Thursday, November 11, 2021

प्रताप जरयाल की ग़ज़लें













 संक्षिप्त परिचय
पिता का नाम: श्री खरूदी राम जरयाल
जन्मतिथि : 28-04-1969
शिक्षा : स्नातक , प्रभाकर
प्रकाशित साहित्य : कसक हिन्दी काव्य संग्रह , मधुमास ग़ज़ल संग्रह , दस साझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित ।पता : गांव व डाकघर बोह, उपतहसील दरीणी , तहसील शाहपुर , जिला कांगड़ा , हिमाचल प्रदेश । पिन कोड -176206
मोबाइल नंबर - 9817768661
ग़ज़ल

जब कठिन रिश्ता निभाना हो गया
दर्द का  दिल  में  ठिकाना हो गया

प्रीत की चादर  पे  शर्तें  जब तनीं
लुप्त  सारा  ताना-बाना  हो  गया

वो  चले  जाने से पहले  कह  गए
खत्म अब  रिश्ता  पुराना हो गया

उन  सुहाने  मौसमों  के  वक्त  को
दिल से गुज़रे इक ज़माना हो गया

हम हकीकत  में न  जा पाए मगर
उनके दर सपनों में जाना हो गया

क्यों मेरी खुशियां जहां को चुभ गईं
हर नज़र का मैं निशाना हो गया

हर कदम सीखा बहुत कुछ ज़िन्दगी
बस तेरा मिलना बहाना हो गया

2

झील की गहराइयों से क्या डराओगे
वक्त की परछाइयों से क्या डराओगे

हम पहाड़ों पर भी नंगे पांव चलते हैं
तुम हमें कठिनाइयों से क्या डराओगे

हमने रांझे का ही तो किरदार भोगा है
प्रीत में रुसवाइयों से क्या डराओगे

भीड़ से हमने किनारा ही किया अक्सर
तुम हमें तन्हाइयों से क्या डराओगे

उम्र के ढलने का मतलब जानता हो जो
झुर्रियों से , झांइयों से क्या डराओगे

गिरने और संभलने में ही ज़िन्दगी बीती
तो बताओ खाइयों से क्या डराओगे

ज़िन्दगी का फैसला स्वीकार है "जरयाल"
तुम कड़ी सुनवाइयों से क्या डराओगे

Tuesday, October 26, 2021

साहिर की पुण्यतिथि (25 अक्टूबर पर विशेष)- देवमणि पांडेय का लेख

 (साहिर की पुण्यतिथि 25 अक्टूबर पर विशेष) : लेखक देव मणि पांडेय

साहिर और सुधा मल्होत्रा की दास्ताँ

अमृता प्रीतम के लिए साहिर दोपहर की नींद में देखे गए किसी हसीन ख़्वाब की तरह थे। दोपहर की नींद टूटने के बाद भी ख़्वाब की ख़ुमारी घंटों छाई रहती है। अमृता प्रीतम के ज़हन पर साहिर के ख़्वाब की ख़ुमारी ताज़िंदगी छाई रही। एक दिन अमृता प्रीतम ने अपने शौहर सरदार प्रीतम से तलाक़ ले लिया मगर उनका सरनेम ताउम्र अपने पास रखा। सन् 1960 में अमृता ने मुंबई आने का इरादा किया। सुबह ब्लिट्ज अख़बार पर नज़र पड़ी। साहिर और सुधा मल्होत्रा के फोटो के नीचे लिखा था- साहिर की नई मुहब्बत। चित्रकार इमरोज़ के स्कूटर पर बैठ कर उनकी पीठ पर अंगुलियों से साहिर का नाम लिखने वाली अमृता ने शादी किए बिना इमरोज़ के साथ घर बसा लिया।
सब्ज़ शाख़ पर इतराते हुए किसी सुर्ख़ गुलाब की तरह सिने जगत में सुधा मल्होत्रा की दिलकश इंट्री हुई। काली ज़ुल्फें, गोरा रंग, बोलती हुई आंखें, हया की सुर्ख़ी से दमकते हुए रुख़सार और लबों पर रक़्स करती हुई मोहक मुस्कान ... सचमुच सुधा मल्होत्रा का हुस्न मुकम्मल ग़ज़ल जैसा था। साहिर ने इस ग़ज़ल पर एक नज़्म लिख डाली-
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए
तू इससे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पर बुलाया गया है मेरे लिए
चेतन आनंद की फ़िल्म के लिए संगीतकार ख़य्याम ने सुधा मल्होत्रा और गीता दत्त की आवाज़ में इस नज़्म को रिकॉर्ड किया। फ़िल्म नहीं बन सकी। इसी नज़्म को केंद्र में रखकर यश चोपड़ा ने एक कहानी तैयार की। इस पर एक यादगार फ़िल्म 'कभी कभी' बनी। फ़िल्म की नायिका राखी की तरह सुधा मल्होत्रा ने भी अचानक शादी कर ली थी।
