
दो
हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रस्ते सँवलाये थे
जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते नैन उस के भर आये थे
उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे
कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे
कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे
रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे
जाते-जाते मुन्नी बेगम की आवाज़ में क़तील शिफ़ाई साहब की ये ग़ज़ल ज़रूर सुनें-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं