Monday, June 8, 2009

दिल अगर फूल सा नहीं होता- तीसरी किश्त









मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.अंतिम किश्त अभी बाकी है.


ग़ज़ल: एम.बी. शर्मा ‘मधुर’

गर मुक़द्दर लिखा नहीं होता
कोई रुस्तम छुपा नहीं होता

कौन जाने कि आए कब कैसे
मौत का कुछ पता नहीं होता

कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता

बुत-परस्ती तो क़ुफ़्र हो शायद
बुतशिकन भी ख़ुदा नहीं होता

हाल मेरा न पूछते आकर
ज़ख़्म फिर से हरा नहीं होता

जानते हैं शराब दोज़ख़ है
नश्अ हर आप-सा नहीं होता

वक़्त नाज़ुक़ वही जहाँ कोई
बीच का रास्ता नहीं होता



ग़ज़ल : पुर्णिमा वर्मन

काश सूरज ढला नहीं होता
दिन मेरा अनमना नहीं होता

धूप में मुस्कुरा नहीं पाते
दिल अगर फूल सा नहीं होता

मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता

राह खुद ही निकल के आती है
जब कोई रास्ता नहीं होता

ज़िंदगी का सफ़र न कट पाता
वो अगर हमनवा नहीं होता



ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस की ग़ज़ल

ग़म में गर मुब्तिला नहीं होता
मुझको मेरा पता नहीं होता

जो सनम-आशना नहीं होता
उसको हासिल खुदा नहीं होता

दर्द का सिलसिला नहीं होता
तू अगर बेवफा नहीं होता

वक़्त करता है फैसले सारे
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

मैं अगर हूँ तो कुछ अलग क्या है
मैं न होता,तो क्या नहीं होता

दूसरों का बुरा जो करता है
उसका अपना भला नहीं होता

जब तलक आग में न तप जाये
देख , सोना खरा नहीं होता

क्यूं भला लोग डूबते इसमें
इश्क़ में गर नशा नहीं होता

हाँ ! जुदा हो गया है वो मुझसे
क्या कोई हादिसा नहीं होता ?

सीख लेता जो तौर दुनिया के
कोई मुझसे खफा नहीं होता

ये ज़मीं आसमान हो जाये
ठान ही लो तो क्या नहीं होता

जो न गुज़रा तुम्हारी सोहबत में
पल वही खुश-नुमा नहीं होता

कैसे निभती खिजां के मौसम से
दिल अगर फूल-सा नहीं होता

जिंदगी क्या है, चंद समझौते
क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता

हौसला-मंद कब के जीत चुके
काश!मैं भी डरा नहीं होता

बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता

डोर टूटेगी किस घड़ी 'मुफलिस'
कुछ किसी को पता नहीं होता



ग़ज़ल: चन्द्रभान भारद्वाज

प्यार में यूँ दिया नहीं होता;
दिल अगर फूल सा नहीं होता

प्यार की लौ सदा जली रहती
इसका दीया बुझा नहीं होता

एक सौदा है सिर्फ घाटे का
प्यार में कुछ नफा नहीं होता

रात करवट लिये गुजरती है,
दिन का कुछ सिलसिला नहीं होता

ज़िन्दगी भागती ही फिरती है
प्यार का घर बसा नहीं होता

लोग सदियों की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता

पहले हर बात का भरोसा था
अब किसी बात का नहीं होता

प्यार का हर धड़ा बराबर है
कोई छोटा बड़ा नहीं होता

पूरी लगती न 'भारद्वाज' गज़ल
प्यार जब तक रमा नहीं होता



ग़ज़ल: ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर

ग़म ग़ज़ल मे ढला नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

होता है सिर्फ वो मेरे दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता

कौन पढ़ता इबारतें दिल की
चेहरा ग़र आइना नहीं होता

सिर्फ़ इल्ज़ाम और नफरत से
हल कोई मसअला नहीं होता

हम से सब कुछ बयान होता है
पर बयाँ मुद्दआ नहीं होता

हम न होते तो गेसु-ए- सुम्बुल
इतना सँवरा- सजा नहीं होता

याद रखना कि भूल ही जाना
बस में कुछ बा-खु़दा नहीं होता

चाहने से किसी के हम सफरो
कभी अच्छा-बुरा नहीं होता

ज़ख्म-ए-दिल कैकटस है सहरा का
कब भला ये हरा नहीं होता

हम जुनूं केश से कभी नय्यर
इश्क का हक़ अदा नहीं

Wednesday, June 3, 2009

दिल अगर फूल सा नहीं होता- दूसरी किश्त









मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.द्विज जी के आशीर्वाद से ही ये काम सफल हो रहा है.

नवनीत शर्मा की ग़ज़ल

उनसे गर राबिता नहीं होता
दरमियाँ फ़ासला नहीं होता

मैं भी ख़ुद से ख़फ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता

फिर कोई हादसा नहीं होता
तू जो ख़ुद से ख़फ़ा नहीं होता

तू जो मुझसे मिला नहीं होता
मैं भी खुद को दिखा नहीं होता

सच से गर वास्‍ता नहीं होता
कुछ भी तो ख़्वाब-सा नहीं होता

ठान ही लें जो घर से चलने की
फिर कहाँ रास्‍ता नहीं होता

रोज़ कुछ टूटता है अंदर का
हाँ मगर, शोर-सा नहीं होता

सच की तालीम पा तो लें मौला
क्‍या करें दाख़िला नहीं होता

उनसे कहने को है बहुत लेकिन
उनसे बस सामना नहीं होता

याद रहते हैं हक़ उन्हें अपने
फ़र्ज़ जिनसे अदा नहीं होता

रोज़ मरते हैं ख्‍वाब सीने में
अब कोई ख़ौफ़-सा नहीं होता

अजन‍बीयत ने वहम साफ़ किया
आशना, आशना नहीं होता

ज़ख़्म इतना बड़ा नहीं फिर भी
दर्द दिल का हवा नहीं होता

ख़ुद को खोकर मिली समंदर से
ये नदी को गिला नहीं होता

लोग मिलते हैं, फिर बिछड़ते हैं
हर कोई एक सा नहीं होता

दुश्‍मनी खुद से गर नहीं होती
कोई जंगल कटा नहीं होता

याद जिंदा थी याद कायम है
खत्‍म ये सिलसिला नहीं होता

आंख होती है गर गिलास नहीं
अब कोई पारसा नहीं होता

इश्‍क की राह पे चला ही नहीं
पैर जो आबला नहीं होता

हाय दिल को भी ये खबर होती
दर्द होता है या नहीं होता

छाछ पीने से खौफ क्‍यों खाता
दूध से गर जला नहीं होता

साथ मेरे वही हुआ अक्‍सर
जो भी पहले नहीं हुआ होता

हां, तुझे भूलना ही अच्‍छा है
क्‍या करें हौसला नहीं होता

सुबह आती है लौट जाती है
देर तक जागना नहीं होता

सोच का फर्क है यकीन करो
वक्‍त कोई बुरा नहीं होता

काम आता है एक दूजे के
आदमी कब खुदा नहीं होता

तुम भी बदले अगर नहीं होते
मैं भी कुछ और सा नहीं होता

बात यह और है न देख सको
वरना आंखों में क्‍या नहीं होता

मीर-मोमिन न कह गए होते
हमने भी कुछ लिखा नहीं होता

साफ सुन लो यकीन मत करना
हमसे वादा वफा नहीं होता

ख्‍वाब सारे ही जब से टूट गए
अब कोई रतजगा नहीं होता

आदतन लोग अब सिहरते हैं
गो कोई हादसा नहीं होता

बात मज़लूम की सुने कोई
अब यही मोजज़ा नहीं होता

तुम जो ग़ैरों के काम आते हो
तुम से अपना भला नहीं होता?

चल मेरे यार ज़रा- सा हँस लें
आज कल कुछ पता नहीं होता

हर अदावत की धूप सह लेता
'दिल अगर फूल सा नहीं होता'

वो है अपना या गैर का ‘नवनीत’
हमसे ये फ़ैसला नहीं होता



योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़ल

जब तलक सिरफिरा नहीं होता
आजकल फैसला नहीं होता

बात सच्ची बताने को अक्सर
घर में भी हौसला नहीं होता

सपने साकार किस तरह होते
तू अगर सोचता नहीं होता

सच तो सच ही रहेगा ऐ यारों
झूठ में हौसला नहीं होता

लूट लेते हैं अपने-अपनों को
आज दुनिया में क्या नहीं होता

शुद्ध हों मन की भावनाएं अगर
कोई किस्सा बुरा नहीं होता



प्रेमचंद सहजवाला की ग़ज़ल

हुस्न गर नारसा नहीं होता
इश्क तब सरफिरा नहीं होता

तू अगर बेवफा नहीं होता
मैं कभी ग़मज़दा नहीं होता

हम भी रिन्दों में हो गए शामिल
जश्न इस से बड़ा नहीं होता

इतने मायूस हम हुए हैं क्यों
क्या कभी सानिहा नहीं होता

ये तो अक्सर हुआ है हुस्न के साथ
तीर खींचा हुआ नहीं होता

अच्छी शक्लें अगर नहीं होती
क्या कहीं आईना नहीं होता

इश्क करना मुहाल होता क्या
दिल अगर फूल सा नहीं होता

गर्दिशों से भरे हों जब अय्याम
तब कोई हमनवा नहीं होता



गौतम राजरिषी की ग़ज़ल

मैं खुदा से खफ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता

ये जो कंधे नहीं तुझे मिलते
तो तू इतना बड़ा नहीं होता

सच की खातिर न खोलता मुँह गर
सर ये मेरा कटा नहीं होता

कैसे काँटों से हम निभाते फिर
दिल अगर फूल-सा नहीं होता

चाँद मिलता न राह में उस रोज
इश्क का हादसा नहीं होता

पूछते रहते हाल-चाल अगर
फासला यूँ बढ़ा नहीं होता

छेड़ते तुम न गर निगाहों से
मन मेरा मनचला नहीं होता

होती हर शै पे मिल्कियत कैसे
तू मेरा गर हुआ नहीं होता

दूर रखता हूँ आइने को क्यूं
खुद से ही सामना नहीं होता

कहती है माँ, कहूँ मैं सच हरदम
क्या करूँ, हौसला नहीं होता



मनु 'बे-तखल्लुस'की ग़ज़ल

तू जो सबसे जुदा नहीं होता,
तुझपे दिल आशना नहीं होता,

कैसे होती कलाम में खुशबू,
दिल अगर फूल सा नहीं होता

मेरी बेचैन धडकनों से बता,
कब तेरा वास्ता नहीं होता

खामुशी के मकाम पर कुछ भी
अनकहा, अनसुना नहीं होता

आरजू और डगमगाती है
जब तेरा आसरा नहीं होता

आजमाइश जो तू नहीं करता
इम्तेहान ये कडा नहीं होता

हो खुदा से बड़ा वले इंसां
आदमी से बड़ा नहीं होता

ज़ख्म देखे हैं हर तरह भरकर
पर कोई फायदा नही होता

राह चलतों को राजदार न कर
कुछ किसी का पता नहीं होता,

जिसका खाना खराब तू करदे
उसका फिर कुछ बुरा नहीं होता

मय को ऐसे बिखेर मत जाहिद
यूं किसी का भला नहीं होता

इक तराजू में तौल मत सबको
हर कोई एक सा नही होता

मेरा सर धूप से बचाने को
अब वो आँचल रवा नहीं होता

रात होती है दिन निकलता है
और तो कुछ नया नहीं होता

हम कहाँ, कब, कयाम कर बैठें
हम को अक्सर पता नहीं होता

सोचता हूँ कि काश हव्वा ने
इल्म का फल चखा नहीं होता

मुझ पे वो एतबार कर लेता
जो मैं इतना खरा नहीं होता

होता कुछ और, तेरी राह पे जो
'बे-तखल्लुस' गया नहीं होता

Monday, June 1, 2009

दिल अगर फूल सा नहीं होता - पहली किश्त








मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पहली पाँच ग़ज़लें.

प्राण शर्मा की ग़ज़ल

जिस्म खुशबू भरा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

थक गया हूँ मैं साफ़ करते हुए
दिल का कमरा सफ़ा नहीं होता

दोस्ती कर के देख ले उस से
हर कोई देवता नहीं होता

डिग्रियां उसकी क्या करे कोई
साथ जो भी खड़ा नहीं होता

जीते-जी अम्मा मर गयी होती
खोया सुत गर मिला नहीं होता

कोई चाहे नहीं उसे बिलकुल
दिल से क्यों दुःख जुदा नहीं होता

हम ही जाएँ हमेशा पास उसके
उससे पल भर को आ नहीं होता

आप बनवा के देख लें लेकिन
घर महज रेत का नहीं होता

हर खुशी सबको गर मिली होती
आदमी दिलजला नहीं होता

द्वार हर इक का खटखटाते हो
सबका ही आसरा नहीं होता

"प्राण" रिसता रहा सभी पानी
काश, ऐसा घड़ा नहीं होता



डा. दरवेश भारती की ग़ज़ल

पीठ पीछे कहा नहीं होता
तुमसे कोई गिला नहीं होता

जो ख़फ़ा है ख़फ़ा नहीं होता
हमने गर सच कहा नहीं होता

ज़िक्र उनका छिड़ा नहीं होता
ज़ख़्म दिल का हरा नहीं होता

तुम जुटाओ ज़रा-सी हिम्मत तो
देखो फिर क्या से क्या नहीं होता

ईंट-पत्थर न चलते आपस में
घर ये हरगिज़ फ़ना नहीं होता

क्या समझता ग़ुरूर क्या शय है
वो जो उठकर गिरा नहीं होता

कुछ न कर पाता कोई तूफ़ाँ भी
भाग्य में गर बदा नहीं होता

नाव क्यों उसके हाथों सौंपी थी
नाख़ुदा तो ख़ुदा नहीं होता

आज होते न वाल्मीकि अगर
वन-गमन राम का नहीं होता

दर्द की चशनी में जो न पके
ख़ुद से वो आशना नहीं होता

कोई सागर कहीं न होता अगर
इक भी दरिया बहा नहीं होता

प्रेम ख़ुद की तरह न सब से करे
फिर वो ‘दरवेश’-सा नहीं होता



जोगेश्वर गर्ग की ग़ज़ल

इश्क में मुब्तिला नहीं होता
तो मुसीबतजदा नहीं होता

बारहा हादसा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

कर रहे थे उसे सभी सज़दे
कोई कैसे खुदा नहीं होता

रोज तूफ़ान भी तलातुम भी
कब यहाँ ज़लज़ला नहीं होता

बर नहीं आ रही मेरी कोशिश
उन तलक सिलसिला नहीं होता

रोज होती रही बहस कितनी
हाँ मगर फैसला नहीं होता

पस्त होती यहाँ तभी मुश्किल
पस्त जब हौसला नहीं होता

क्यों हुआ कमनसीब "जोगेश्वर"
क्यों कभी भी नफ़ा नहीं होता



तेजेन्द्र शर्मा की ग़ज़ल:

