Monday, September 29, 2008
प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' की ग़ज़लें और परिचय
जन्म: 24 सितम्बर 1947
निधन: 24 जुलाई 2006
परिचय:
24 सितम्बर, 1947 को कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में जन्मे श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' ने 1968 में पंजाब इंजीनियरिंग कालेज से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में डिग्री की. 'रास्ता बनता रहे' (ग़ज़ल संग्रह) तथा 'संसार की धूप' (कविता संग्रह) के चर्चित कवि, ग़ज़लकार 'परवेज़' की अनुभव सम्पन्न दृष्टि में 'बनिये की तरह चौखट पर पसरते पेट' से लेकर जोड़, तक्सीम और घटाव की कसरत में फँसे, आँकड़े बनकर रह गये लोगों की तक़लीफ़ें, त्रासदी और लहुलुहान हक़ीक़तें दर्ज़ हैं जो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से, पढ़ने-सुनने वाले की रूह तक उतर जाने क्षमता रखती हैं.
हिमाचल के बहुत से युवा कवियों के प्रेरणा—स्रोत व अप्रतिम कवि श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' 24 जुलाई, 2006 इस संसार को अलविदा कह गये.
प्रस्तुत है उनके ग़ज़ल संग्रह 'रास्ता बनता रहे' से सात ग़ज़लें:
ग़ज़ल 1
सब के हिस्से से उन्हें हिस्सा सदा मिलता रहे
चाहते हैं लोग कुछ, ये सिलसिला चलता रहे
चन्द लोगों की यही कोशिश रही है दोस्तो
आदमी का आदमी से फ़ासला बढ़ता रहे
खल रहा है इस शहर में आदमी को आदमी
इस शहर में कब तलक अब हादसा टलता रहे
आने वाला कल मसीहा ले के आएगा यहाँ
दर्द सीने में अगर बाक़ायदा पलता रहे
अपनी आँखों से हमें भी खोलनी हैं पट्टियाँ
फ़ायदा क्या है कि अन्धा क़ाफ़िला चलता रहे
वक़्त तो लगता है आख़िर पत्थरों का है पहाड़
मेरा मक़सद है वहाँ इक रास्ता बनता रहे.
बहर—ए—रमल
(2122,2122,2122,212)
ग़ज़ल 2.
हर गवाही से मुकर जाता है पेट
उनकी जूठन तक उतर जाता है पेट
इस तरह कुछ साज़िशें करते हैं वो
सर से पाओं तक बिखर जाता है पेट
ज़हनो-दिल को ठौर मिलती ही नहीं
सारे बिस्तर पर पसर जाता है पेट
हर सुबह हर शाम बनिये की तरह
मेरी चौखट पे ठहर जाता है पेट
मेरे हाथों से महब्बत है उन्हें
उनकी आँखों में अखर जाता है पेट
चीख़ता रहता है दिन भर दर्द से
रात आती है तो मर जाता है पेट
हार कर ख़ुद भूख से अक्सर मुझे
दुश्मनों की ओर कर जाता है पेट
बेअदब हूँ , बेहया हूँ , बेशर्म हूँ
तोहमतें हर बार धर जाता है पेट
रमल: (2122,2122,2121)
ग़ज़ल 3.
हमसे हर मौसम सीधा टकराता है
संसद केवल फटा हुआ इक छाता है
भूख अगर गूँगेपन तक ले जाए तो
आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है
लेकिन अब यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहा
प्रजातंत्र से जनता का क्या नाता है
बीवी है बीमार , सभी बच्चे भूखे
बाप मगर घर जाने से कतराता है
परम्पराएँ अंदर तक हिल जाती हैं
सन्नाटे में जब कोई चिल्लाता है
क्यूँ न वह प्रतिरोध करे सच्चाई का
अपने खोटे सिक्के जो भुनवाता है.
बहर—मुतदारिक
(२२,२२,२२,२२,२२,२)
ग़ज़ल 4.
