Saturday, October 17, 2009

दिवाली विशेष














जैसे दिवाली चराग़ों के बिना अधूरी लगती है वैसे ही शायरी भी चरागों के बिना अधूरी है। ऐसा शायद ही कोई शायर हो जिसने चराग़ पर दो-चार शे’र न कहें हों। दिवाली का मौक़ा है , तो सोचा क्यों न चरागों को एक जगह तरतीब से जलाया जाए। शायर जो चराग़ जलाता है वो चराग़ कहीं तो अँधेरा चूसते हैं, कहीं आँधियों से टक्कर लेते हैं, कहीं दमागों को रौशन करते हैं और कहीं तनहाइयों के साथी हैं। आजकल शायर शम्मा कम जलाते हैं लेकिन चराग़ हर जगह रौशन करते हैं। दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ मुलाहिज़ा फ़रमांए चरागों पर कहे ये खूबसूरत अशआर-


दिल है गोया चराग किसी मुफलिस का
शाम ही से बुझा सा रहता है..मीर




बू-ए-गुल, नालह-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-मह्‌फ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशां निकला..गा़लिब




यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़..फ़िराक़




ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है..बशीर बद्र





कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए.. दुश्यंत




दिल में दिए जला के अंधेरे में जीना सीख
बुझते हुए चिराग़ का मातम फ़ुज़ूल है..कौसर सद्दीकी




मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चिराग़ कोई चिराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ..बशीर बद्र




हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना.
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन.. अहमद फ़राज़




आज की शब ज़रा ख़ामोश रहें सारे चराग़
आज महफिल में कोई शम्‍अ फ़रोजां होगी..नुसरत मेंहदी




दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है..वसीम बरेलवी




ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी
कोई चिराग़ नहीं और रोशनी है बहुत..किर्श्न बिहारी नूर




जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.. वसीम बरेलवी




कोई फूल बन गया है, कोई चाँद, कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गए हैं तेरी अंजुमन में जल के




मेरे मन की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
अभी तो झलकता है राम का बनवास आँखों में..साग़र पालमपुरी




यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ..महताब हैदर नक़बी




कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो ..अहमद फ़राज़




हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़
अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है..जां निसार अख़तर




आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम,
कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं




चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे




अजब चराग हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे




मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे,
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे,.




तूने जलाईं बस्तियाँ ले-ले के मशअलें
अपना चराग़ अपने ही हाथों बुझा के देख.. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'




रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिए जिया..चिराग जैन




हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर..जां निसार अख़तर




अंधेरे जश्न मनाने की भूल करते हैं
चिराग़ अब भी हवाओं पे वार करता है..इसहाक़ असर इन्दौरी




जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को,
सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं .. कैफ़ी आज़मी




तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़




कहाँ से ढूँढ के लाऊं चराग़ से वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कंवल-कंवल के लिए




चिराग़ हो कि ना हो, दिल जला के रखते हैं
हम आंधियों में भी तेवर बला के रखते हैं मिला..हसती




कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ ...इकबाल




इस एक ज़ौम में जलते हैं ताबदार चराग़
हवा के होश उड़ाएँगे बार - बार चराग़...बुनियाद हुसैन ज़हीन




उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग हैं
हमें तेरे ख्याल में मिली फकत चुभन चुभन ..मरयम गजाला




अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ




हवाओं को थाम लो ये फुर्क़त की शाम है
आहिस्ता साँस लो कि अब बुझता चराग है




चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे




चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी




हरेक मठ में जला फिर दिया दिवाली का,
हरेक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का..नज़ीर




तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों मे चराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए





उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने
अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते ..द्विजेंद्र द्विज




आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक
आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह..सतपाल ख़याल

अब एक शे’र बहुत ही अज़ीम शायर का ,मोहतरम खुमार बाराबंकवी जिनका अंदाज़ ही निराला था।

आँखों के चराग़ों मे उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे

और इस सुहावनी शाम को खुमार साहब की ग़ज़ल सुनिए जिसे गाया है मेरे मनपसंद गायक हंस राज हंस ने जिसकी आवाज़ दरगाहों में जलते चरागों सी रौशन है -




आज की ग़ज़ल से जुड़े तमाम शायरों और पाठकों को दीवाली की ढेर सारी शुभकामनाएं!!