साथ तेरा अगर मिला होता
जश्न ख़ामोश सा नहीं होता

ऐसे हालात से भी गुजरा हूँ
मुझ को मेरा पता नहीं होता

मैनें ये मान लिया काफ़िर हूँ
तुम से बेहतर ख़ुदा नहीं होता

सोच में तेरी आके ग़ैर रहे
ये वफ़ा का सिला नहीं होता

हर कोई आज उड़ाता है हंसी
काश तुझ से मिला नहीं होता

हाँ शिकायत ज़रूर है तुझ से
ग़ैर से तो गिला नहीं होता

ज़ख़्म जो तुमने दिये सह लेता
दिल अगर फूल सा नहीं होता



अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल:

जब वो जलवा नुमा नहीं होता
क्या बताऊँ मैं क्या नहीं होता

दिल बहुत ही उदास रहता है
कोई दर्द आशना नहीं होता

नहीं होता सुकून-ए-क़ल्ब मुझे
उसका जब आसरा नहीं होता

याद आती है उसकी सरगोशी
जब भी उसका पता नहीं होता

वही रहता है ख़ान-ए-दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता

इस क़दर मुझ से है वह अब मानूस
कभी मुझ से जुदा नहीं होता

कीजिए आप सब से हुस्न-ए सुलूक
कोई अच्छा बुरा नहीं होता

तोडि़ए मत किसी का शीशा-ए-दिल
कुछ भी इस से भला नहीं होता

अस्ल में है यही फसाद की जड
पूरा अहद –ए-वफा नहीं होता

नहीं चुभते कभी यह ख़ार-ए-अलम
दिल अगर फूल सा नहीं होता

उसका तीर-ए-नज़र निशाने से
कभी बर्क़ी ख़ता नहीं होता

Sunday, May 24, 2009

ज़नाब अख़ग़र पानीपती - परिचय और ग़ज़लें









एक अगस्त 1934 मे जन्मे अख़ग़र पानीपती जी एक वरिष्ठ शायर हैं.अब तक इनके तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.उजालों का सफर उर्दू में, अर्पण हिंदी में,अक्षर नतमस्तक हैं हिंदी में.
आप पानीपत रत्न से नवाज़े जा चुके हैं और आप मुशायरों व कवि सम्मेलनों में शिरकत करते रहते हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आप सब के लिए:

ग़ज़ल






हज़ार ज़ख़मों का आईना था
गुलाब सा जो खिला हुआ था

मेरी नज़र से तेरी नज़र तक
कईं सवालों का फासला था

खुलूस की ये भी इक अदा थी
करीब से वो गुज़र गया था

हमारे घर हैं सराये फ़ानी
ये साफ दीवार पर लिखा था

टटोल कर लोग चल रहे थे
ये चांदनी शब का वाक़या था

तलाश में किस हसीं ग़ज़ल की
रवां ख़यालों का काफिला था

वो इक चरागे-वफ़ा था अख़ग़र
जो तेज आंधी में जल रहा था

बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन
121 22 121 22

ग़ज़ल:







दीवारों ने आंगन बांटा
उतरा-उतरा धूप का चेहरा

एक ज़रा सी बात से टूटा
कितना नाजुक प्यार का रिश्ता

वो है अगर इक बहता दरिया
फिर क्यूं रहता प्यासा-प्यासा

तू किस दुनिया का मतवाला
सबकी अपनी-अपनी दुनिया

अब लगता है भाई-भाई
इक-दूजे के खून का प्यासा

आवारा-आवारा डोले
अंबर पर बादल का टुकड़ा

चेहरा तो है चांद सा रौशन
दामन मैला है अलबत्ता

सच्चाई के साथ न कोई
झूठ-कपट के संग ज़माना

ये भी इन्सां वो भी इन्सां
एक अंधेरा एक उजाला

गुरबत इक अभिशाप है यारो
सच्चा बन जाता है झूठा

कुत्तों को भरपेट है रोटी
भूखा इक खुद्दार का बच्चा

अंधों की इस भीड़ में अख़ग़र
किस से पूछें घर का रस्ता

(आठ फ़ेलुन)

ग़ज़ल:







हिसारे-ज़ात से निकला नहीं है
बशर खुद को अभी समझा नहीं है

किसी को भी पता मेरा नहीं है
जहां मैं हूं मेरा साया नहीं है

नज़र की हद से आगे भी है दुनिया
जिसे तुमने कभी देखा नहीं है

कमी शायद है अपनी जुस्तजू में
वो घर में है मगर मिलता नहीं है

खयालों की भी क्या दुनिया है यारों
कि इसकी कोई भी सीमा नहीं है

जो सब लोगों में खुशियां बांटता था
उसे हंसते कभी देखा नहीं है

जिसे देखो लगे है इक फरिश्ता
मगर इन में कोई बंदा नहीं है

उजालों का नगर है पास बिल्कुल
पहुंचने का मगर रस्ता नहीं है

लगाव हर किसी को है किसी से
जहां में कोई भी तन्हा नहीं है

तुम्हारी जा़ते-अक़दस पर भरोसा
खुदा रक्खे कभी टूटा नहीं है

रवां किन रास्तों पर हूं मैं अख़ग़र
कि पेड़ों का यहां साया नहीं है

बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

Saturday, May 23, 2009

जब कोई दूसरा नहीं होता -मोमिन खाँ मोमिन







ये ग़ज़ल आप सब के लिए, इसी ज़मीं पर बशीर बद्र साहेब ने (दिल अगर फूल सा नहीं होता) कही थी.सोचा सब के साथ इसको सांझा किया जाए.

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।


गा़लिब इस शे’र के बदले अपना सारा दिवान देने को तैयार हो गए थे.आप भी इसे पढ़ें और सोचें कि इस ग़ज़ल मे ऐसा क्या है .

ग़ज़ल:

असर उसको ज़रा नहीं होता ।
रंज राहत-फिज़ा नहीं होता ।।

बेवफा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा वफा नहीं होता ।

जिक़्रे-अग़ियार से हुआ मालूम,
हर्फ़े-नासेह बुरा नहीं होता ।

तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता ।

उसने क्या जाने क्या किया लेकर,
दिल किसी काम का नहीं होता ।

नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से खफ़ा नहीं होता ।

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।

हाले-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता ।

क्यूं सुने अर्ज़े-मुज़तर ऐ ‘मोमिन’
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता ।

शब्दार्थ:

राहत फ़िज़ा--शांति देने वाला, ज़िक्र-ए-अग़यार--दुश्मनों की चर्चा,हर्फ़-ए-नासेह--शब्द नासेह (नासेह-नसीहत करने वाला)यार--दोस्त-मित्र, चारा-ए-दिल--दिल का उपचार, नारसाई--पहुँच से बाहर, अर्ज़ेमुज़्तर--व्याकुल मन का आवेदन


बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल








कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता


कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता

Wednesday, May 20, 2009

नया मिसरा-ए-तरह -दिल अगर फूल सा नहीं होता










नया मिसरा-ए-तरह : दिल अगर फूल सा नहीं होता

ये बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल है.
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन या फ़’इ’लुन
2122 1212 22 या 112

काफ़िया: सा, वफ़ा..यानि आ का काफ़िया है.
रदीफ़: नहीं होता.