फ़िल्म 'भाई बहन' (1959) में सुधा मल्होत्रा की गायकी से साहिर बेहद मुतास्सिर हुए। फ़िल्म 'दीदी' के संगीतकार एन दत्ता बीमार पड़ गए। साहिर की गुज़ारिश पर गायिका सुधा मल्होत्रा ने साहिर की नज़्म को कंपोज़ किया। सुधा की आवाज़ में यह नज़्म रिकॉर्ड हुई-
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है
साहि की शख़्सियत पर मुहब्बत का रंग छाने लगा था। फ़िल्म 'बरसात की रात' (1960) में साहिर ने गायिका सुधा मल्होत्रा के लिए सिफ़ारिश की। सुधा मल्होत्रा के हुस्न में तपिश थी मगर उनकी गायिकी भी दमदार थी। फ़िल्म की बेमिसाल क़व्वाली में उनकी गायकी का कमाल देखने लायक़ है-
ना तो कारवाँ की तलाश है,
ना तो हमसफ़र की तलाश है.
मेरे शौक़-ए-ख़ाना ख़राब को,
तेरी रहगुज़र की तलाश है
मीडिया ने सुधा मल्होत्रा को साहिर की नई मुहब्बत के रूप में प्रचारित किया। दिल्ली से आईं सुधा मलहोत्रा की उम्र महज 23 साल थी। मगर वे अमृता प्रीतम की तरह दिन में ख़्वाब देखने वाली जज़्बाती लड़की नहीं थीं। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे अब फ़िल्मों के लिए नहीं गाएंगी। दूसरा नेक काम सुधा मलहोत्रा ने ये किया कि अपने बचपन के दोस्त शिकागो रेडियो के मालिक गिरधर मोटवानी से तुरंत शादी कर ली। फ़िल्मी चकाचौंध से दूर अपने घर की दहलीज़ में आस्था का दीया जलाकर सुधा मल्होत्रा गा रहीं थीं-
न मैं धन चाहूँ न रतन चाहूँ
तेरे चरणों की धूल मिल जाए
तो मैं तर जाऊं
राज कपूर ने सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में एक ग़ज़ल सुनी। वे सुधा के घर गए। सुधा ने कहा- राज साहब, अब मैं फ़िल्मों के लिए नहीं गाती। उनके आग्रह पर सुधा ने अमेरिका अपने शौहर को फ़ोन किया। शौहर ने अनुमति दी। फ़िल्म 'प्रेम रोग' में सुधा मलहोत्रा ने एक गीत गाया-
ये प्यार था या कुछ और था
न तुझे पता न मुझे पता
अब्दुल हई उर्फ़ साहिर ने नज़्म की शक्ल में अपनी पहली मुहब्बत ऐश कौर को एक ख़त लिखा था। नतीजा ये हुआ कि कॉलेज प्रशासन ने साहिर को कॉलेज से निकाल दिया। साहिर के दिल में न जाने कैसा ख़ौफ़ बैठ गया कि उन्होंने न तो अमृता प्रीतम से अपनी मुहब्बत का इज़हार किया और न ही सुधा मल्होत्रा से। उनकी ख़ामोशी में उनका इज़हार पोशीदा था। मुहब्बत उनके लिए हसीन ख़्वाबों की एक धनक थी जिसका दूर से वे दीदार किया करते थे। अपनी तनहाइयों को रोज़ शाम को वे जाम से आबाद किया करते थे। मगर दुनिया को साहिर मुहब्बत के ऐसे तराने दे गए जिसमें धड़कते दिलों की गूंज सुनाई पड़ती है।
साहिर अपने गीतों में नया रंग और नई ख़ुशबू लेकर आए। देश, समाज और वक़्त के मसाईल के साथ उनके गीतों में एहसास और जज़्बात की ऐसी नक़्क़ाशी है जिससे उनके गीत बिल्कुल अलग नज़र आते हैं। एक जुमले में किसी अहम् बात को साहिर इतनी ख़ूबसूरती से कह देते हैं कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है- जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं।
8 मार्च 1921 को लुधियाना में जन्मे साहिर लुधियानवी का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। साहिर ने चार मिसरे अपने लिए कहे थे। वो आपके लिए पेश हैं-
न मुंह छुपा के जिए हम न सर झुका के जिए
सितमगरों की नज़र से नज़र मिलाके जिए
अब एक रात अगर कम जिए तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मशअलें जलाके जिए
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