हर सहर धूप की मानिंद बिखरते हुए लोग
और सूरज की तरह शाम को ढलते हुए लोग
एक मक़्तल—सा निगाहों में लिए चलते हैं
घर से दफ़्तर के लिए रोज़ निकलते हुए लोग
घर की दहलीज़ पे इस तरह क़दम रखते हैं
जैसे खोदी हुई क़ब्रों में उतरते हुए लोग
बारहा भूल गए अपने ही चेहरों के नुकूश
रोज़ चेहरे की नक़ाबों को बदलते हुए लोग
धूप तो मुफ़्त में बदनाम है आ दिखलाऊँ
सर्द बंगलों की पनाहों में झुलसते हुए लोग
ज़िक्र सूरज का किसी तरह गवारा नहीं करते
घुप अँधेरों में सितारों से बहलते हुए लोग
आज के दौर में गुफ़्तार के सब माहिर हैं
अब नहीं मिलते क़फ़न बाँध के चलते हुए लोग
रमल: (2122,1122,1122,1121)
ग़ज़ल 5
जब कभी उनको उघाड़ा जाएगा
हर दफ़ा हमको लताड़ा जाएगा
जो नहीं रुकते किसी तरह उन्हें
ऐसा लगता है कि गाड़ा जाएगा
पीपलों की पौध ढूँढी जाएगी
फिर उन्हें जड़ से उखाड़ा जाएगा
झूठ को आबाद करने के लिए
हर हक़ीक़त को उजाड़ा जाएगा
हम गुफ़ाओं को ग़नीमत मान लें
इस क़दर मौसम बिगाड़ा जाएगा.
रमल:(2122,2122,212)
ग़ज़ल 6.
ये कौन सी फ़ज़ा है ये कौन सी हवा
छाँवों का हर दरख़्त झुलसता चला गया
तुमसे मिले हुए भी हुईं मुद्दतें मगर
ख़ुद से मिले हुए भी तो अरसा बहुत हुआ
अहदे वफ़ा के साथ करें हम भी क्या सुलूक
तेरा भी क्या पता है मेरा भी क्या पता
मेरे सवाल जब न किताबों से हल हुए
मैंने तो ज़िन्दगी को मदरसा बना लिया
चलने को चल रहे हैं ज़माने के साथ हम
दिल में दबा हुआ बराबर गुबार-सा.
बहरे-मज़ारे:(1121,2121,1221,212)
ग़ज़ल 7.
ज़मीन छोड़ कर ऊँची उड़ान में ही रहा
अजीब शख़्स था वहमो—गुमान में ही रहा
तमाम उम्र कोई था निगाह में लेकिन
वो एक तीर जो अपनी उड़ान में ही रहा
कहाँ सुकून था लेकिन कहाँ तलाश किया
हर एक शख़्स फ़क़त आनबान में ही रहा
जहाँ भी मुड़ के कभी हमने ध्यान से देखा
बला का दोस्त भी अपने मचान में ही रहा
वो चार साल का बचपन गुज़र गया जब से
हर एक लम्हा किसी इम्तहान में ही रहा
शहर में करते तो हम किससे गुफ़्तगू करते
कि हमक़लम भी तो अपनी दुकान में ही रहा
बढ़ा के देख लिया हाथ हर दफ़ा हमने
सभी का हाथ तो अपनी थकान में ही रहा
कहीं पे शोर उठा या कहीं पे आग लगी
ज़हीन आदमी अपने मकान में ही रहा.
मजतस:(1212,1122,1212,112)
Saturday, September 27, 2008
तीन ग़ज़लें: द्विजेन्द्र द्विज
ग़ज़ल १
अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा
फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा
‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर
‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा
क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं
और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा
ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब
ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा
ग़ज़ल २
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम
जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम
आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम
ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम
मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम
ग़ज़ल ३
कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में
वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर
शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में
ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं
लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में
घर के सुंदर—स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में
धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो ‘हिम—पात’ हमारी यादों में
जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग—पग पर है तन्हाई
सन्नाटों की महफ़िल—सी, हर बात हमारी यादों में
सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में
सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था
कौंधे हैं ‘ द्विज ,’ वो बनकर ‘ सुकरात ’ हमारी यादों में
Friday, September 26, 2008
जयंती- सरदार भगत सिंह
‘‘पिस्तौल और बम कभी इन्कलाब नहीं लाते,
बल्कि इन्कलाब की तलवार
विचारों की सान पर तेज़ होती है !’’ -भगतसिंह
एक शे’र जो भगत सिंह ने लिखा था-
कमाले बुज़दिली है अपनी ही आंखों में पस्त होना
गरा ज़रा सी जूरत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकता।
उभरने ही नहीं देती यह बेमाइगियां दिल की
नहीं तो कौन सा कतरा है, जो दरिया हो नहीं सकता।
सरदार भगत सिंह (28 सितंबर 1907 - 23 मार्च 1931) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे । इन्होने केन्द्रीय असेम्बली की बैठक में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया । जिसके फलस्वरूप भगत सिंह को 23 मार्च 1931) को इनके साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फांसी पर लटका दिया गया । सारे देश ने उनकी शहादत को याद किया। इस महानायक को कोटि-कोटि नमन.