Saturday, October 10, 2009

माधव कौशिक की ग़ज़लें और परिचय













उर्दू में कही जाने वाली ग़ज़ल के लहजे के समानांतर ग़ज़ल की एक नवीन धारा बह रही है जिसे देवनागरी मे लिखा जा रहा है और यकीनन इसने एक नया लहजा इख्तियार किया है जो सराहा भी जा रहा है। लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि उर्दू में कही जाने वाली ग़ज़ल को सिरे से नकार कर आप इस विधा को अलग दिशा नहीं दे सकते और आज तो दोनों भाषाएँ के शायर एक दूसरे से बहुत कुछ सीख भी रहे हैं और यही एक सही रास्ता भी है।

खै़र ! आज हम इसी नई धारा के एक क़दावर शायर से आपका परिचय करवा रहें हैं। इनका नाम है माधव कौशिक और आप चंडीगड़ साहित्य अकादमी के सचिव हैं, इनके अब तक नौ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 1953 में हरियाणा में जन्में माधव जी एक इमानदार शायर हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह की भूमिका में आपने कहा है कि आप साहित्य में इश्तेहारबाजी में यकीन नहीं रखते और घर पर बैठकर पढ़ना लिखना पसंद करते हैं। आपकी तीन ग़ज़लें और कुछ अशआर हाज़िर हैं-

एक

पानी से धुंध, धूप, हवा काट रहा हूँ
किस्मत मेरे जो था लिखा काट रहा हूँ

अपने किए हुए की खु़दा जाने कब मिले
अब तक तो दूसरों की सज़ा काट रहा हूँ

ग़र दे सके तो मेरी तू हिम्मत की दाद दे
पलकों से पत्थरों की शिला काट रहा हूँ

ए दोस्त! बुरे वक़्त की संगीनियां तो देख
बैठा हूँ जिसपे वो ही तना काट रहा हूँ

छंटते ही नहीं ज़ेहन से सवालों के अँधेरे
हर रोज़ रौशनी का गला काट रहा हूँ

दो

पनघट की पीर गोरी की गागर न ला सके
शहरों में अपने गांव का मंज़र न ला सके

अब रहज़नो कुछ आप ही मेरी मदद करो
हम को सही मुका़म पे रहबर न ला सके

जो आदमी के ज़िस्म में रहता है पोर-पोर
उस आदमी को ज़िस्म से बाहर न ला सके

पानी से प्यास बुझ न सकी अपने दौर की
अमृत को हम ज़मींन से उपर न ला सके

बरसों से उसको हाथ में थामे रहे मगर
अधरों के पास प्यास का साग़र न ला सके

सच बोलने की दोस्तो इतनी सज़ा मिली
ग़र बच गई जुबान तो हम सर न ला सके

तीन

भरोसा क्या करे कोई तिजारत के हवालों का
न सत्ता का यकीं हमको, न सत्ता के दलालों का

दिखाई भी नहीं देता हमें उगता हुआ सूरज
अँधेरा तल्ख़ है इतना सवालों ही सवालों का

शुरू से अंत तक सब चित्र नंगे, शब्द भी नंगे
किसी वैश्या से भी बदतर हुआ हुलिया रिसालों का

तुम्हारी आँख में आँसू चमकते हैं मगर ऐसे
कि जैसे धूप में दमके कलश ऊँचे शिवालों का

कुछ चुनिंदा अशआर-

दल गया इंसान मशीनी पुर्ज़े में
हाथों की हिम्मत ख़तरे में लगती है

ख्वा में भी दूसरा कोई कभी दिखता नहीं
जाने किस की आँख का काजल मेरी आँखों मे है

को बढ़ते हुए दरिया के कानों में कहे जाकर
बहुत मुशकिल से मिट्टी का मकां तैयार होता है

इंसानीयत के दायरे मज़हब से दूर हैं
गीता से हर कुरान से आगे की बात कर

शायर का पता-
कवि माधव कौशिक
3277, सेक्टर - 45 डी
चंडीगढ़

Wednesday, October 7, 2009

तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं














इस बार का तरही मिसरा है-

"तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं"

बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन x 4
1222 x4
काफ़िया- पहचान, मान, जान आदि।
रदीफ़- लेते हैं।

ये मिसरा फ़िराक़ गोरखपुरी की मशहूर ग़ज़ल से लिया गया है।
ज़्यादा लंबी ग़ज़लें न भेजें और भेजने से पहले अच्छी तरह जाँच-परख लें। आप अपनी ग़ज़लें 20.10.2009 के बाद ही भेजें।पहली किश्त नवंबर के दूसरे हफ़्ते में प्रकाशित होगी।

