Wednesday, October 22, 2014
Thursday, June 26, 2014
मयंक अवस्थी
ग़ज़ल
बम फूटने लगें कि समन्दर उछल पड़े
कब ज़िन्दगी पे कौन बवंडर उछल पड़े
दुश्मन मिरी शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसा
और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े
गहराइयाँ सिमट के बिखरने लगीं तमाम
इक चाँद क्या दिखा कि समन्दर उछल पड़े
मत छेड़िये हमारे चरागे –खुलूस को
शायद कोई शरार ही , मुँह पर उछल पड़े
घोड़ों की बेलगाम छलाँगों को देख कर
बछड़े किसी नकेल के दम पर उछल पड़े
गहरी नहीं थी और मचलती थी बेसबब
ऐसी नदी मिली तो शिनावर उछल पड़े
यूँ मुँह न फेरना कि सभी दोस्त हैं “ मयंक”
कब और कहाँ से पीठ पे खंज़र उछल पड़े
और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े
गहराइयाँ सिमट के बिखरने लगीं तमाम
इक चाँद क्या दिखा कि समन्दर उछल पड़े
मत छेड़िये हमारे चरागे –खुलूस को
शायद कोई शरार ही , मुँह पर उछल पड़े
घोड़ों की बेलगाम छलाँगों को देख कर
बछड़े किसी नकेल के दम पर उछल पड़े
गहरी नहीं थी और मचलती थी बेसबब
ऐसी नदी मिली तो शिनावर उछल पड़े
यूँ मुँह न फेरना कि सभी दोस्त हैं “ मयंक”
कब और कहाँ से पीठ पे खंज़र उछल पड़े
Friday, May 23, 2014
सिराज फ़ैसल खान
ग़ज़ल
ज़मीं पर बस लहू बिखरा हमारा
अभी बिखरा नहीं जज़्बा हमारा
हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई
सलामत गर रहे सहरा हमारा
मिलाकर हाथ सूरज की किरन से
मुखालिफ़ हो गया साया हमारा
रकीब अब वो हमारे हैं जिन्होंने
नमक ताज़िन्दगी खाया हमारा
है जब तक साथ बंजारामिज़ाजी
कहाँ मंज़िल कहाँ रस्ता हमारा
तअल्लुक तर्क कर के हो गया है
ये रिश्ता और भी गहरा हमारा
बहुत कोशिश की लेकिन जुड़ न पाया
तुम्हारे नाम में आधा हमारा
इधर सब हमको कातिल कह रहे हैं
उधर ख़तरे में था कुनबा हमारा
Wednesday, April 23, 2014
दानिश भारती
पाँव जब भी इधर-उधर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना
रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना
वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना
मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना
खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना
सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना
चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना
आएँ कितने भी इम्तेहां "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना
रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना
वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना
मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना
खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना
सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना
चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना
आएँ कितने भी इम्तेहां "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना
Saturday, April 19, 2014
विकास राना की एक ग़ज़ल
एक बहुत होनहार और नये लहज़े के मालिक विकास राना "फ़िक्र" साहब की एक ग़ज़ल हाज़िर है-
ग़ज़ल
आदमी कम बुरा नहीं हूँ मैं
हां मगर बेवफा नहीं हूँ मैं
मेरा होना न होने जैसा है
जल चुका हूँ, बुझा नहीं हूँ मैं
सूरतें सीरतों पे भारी हैं
फूल हूँ, खुशनुमा नहीं हूँ मैं
थोड़ा थोड़ा तो सब पे ज़ाहिर हूँ
खुद पे लेकिन खुला नहीं हूँ मैं
रास्ते पीछे छोड़ आया हूँ
रास्तो पे चला नहीं हूँ मैं
ज़िंदगी का हिसाब क्या दूं अब
बिन तुम्हारे जिया नहीं हूँ मैं
धूप मुझ तक जो आ रही है " फ़िक्र "
यानी की लापता नहीं हूँ मैं
Friday, March 28, 2014
मासूम ग़ाज़ियाबादी
ग़ज़ल
कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार से यारी
किसी दिन लेके डूबेगी तुझे तेरी समझदारी
कभी शाखों, कभी ख़ारों, कभी गुल की तरफ़दारी
बता माली ये बीमारी है या फिर कोई लाचारी
अवामी गीत हैं मेरे, मेरी बाग़ी गुलूकारी
मुझे क्या दाद देगा वो सुने जो राग दरबारी
किसी का मोल करना और उसपे ख़ुद ही बिक जाना
कोइ कुछ भी कहे लेकिन यही फ़ितरत है बाज़ारी
खिज़ां में पेड़ से टूटे हुए पत्ते बताते हैं
बिछड़ कर अपनों से मिलती है बस दर-दर की दुतकारी
यहाँ इन्सां की आमद-वापसी होती तो है साहिब
वो मन पर भारी है या फिर चराग़ो-रात पे भारी
जो सीखा है किसी "मासूम" को दे दो तो अच्छा है
सिरहाने कब्र के रोया करेगी वरना फ़नकारी
Wednesday, March 19, 2014
Monday, March 10, 2014
जतिन्दर परवाज़
ग़ज़ल
सहमा सहमा हर इक चेहरा मंज़र मंज़र खून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर
तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर
बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर
आ भी जा अब आने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर
जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर
Saturday, March 8, 2014
Saturday, March 1, 2014
Wednesday, February 26, 2014
नफ़स अम्बालवी साहब की एक ग़ज़ल
उनकी किताब "सराबों का सफ़र" से एक ग़ज़ल आप सब की नज्र-
उसकी शफ़क़त का हक़ यूँ अदा कर दिया
उसको सजदा किया और खुदा कर दिया
उम्र भर मैं उसी शै से लिपटा रहा
जिस ने हर शै से मुझको जुदा कर दिया
इस लिए ही तो सर आज नेज़ों पे है
हम से जो कुछ भी उसने कहा कर दिया
दिल की तकलीफ़ जब हद से बढ़ने लगी
दर्द को दर्दे-दिल कि दवा कर दिया
ऐसे फ़नकार की सनअतों को सलाम
जिस ने पत्थर को भी देवता कर दिया
आप का मुझपे एहसान है दोस्तो
क्या था मैं, आपने क्या से क्या कर दिया
कौन गुज़रा दरख्तों को छू कर 'नफ़स'
ज़र्द पत्तों को किसने हरा कर दिया
शफ़क़त=मेहरबानी,सनअतों=कारीगरी
Subscribe to:
Posts (Atom)
-
ग़ज़ल लेखन के बारे में आनलाइन किताबें - ग़ज़ल की बाबत > https://amzn.to/3rjnyGk बातें ग़ज़ल की > https://amzn.to/3pyuoY3 ग़ज़...
-
स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...
-
ग़ज़ल हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है? क्या कमी है ,तुझे हुआ क्या है? किसने जाना है, जो तू जानेगा क्या ये दुनिया है और ख़ुदा क्या है? दर-बदर खाक़ ...