फ़िल्मी सितारों के जन्मदिन मनाने वाली युवा पीढ़ी और बम धमाकों से मरे लोगों के बीच खड़े होकर बार-बार विलायती सूट बदलने वाली सियासत और सब कुछ सहन करने वाले आम आदमी के लिए ही भगत सिंह ने अपनी कुर्बानी दी थी?? ?
भगत सिंह ने अपनी माँ से सही कहा था कि माँ! आजादी से कोई खास फ़र्क नही पड़ेगा बस गोरे लोगों की जगह अपने लोग आ जायेंगे.
पाश की कविता आज के दौर का कितना सही खाका खेंचती है...
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना.
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से काम पर निकलना
और काम से घर जाना
सबसे खतरनाक़ होता है
हमारे सपनों का मर जाना.
भगत सिंह के शब्द याद रखें:
‘मैं यथार्थवादी हूं। मैं अपनी अंत प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं। ..प्रयत्न तथा प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है, सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है।’
बेहतर कल के सपने लिए... भारत
Thursday, September 25, 2008
द्विजेन्द्र द्विज जी की एक ग़ज़ल
ग़ज़ल
अगर वो कारवाँ को छोड़ कर बाहर नहीं आता
किसी भी सिम्त से उस पर कोई पत्थर नहीं आता
अँधेरों से उलझ कर रौशनी लेकर नहीं आता
तो मुद्दत से कोई भटका मुसाफ़िर घर नहीं आता
यहाँ कुछ सिरफिरों ने हादिसों की धुंध बाँटी है
नज़र अब इसलिए दिलकश कोई मंज़र नहीं आता
जो सूरज हर जगह सुंदर—सुनहरी धूप लाता है
वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता
अगर इस देश में ही देश के दुशमन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता
जो ख़ुद को बेचने की फ़ितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
अगर ज़ुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे ज़ुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता
ग़ज़ल को जिस जगह 'द्विज', चुटकुलों सी दाद मिलती हो
वहाँ फिर कोई भी आए मगर शायर नहीं आता
द्विजेंन्द्र द्विज
Wednesday, September 24, 2008
रामधारी सिंह दिनकर- जन्म दिवस पर विशेष
श्री रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय ज़िले के सिमरिया नामक स्थान पर हुआ.गद्य की उनकी चर्चित किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' पर उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार और वर्ष 1972में 'उर्वशी' प्रबंध काव्य पर ज्ञानपीठ का पुरस्कार दिया गया.इसके अतिरिक्त हुँकार, रेणुका, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, दिल्ली और हारे को हरिनाम और शुद्ध कविता की खोज आदि प्रमुख कृतियाँ उन्होंने लिखीं. 24 अप्रैल 1974 को दिनकर का उनका देहांत हो गया .
‘‘हृदय छोटा हो,
तो शोक वहाँ नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है,जिसका भाग्य खुलता है"
रामधारी सिंह दिनकर
Saturday, September 20, 2008
एक ज़मीन दो शायर : संत कबीर और निदा फ़ाज़ली
संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
निदा फ़ाज़ली:
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.
उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.
दो-ग़जला: एक ज़मीन और एक ही बहर , एक ही शायर द्वारा लिखी गई दो ग़ज़लों को दो-ग़ज़ला कहते हैं. इनकी ज़मीन एक है . माफ़ी चाहता हूँ ये दोनो ग़ज़लें दो-ग़ज़ला नहीं हैं.द्विज जी को धन्यावाद ग़ल्ती को ठीक करवाने के लिए.
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Dwij said
प्रिय सतपाल
अच्छा किया आपने वो दो—ग़ज़ला शीर्षक बदल दिया.
कबीर साहिब की ज़मीन में निदा फ़ाज़ली साहिब की ग़ज़ल भी अच्छी है
लेकिन आख़िरी शे’र?
‘मीर’ साहिब की ग़ज़ल मेहदी हसन साहिब की आवाज़ में
बचपन से सुनता आ रहा हूँ
:
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ—सा कहाँ से उठता है
‘मीर’ इश्क़ एक भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है?
अब इसके बाद:
हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का—भारी क्या
फ़ाज़ली साहिब का शेर यूँ ही —सा लगा . मुझे समझ नहीं आया. शायद मैं इसे उनके तरीक़े से महसूस नहीं कर पा रहा हूँ. कोई मुझे समझाये वो क्या कहना चाहते हैं, जनाबे मीर से मुत्तफ़िक़ न होकर.
ग़ालिब के शेर:
ये मसायल—ए—तसव्वुफ़, ये तेरा ब्यान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़ार होता.
के बाद गुलज़ार साहिब का:
बड़े सूफ़ियों —से ख्याल थे और बयाँ भी उसका कमाल था
मैने कब कहा कि वली था वो एक शख़्स था बादाख़ार था
भी मुझे आजतक समझ नहीं आया
और
ग़ालिब के:
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं,है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने”
के बाद ‘मख़्मूर’ देहलवी का
“मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता”
बस यूँ ही—सा लग रहा है.
ये बड़े शायर बज़ुर्गों को कब बख़्शेंगे?
Dwij
Thursday, September 18, 2008
महावीर शर्मा की ग़ज़लें और परिचय
परिचय
1933 में दिल्ली में जन्मे श्री महावीर शर्मा . पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. हैं. आपने लन्दन विश्वविद्यालय तथा ब्राइटन विश्वविद्यालय में गणित, ऑडियो विज़ुअल एड्स तथा स्टटिस्टिक्स का अध्ययन किया है.आपने उर्दू का भी अध्ययन किया है.
1962 से 1964 तक स्व: श्री ढेबर भाई जी के प्रधानत्व में भारतीय घुमन्तूजन (Nomadic Tribes) सेवक संघ के अन्तर्गत राजस्थान रीजनल ऑर्गनाइज़र के रूप में कार्य किया . 1965 में इंग्लैण्ड के लिये प्रस्थान . 1982 तक भारत, इंग्लैण्ड तथा नाइजीरिया में अध्यापन . अनेक एशियन संस्थाओं से संपर्क रहे . तीन वर्षों तक एशियन वेलफेयर एसोशियेशन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर सेवा करते रहे .1992 में स्वैच्छिक पद से निवृत्ति के पश्चात लन्दन में ही इनका स्थाई निवास स्थान है.
1960 से 1964 की अवधि में महावीर यात्रिक के नाम से कुछ हिन्दी और उर्दू की मासिक तथा साप्ताहिक पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहे . 1961 तक रंग-मंच से भी जुड़े रहे.
दिल्ली से प्रकाशित हिंदी पत्रिकाओं “कादम्बिनी”,”सरिता”, “गृहशोभा”, “पुष्पक”, तथा “इन्द्र दर्शन”(इंदौर), “कलायन”, “गर्भनाल”, “काव्यालय”, “निरंतर”,”अभिव्यक्ति”, “अनुभूति”, “साहित्यकुञ्ज”, “महावीर”, “अनुभूति कलश”,”अनुगूँज”, “नई सुबह”, “ई-बज़्म” आदि अनेक जालघरों में हिन्दी और उर्दू भाषा में कविताएं ,कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं. इंग्लैण्ड में आने के पश्चात साहित्य से जुड़ी हुई जो कड़ी टूट गई थी, अब उस कड़ी को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं.
आजकल आप महावीर ब्लाग के माध्यम से हज़ारों साहित्य प्रेमियों के प्रिय हैं. समय—समय पर आप इस ब्लाग पर विभिन्न साहित्यकारों/काव्य—प्रेमियों को किसी न किसी आयोजन के बहाने जुटाते रहते हैं.पिछले दिनों आपके द्वारा बरखा बहार पर आयोजित एवं संचालित मुशायरा बहुत चर्चित रहा है.
श्री महावीर शर्मा की दो ग़ज़लें
एक.
ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहाँ है
नाम लेकर प्यार से मुझ को बुलाया ही कहाँ है ?
टूट कर मेरा बिखरना, दर्द की हद से गुज़रना
दिल के आईने में ये मंज़र दिखाया ही कहाँ है ?