फेसबुक से साभार

Wednesday, October 20, 2021

देवमणि पांडेय जी की पांच ग़ज़लें

=== परिचय : देवमणि पांडेय === 


जन्म : 4 जून 1958 सुलतानपुर (उ.प्र.), 
शिक्षा :  हिन्दी और संस्कृत में प्रथम श्रेणी एम.ए.। 
लेखन विधा : गीत, ग़ज़ल, कविताएं, लेख। 

दो ग़ज़लें वर्ष 2017 में जलगांव विश्व विद्यालय के एम ए हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल। 

चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं- 1.दिल की बातें (1999), 2. ख़ुशबू की लकीरें (2005), 3.अपना तो मिले कोई (2012), 4. कहां मंज़िलें कहां ठिकाना (2020)। सिने गीतकारों और फ़िल्म लेखकों पर इंडिया नेट बुक्स नई दिल्ली से एक किताब प्रकाशित- 'अभिव्यक्ति के इंद्रधनुष : सिने जगत की सांस्कृतिक संपदा।'  

मुम्बई के सांध्य दैनिक 'संझा जनसत्ता' में कई सालों तक साप्ताहिक स्तम्भ 'साहित्यनामचा' का लेखन। हिंदी-उर्दू की साहित्यिक पत्रिकाओं में ग़ज़लें प्रकाशित। देश-विदेश में कई पुरस्कारों और सम्मान से अलंकृत। 


बतौर सिने गीतकार देवमणि पांडेय के कैरियर की शुरूआत निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म 'हासिल' से हुई। डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म 'पिंजर' में उनके लिखे गीत 'चरखा चलाती मां' को सन् 2003 के लिए बेस्ट लिरिक ऑफ दि इयर अवार्ड से नवाज़ा गया। 

गीतकार देवमणि पांडेय ने 'कहां हो तुम' और 'तारा : दि जर्नी आफ लव आदि फिल्मों को भी अपने गीतों से सजाया है। उन्होंने सोनी चैनल के धारावाहिक 'एक रिश्ता साझेदारी का', स्टार प्लस के सीरियल 'एक चाबी है पड़ोस में' और ऐंड टीवी के धारावाहिक 'येशु' भी अपने क़लम का जादू दिखाया है। संगीत अल्बम गुज़ारिश, तन्हा तन्हा और बेताबी में भी उनके गीत पसंद किए गए।  