Thursday, October 1, 2009

मुनव्वर जी की ताज़ा ग़ज़ल















कल रात एक शे’र ऐसा नज़र से गुज़रा कि मैं अंदर तक सिहर उठा और ये शे’र अपने आप में एक फ़लसफ़ा है, आप इस शे’र पर पूरा एक ग्रंथ लिख सकते हैं। ये शे’र हमारे कई सवालों का- कि शे’र कैसा होना चाहिए, ग़ज़ल का मिज़ाज कैसा हो, ये फ़न कैसे सीखा जाए, बात कहने का हुनर कैसा हो आदि का जवाब है। इस शे’र के ज़िक्र से पहले बशीर साहब का ये शे’र देखिए-

ये शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है

ये शे’र ग़ज़ल की नज़ाकत, अदा, खूबसूरती के बारे में कहा गया बेहतरीन शे’र है।बाकई ग़ज़ल शबनमी लहजा चाहती है और फूल का तितली की कहानी बयान करने जैसा ही है ग़ज़ल कहना।लेकिन जो शे’र कल मैनें पढ़ा वो इससे आगे की बात करता है। लीजिए शे’र हाज़िर है जो अपने आप में किसी दीवान से कम नहीं। आप चाहें तो इस पर Ph.d कर सकते हैं।

शे’र है-

ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना

और ये शे’र फ़क़ीर जैसे शायर जनाब मुनव्वर राना का है। बाक़ई शायरी का फ़न किताबों से नहीं इबादतगा़हों से सीखना पड़ता है और हीरे को फूल की पत्ती से काटने जैसा हुनर है शायरी। जो नफरत तक को मुहव्बत से काट देती है और जब आज सुबह उनसे बात हुई तो उन्होंने कहा कि" मैं तो कहता हूँ कि हर सियासी और सरकारी अफ़सर की तालीम का ये हिस्सा होना चाहिए कि वो पीरों-फ़क़ीरों की मज़ारों पर जाकर इस हुनर की तालीम लें कि कैसे हीरे जैसे सख़्त मुद्दों,.चोरी, दंगा, भूक़,ज़हालत,नफरत, फ़िरकापरस्ती आदि को फूल की पत्ती से काटना है, ख़त्म करना है।" ये बात शायरी पर भी बराबर लागू होती है कोई अच्छा शे’र कहना भी किसी हीरे को फूल की पत्ती से काटने से कम नही और इस इस फ़न के माहिर हैं-मुनव्वर राना। मुनव्वर राना उन शायरों मे शुमार होते हैं जिनकी बदौलत ग़ज़ल और अमीर हुई और मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि शायर होना आसान है लेकिन मुनव्वर राना बनना आसान नहीं और इतनी भीड़ में अपनी शायरी की चमक से वो अलग नज़र आते हैं। उनकी इजाज़त के साथ मुलाहिज़ा फ़रमाइए उनकी ये ग़ज़ल

ग़ज़ल

इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना
जैसे दवा की पन्नी को कैंची से काटना

छत्ते से छेड़छाड़ की आदत मुझे भी है
सीखा है उसने शहद की मक्खी से काटना

इन्सान क़त्ल करने के जैसा तो ये भी है
अच्छे भले शजर को कुल्हाड़ी से काटना

पानी का जाल बुनता है दरिया तो फिर बुने
तैराक जानता है हथेली से काटना

रहता है दिन में रात के होने का इंतज़ार
फिर रात को दवाओं की गोली से काटना

ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना


मुमकिन है मैं दिखाई पड़ूँ एक दिन तुम्हें
यादों का जाल ऊन की तीली से काटना

इक उम्र तक बज़ुर्गों के पैरों मे बैठकर
पत्थर को मैने सीखा है पानी से काटना

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12


मुझे इस बात खुशी है कि "आज की ग़ज़ल" अब उन अज़ीम शायरों तक पहुँच रही जो अपने आप में एक मिसाल हैं। मुनव्वर जी जैसे क़दावर शायर तक हमारा पहुँचना यकीनन एक दरिया को समंदर मिल जाने जैसा है। इस सब के पीछे द्विज जी का आशीर्वाद और आप मित्रों का स्नेह है।