मिसरे के अंत मे आप फ़ा’लुन या फ़’इ’लुन या फ़’इ’ला’न तीनों का इस्तेमाल कर सकते हैं.इस बहर मे आप फ़ा’इ’ला’तुन की जगह फ़’इ’लातुन(2122 or 1122) का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. ये बहर बहुत मक़बूल बहर है गा़लिब कि ये ग़ज़ल (दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है) भी इसी बहर मे है

बशीर बद्र साहब की पूरी ग़ज़ल जिससे ये मिसरा लिया गया है.

कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता


कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता

जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता

रात का इंतज़ार कौन करे ...( इस मिसरे के अंत मे फ़’इ’लुन का इस्तेमाल हुआ है.)
आज कल दिन में क्या नहीं होता

गा़लिब की इस बहर मे ग़ज़ल:

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई

चाल जैसे कड़ी कमाँ का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई

बात पर वाँ ज़ुबान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई

न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
(इस शे’र दोनों मिसरों के शुरू मे फ़’इ’लातुन का इस्तेमाल किया गया है)

रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ग़लत करे कोई

कौन है जो नहीं है हाजतमंद
किसकी हाजत रवा करे कोई

क्या किया ख़िज्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई

जब तवक़्क़ो ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई

गा़लिब की एक और ग़ज़ल इसी बहर में:

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती

और

जब कभी दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है.

एक और ग़ज़ल इसी बहर में:

शाम से आँख में नमी सी है,
आज फ़िर आपकी कमी सी है,

दफ़न कर दो हमें की साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है,

वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी सी है,

कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी,
एक तस्लीम लाज़मी सी है,


नाचीज़ की एक ग़ज़ल साहित्य-शिल्पी पर छपी है, समय हो तो ज़रूर पढें..


नोट: अप्रकाशित तरही ग़ज़लों के बारे कोई मेल न करें.ग़ज़ल कहते वक्त ग़ज़ल के लबो-लहज़े का खास ख्याल रखें.आप 20 दिन के अंदर अपनी ग़ज़लें भेज सकते हैं.


सादर
सतपाल खयाल

Friday, May 15, 2009

दुखद समाचार










जन्म: 25 दिसम्बर,1946
निधन: 13 मई,2009

पहाड़ी गांधी सम्मान से अलंकृत डा. प्रेम भारद्वाज का बुधवार शाम को देहावसान हो गया और वो इस फ़ानी दुनिया से विदा होकर पंचतत्व मे विलीन हो गये. प्रमात्मा उनकी आत्मा को शांति दे.

उनकी एक ग़ज़ल :

निकाले ख़ुल्द से आदम को जुग बीते जनम निकले
हवस की क़ैद से से लेकिन न वो निकले न हम निकले

अना की खन्दकों से पार हो मैदाने हस्ती में
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना कि ख़ुद दस्ते-करम निकले

मुरव्वत, प्यार, नफ़रत, इन्क़िलाबी दौर, मज़हब हो
कि इस तन्ज़ीम की बुनियाद में अहले-कलम निकले

लड़ाई अज़्मतों की तब समुन्दर पार जा पहुँची
लखन रेखा मिटा कर जब सिया के दो क़दम निकले

सफ़र में लूट,डाके, चोरियाँ आसेब, आवाज़ें
हक़ीक़त में तो ये सब रहनुमाँ के ही करम निकले

ख़ुशामद रात भर करके वो सुबह आँखें दिखाता है
कि रस्सी जल गई सालिम न फिर भी उसके ख़म निकले

हुए माशूक़, साहूकार माहिर सूदख़ोरी में
अदा कर दो वुजूद अपना बक़ाया ही रक़म निकले

किसे आख़िर बनाएँ राज़दाँ वो सब के सब अपने
दबाकर जीभ दाँतों के तले खाकर क़सम निकले

अधूरी प्रेमगाथा के लिए है क़ौल ग़ालिब का
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

Tuesday, May 12, 2009

मेरे लिए भी क्या कोइ उदास बेकरार है - अखिरी दो ग़ज़लें









मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर दो ग़ज़लें :


1.ग़ज़ल: ख़ुर्शीदुल हसन नैय्यर

चमन में जो बहार है गुलों पे जो निखार है
तेरी निगाह का असर तेरे लबों का प्यार है

भिगो गई है जो फ़ज़ा हवा जो मुश्कबार है
ये ज़ुल्फ़े-यार की महक वो चश्म-ए-आबदार है

उफ़क़ पे जो धनक चढ़ी शफ़क़ का जो सिंगार है
यही है ओढ़नी का रंग, यही जो हुस्न-ए-यार है

न नींद आँख में रही न दिल पे इख़्तियार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है

झुकी नज़र ख़मोश लब अदाओं में शुमार है
इन्हीं अदा-ए-दिलबरी पे जान-ओ-दिल निसार है

किसी से इश्क़ जब हुआ तो हम पे बात ये खुली
जुनूँ के बाद भी कोई मकाँ कोई दयार है

सुना कि बज़्म में तेरी मेरा भी ज़िक्र आएगा
तो ख़ुश हुआ कि दोस्तों में मेरा भी शुमार है

‘हसन’ की है ये आरज़ू कि उनसे जा कहे कोई
तेरी अदा पे जाने मन ग़ज़ल का इन्हेसार है



2.ग़ज़ल: सतपाल खयाल

किसी को इस जहाँ मे क्या मेरा भी इंतज़ार है !
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है.

ये रौनकें , ये महिफ़िलें ये मेले इस जहान के
ए ज़िंदगी ! खुदा का भी तुझी से कारोबार है.

उसी ने डाले मुश्किलों मे मेरे जानो-दिल मगर
उसी पे जाँ निसार है उसी पे दिल निसार है.

तुमीं को हमने पा लिया , तुमीं को हमने खो दिया
तू ही हमारी जीत है, तू ही हमारी हार है

यही सवाल आज तक मैं खुद से पूछता रहा
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है.

हमारे हिस्से मे सदा शिकस्त ही रही ख्याल
मुकद्दरों के खेल इनपे किसका इख्तियार है.

द्विज जी के आशिर्वाद से ये तरही आयोजन सफ़ल रहा और मै सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ कि उन्होंने अपने कलाम हमे भेजे.अगला तरही मिसरा जल्द दिया जायेगा.

तीसरी किश्त-मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है









मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :


1. ग़ज़ल : पवनेन्द्र पवन

सियार जब से शेर का हुआ सलाहकार है
ये राजघर लुटेरों की बना पनाहगार है

ईमानदार आदमी तो बस सिपहसलार है
सम्हालता तो राज अब रँगा हुआ सियार है

कुटुम्ब सारा मोतिये की मर्ज़ का शिकार है
है साँप रस्सी दिख रहा मयान तो कटार है

अमन की तू तलाश में न करना इनका रुख़ कभी
पहाड़ियों की अब नहीं सुकूँ भरी बयार है

निशान तो रहेंगे ही तमाम उम्र के लिए
समय के साथ भर गई गो दिल की हर दरार है

आवाम की आवाम से आवाम के लिए बनी
ये लोक सत्ता धन कुबेरों की किराएदार है

धुआँ-धुआँ सुलगती ये भी इक सिरे से दूजे तक
ये ज़िन्दगी भी होंठों में दबा हुआ सिगार है

न जाने किसने ख़त लिखा कि लौट आ तू गाँव में
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है?

