Monday, November 16, 2009

चौथी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

प्रेमचंद सहजवाला

सफ़र मंज़िल का मुश्किल है क़दम ये जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

ग़ज़ल कहना तो आला शाइरों का काम होता है
मगर नादाँ इसे कहना समझ आसान लेते हैं

चुनावों में तो रौनक़ सी नज़र आती है हर जानिब
हमारे गाँव में डाकू भी मूंछें तान लेते हैं

हमें तहज़ीब का रस्ता वो लाठी से सिखाते हैं
मगर हम लोग उन की असलियत को जान लेते हैं

अगरचे आप फ़ितरत से ही तानाशाह लगते हैं
कहा हम आप का फिर भी हमेशा मान लेते हैं

जवानों की न हिम्मत पर कभी हैरान हो साथी
वही करते हैं वो जांबाज़ जो कुछ ठान लेते हैं

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

बुज़ुर्गों के तजुर्बे का कहां अहसान लेते हैं
वही करते हैं बच्चे दिल में जो भी ठान लेते हैं.

हमारी कश्तियाँ हैं सब की सब सागर की हमजोली
हमारे *अज़्म से टक्कर कहां तूफान लेते हैं

महक जाती हैं ये सांसें तेरे आने की आहट से
तुझे ऐ जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

मुहब्बत की अदालत में दलीलें चल नहीं पातीं
वो खु़द को बावफ़ा कहते हैं तो हम मान लेते हैं

हमारी गु़फ्तगू में एक ये मुश्किल तो है 'शाहिद'
ग़ज़ल के वास्ते अल्फाज़ भी आसान लेते हैं

*अज्म-दृढ़ प्रतिज्ञा, मज़बूत इरादा

Saturday, November 14, 2009

तरही की तीसरी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गौतम राजरिषी

हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं

लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये परबत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं

हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं

हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं

इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं

है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?

पूर्णिमा वर्मन

मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं

कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं

दया, ईमान, सच, इख़्लाक़ ,सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक़ के सामान लेते हैं

कभी खुशियों की बौछारें,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

भले ही दूर हो मंज़िल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं

Friday, November 13, 2009

तरही की दूसरी क़िस्त














मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गिरीश पंकज

मुहब्बत में ग़लत को भी सही जब मान लेते हैं
वो कितना प्यार करते हैं इसे हम जान लेते हैं

मैं आशिक हूँ, दीवाना हूँ, न जाने और क्या-क्या हूँ
मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं

अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

मुझे जब खोजना होता है तो बेफिक्र हो कर के
मेरे सब यार मयखानों के दर को छान लेते हैं

मुझे दुनिया की दौलत से नहीं है वास्ता कुछ भी
है जितना पैर अपना उतनी चादर तान लेते हैं

कोई भी काम नामुमकिन नहीं होता यहाँ पंकज
वो सब हो जाता है पूरा अगर हम ठान लेते हैं

चंद्रभान भारद्वाज

हवा का जानकर रूख हम तेरा रूख जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है

हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं

उदासी से घिरा चेहरा तेरा अच्छा नहीं लगता
तुझे खुश देखने को बात तेरी मान लेते हैं

न कोई जान लेते हैं न लेते माल ही कोई
फकत वे आदमी का आजकल ईमान लेते हैं

हज़ारों बार आई द्वार तक हर बार लौटा दी
बचाने ज़िन्दगी को मौत का अहसान लेते हैं

सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं

Wednesday, November 11, 2009

तरही की तीसरी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गौतम राजरिषी

हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं

लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं

हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं

हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं

इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं

है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?

मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं


पूर्णिमा वर्मन

कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं

दया, ईमान, सच, इखलाक़ सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक के सामान लेते हैं

कभी खुशियों की बौछारे,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

भले ही दूर हो मंजिल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं

Monday, November 9, 2009

तरही की पहली क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर पहली दो ग़ज़लें


डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी

वे कैसे हैं, कहाँ हैं,हम यह फौरन जान लेते हैं
कभी भी नामाबर का हम नहीं अहसान लेते हैं

बहुत नाज़ुक है उसका शीशा-ए-दिल टूट जाएगा
वो जो कहता है अकसर इस लिए हम मान लेते हैं

मसल मशहूर है यह दिल को दिल से राह होती है
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

फ़िदा होकर हम उसकी शमे-रुख़ पर मिसले-परवाना
फिर उस से मिल के अपनी मौत का सामान लेते हैं

हदीसे-दिलबरी अफसान-ए-हस्ती की है मज़हर
हक़ीक़ी ज़िंदगी से जिसका हम उनवान लेते हैं

नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं

जो हैं इंसानियत के दुशमन ऐ अहमद अली बर्क़ी
वे हैं हैवान जो नौ-ए-बशर की जान लेते हैं

ख़ेरद-अक़्ल,मसल-मुहावरा,मज़हर-निशानी,इज़हार, नौ-ए-बशर-इंसान

डी.के. मुफ़लिस

ख़ुद अपनी राह चलते हैं, ख़ुद अपनी मान लेते हैं
हम अहले-दिल किसी का कब भला अहसान लेते हैं

सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं

मुख़ालिफ़ वक़्त भी उन पर बहुत आसां गुज़रता है
ख़ुदा के हुक्म को जो ख़ुशदिली से मान लेते हैं

उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है
जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं

कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं

असर रहता है क़ायम मुस्तक़िल तहरीर में उनकी
सुख़नसाज़ी में फ़िक्र-ओ-फ़न का जो मीज़ान लेते हैं

बदल ले लाख अब 'मुफ़लिस' तू रंगत अपने चेहरे की
तेरे तर्ज़े-बयाँ से सब तुझे पहचान लेते हैं


अहले-दिल=दिल वासी ,मुख़ालिफ़=विरोधी,मुस्तक़िल=हमेशा, स्थायी, तहरीर=लिखावट ,सुख़नसाज़ी=लेखन प्रक्रिया
फिक्रो फ़न=चिंतन और कला,मीज़ान=तराज़ू ,तर्ज़-ए-बयाँ=कथन शैली


छोटी सी सूचना - दोस्तो ! एक छोटी सी सूचना है , मेरी आवाज़ में मेरी कुछ ग़ज़लें और शे’र रिकार्ड हुए हैं और इसे आप urdu-anjuman पर सुन सकते हैं। समय मिले तो ६ मिंन्ट ज़रूर सुनियेगा ये रहा लिंक-
http://www.bazm.urduanjuman.com/index.php?topic=4279.0

धन्यावाद

Tuesday, November 3, 2009

बलवीर राठी की ग़ज़लें और परिचय











उर्दू अदब को जाने बिना ग़ज़ल कहना बैसा ही है जैसे कबीर को पढ़े बिना दोहा लिखना।गा़लिब से परिचित हुए बगैर कोई ग़ज़ल नहीं कह सकता है। खै़र,आज हम ग़ज़लें पेश कर रहे हैं,1934 में हरियाणा में जन्में बलवीर राठी की, जिनके अब तक ३ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।बज़ुर्ग शायर हैं और बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और हरियाणा साहित्य अकादमी से सम्मान हासिल कर चुके हैं।

एक

गो पुरानी हो चुकी अब होश में आने की बात
लोग फिर भी कर रहे हैं मुझको समझाने की बात

रफ़्ता-रफ़्ता ढल गई है सैंकड़ों नग़मात में
ए दिले-मासूम तेरे एक अफ़साने कि बात

अपना-अपना ग़म लिए फिरते हैं इस दुनिया में लोग
कौन समझेगा यहाँ अब तेरे दीवाने की बात

ज़िंदगी उलझी हुई है और ही जंजाल में
अब कहां वो साग़रो-मीना की, मयखाने की बात

अजनबी माहौल में अपने तो लब खुलते नहीं
तुम ही छेड़ो आज इस रंगीन अफ़साने की बात

(रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल)

दो

तेज़ लपटों में ढल गया हूँ मैं
कोई सूरज निगल गया हूँ मैं

कितने राहत-फ़िज़ा थे अंगारे
बर्फ लगते ही जल गया हूँ मैं

तुमने बांधा था जिन हदों मे मुझे
उन हदों से निकल गया हूँ मैं

हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है
तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं

मत बुलंदी की बात कर "राठी"
अब वहां से फिसल गया हूँ मैं

(बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

तीन

हमें साथ मिल तो गया था किसी का
मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का

कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते
यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का

वफ़ा एक मुद्दत हुई मिट चुकी है
कहाँ नाम लेते हो अब दोस्ती का

अगर साथ होते वो इन रास्तों पर
तो क्या हाल होता मेरी आगही का

मेरे हाल पर मुस्करा कर गए हैं
चलो हक़ अदा हो गया दोस्ती का

बहरे-मुतका़रिब मसम्मन सालिम
(चार फ़ऊलुन )122x4


शायर का पता-
3836 अरबन इस्टेट
जींद- हरियाणा
फोन-01681-247351

Monday, October 26, 2009

गिरीश पंकज-ग़ज़लें और परिचय










1957 में जन्में गिरीश पंकज की अब तक 28 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और एक ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही प्रकाशित हो रहा है।आप दिल्ली साहित्य अकादमी के सदस्य हैं और सद्भावना दर्पण नामक पत्रिका के संपादक भी हैं। "आज की ग़ज़ल" पर पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-