Sunday, September 27, 2009

कृष्ण बिहारी 'नूर' की दो ग़ज़लें














इनका जन्म जन्म: 8 नवंबर 1925 लखनऊ में हुआ। इन्होंने शायरी में अपने सूफ़ियाना रंग से एक अलग पहचान बनाई। उर्दू और हिंदी दोनों से एक सा प्रेम करने वाले "नूर" 30 मई 2003 को इस संसार को अलविदा कह गए। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं-

एक

आते-जाते साँस हर दुख को नमन करते रहे
ऊँगलियां जलती रहीं और हम हवन करते रहे

कार्य दूभर था मगर ज्वाला शमन करते रहे
किस ह्रदय से क्या कहें इच्छा दमन करते रहे

साधना कह लीजिए चाहे तपस्या अंत तक
एक उजाला पा गए जिसको गहन करते रहे

दिन को आँखें खोलकर संध्या को आँखे मूँधकर
तेरे हर इक रूप की पूजा नयन करते रहे

हम जब आशंकाओं के परबत शिखर तक आ गए
आस्था के गंगाजल से आचमन करते रहे

खै़र हम तो अपने ही दुख-सुख से कुछ लज्जित हुए
लोग तो आराधना में भी ग़बन करते रहे

चलना आवश्यक था जीवन के लिए चलना पड़ा
’नूर’ ग़ज़लें कह के दूर अपनी थकन करते रहे

दो

बस एक वक्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है

मैं क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

मैं देवता की तरह क़ैद अपने मन्दिर में
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है

मैं जिसके हाथ में एक फूल देके आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

मैं साज़िशों में घिरा इक यतीम शहज़ादा
यहीं कहीं कोई ख़ंजर मेरी तलाश में है

Sunday, September 20, 2009

अब्दुल हमीद" अदम" की ग़ज़लें














अब्दुल हमीद "अदम" अपनी ख़ास शैली और भाषा के लिए जाने जाते थे। उनका जन्म 1909में तलवंडी मूसा खाँ(पाकिस्तान में) हुआ था।उन्होंने बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की और पाकिस्तान सरकार के ऑडिट एण्ड अकाउंट्स विभाग में ऊँचे ओहदे पर रहे। शराब के शौकीन इस शायर की ये पंक्तियां पढ़ें-

शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
ये मुस्कराती हुई चीज़ मुस्करा के पिला
सरूर चीज़ की मिक़दार पर नहीं मौकू़फ़
शराब कम है तो साकी नज़र मिला के पिला


आज वो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वो अंदाज़ आज भी ज़िंदा है।भले ही आज ग़ज़ल एक अलग पहचान बना रही है लेकिन कभी हुस्नो-इश्क़ भी इसके ज़ेवर रहे हैं और इनका भी अपना ही स्थान है शायरी में , इन्हें पढ़ने-सुनने में कोई बुराई नहीं है , आप भी इस शायर की ग़ज़लों का आनंद लें।