गुलों को छोड़् आ ‘पवन’ बना लें राक-गार्डन
शिलाओं पे तो मौसमों की होती कम ही मार है



2. ग़ज़ल: अमित रंजन गोरखपुरी

न अब को‌ई हकीम है न को‌ई गमगुसार है,
वही मरीज़-ए-इश्क, और दर्द बार बार है

उदास बेकरार होके सोचता हूँ हर घडी,
मेरे लिये भी क्या को‌ई उदास बेक़रार है

झुकी- झुकी, डरी- डरी, को‌ई निगाह-ए-नश्तरी,
हया के मैकदे, जहां खुमार ही खुमार है

ज़रा सी बात पर न को‌ई रूठ जा‌ए उम्र भर,
ज़रा सी बात से कहीं अज़ल तलक बहार है

भिगा सकेंगी क्या उसे ये बारिशें खयाल की,
खुदी में भीगता हु‌आ जो एक आबशार है

संभल के वास्ता करो यहां किसी हसीन से,
मेरे शहर के कातिलों का हुस्न से करार है

सबक है ज़िंदगी का या शहर की तंग कैफ़ियत,
जो कल तलक सलीस* था वो आज होशियार है

लकीर खैंच कर बना रहे तमाम सरहदें,
सिकंदरों को आज भी सराब इख्तियार है

सलीस = साफ़, पारदर्शी



3. ग़ज़ल: धीरज अमेटा धीर

ये कौन उड़ा गया खबर कि मौसमे बहार है?
यहाँ तो दिल उजाड़ है, जिगर भी तार-तार है!

फ़रेब और झूठ का छपा इक इश्तेहार है!
"जो हम से काम ले वो रातों-रात माल-दार है!"

शराबे कैफ़ कब मिली है मैकदे में ज़ीस्त के?
यहाँ है जो भी, नश्शा-ए-अलम का वो शिकार है!

ये हिचकियाँ हैं बेसबब या कोई वजहे खास है,
"मिरे लिये भी क्या कोई उदास, बेक़रार है!"

तमाम नफ़्हे आपसे, ज़ियां बदौलते खुदा?
कोई नहीं जो अपने ही किये पे शर्म-सार है!

जो ज़िन्दगी की दौड़ में कभी न भूले राम-नाम
हयात के भँवर में एक उसी का बेड़ा पार है!

न इतनी एहतियाते गुफ़्तगू बरत के युँ लगे,
पुराने राब्ते पे "धीर", वक़्त का ग़ुबार है!



4. ग़ज़ल: गौतम राजरिषी

ख़बर मिली उन्हें ये जब कि तुमको मुझसे प्यार है
नशे में डूबा चाँद है, सितारों में ख़ुमार है

मैं रोऊँ अपने क़त्ल पर, या इस खबर पे रोऊँ मैं
कि क़ातिलों का सरगना तो हाय मेरा यार है

अकेले इस जहान में ये सोचता फिरूँ मैं अब
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है

ये जादू है लबों का तेरे या सरूर इश्क़ का
कि तू कहे है झूठ और हमको ऐतबार है

सुलगती ख़्वाहिशों की धूनी चल कहीं जलायें और
कुरेदना यहाँ पे क्या, ये दिल तो जार-जार है

ले मुट्ठियों में पेशगी महीने भर मजूरी की
वो उलझनों में है खड़ा कि किसका क्या उधार है

बनावटी ये तितलियाँ, ये रंगों की निशानियाँ
न भाये अब मिज़ाज को कि उम्र का उतार है

भरी-भरी निगाह से वो देखना तेरा हमें
नसों में जलतरंग जैसा बज उठा सितार है



5. ग़ज़ल: मनु ‘बेतख़ल्लुस’

सुख़न में इन दिनों बसा अजब- सा इक ख़ुमार है
सुना है जब से उनको भी हमारा इंतज़ार है

सुनी जो शमअ ने हमारी आरजू तो ये कहा
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है

क़रीब और आ रही है तेज चाल की धनक
मचल रही हैं धड़कनें निखर रहा ख़ुमार है

कहें तो क्या कहें अजब है दास्ताने -ज़िंदगी
हैं तुझ पे जो इनायतें वही तो मुझ पे बार है

हैं तेरे मेरे दरमियाँ जो रात-दिन की गर्दिशें
न बस है इन पे कुछ तेरा न मेरा इख़्तियार है

फ़लक ने रहम कब किया जमीं ने कब दुआएँ दीं
मिला है आज क्या तुझे जो इतना ख़ुशगवार है

अभी अंतिम किश्त बाकी है.

Friday, May 8, 2009

मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है- दूसरी किश्त









मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :


1.ग़ज़ल: नवनीत शर्मा

न जान बाकरार है, न कोई ग़मगुसार है
दुकान-ए-इश्‍क़ का मियाँ ये आम कारोबार है

जो ज़र्दियों के कारवाँ की धूल शहसवार है
तुम्‍हें भी बादलो कहो, सदा का इंतजार है

ज़मीन ग़मगुसार है, पहाड़ अश्‍कबार है
निगाह-ए-ख़ुश्‍क को यहाँ किसी का इंतजार है

तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
'ये क्‍या जगह है दोस्‍तो, ये कौन सा दयार है'

निज़ाम आपका अजब, जिरह दलील कुछ नहीं
जो क़त्ल करके चल दिया वो ऊँट बेमुहार है

निगाह साफ़ थी मेरी, तेरी नज़र भी पाक थी
हमारे सामने मगर, कहाँ का ये ग़ुबार है

ये हाल ज़ात का मेरी, तलाश है मुझे मेरी
मेरे लिए भी क्‍या कोई उदास बेकरार है

ख़िज़ाँ में जज्‍़ब हो के अपने ख़ात्‍मे की देर थी
ये सब ने कह दिया कि अब बहार ही बहार है

कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई
ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है

तुम्‍हीं हो उसकी सोच में, तुम्‍हीं हो जान बेटियो
उदास है पिता बहुत कि हाँफता कहार है

जहाँ भी रोशनी दिखे, वहीं पे तीरगी मिले
कहूँ मैं क्‍या कि सामने ये कौन सा दयार है

जो रंग पैरहन का है वही है रंग जिस्‍म का
बता ही देंगी बारिशें कि वो रंगा सियार है




2.ग़ज़ल: जगदीश रावतानी

पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है

ग़ुरुर टूटने पे ही समझ सका सचाई को
जो है तो बस ख़ुदा को ज़िन्दगी पे इख़्तियार है

मेरे लबों पे भी ज़रूर आएगी हँसी कभी
न जाने कब से मेरे आईने को इंतज़ार है

मैं नाम के लिए ही भागता रहा तमाम उम्र
वो मिल गया तो दिल मेरा क्यों अब भी बेकरार है

मैं तेरी याद दफ़न भी करूँ तो तू बता कहाँ
कि तू ही तू फ़क़त हरेक शक्ल में शुमार है