एक

मै अँधेरे में उजाला देखता हूँ
भूख में रोटी-निवाला देखता हूँ

आदमी के दर्द की जो दे खबर भी
है कहीं क्या वो रिसाला देखता हूँ

हो गए आजाद तो फिर किसलिए मैं
आदमी के लब पे ताला देखता हूँ

हूँ बहुत प्यासा मगर मैं क्या करूं अब
तृप्त हाथों में ही प्याला देखता हूँ

कोई तो मिल जाए बन्दा नेकदिल सा
ढूंढता मस्जिद, शिवाला देखता हूँ

दो

तुम मिले तो दर्द भी जाता रहा
देर तक फ़िर दिल मेरा गाता रहा

देख कर तुमको लगा हरदम मुझे
जन्मों-जन्मो का कोई नाता रहा

दूर मुझसे हो गया तो क्या हुआ
दिल में उसको हर घड़ी पाता रहा

अब उसे जा कर मिली मंजिल कहीं
जो सदा ही ठोकरे खाता रहा

मुफलिसी के दिन फिरेंगे एक दिन
मै था पागल ख़ुद को समझाता रहा

ज़िन्दगी है ये किराये का मकां
इक गया तो दूसरा आता रहा

तीन

आपकी शुभकामनाएँ साथ हैं
क्या हुआ गर कुछ बलाएँ साथ हैं

हारने का अर्थ यह भी जानिए
जीत की संभावनाएं साथ हैं

इस अँधेरे को फतह कर लेंगे हम
रौशनी की कुछ कथाएँ साथ हैं

मर ही जाता मैं शहर में बच गया
गाँव की शीतल हवाएं साथ हैं

ये सफ़र अंतिम हैं खाली हाथ लोग
पर हजारों वासनाएँ साथ हैं

(बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्लों मे कही गई ग़ज़लें)

शायर का पता-
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
जी-३१, नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०

Wednesday, October 21, 2009

जतिन्दर परवाज़ की ग़ज़लें और परिचय













1975 में जन्में जतिन्दर "परवाज़" की तीन ग़ज़लें हम पेश कर रहे हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" भाग-२ में इनकी ग़ज़लें शामिल हैं । युवा शायर हैं और बहुत अच्छे शे’र कहते हैं। आल इंडिया मुशायरों में शिरकत कर चुके हैं। इनसे अदब को बहुत उम्मीदें हैं। इनका ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही आ रहा है।

एक

शजर पर एक ही पत्ता बचा है
हवा की आँख में चुभने लगा है

नदी दम तोड़ बैठी तिशनगी से
समंदर बारिशों में भीगता है

कभी जुगनू कभी तितली के पीछे
मेरा बचपन अभी तक भागता है

सभी के खून में गैरत नही पर
लहू सब की रगों में दोड़ता है

जवानी क्या मेरे बेटे पे आई
मेरी आँखों में आँखे डालता है

चलो हम भी किनारे बैठ जायें
ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है

बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

दो

ख़्वाब देखें थे घर में क्या क्या कुछ
मुश्किलें हैं सफ़र में क्या क्या कुछ

फूल से जिस्म चाँद से चेहरे
तैरता है नज़र में क्या क्या कुछ

तेरी यादें भी अहले-दुनिया भी
हम ने रक्खा है सर में क्या क्या कुछ

ढूढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता
था हमारे भी घर में क्या क्या कुछ

शाम तक तो नगर सलामत था
हो गया रात भर में क्या क्या कुछ

हम से पूछो न जिंदगी 'परवाज़'
थी हमारी नज़र में क्या क्या कुछ

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

तीन

यार पुराने छूट गए तो छूट गए
कांच के बर्तन टूट गए तो टूट गए

सोच समझ कर होंट हिलाने पड़ते हैं
तीर कमाँ से छूट गए तो छूट गए

शहज़ादे के खेल खिलोने थोड़ी थे
मेरे सपने टूट गए तो टूट गए

इस बस्ती में कौन किसी का दुख रोये
भाग किसी के फूट गए तू फूट गए

छोड़ो रोना धोना रिश्ते नातों पर
कच्चे धागे टूट गए तो टूट गए

अब के बिछड़े तो मर जाएंगे 'परवाज़'
हाथ अगर अब छूट गए तो छूट गए

पाँच फ़ेलुन+एक "फ़े"