सम्पर्क :
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126 

(1) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

मेरा यक़ीन, हौसला, किरदार देखकर 
मंज़िल क़रीब आ गई रफ़्तार देखकर 

जब फ़ासले हुए हैं तो रोई है मां बहुत
बेटों के दिल के दरमियां दीवार देखकर 

हर इक ख़बर का जिस्म लहू में है तरबतर 
मैं डर गया हूँ आज का अख़बाऱ देखकर 

बरसों के बाद ख़त्म हुआ बेघरी का दर्द  
दिल ख़ुश हुआ है दोस्तो घरबार देखकर 

दरिया तो चाहता था कि सबकी बुझा दे प्यास 
घबरा गया वो इतने तलबगार देखकर 

वो कौन था जो शाम को रस्ते में मिल गया
वो दे गया है रतजगा एक बार देखकर 

चेहरे से आपके भी झलकने लगा है इश्क़ 
जी ख़ुश हुआ है आपको बीमार देखकर 


(2) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

फूल महके यूं फ़ज़ा में रुत सुहानी मिल गई 
दिल में ठहरे एक दरिया को रवानी मिल गई 

घर से निकला है पहनकर जिस्म ख़ुशबू का लिबास
लग रहा है गोया इसको रातरानी मिल गई 

कुछ परिंदों ने बनाए आशियाने शाख़ पर
गाँव के बूढ़े शजर को फिर जवानी मिल गई 

आ गए बादल ज़मीं पर सुनके मिट्टी की सदा
सूखती फ़सलों को पल में ज़िंदगानी मिल गई 

जी ये चाहे उम्र भर मैं उसको पढ़ता ही रहूं
याद की खिड़की पे बैठी इक कहानी मिल गई 

मां की इक उंगली पकड़कर हंस रहा बचपन मेरा
एक अलबम में वही फोटो पुरानी मिल गई 

  
(3) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

बदली निगाहें वक़्त की क्या क्या चला गया 
चेहरे के साथ साथ ही रुतबा चला गया 

बचपन को साथ ले गईं घर की ज़रूरतें 
अपनी किताबें छोड़के बच्चा चला गया 

मेरी तलब को जिसने समंदर अता किया 
अफ़सोस मेरे दर से वो प्यासा चला गया 

वो बूढ़ी आंखें आज भी रहती हैं मुंतज़िर
जिनको अकेला छोड़के बेटा चला गया 

रिश्ता भी ख़ुद में होता है स्वेटर ही की तरह   
उधड़ा जो एक बार, उधड़ता चला गया 

अपनी अना को छोड़के पछताए हम बहुत 
जैसे किसी दरख़्त का साया चला गया 

(4) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

वक़्त के सांचे में ढल कर हम लचीले हो गए 
रफ़्ता रफ़्ता  ज़िंदगी के पेंच ढीले हो गए  

इस तरक़्क़ी से भला क्या फ़ायदा हमको हुआ
बुझ न पाई प्यास कुछ, बस होंठ गीले हो गए 

जी हुज़ूरी की सभी को किस कदर आदत पड़ी 
जो थे परबत कल तलक वो आज टीले हो गए
 
क्या हुआ क्यूं घर किसी का आ गया फुटपाथ पर     
शायद उनकी लाडली के हाथ पीले हो गए 

 आपके बर्ताव में थी सादगी पहले बहुत
जब ज़रा शोहरत मिली तेवर नुकीले हो गए 

हक़ बयानी की हमें क़ीमत अदा करनी पड़ी 
हमने जब सच कह दिया वो लाल-पीले हो गए 

हो मुख़ालिफ़ वक़्त तो मिट जाता है नामो-निशां
इक महाभारत में गुम कितने क़बीले हो गए 

(5) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

इस जहां में प्यार महके ज़िंदगी बाक़ी रहे.
ये दुआ मांगो दिलों में रौशनी बाक़ी रहे. 

आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जायेगा,
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे. 

दोस्तों से दिल का रिश्ता काश हो कुछ इस तरह,
दुश्मनी के साये में भी दोस्ती बाक़ी रहे. 

ख़्वाब का सब्ज़ा उगेगा दिल के आंगन में ज़रूर,  
शर्त है आँखों में अपनी कुछ नमी बाक़ी रहे. 

इश्क़ जब कीजे किसी से दिल में ये जज़्बा भी हो,
लाख हों रुसवाइयां पर आशिक़ी बाक़ी रहे. 