अभी तो हाथ जोड़ कर जो कह रहा है वोट दो
अवाम को पता है ख़ुदगरज़ वो होशियार है

डगर-डगर नगर-नगर मैं भागता रहा मगर
सुकूँ नहीं मिला कहीं न मिल सका करार है

वो क्यों यूँ तुल गया है अपनी जान देने के लिए
दुखी है जग से या जुड़ा ख़ुदा से उसका तार है

कभी तो आएँगी मेरी हयात में उदासियाँ
बहुत दिनों से दोस्तों को इसका इंतज़ार है




3.ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस

कली-कली संवर गयी , फ़िज़ा भी ख़ुशगवार है
मेरी तरह इन्हें भी तो तुम्हारा इंतज़ार है

अजब ये दौरे-कशमकश , अजब-सा ये दयार है
यक़ीन है किसी पे अब , न ख़ुद पे ऐतबार है

जबीने-दुश्मनाँ पे तो शिकन ये बे-सबब नहीं
कहीं वो अपने-आप से ज़रूर शर्मशार है

क़सम तुझे है जो सितम-गरी से बाज़ आओ तुम
मेरी भी जान जाए , जो कहूँ मैं मेरी हार है

शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है

मुक़ाबिला कड़ा है , कैसे जीत पाऊँगा भला ?
तेरी यही तो सोच तेरी जिंदगी की हार है

किसे सुनाऊँ दास्तान , हाले-दिल कहूँ किसे
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बे-करार है

रदीफ़ो-क़ाफ़िया तो इस दफ़ा भी बस में हैं, मगर
अरूज़ो-बह्र सख़्त है , ज़मीन ख़ारज़ार है

सुख़नवरों में हो रहा है जिसका ज़िक्र आजकल
अदब-नवाज़ , ‘मुफ़्लिस’-ए-अज़ीज़ , ख़ाक़सार है




4. ग़ज़ल - कवि कुलवंत

ये क्या हुआ मुझे न आज ख़ुद पे इख़्तियार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है

मेरे तो रोम-रोम में बसा उसी का प्यार है
किया है प्यार दिल ने तो वही क़ुसूरवार है

भुला के उसने प्यार को ग़ुरूर हुस्न का किया
हमें तो इक सदी से बस उसी का इंतज़ार है

महक उठी थी रूह मेरी जब मिले थे तुम सनम
चले गए हो तुम तो क्या खिली-खिली बहार है

है सड़ गया समाज पाप लूट झूठ सब जगह
न मिटने वाला हर तरफ़ ये घोर अंधकार है

हवा दहक उठी मिला जो संग आफताब का
नियम ये सृष्टि का जो समझे हर जगह शुमार है.




5.ग़ज़ल :अबुल फैज़ अज़्म सहरयावी

करम का उनके सिलसिला यह मुझपे बार बार है
सुकूने-दिल पे अब कहाँ किसी को इख़्तियार है

चली है बादे-सुबह जो ख़ेराम-ए-नाज़ से अभी
महक उठी कली-कली गुलों पे भी निखार है

पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है

हसद का नाम भी न ले खिज़ाँ का ज़िक्र भी न कर
मेरे चमन में हर तरफ बहार ही बहार है

खिज़ां नसीब तू मेरे चमन में क्यूँ ठहर गई
शबे- फ़िराक़ जा तुझे सलाम बार बार है

Friday, May 1, 2009

मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है-पहली किश्त








इस बार बहर कुछ मुश्किल हो गई लेकिन फिर भी २०-२२ शयारों ने ग़ज़लें भेजीं है जिने हम तीन किश्तों मे प्रकाशित करेंगे.पहली किश्त मे हम पाँच ग़ज़लें पेश कर रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि आपको ये तरही ग़ज़लें पसंद आयेंगी.

मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :

1.देवी नांगरानी की ग़ज़ल

ये कौन आ गया यहाँ कि छा गया ख़ुमार है
बहार तो नहीं मगर नफ़स-नफ़स बहार है

न दोस्तों न दुश्मनों में उसका कुछ शुमार है
क़तार में खड़ा हुआ वो आज पहली बार है

मैं जिस ज़मीं पे हूँ खड़ी ग़ुबार ही ग़ुबार है
सभी के दिल में नफरतें ख़ुलूस है न प्यार है

चमन में कौन आ गया जिगर को अपने थामकर
तड़प रही हैं बिजलियाँ, घटा भी अश्कबार है

मुकर रहे हो किस लिये, है सच तुम्हारे सामने
तुम्हारी जीत, जीत है, हमारी हार, हार है

है कौन जिससे कह सकूँ मैं अपने दिल का माजरा
मैं सबको आज़मा चुकी कोई न राज़दार है



2.पूर्णिमा वर्मन की ग़ज़ल

ये चाँद है धुला धुला ये रात खुशगवार है
जगी जगी पलक में सोए से सपन हज़ार है

ये चांदनी की बारिशों में धुल रहा मेरा शहर
नमी नमी फ़िजाओं में बहक रही बयार है

ये कौन छेड़ता है गीत मौन के सितार पर
सुना सुना सा लग रहा ये कौन गीतकार है

नहीं मिला अभी तलक वो पेड़ हरसिंगार का
हवा हवा में घोलता जो खुशबुएँ हज़ार है

न जाने कौन छा रहा है फिर से याद की तरह
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है




3.प्रेमचंद सहजवाला की ग़ज़ल

ये मोजज़ा है क्या कोई, किसी को मुझ से प्यार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास-ओ-बेकरार है

जो दहशतों से कर रहा खुदा की बंदगी यहाँ
वो आदमी तो मज़हबी जूनून का शिकार है

बहार बे-बहार क्यों हुई ज़रा बताओ तो
बहार कह रही है उस को तेरा इंतज़ार है

बहुत से लोग आ रहे हैं इंतेखाब के लिए
मगर यहाँ पे आज दोस्त किस का ऐतबार है

जो तुझ को दे के ख्वाब ख़ुद खरीदते सुकून है
तुम्हारी मेरी ज़िन्दगी पे उन का इख्तियार है



4.चंद॒भान भारद्वाज की ग़ज़ल

नया नया लिबास है नया नया सिंगार है
नई नई निगाह में नया नया खुमार है

किसी के प्यार का नशा चढ़ा हुआ है इस क़दर
जिधर भी देखती नज़र बहार ही बहार है

लिपे पुते मकान के सजे हैं द्वार देहरी,
दिया जला रही उमर किसी का इंतजार है

लगी हुई है दाँव पर यों प्यार में ये ज़िन्दगी
न जीतने में जीत है न हारने में हार है

न नीद आंख में रही न चैन दिल में ही रहा
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है

दिलों दिलों की बात है नज़र नज़र का खेल यह
किसी को प्यार फूल है किसी को सिर्फ खार है

सगा रहा मगर वो वार इस तरह से कर गया
भरा है 'भारद्वाज' घाव दर्द बरकरार है



5.अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल

तुम्हीं से मेरी ज़िंदगी में जाने-मन बहार है
बताओ तुम कब आओगे तम्हारा इंतेज़ार है

बताना मेरा फर्ज़ है जो मेरा हाल-ए-ज़ार है
तुम आओ या न आओ इसका तुम को इख़्तियार है

ग़मो-अलम,नेशातो- कैफ,हसरतेँ,उदासियाँ
है जिन से मुझको साबक़ा तुम्हारी यादगार है

पुकारती हैं हम को अब भी वह हसीन वादियाँ
जहाँ कहा था मैने तुम से तुझसे मुझको प्यार है