संपर्क -
गाँव - शाहपुर कंडी ,
तहसील - पठानकोट,पंजाब -145029
मोबाइल- +919868985658
ईमेल -jatinderparwaaz@gmail.com

Saturday, October 17, 2009

दिवाली विशेष














जैसे दिवाली चराग़ों के बिना अधूरी लगती है वैसे ही शायरी भी चरागों के बिना अधूरी है। ऐसा शायद ही कोई शायर हो जिसने चराग़ पर दो-चार शे’र न कहें हों। दिवाली का मौक़ा है , तो सोचा क्यों न चरागों को एक जगह तरतीब से जलाया जाए। शायर जो चराग़ जलाता है वो चराग़ कहीं तो अँधेरा चूसते हैं, कहीं आँधियों से टक्कर लेते हैं, कहीं दमागों को रौशन करते हैं और कहीं तनहाइयों के साथी हैं। आजकल शायर शम्मा कम जलाते हैं लेकिन चराग़ हर जगह रौशन करते हैं। दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ मुलाहिज़ा फ़रमांए चरागों पर कहे ये खूबसूरत अशआर-


दिल है गोया चराग किसी मुफलिस का
शाम ही से बुझा सा रहता है..मीर




बू-ए-गुल, नालह-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-मह्‌फ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशां निकला..गा़लिब




यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़..फ़िराक़




ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है..बशीर बद्र





कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए.. दुश्यंत




दिल में दिए जला के अंधेरे में जीना सीख
बुझते हुए चिराग़ का मातम फ़ुज़ूल है..कौसर सद्दीकी




मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चिराग़ कोई चिराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ..बशीर बद्र




हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना.
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन.. अहमद फ़राज़




आज की शब ज़रा ख़ामोश रहें सारे चराग़
आज महफिल में कोई शम्‍अ फ़रोजां होगी..नुसरत मेंहदी




दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है..वसीम बरेलवी




ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी
कोई चिराग़ नहीं और रोशनी है बहुत..किर्श्न बिहारी नूर




जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.. वसीम बरेलवी




कोई फूल बन गया है, कोई चाँद, कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गए हैं तेरी अंजुमन में जल के




मेरे मन की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
अभी तो झलकता है राम का बनवास आँखों में..साग़र पालमपुरी




यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ..महताब हैदर नक़बी




कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो ..अहमद फ़राज़




हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़
अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है..जां निसार अख़तर




आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम,
कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं




चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे




अजब चराग हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे




मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे,
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे,.




तूने जलाईं बस्तियाँ ले-ले के मशअलें
अपना चराग़ अपने ही हाथों बुझा के देख.. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'




रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिए जिया..चिराग जैन




हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर..जां निसार अख़तर




अंधेरे जश्न मनाने की भूल करते हैं
चिराग़ अब भी हवाओं पे वार करता है..इसहाक़ असर इन्दौरी




जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को,
सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं .. कैफ़ी आज़मी




तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़




कहाँ से ढूँढ के लाऊं चराग़ से वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कंवल-कंवल के लिए




चिराग़ हो कि ना हो, दिल जला के रखते हैं
हम आंधियों में भी तेवर बला के रखते हैं मिला..हसती




कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ ...इकबाल




इस एक ज़ौम में जलते हैं ताबदार चराग़
हवा के होश उड़ाएँगे बार - बार चराग़...बुनियाद हुसैन ज़हीन




उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग हैं
हमें तेरे ख्याल में मिली फकत चुभन चुभन ..मरयम गजाला




अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ




हवाओं को थाम लो ये फुर्क़त की शाम है
आहिस्ता साँस लो कि अब बुझता चराग है




चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे




चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी




हरेक मठ में जला फिर दिया दिवाली का,
हरेक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का..नज़ीर




तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों मे चराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए





उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने
अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते ..द्विजेंद्र द्विज




आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक
आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह..सतपाल ख़याल

अब एक शे’र बहुत ही अज़ीम शायर का ,मोहतरम खुमार बाराबंकवी जिनका अंदाज़ ही निराला था।

आँखों के चराग़ों मे उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे

और इस सुहावनी शाम को खुमार साहब की ग़ज़ल सुनिए जिसे गाया है मेरे मनपसंद गायक हंस राज हंस ने जिसकी आवाज़ दरगाहों में जलते चरागों सी रौशन है -




आज की ग़ज़ल से जुड़े तमाम शायरों और पाठकों को दीवाली की ढेर सारी शुभकामनाएं!!