दिल में मेरे पल रही है ये तमन्ना आज भी,
इक समंदर पी चुकूं और तिश्नगी बाक़ी रहे.
▪▪▪

Tuesday, October 19, 2021

संघर्ष : कहानी सतपाल ख़याल

 


संघर्ष : कहानी सतपाल ख़याल 


ऋषि अपने पिता जी के साथ बैठकर शाम की चाय पी रहा था | ऋषि के पिता जसवंत सिंह , जो कि पेशे से किसी प्राइवेट कम्पनी में बतौर इंजीनीयर काम करते थे | बेटे से उन्होंने  कहा कि अब वो आगे कुछ कोर्स कर ले | बाहरवीं में उसके अच्छे नम्बर हैं |

इस पर ऋषि थोड़ा गुस्से में बोला -“पापा , मैं आगे कोर्स  नहीं करूंगा | मैं कुछ छोटा –मोटा व्यापार करूंगा |”

 “अरे यार व्यापार ही करना था तो फिर पढ़ाई क्यों की ?” जसवंत सिंह जी ने कहा |

 “पापा , इंजीनीयर बनके भी क्या करूंगा | 10-10 हजार में लेबर से भी कम रेट पर काम कर रहे हैं इंजीनीयर , आप ही तो बताते हैं और आप भी इंजीनीयर हो ,3 0 साल काम करने के बाद अब भी नौकरी ढूंढ  रहे हो | या तो फिर मैं कैनेडा चला जाऊँगा | यहाँ नहीं रहूंगा |”

ऋषि ने बिना रुके बहुत सी बातें अपने पिता को  कह दी | कुछ देर चुप रहकर जसवंत सिंह जी बोले -

“शायद तुम ठीक कह  रहे हो | चाय ठंडी हो रही है ,चाय पी लो|” पिता ने लम्बी सांस भर कर बेटे को कहा| फिर कुछ सोचने के बाद बोले -

 “ बेटा जीवन एक संघर्ष है ,सारी  उम्र करना पड़ता है  और फिर संघर्ष की आग में तपकर ही तो  तो सोना कुंदन बनता है |”

“ये सब खुद को समझाने की बाते हैं , संघर्ष इस देश की कमज़ोर व्यवस्था की देन है , न कि कुदरत की | आम लोगों को ऐसे किस्से कहानियाँ सुना कर सदियों तक सियासत ने कोल्हू के बैल बना के रखा है | आप बताओ जिस देश में लोग रोटी को माथा टेक के खाते हों उस देश में .....”

बेटे की बात को बीच में काटकर जसवंत जी बोले “ अरे वो , इश्वर को धन्यवाद देते हैं”

“धन्यवाद नहीं पापा ,वो शुक्र मनाते हैं कि रोटी मिली तो , जिस देश में सैकड़ों लोग भूखे  पेट सोते हों, वहां जिसको रोटी नसीब हो जाए वो शुक्र ही मनायेगा , मैनें नहीं रहना यहाँ|” बेटे ने झल्लाकर कहा|

 

इतने में किसी ने दरवाज़े पे दस्तक दी ,बेटे ने देखा कि बहुत  से लोग कुछ बैनर लेकर ,हाथ जोड़कर खड़े थे ,ये लोग नगरपालिका के इलेक्शन के लिए वोट मांगने आए थे | बेटे ने गुस्से में उनसे बोला कि हर गली –चौराहे पे गटर रुके हुए हैं , नगर पालिका करती क्या है ?

 “इतने में जसवंत जी ने आके बेटे को रोका और हाथ जोड़कर सामने खड़े महाशय से  बोले  , जी जनाब , आपको ही वोट देंगे |”इतना कहकर उनको चलता किया |

 अगले दिन सुबह-सुबह बाप और बेटा बैठे टोवी देख रहे थे तो अचानक हत्या और बलात्कार की खबरों को सुनकर बेटे ने पिता से कहा –

“ इस देश में न किसी की इज्ज़त है , न सुरक्षा | आदमी मर जाए चाहे जानवर ,किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता | एक आदमी हर सैकंड करोड़ों कमा रहा है और एक आदमी परिवार की रोटी के लिए सारी उम्र पिसता है और खुशी–ख़ुशी स्वीकार कर लेता है कि जीवन तो संघर्ष है | जीवन संघर्ष नहीं है, इसे संघर्ष बनाया गया है , जान- बूझ कर इस देश को गरीब और अशिक्षित रखा गया है | ग़रीब , के ग़रीब रहने में ही सत्ता को फायदा है .....” बेटा निरंतर आक्रोश में बड़बड़ाता रहा |

फिर जसवंत जी ने  बेटे को कहा कि जाओ अपनी माता को स्टेशन से ले आओ| बेटा स्कूटर लेकर स्टेशन से अपनी माँ को लेने चला गया जो कुछ दिन मायके रहके वापिस आ रही थी |

काफी देर बाद , जसवंत जी को  निर्मला का फ़ोन आया कि ऋषि अब तक स्टेशन नहीं पहुंचा | ये सुनकर जसवंत जी चिंतित हो गये |

अचानक रिंग बजी और जसवंत  जी ने घबराते हुए फोन उठाया

कोई फोन पर कहा रहा था कि  आपके बेटे को एक धार्मिक जुलूस के कुछ लोगों ने बहुत मारा है वो नेहरू हस्पताल में है |

इतने में जसवंत  जी की पत्नी निर्मला भी रिक्शा लेके दरवाज़े पर पहुंची और खबर सुनते ही घबरा गई | कैसे भी करके दोनों अस्पताल पहुंचे |

डाक्टर ने बताया अब घबराने की कोई बात नहीं अब वो ठीक है |

अगले दिन ऋषि को होशा आया तो जसवंत  जी ने बेटे से कहा – “ बेटा , तुम कैनेडा जाने की तौयारी करो” | इतना कहकर जसवंत  जी ने अपने अन्दर के ज्वार भाटे को आँखों के बाहर आने से रोक लिया |

कुछ सालों बाद अचानक जसवंत जी की हृदय घात से मृत्यु हो गई और भारी मन से उनका बेटा ऋषि घर पहुंचा | शाम के वक्त जब सारा परिवार अफ़सोस में बैठा था तो ऋषि ने बातों –बातों में पिता को याद करते हुए अपनी माँ से कहा कि जब पिता जी मुझे एयर पोर्ट छोड़ने आये थे तो मैंने उनसे कहा कि आप भी कुछ दिन बाद कैनेडा शिफ्ट हो जाना | उस पर पिता जी ने कहा था -

“ बेटा , मैं एक पेड़ की तरह हूँ | मैं आसमान को देख तो सकता हूँ लेकिन आसमान में उड़ नहीं सकता | तुम पंछी की तरह हो , कहीं  भी उड़ कर जा सकते हो |तुम्हारे लिए फिलहाल कोई सरहद नहीं है | तुम जाओ ,अपने बनाये हुए आकाश में उड़ान भरो | अगर थक जाओ तो विश्राम के लिए बापस आ जाना |”

अगले दिन ऋषि आँगन में लगे उस नीम के पेड़ को देखकर बोला ,जिसे उसके पिता ने ही लगाया था –

“माँ , अब मैं बापस नहीं जाऊँगा | अब मैं इस पेड़ की देखभाल करूंगा | भले इस ज़मीन कि मिट्टी मेरी ख्वाहिशें पूरा नहीं कर सकती लेकिन इस मिट्टी से मेरा रिश्ता है ,जैसा मेरा रिश्ता तुझसे है , माँ |”

 

ग़ज़ल की बारीकियां -प्राण शर्मा

 स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प्रसाद जी और प्राण शर्मा जी और द्विज जी ,पंकज सुबीर जी ,नीरज गोस्वामी जी , सब लोग ब्लागिंग महफ़िलें लगाते थे | आज स्व :प्राण शर्मा जी को याद करते हुए और स्व : महावीर प्रसाद जी को नमन करते हुए ये पोस्ट हाज़िर है -



ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।



जितने गिले हैं सारे मुँह से निकाल डालो
रखो न दिल में प्यारे मुँह से निकाल डालो। - बहादुर शाह ज़फर


इस मतले में 'सारे' और ’प्यारे’ काफ़िया है और 'मुँह से निकाल डालो' रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा 'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।

शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं. दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा. मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है. मतला के पहले मिसरा में यदि "सजाता" काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में "लुभाता", "जगाता" या "उठाता" काफिया इस्तेमाल होता है. ग़ज़ल के अन्य शेर "बुलाता", "हटाता", "सुनाता" आदि काफिओं पर ही चलेंगे. मतला में "आता", "जाता", "पाता", "खाता","मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन ये बहर या छंद पर निर्भर है. निम्नलिखित बहर में की ग़ज़ल में "आता", "जाता", "मुस्कराता" आदि काफिये तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन "मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये नहीं.


हम कहाँ उनको याद आते हैं
भूलने वाले भूल जाते हैं

मुस्कराहट हमारी देखते हो
हम तो गम में भी मुस्कराते हैं

झूठ का क्यों न बोल बाला हो
लोग सच का गला दबाते हैं - प्राण शर्मा


उर्दू शायरी में एक छूट है वो ये कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे में "लाया" काफियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन--


वो यूँ बाहर जाता है
गोया घर का सताया है


लेकिन एक बंदिश भी है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे मिसरा में "जाता" काफिये प्रयुक्त हुए हैं तो पूरी ग़ज़ल में समान ध्वनियों के शाब्द -खाता ,भाता, लाता आते हैं. इस हालत में "आता" के साथ "लाया" काफिया बाँधना ग़लत है. इसके अतिरिक्त ध्वनी या स्वर भिन्नता के कारण "कहा" के साथ "वहां", "ठाठ" के साथ "गाँठ", "ज़ोर" के साथ "तौर" काफिये इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है.

अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अस्वाभाविकता, छंद-अनभिज्ञता और शब्दों के ग़लत वज़्नों के दोषों की भांति हिन्दी की कुछेक गज़लों के काफियों और रदीफों के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं. जैसे-


आदमी की भीड़ में तनहा खडा है आदमी
आज बंजारा बना फिरता यहाँ हैं आदमी - राधे श्याम


राधे श्याम के शेर का दूसरा मिसरा "यहाँ" अनुनासिक होने के कारण अनुपयुक्त है.


ख़ुद से रूठे हैं हम लोग
जिनकी मूठें हैं हम लोग - शेर जंग गर्ग

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
खो जाए तो मिटटी है मिल जाए तो सोना है -निदा फाजली


इस शेर में "खिलौना" और "सोना" में आयी "औ" और "ओ" की ध्वनी में अन्तर है.


बंद जीवन युगों में टूटा है
बाँध को टूटना था टूटा है -त्रिलोचन

अपने दिल में ही रख प्यारे तू सच का खाता
सब के सब बेशर्म यहाँ पर कोई शर्म नहीं खाता -भवानी शंकर

फ़िक्र कुछ इसकी कीजिये यारो
आदमी किस तरह जिए यारो -विद्या सागर शर्मा


उपर्युक्त तीनों शेरों में "टूटा", "खाता" और "जिए" की पुनरावृति का दोष है. एक मतला है-


जिंदगी तुझ से सिमटना मेरी मजबूरी थी
अज़ल से भी तो लिपटना मेरी मजबूरी थी -कैलाश गुरु "स्वामी"


"सिमटना" और "लिपटना" में आए "मटना" और "पटना" काफिये हैं. आगे के शेरों में भी इनकी ध्वनियों -कटना, पलटना जैसे काफिये आने चाहिए थे लेकिन कैलाश गुरु "स्वामी" के अन्य शेर में "जलना" का ग़लत इस्तेमाल किया गया है. पढिये-


ये अलग बात तू शर्मिदगी से डूब गया
मैं इक चिराग था जलना मेरी मजबूरी थी


काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आस-पास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीन दयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत' और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ की छवि दर्शनीय है-


जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में
हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में

मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और वन में
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में

तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में


यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों में ही निहित है. शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है, साथ ही शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का मतला है-


इतना चले हैं वो तेज़ सुध-बुध बिसार कर
आए हैं लौट-लौट के अपने ही द्वार पर


यहां 'बिसार' और 'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है- 'कर'। चूँकि रदीफ बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप बना रहना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथ-साथ 'कर' रदीफ को दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।

दुष्यंत कुमार का मतला है -


मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे


यहां 'पाने' और 'दिलाने' काफ़िए है; और उनकी रदीफ है- 'आएंगे'। ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर 'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है। पढ़िए-


हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए।
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे।


कई अशआर में रदीफ के ऐसे ही प्रयोग मिलते हैं।

साहित्य शिल्पी से साभार