नहीं है कैफ अब कोई वहाँ किसी भी चीज़ में
जहाँ मिले थे पहले हम यही तो वह दयार है

नहीं हो तुम तो आ रही है मेरे दिल से यह सदा
मेर लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है

जो गुलशन-ए-हयात में नेशात-ए-रूह थी मेरी
अभी भी मेरे ज़ेह्न में वह ज़ुल्फ-ए-मुशकबार है

वह चशम-ए-मस्त जिस से मेरी ऱूह में थी ताज़गी
नशा उतर चुका है उसका हालत-ए-ख़ुमार है

तुम्हारा साथ हो अगर नहीं है मुझको कोई ग़म
मुझे अज़ीज़ बर्क़ी सब से आज वस्ले-यार है

Wednesday, April 29, 2009

श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी को श्रदाँजलि
















सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद


30 अप्रैल, श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी जी की पुण्य तिथी है. उनकी ग़ज़लों का प्रकाशन हमारी तरफ़ से उस शायर को श्रदाँजलि है.शायर अपने शब्दों मे हमेशा ज़िंदा रहता है और सागर साहब की शायरी से हमें भी यही आभास होता है कि वो आज भी हमारे बीच में है.सागर साहेब 25 जनवरी 1929 को गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)मे पैदा हुए थे और 30 अप्रैल, 1996 को इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गए. लेकिन उनकी शायरी आज भी हमारे साथ है और साग़र साहेब द्वारा जलाई हुई शम्मा आज भी जल रही है, उस लौ को उनके सपुत्र श्री द्विजेंद्र द्विज जी और नवनीत जी ने आज भी रौशन कर रखा है.साग़र साहेब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को हम प्रकाशित कर रहे हैं:







ग़ज़ल:

सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद

बर्ग—ओ—अशजार से अठखेलियाँ जो करती है
ख़ाक उड़ाएगी वो गुलशन की हवा मेरे बाद

संग—ए—मरमर के मुजसमों को सराहेगा कौन
हुस्न हो जाएगा मुह्ताज—ए—अदा मेरे बाद

प्यास तख़लीक़ के सहरा की बुझेगी कैसे
किस पे बरसेगी तख़ैयुल की घटा मेरे बाद !

मेरे क़ातिल से कोई इतना यक़ीं तो ले ले
क्या बदल जाएगा अंदाज़—ए—जफ़ा मेरे बाद ?

मेरी आवाज़ को कमज़ोर समझने वालो !
यही बन जाएगी गुंबद की सदा मेरे बाद

आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद

ग़ालिब—ओ—मीर की धरती से उगी है ये ग़ज़ल
गुनगुनाएगी इसे बाद—ए—सबा मेरे बाद

न सुने बात मेरी आज ज़माना ‘साग़र’!
याद आएगा उसे मेरा कहा मेरे बाद

तख़लीक़—सृजन; तख़ैयुल—कल्पना; तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल=उपेक्षा का ढंग








ग़ज़ल:

दिल के तपते सहरा में यूँ तेरी याद का फूल खिला
जैसे मरने वाले को हो जीवन का वरदान मिला

जिसके प्यार का अमृत पी कर सोचा था हो जायें अमर
जाने कहाँ गया वो ज़ालिम तन्हाई का ज़हर पिला

एक ज़रा —सी बात पे ही वो रग—रग को पहचान गई
दुनिया का दस्तूर यही है यारो! किसी से कैसा गिला

अरमानों के शीशमहल में ख़ामोशी , रुस्वाई थी
एक झलक पाकर हमदम की फिर से मन का तार हिला

सपने बुनते—बुनते कैसे बीत गये दिन बचपन के
ऐ मेरे ग़मख़्वार ! न मुझको फिर से वो दिन याद दिला

इन्सानों के जमघट में वो ढूँढ रहा है ‘साग़र’ को
अभी गया जो दिल के लहू से ग़ज़लों के कुछ फूल खिला








ग़ज़ल:

दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !

हासिल—ए—ज़ीस्त कहाँ है यारो !
ग़म तो इक कोह—ए—गिराँ है यारो !

मैं हूँ इक वो बुत—ए—मरमर जिसके
मुँह में पत्थर की ज़बाँ है यारो !

नूर अफ़रोज़ उजालों के लिए
रौशनी ढूँढो कहाँ है यारो !

टिमटिमाते हुए तारे हैं गवाह
रात भीगी ही कहाँ है यारो !

इस पे होता है बहारों का गुमाँ
कहीं देखी है ये खिज़ाँ है यारो !

हम बहे जाते हैं तिनकों की तरह
ज़िन्दगी मील—ए—रवाँ है यारो

ढल गई अपनी जवानी हर चंद
दर्द—ए—उल्फ़त तो जवाँ है यारो

नीम—जाँ जिसने किया ‘साग़र’ को
एक फूलों की कमाँ है यारो!








ग़ज़ल:

परदेस चला जाये जो दिलबर तो ग़ज़ल कहिये
और ज़ेह्न हो यादों से मुअत्तर तो ग़ज़ल कहिये

कब जाने सिमट जाये वो जो साया है बेग़ाना
जब अपना ही साया हो बराबर तो ग़ज़ल कहिये

दिल ही में न हो दर्द तो क्या ख़ाक ग़ज़ल होगी
आँखों में हो अश्कों का समंदर तो ग़ज़ल कजिये

हम जिस को भुलाने के लिये नींद में खो जायें
आये वही ख़्वाबों में जो अक्सर तो ग़ज़ल कहिये

फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये

ओझल जो नज़र से रहे ताउम्र वही हमदम
जब सामने आये दम—ए—आख़िर तो ग़ज़ल कहिये

अपना जिसे समझे थे उस यार की बातों से
जब चोट अचानक लगे दिल पर तो ग़ज़ल कहिये

क्या गीत जनम लेंगे झिलमिल से सितारों की
ख़ुद चाँद उतर आये ज़मीं पर तो ग़ज़ल कहिये

अब तक के सफ़र में तो फ़क़त धूप ही थी ‘साग़र’!
साया कहीं मिल जाये जो पल भर तो ग़ज़ल कहिये








ग़ज़ल:

दरअस्ल सबसे आगे जो दंगाइयों में था
तफ़्तीश जब हुई तो तमाशाइयों में था

हमला हुआ था जिनपे वही हथकड़ी में थे
मुजरिम तो हाक़िमों के शनासाइयों में था

उस दिन किसी अमीर के घर में था कोई जश्न
बेरब्त एक शोर—सा शहनाइयों में था

हैराँ हूँ मेरे क़त्ल की साज़िश में था शरीक़
वो शख़्स जो कभी मेरे शैदाइयों में था

शोहरत की इन्तिहा में भी आया न था कभी
‘साग़र’!वो लुत्फ़ जो मेरी रुस्वाइयों में था








ग़ज़ल:

कितनी हसीं है शाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
गर्दिश में आये जाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

लौट आयें जिससे प्यार की ख़ुश्बू लिए हुए
रंगीन सुबह—ओ—शाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

घूँघट उठा के फूलों का फिर प्यार से हमें
ये रुत करे सलाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

जो कम करे फ़िराक़ज़दा साअतों का बोझ
ले ग़म से इन्तक़ाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