Saturday, October 10, 2009

माधव कौशिक की ग़ज़लें और परिचय













उर्दू में कही जाने वाली ग़ज़ल के लहजे के समानांतर ग़ज़ल की एक नवीन धारा बह रही है जिसे देवनागरी मे लिखा जा रहा है और यकीनन इसने एक नया लहजा इख्तियार किया है जो सराहा भी जा रहा है। लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि उर्दू में कही जाने वाली ग़ज़ल को सिरे से नकार कर आप इस विधा को अलग दिशा नहीं दे सकते और आज तो दोनों भाषाएँ के शायर एक दूसरे से बहुत कुछ सीख भी रहे हैं और यही एक सही रास्ता भी है।

खै़र ! आज हम इसी नई धारा के एक क़दावर शायर से आपका परिचय करवा रहें हैं। इनका नाम है माधव कौशिक और आप चंडीगड़ साहित्य अकादमी के सचिव हैं, इनके अब तक नौ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 1953 में हरियाणा में जन्में माधव जी एक इमानदार शायर हैं। अपने ग़ज़ल संग्रह की भूमिका में आपने कहा है कि आप साहित्य में इश्तेहारबाजी में यकीन नहीं रखते और घर पर बैठकर पढ़ना लिखना पसंद करते हैं। आपकी तीन ग़ज़लें और कुछ अशआर हाज़िर हैं-

एक

पानी से धुंध, धूप, हवा काट रहा हूँ
किस्मत मेरे जो था लिखा काट रहा हूँ

अपने किए हुए की खु़दा जाने कब मिले
अब तक तो दूसरों की सज़ा काट रहा हूँ

ग़र दे सके तो मेरी तू हिम्मत की दाद दे
पलकों से पत्थरों की शिला काट रहा हूँ

ए दोस्त! बुरे वक़्त की संगीनियां तो देख
बैठा हूँ जिसपे वो ही तना काट रहा हूँ

छंटते ही नहीं ज़ेहन से सवालों के अँधेरे
हर रोज़ रौशनी का गला काट रहा हूँ

दो

पनघट की पीर गोरी की गागर न ला सके
शहरों में अपने गांव का मंज़र न ला सके

अब रहज़नो कुछ आप ही मेरी मदद करो
हम को सही मुका़म पे रहबर न ला सके

जो आदमी के ज़िस्म में रहता है पोर-पोर
उस आदमी को ज़िस्म से बाहर न ला सके

पानी से प्यास बुझ न सकी अपने दौर की
अमृत को हम ज़मींन से उपर न ला सके

बरसों से उसको हाथ में थामे रहे मगर
अधरों के पास प्यास का साग़र न ला सके

सच बोलने की दोस्तो इतनी सज़ा मिली
ग़र बच गई जुबान तो हम सर न ला सके

तीन

भरोसा क्या करे कोई तिजारत के हवालों का
न सत्ता का यकीं हमको, न सत्ता के दलालों का

दिखाई भी नहीं देता हमें उगता हुआ सूरज
अँधेरा तल्ख़ है इतना सवालों ही सवालों का

शुरू से अंत तक सब चित्र नंगे, शब्द भी नंगे
किसी वैश्या से भी बदतर हुआ हुलिया रिसालों का

तुम्हारी आँख में आँसू चमकते हैं मगर ऐसे
कि जैसे धूप में दमके कलश ऊँचे शिवालों का

कुछ चुनिंदा अशआर-

दल गया इंसान मशीनी पुर्ज़े में
हाथों की हिम्मत ख़तरे में लगती है

ख्वा में भी दूसरा कोई कभी दिखता नहीं
जाने किस की आँख का काजल मेरी आँखों मे है

को बढ़ते हुए दरिया के कानों में कहे जाकर
बहुत मुशकिल से मिट्टी का मकां तैयार होता है

इंसानीयत के दायरे मज़हब से दूर हैं
गीता से हर कुरान से आगे की बात कर

शायर का पता-
कवि माधव कौशिक
3277, सेक्टर - 45 डी
चंडीगढ़

Wednesday, October 7, 2009

तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं














इस बार का तरही मिसरा है-

"तुझे ऐ ज़िन्दगी ! हम दूर से पहचान लेते हैं"

बहरे-हज़ज मसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन x 4
1222 x4
काफ़िया- पहचान, मान, जान आदि।
रदीफ़- लेते हैं।

ये मिसरा फ़िराक़ गोरखपुरी की मशहूर ग़ज़ल से लिया गया है।
ज़्यादा लंबी ग़ज़लें न भेजें और भेजने से पहले अच्छी तरह जाँच-परख लें। आप अपनी ग़ज़लें 20.10.2009 के बाद ही भेजें।पहली किश्त नवंबर के दूसरे हफ़्ते में प्रकाशित होगी।