एक

गिरह हालात में क्या पड़ गई है
नज़र इक महज़बीं से लड़ गई है

निकालें दिल से कैसे उस नज़र को
जो दिल में तीर बनकर गड़ गई है

मुहव्बत की चुभन है क़्ल्बो-जाँ* में
कहाँ तक इस मरज़ की जड़ गई है

ज़रा आवाज़ दो दारो-रसन* को
जवानी अपनी ज़िद्द पे अड़ गई है

हमें क्या इल्म था ये हाल होगा
"अदम" साहब मुसीबत पड़ गई है

क़्ल्बो-जाँ-दिल और जान,दारो-रसन-फाँसी
दो

डाल कर कुछ तही* प्यालों में
रंग भर दो मेरे ख़यालों में

ख्वाहिशें मर गईं ख़यालों में
पेच आया न उनके बालों में

उसने कोई जवाब ही न दिया
लोग उलझे रहे सवालों में

दैरो-काबे की बात मत पूछॊ
वाकि़यत* गुम है इन मिसालों में

आज तक दिल में रौशनी है "अदम"
घिर गए थे परी जमालों में

वाकि़यत-असलियत,तही-खाली
तीन

सर्दियों की तवील* राते हैं
और सौदाईयों सी बातें हैं

कितनी पुर नूर थी क़दीम* शबें
कितनी रौशन जदीद रातें हैं

हुस्न के बेहिसाब मज़हब हैं
इश्क़ की बेशुमार रातें हैं

तुमको फुर्सत अगर हो तो सुनो
करने वाली हज़ार बातें हैं

ज़ीस्त के मुख़्तसर से वक़्फ़े* में
कितनी भरपूर वारदातें हैं

तवील-लंबी,क़दीम-पुरानी,जदीद -नई,वक़्फ़े-अवधि

Tuesday, September 15, 2009

ज्ञान प्रकाश विवेक की ग़ज़लें और परिचय









30 जनवरी 1949 को हरियाणा मे जन्में ज्ञान प्रकाश विवेक चर्चित ग़ज़लकार हैं । इनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं "प्यास की ख़ुश्बू","धूप के हस्ताक्षर" और "दीवार से झाँकती रोशनी", "गुफ़्तगू आवाम से" और "आँखों मे आसमान"। ये ग़ज़लें जो आपके लिए हाज़िर कर रहे हैं ये उन्होंने द्विज जी को भेजीं थीं ।

एक

उदासी, दर्द, हैरानी इधर भी है उधर भी है
अभी तक बाढ़ का पानी इधर भी है उधर भी है

वहाँ हैं त्याग की बातें, इधर हैं मोक्ष के चर्चे
ये दुनिया धन की दीवानी इधर भी है उधर भी है

क़बीले भी कहाँ ख़ामोश रहते थे जो अब होंगे
लड़ाई एक बेमानी इधर भी है उधर भी है

समय है अलविदा का और दोनों हो गए गुमसुम
ज़रा-सा आँख में पानी इधर भी है उधर भी है

हुईं आबाद गलियाँ, हट गया कर्फ़्यू, मिली राहत
मगर कुछ-कुछ पशेमानी इधर भी है उधर भी है

हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग-सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है

(बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
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दो

तुम्हें ज़मीन मिली और आसमान मिला
हमें मिला भी तो विरसे में ख़ाकदान मिला

ज़रूर है किसी पत्थर के देवता का असर
कि जो मिला मुझे बस्ती में बेज़ुबान मिला

वो मेरे वास्ते पत्थर उबाल लाया है-
तू आके देख मुझे कैसा मेज़बान मिला

तू मुझसे पूछ कि बेघर को क्या हुआ हासिल
मिला मकान तो हिलता हुआ मकान मिला

सुना है जेब में बारूद भर के रखता था
जो शख़्स आज धमाकों के दरमियान मिला

तू उससे पूछ दरख़्तों की अहमियत क्या है
कि तेज़ धूप में जिसको न सायबान मिला

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

तीन

लोग ऊँची उड़ान रखते हैं
हाथ पर आसमान रखते हैं

शहर वालों की सादगी देखो-
अपने दिल में मचान रखते हैं

ऐसे जासूस हो गए मौसम-
सबकी बातों पे कान रखते हैं

मेरे इस अहद में ठहाके भी-
आसुओं की दुकान रखते हैं

हम सफ़ीने हैं मोम के लेकिन-
आग के बादबान रखते हैं

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112

चार

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीये क्यूँ बुझा के रखता था

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लकें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था

वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था

न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था

हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था

मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

पाँच

मुझे मालूम है भीगी हुई आँखों से मुस्काना
कि मैंने ज़िन्दगी के ढंग सीखे हैं कबीराना

यहाँ के लोग तो पानी की तरह सीधे-सादे हैं
कि जिस बर्तन में डालो बस उसी बर्तन-सा ढल जाना

बयाबाँ के अँधेरे रास्ते में जो मिला मुझको
उसे जुगनू कहूँ या फिर अँधेरी शब का नज़राना

वो जिस अंदाज़ से आती है चिड़िया मेरे आँगन में
अगर आना मेरे घर में तो उस अन्दाज़ से आना

न कुर्सी थी, न मेज़ें थीं, न उसके घर तक़ल्लुफ़ था
कि उसके घर का आलम था फ़कीराना-फ़कीराना

(बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

Saturday, September 12, 2009

नज़र में सभी की खु़दा कर चले -अंतिम किश्त











कभी रात रोके अगर रास्ता
सितारों की चूनर बिछा कर चले

पुर्णिमा जी का मैं शुक्रगुज़ार हूँ कि "आज की ग़ज़ल" के लिए उन्होंने नये ब्लाग हैडर तैयार किए। सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया जिन्होंने इस तरही को सफल बनाया और अपने तमाम शायर दोस्तों का मुफ़लिस जी का,मनु का,गौतम जी का,नीरज जी का, पुर्णिमा जी का और नए शायर तिलक राज कपूर और आशीष राज हंस का और बर्की साहब का और अपने गुरू जी श्री द्विजेन्द्र द्विज जिनके आशीर्वाद से ये सब हो रहा है। तो लीजिए अंतिम किश्त हाज़िर है-