रुत कोई भी हो इतना है ग़म अहल—ए—सुख़न का
शे`र—ओ—सुख़न है काम सुनाओ कोई ग़ज़ल

जिसका इक एक शे`र हो ख़ु्द ही इलाज—ए—ग़म
जो ग़म करे तमाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

जंगल हैं बेख़ुदी के जो शहर—ए—अना से दूर
कर लें वहीं क़याम सुनाओ कोई ग़ज़ल

होंठों पे तन्हा चाँद के आया है प्यार से
‘साग़र’! तुम्हारा नाम सुनाओ कोई ग़ज़ल

साअतों=क्षणों








ग़ज़ल:

एक वो तेरी याद का लम्हा झोंका था पुरवाई का
टूट के नयनों से बरसा है सावन तेरी जुदाई का

तट ही से जो देख रहा है लहरों का उठना गिरना
उसको अन्दाज़ा ही क्या है सागर की गहराई का

कभी—आस की धू्प सुनहरी, मायूसी की धुंध कभी
लगता है जीवन हो जैसे ख़्वाब किसी सौदाई का

अंगारों के शहर में आकर मेरी बेहिस आँखों को
होता है एहसास कहाँ अब फूलों की राअनाई का

सुबहें निकलीं,शामें गुज़रीं, कितनी रातें बीत गईं
‘साग़र’! फिर भी चाट रहा है ज़ह्र हमें तन्हाई का

Monday, April 20, 2009

प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' की ग़ज़लें और परिचय









जन्म: 24 सितम्बर 1947
निधन: 24 जुलाई 2006


परिचय:
24 सितम्बर, 1947 को कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में जन्मे श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' ने 1968 में पंजाब इंजीनियरिंग कालेज से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में डिग्री की. 'रास्ता बनता रहे' (ग़ज़ल संग्रह) तथा 'संसार की धूप' (कविता संग्रह) के चर्चित कवि, ग़ज़लकार 'परवेज़' की अनुभव सम्पन्न दृष्टि में 'बनिये की तरह चौखट पर पसरते पेट' से लेकर जोड़, तक्सीम और घटाव की कसरत में फँसे, आँकड़े बनकर रह गये लोगों की तक़लीफ़ें, त्रासदी और लहुलुहान हक़ीक़तें दर्ज़ हैं जो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से, पढ़ने-सुनने वाले की रूह तक उतर जाने क्षमता रखती हैं.

हिमाचल के बहुत से युवा कवियों के प्रेरणा—स्रोत व अप्रतिम कवि श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' 24 जुलाई, 2006 इस संसार को अलविदा कह गये.उनकी चार ग़ज़लें आप सब ले लिए:

ग़ज़ल

भुरभुरी हिलती हुई दीवार गिर जाने तो दो
इस अँधेरी कोठरी में रौशनी आने तो दो

एक सूरज वापसी पर साथ लेता आऊँगा
इस अँधेरे से मुझे बाहर ज़रा जाने तो दो

आप मानें या न मानें ये अलग इक बात है
इस अँधेरे की वजह तुम मुझको समझाने तो दो

कुछ न कुछ तो आएगा ही इसके अंदर से जवाब
इस मकाँ के बन्द दरवाज़े को खटकाने तो दो

क्या ख़बर इस ठण्ड में कुछ आग हो जाए नसीब
राख के नीचे दबे शोलों को सुलगाने तो दो

ऐसा लगता है कि मिल जाएगा मंज़िल का सुराग
शम्अ पर जलने की ख़ातिर चन्द परवाने तो दो

इस बियाबाँ में यक़ीनन रंग लाएगी बहार
तुम ज़रा इस सम्त कुछ ताज़ा हवा आने तो दो

बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन






ग़ज़ल

हक़ हमारा छीन कर कुछ दान कर देते हैं वो
हम ग़रीबों पर बड़ा एहसान कर देते हैं वो

साफ़ सुनने की जहाँ भी कोशिशें करते हैं हम
बस वहीं बहरे हमारे कान कर देते हैं वो

बाँटते हैं रौशनी ईनआम में कुछ आपको
और कुंठित आपका ईमान कर देते हैं वो

उनके क़िस्से , उनकी बातें, उनके सारे फ़लसफ़े
आदमी को दोस्तो हैवान कर देते हैं वो

क्यूँ यहाँ हर रास्ते पर आज ट्रैफ़िक जाम है
पूछ ले कोई अगर चालान कर देते हैं वो

बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन








ग़ज़ल

अजीब रंग के दहरो-दयार थे यारो
तमाम लोग हवा पर सवार थे यारो

हर एक शख़्स को हमने जो ग़ौर से देखा
हर एक शख़्स के चेहरे हज़ार थे यारो

दयार-ए-ग़ैर में शिक़वे फ़ज़ूल थे वर्ना
हमारे दिल में बहुत-से ग़ुबार थे यारो

हमारा ज़र्फ़ कि हँस कर गुज़ार दी हमने
हयात में तो बहुत ग़म शुमार थे यारो

ये बात और कि वो शख़्स बेवफ़ा निकला
ये बात और हमें ऐतबार थे यारो

बहरे-मजतस
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन(फ़'इ'लुन)
1212 1122 1212 22/ 112






ग़ज़ल

वो कि जलते हुए सहरा में घटा जैसा था
ज़िन्दगी का ये सफ़र वर्ना सज़ा जैसा था

धूप दर धूप ही था यूँ तो मुकद्दर अपना
एक वो था कि फ़कत सर्द हवा जैसा था

उसके बारे में सिवा इसके भला क्या कहिये
सबके जैसा था मगर सबसे जुदा जैसा था

हमसे पूछो कि वहाँ कैसे गुज़र की हमने
यूँ उसके शहर का हर शख़्स ख़ुदा जैसा था

ज़िन्दगी क्या थी फ़क़त दर्दे मुसल्सल के सिवा
और वो शख़्स कि मरहम था दवा जैसा था

बहरे-रमल (मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़’इ’लुन(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112/22

Monday, April 13, 2009

डा. दरवेश भारती की एक ग़ज़ल











डा. दरवेश भारती एक अच्छे शायर के साथ-साथ अरूज़ी भी हैं और एक त्रैमासिक पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं.आज की ग़ज़ल पर उनकी एक ग़ज़ल आप सब के लिए.


ग़ज़ल

उनसे मिलना पाप हो गया
जीवन इक अभिशाप हो गया

उनका इकदम भूलना मुझे
दुर्वासा का शाप हो गया

पहले तो था बाप बाप ही
अब तो बेटा बाप हो गया

इतना मुश्किल काम क्या कहे
कैसे यूं चुपचाप हो गया

तुमसे गुपचुप बात हो गयी
गायत्री का जाप हो गया

शायद थे सत्कर्म पूर्व के
उनसे जो संलाप हो गया

जाने क्यों "दरवेश" आजकल
तू से तुम फिर आप हो गया

दो अशआर

ये बनाते हैं कभी रंक कभी राजा तुम्हें
ख्वाब तो ख़्वाब हैं ख़्वाबों पे भरोसा न करो

प्यार कर लो किसी लाचार से बेबस से फकत
चाहे पूजा किसी पत्थर की करो या न करो

शायर का पता:
डा॰ ‘दरवेश’ भारती
1414/14, गाँधी नगर
रोहतक - 124001
(हरियाणा)
+ 91 9968405576, 9416514461
ghazalkebahane.darveshbharti@gmail.com