शीशा-ए-दिल तोड़ना है तेरे संगे-आस्ताँ पर
तेरे दामन पे लहू दिल का गिराया ही कहाँ है ?
ख़त लिखे थे ख़ून से जो आँसुओं से मिट गये अब
जो लिखा दिल के सफ़े पर, वो मिटाया ही कहाँ है ?
जो बनाई है तिरे काजल से तस्वीरे-मुहब्बत
पर अभी तो प्यार के रंग से सजाया ही कहाँ है ?
देखता है वो मुझे, पर दुश्मनों की ही नज़र से
दुश्मनी में भी मगर दिल से भुलाया ही कहाँ है ?
ग़ैर की बाहें गले में, उफ़ न थी मेरी ज़ुबाँ पर
संग दिल तू ने अभी तो आज़माया ही कहाँ है ?
जाम टूटेंगे अभी तो, सर कटेंगे सैंकड़ों ही
उसके चेहरे से अभी पर्दा हटाया ही कहाँ है ?
उन के आने की ख़ुशी में दिल की धड़कन थम न जाये
रुक ज़रा, उनका अभी पैग़ाम आया ही कहाँ है ?
बहरे-रमल फ़ा इ ला तुन/ फ़ा इ ला तुन/फ़ा इ ला तुन/फ़ा इ ला तुन
2122 2122 2122 2122
दो.
इस ज़िन्दगी से दूर, हर लम्हा बदलता जाए है,
जैसे किसी चट्टान से पत्थर फिसलता जाए है।
अपने ग़मों की ओट में यादें छुपा कर रो दिए
घुटता हुआ तनहा, कफ़स में दम निकलता जाए है।
कोई नहीं अपना रहा जब, हसरतें घुटती रहीं
इन हसरतों के ही सहारे दिल बहलता जाए है
तपती हुई —सी धूप को हम चाँदनी समझे रहे
इस गरमिये-रफ़तार में दिल भी पिघलता जाए है।
जब आज वादा-ए-वफ़ा की दास्ताँ कहने लगे,
ज्यूँ ही कहा 'लफ़ज़े-वफ़ा', वो क्यूँ सँभलता जाए है।
इक फूल बालों में सजाने, खार से उलझे रहे,
वो हैं कि उनका फूल से भी, जिस्म छिलता जाए है।
दौलत जभी आए किसी के प्यार में दीवार बन,
रिशता वफ़ा का बेवफ़ाई में बदलता जाए है।
बहरे-रजज़ -
मुस तफ़ इ लुन/मुस तफ़ इ लुन/मुस तफ़ इ लुन/मुस तफ़ इ लुन
2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
Saturday, September 13, 2008
हिन्दी दिवस
राम प्रसाद विस्मिल की दो ग़ज़लें:
न चाहूं मान दुनिया में, न चाहूं स्वर्ग को जाना ।
मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना ।
करुं मैं कौम की सेवा पडे चाहे करोडों दुख ।
अगर फ़िर जन्म लूं आकर तो भारत में ही हो आना ।
लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूं हिन्दी लिखुं हिन्दी ।
चलन हिन्दी चलूं, हिन्दी पहरना, ओढना खाना ।
भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की ।
स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना ।
लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन ।
करुं में प्रान तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना ।
नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम
उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना ।।
सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।
करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।
ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।
वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।
खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।
संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
अमीर खुसरो :
जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर ।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर ।
तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर ।
जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर ।
मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर ।
खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।
प्यारे लाल शौकी:
जिन प्रेम रस चाखा नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ ।
जिन इश्क में सर ना दिया, सो जग जिया तो क्या हुआ ।।
ताबीज औ तूमार में सारी उमर जाया किसी,
सीखे मगर हीले घने, मुल्ला हुआ तो क्या हुआ ।
जोगी न जंगम से बड़ा, रंग लाल कपड़े पहन के,
वाकिफ़ नहीं इस हाल से कपड़ रँगा तो क्या हुआ ।
जिउ में नहीं पी का दरद, बैठा मशायख होय कर,
मन का रहत फिरता नहीं सुमिरन किया तो क्या हुआ ।
जब इश्क के दरियाव में, होता नहीं गरकाब ते,
गंगा, बनारस, द्वारका पनघट फिरा तो क्या हुआ ।
मारम जगत को छोड़कर, दिल तन से ते खिलवत पकड़,
शोकी पियारेलाल बिन, सबसे मिला तो क्या हुआ ।
मनोहर साग़र पालमपुरी
अपने ही परिवेश से अंजान है
कितना बेसुध आज का इन्सान है
हर डगर मिलते हैं बेचेहरा—से लोग
अपनी सूरत की किसे पहचान है
भावना को मौन का पहनाओ अर्थ
मन की कहने में बड़ा नुकसान है
चाँद पर शायद मिले ताज़ा हवा
क्योंकि आबादी यहाँ गुंजान है
कामनाओं के वनों में हिरण—सा
यह भटकता मन चलायेमान है
नाव मन की कौन —से तट पर थमे
हर तरफ़ यादों का इक तूफ़ान है
आओ चलकर जंगलों में जा बसें
शह्र की तो हर गली वीरान है
साँस का चलना ही जीवन तो नहीं
सोच बिन हर आदमी बेजान है
खून से ‘साग़र’! लिखेंगे हम ग़ज़ल
जान में जब तक हमारी जान है.