पूर्णिमा वर्मन

अँधेरे में रस्ता बना कर चले
दिये हौसलों के जला कर चले

वे अपनो की यादों में रोए नहीं
वतन को ही अपना बना कर चले

कभी रात रोके अगर रास्ता
सितारों की चूनर बिछा कर चले

खड़े सरहदों पे निडर पहरुए
वो दिन-रात सब कुछ भुला कर चले

जिए ऐसे माटी के पुतले में वो
नज़र में सभी की खु़दा कर चले

सतपाल ख़याल

तुझे ज़िंदगी यूँ बिता कर चले
कि पलकों से अंगार उठा कर चले

चले जब भी तनहा अँधेरे में हम
तो मुट्ठी मे जुगनू छुपा कर चले

ग़ज़ल की भला क्या करूं सिफ़त मैं
ये क़ूज़े में दरिया उठा कर चले

हरिक मोड़ पर थी बदी दोस्तो
चले जब भी दामन बचा कर चले

कभी दोस्ती और कभी दुशमनी
निभी हमसे जितनी निभा कर चले

चले कर्ज़ लेकर कई सर पे हम
कई कर्ज़ थे जो अदा कर चले

हमीं थे जो इक *दिलशिकन यार को
नज़र में सभी की खु़दा कर चले

हुई दुशमनी की "खयाल" इंतिहा
मेरी खाक भी तुम उड़ा कर चले

*दिलशिकन-दिल तोड़ने वाला

Thursday, September 10, 2009

नज़र में सभी की खु़दा कर चले- चौथी किश्त










खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले


मनु के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन तरही ग़ज़लें


डी.के. मुफ़लिस

जो सच से ही नज़रें बचा कर चले
समझ लो वो अपना बुरा कर चले

चले जब भी हम मुस्कुरा कर चले
हर इक राह में गुल खिला कर चले

हम अपनी यूँ हस्ती मिटा कर चले
मुहव्बत को रूतबा अता कर चले

लबे-बाम हैं वो मगर हुक़्म है
चले जो यहाँ सर झुका कर चले

इसे उम्र भर ही शिकायत रही
बहुत ज़िन्दगी को मना कर चले

वो बादल ज़मीं पर तो बरसे नहीं
समंदर पे सब कुछ लुटा कर चले

हमें तो खुशी है कि हम आपको
नज़र में सभी की खु़दा कर चले

चकाचौंध के इस छलावे में हम
खुद अपना ही विरसा भुला कर चले

किताबों में चर्चा उन्हीं की रही
ज़माने में जो कुछ नया कर चले

खुदा तो सभी का मददगार है
बशर्ते बशर इल्तिजा कर चले

कब इस का मैं 'मुफ़लिस' भरम तोड़ दूँ
मुझे ज़िन्दगी आज़मा कर चले

मनु बे-तख़ल्लुस

ये साकी से मिल हम भी क्या कर चले
कि प्यास और अपनी बढा कर चले

खुदाया रहेगी कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खा कर चले

चुने जिनकी राहों से कांटे वही
हमें रास्ते से हटा कर चले

तेरे रहम पर है ये शम्मे-उमीद
बुझाकर चले या जला कर चले

रहे-इश्क में साथ थे वो मगर
हमें सौ दफा आजमा कर चले

खफा 'बे-तखल्लुस' है उन से तो फिर
जमाने से क्यों मुँह बना कर चले

आशीष राजहंस

तेरे इश्क का आसरा कर चले
युँ तै उम्र का फ़ासला कर चले

थे आंखों में बरसों सँभाले हुए
तेरे नाम मोती लुटा कर चले

सदा की तरह बात हमने कही
सदा की तरह वो मना कर चले

खुदा ही है वो, हम ये कैसे कहें-
नज़र में सभी की खु़दा कर चले

है रोज़े-कयामत का अब इन्तज़ार
खयाले-विसाल अब मिटा कर चले

कभी भी मिले तो गिला न कहा
हर इक बार खुद से गिला कर चले

Monday, September 7, 2009

नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले -तीसरी किश्त











नए और पुराने ग़ज़लकारों को एक साथ पेश करने से नए शायरों को सीखने को भी मिलता है और उनका हौसला भी बढ़ता है। इसी प्रयास के साथ हाज़िर हैं अगली तीन ग़ज़लें-