दुष्यन्त कुमार :
तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—भरा
लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा
माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें कया है माजरा
द्विजेंन्द्र द्विज :
अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते
देवी नांगरानी:
गिरा हूँ मुंह के बल, ज़ख़्मी हुआ हूँ
लगा कर झूठ के पर जब उड़ा हूँ
गंवा कर होश आता जोश में जब
मैं जीती बाज़ियाँ तब हारता हूँ
मुझे पहुँचायेंगी साहिल पे मौजें
मैं तूफानों में घिरकर सोचता हूँ
मिलन का मुंतज़र हूँ मौत आजा
मुझे जीना था उतना जी लिया हूँ
उधर देखा नहीं आँखें उठाकर
नज़र से जब किसी की मैं गिरा हूँ
लगाईं तोहमतें बहरों ने मुझ पर
वो समझे बेज़ुबाँ मैं हो गया हूँ
रही हर आँख नम महफ़िल में 'देवी'
मैं बनकर दर्द हर दिल में बसा हूँ.
सतपाल ख्याल:
कुछ तो है कुछ तो है हौसला कुछ तो है
अपने दिल में अभी तक बचा कुछ तो है.
मैकदों मस्जिदों में नहीं मिल रहा
वो सकूं या खुशी या नशा कुछ तो है.
दिल के जो पास था जिस से उम्मीद थी
अब वही दिलनशीं दे दग़ा कुछ तो है.
कोंपलों से भरी झील है उस तरफ़
उस तरफ़ दूर तक नूर सा कुछ तो है.
Thursday, September 11, 2008
छोटी बहर की दो ग़ज़लें
ग़ज़ल १
उघड़ी चितवन
खोल गई मन
उजले हैं तन
पर मैले मन
उलझेंगे मन
बिखरेंगे जन
अंदर सीलन
बाहर फिसलन
हो परिवर्तन
बदलें आसन
बेशक बन—ठन
जाने जन—जन
भरता मेला
जेबें ठन—ठन
जर्जर चोली
उधड़ी सावन
टूटा छप्पर
सर पर सावन
मन ख़ाली हैं
लब 'जन—गण—मन'
तन है दल—दल
मन है दर्पन
मृत्यु पोखर
झरना जीवन
निर्वासित है
क्यूँ 'जन—गण—मन'
खलनायक का
क्यूँ अभिनंदन
द्विजेंन्द्र द्विज
**********
ग़ज़ल २
क्या सितम है
दर्द कम है
राहत-ए-जां
हर सितम है
क़लब सोजां
चश्म नम है
ग़म बहुत हो
फ़िर भी कम है.
दिल हमारा
जाम-ए-जम है
जिंदगी कम
दम-ब-दम है
दिल मे ढूँढो
वो सनम है.
क़लब-ए-अखगर
वक्फ़-ए-गम है.
हनीफ़ अखगर
(ये यक रुक्नी ग़ज़ल है -फ़ाइलातुन-२१२२)
Tuesday, September 9, 2008
एक रदीफ़ दो शायर - इंशा और फ़िराक
जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो|
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो|
सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहां पर सयाना हो,
नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो|
तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो|
नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो|
तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,
हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो|
हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,
जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो|
सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग,
'मीर', 'नज़ीर', 'कबीर', और 'इन्शा' सब का एक घराना हो|
**
हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो
वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो
जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे
उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो
जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में
ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो
पहरों-पहरों तक ये दुनिया भूला सपना बन जाए है
मैं तो सरासर खो जाऊं हूँ याद इतना क्यों आओ हो
क्या गमे-दौराँ की परछाईं तुम पर भी पड़ जाए है
क्या याद आ जाए है यकायक क्यों उदास हो जाओ हो
झूठी शिकायत भी जो करूँ हूँ पलक दीप जल जाए हैं
तुमको छेड़े भी क्या तुम तो हँसी-हँसी में रो दो हो
ग़म से खमीरे-इश्क उठा है हुस्न को देवें क्या इलज़ाम
उसके करम पर इतनी उदासी दिलवालो क्या चाहो हो
एक शख्स के मर जाये से क्या हो जाये है लेकिन
हम जैसे कम होये हैं पैदा पछताओगे देखो हो
इतनी वहशत इतनी वहशत सदके अच्छी आँखों के
तुम न हिरन हो मैं न शिकारी दूर इतना क्यों भागो हो
मेरे नग्मे किसके लिए हैं खुद मुझको मालूम नहीं
कभी न पूछो ये शायर से तुम किसका गुण गाओ हो
पलकें बंद अलसाई जुल्फ़ें नर्म सेज पर बिखरी हुई
होटों पर इक मौजे-तबस्सुम सोओ हो या जागो हो
इतने तपाक से मुझसे मिले हो फिर भी ये गैरीयत क्यों
तुम जिसे याद आओ हो बराबर मैं हूँ वही तुम भूलो हो
कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो
गाह तरस जाये हैं आखें सजल रूप के दर्शन को
गाह नींद बन के रातों को नैन-पटों में आओ हो
इसे दुनिया ही में है सुने हैं इक दुनिया-ए-महब्बत भी
हम भी उसी जानिब जावें हैं बोलो तुम भी आओ हो
बहुत दिनों में याद किया है बात बनाएं क्या उनसे
जीवन-साथी दुःख पूछे हैं किसको हमें तुम सौंपो हो
चुपचुप-सी फ़ज़ा-ए-महब्बत कुछ कुछ न कहे है खलवते-राज़
नर्म इशारों से आँखों के बात कहाँ पहुँचाओ हो
अभी उसी का इंतज़ार था और कितना ऐ अहले-वफ़ा
चश्मे-करम जब उठने लगी है तो अब तुम शरमाओ हो
ग़म के साज़ से चंचल उंगलियां खेल रही हैं रात गए
जिनका सुकूत, सुकूते-आबाद है वे परदे क्यों छेड़ो हो
कुछ तो बताओ रंग-रूप भी तुम उसका ऐ अहले-नज़र
तुम तो उसको जब देखो हो देखते ही रह जाओ हो
अकसर गहरी सोच में उनको खोया-खोया पावें हैं
अब है फ़िराक़ का कुछ रोज़ो से जो आलम क्या पूछो हो
**
Monday, September 1, 2008
दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर विशेष
आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज पहली सितम्बर को हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि तथा हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल विधा के संस्थापक दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर उनको स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनके कालजयी ग़ज़ल संग्रह साये में धूप की भूमिका, जिसमें उन्होंने अपनी हिन्दी ग़ज़लों की भाषा की प्रमुख विशेषताओं के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही हैं.
मैं स्वीकार करता हूँ…
—कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है.
—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है.
—कि उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ.
—कि ग़ज़ल की विधा बहुत पुरानी,किंतु विधा है,जिसमें बड़े—बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य—रचना की है. हिन्दी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आज़माया है. परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे संकोच तो है,पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था. शायद इसका कारण यह है कि पत्र—पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्म—विश्वास दिया है. इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ.
…और कमलेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो यह सिलसिला यहाँ तक न आ पाता. मैं तो—
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए.
—दुष्यन्त कुमार
और अब प्रस्तुत हैं उनकी पाँच ग़ज़लें :
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा*
यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन—सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ऐसा ,ऐसा हुआ होगा
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा
चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम—अज—कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
हालाते जिस्म, सूरती—जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब
नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब
पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब
मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब
रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब
आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब
सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
द्विज.
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