भूपेन्द्र कुमार

वो सर प्रेमियों के कटा कर चले
पुजारी अहिंसा के क्य़ा कर चले

तसव्वुर में तारी ख़ुदा ही तो था
जो रूठे सनम को मना कर चले

था मुश्किल जिसे करना हासिल उसे
निगाहों-निगाहों में पा कर चले

ख़यालों में जिनके थे डूबे वही
इशारों पे अपने नचा कर चले

भगीरथ तो लाया था गंगा यहाँ
धरा हम मगर ये तपा कर चले

तिलक राज कपूर 'राही ग्‍वालियरी'

जहां को कई तो सता कर चले
कई इसके दिल में समा कर चले।

मसीहा हमें वो बता कर चले
नज़र में सभी की खुदा कर चले

हमें रौशनी की थी उम्‍मीद पर
वो आये, चमन को जला कर चले

अकेला हूँ, लेकिन मैं तन्‍हा नहीं
वो यादों को अपनी बसाकर चले

न ‘राही’ को शिकवा शिकायत रही
यहॉं की यहीं पर भुला कर चले।

देवी नांगरानी

जो काँटों से उलझा किये उम्र भर
वो फूलों से दामन बचाकर चले

नहीं रूबरू हैं वो आते कभी
जो आंखें मिलाकर चुराकर चल

नयी रस्में उल्फत की आती रहीं
समय कुछ सलीके सिखाकर चले

मेरा हाल भी कुछ है उनकी तरह
जो हाल अपने दिल में दबाकर चले

जो शबनम की मानिंद बरसते थे कल
वही आज बिजली गिराकर चले

वफ़ा इस कलम ने की देवी से कुछ
तो कुछ लफ्ज़ उससे निभाकर चले

Friday, September 4, 2009

नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले -दूसरी किश्त











न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

बर्क़ी जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन ग़ज़लें-

डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी

जो था अर्ज़ वह मुद्दआ कर चले
जफाओं के बदले वफा कर चले

कोई उसका इनआम दे या न दे
जो था फ़र्ज़ अपना अदा कर चले

है वादा ख़िलाफ़ी तुम्हारा शआर
किया था जो वादा निभा कर चले

खटकता है तुमको हमारा वजूद
हमीं थे जो सब कुछ फ़िदा कर चले

नहीं है कोई अपना पुरसान-ए-हाल
जो कहना था हमको सुना कर चले

सुनूँ मैं भी तुम यह बताओ कहां
मेरा ख़ून-ए-नाहक़ बहा कर चले

सितम सह के भी हमने उफ तक न की
हम उसके लिए यह दुआ कर चले

न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

तुम ऐसे सनम हो जिसे हम सदा
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

नज़र अब चुराते हैं वह गुल अज़ार
जिन्हें सुर्ख़रू बारहा कर चले

यक़ीं तुमको मेरी बला से न आए
जो थी बदगुमानी मिटा कर चले

तबीयत है बर्क़ी की जिद्दत पसंद
किसी ने नहीं जो किया कर चले

प्रेमचंद सहजवाला

वो नज़रे-करम मुझ पे क्या कर चले
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले

यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले

किये नज़्र तुमने जो अरमान कल
वही आज लोरी सुना कर चले

सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले

मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले

ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर

रहे-इश्क़ में हम यह क्या कर चले
कसक दिल की किसको सुना कर चले

ग़मो- दर्द जिसने न समझे कभी
उसे ज़ख़्मे-दिल क्यों दिखा कर चले

कहीं हसरतें आह भरती रहीं
कही जामे-उलफ़त लुढ़ा कर चले

वह जाज़िब नज़र हो गया पैरहन
जिसे आप तन पर सजा कर चले

जो रस्म-ए-वफ़ा तर्क करते रहे
वही बा वफ़ा से गिला कर चले

भला इश्क़ क्यूँ हुस्न-ए-मग़रूर से
बता आजज़ी इल्तेजा कर चले

वो सुन कर मेरी दास्तान-ए-अलम
बडे नाज़ से मुस्कुरा कर चले

चली ज़ुलमत-ए-शब की आंधी बहुत
दीया हम भी सर पर जला कर चले

न था जिस सनम का कोई उसको हम
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले