Tuesday, October 19, 2021

संघर्ष : कहानी सतपाल ख़याल

 


संघर्ष : कहानी सतपाल ख़याल 


ऋषि अपने पिता जी के साथ बैठकर शाम की चाय पी रहा था | ऋषि के पिता जसवंत सिंह , जो कि पेशे से किसी प्राइवेट कम्पनी में बतौर इंजीनीयर काम करते थे | बेटे से उन्होंने  कहा कि अब वो आगे कुछ कोर्स कर ले | बाहरवीं में उसके अच्छे नम्बर हैं |

इस पर ऋषि थोड़ा गुस्से में बोला -“पापा , मैं आगे कोर्स  नहीं करूंगा | मैं कुछ छोटा –मोटा व्यापार करूंगा |”

 “अरे यार व्यापार ही करना था तो फिर पढ़ाई क्यों की ?” जसवंत सिंह जी ने कहा |

 “पापा , इंजीनीयर बनके भी क्या करूंगा | 10-10 हजार में लेबर से भी कम रेट पर काम कर रहे हैं इंजीनीयर , आप ही तो बताते हैं और आप भी इंजीनीयर हो ,3 0 साल काम करने के बाद अब भी नौकरी ढूंढ  रहे हो | या तो फिर मैं कैनेडा चला जाऊँगा | यहाँ नहीं रहूंगा |”

ऋषि ने बिना रुके बहुत सी बातें अपने पिता को  कह दी | कुछ देर चुप रहकर जसवंत सिंह जी बोले -

“शायद तुम ठीक कह  रहे हो | चाय ठंडी हो रही है ,चाय पी लो|” पिता ने लम्बी सांस भर कर बेटे को कहा| फिर कुछ सोचने के बाद बोले -

 “ बेटा जीवन एक संघर्ष है ,सारी  उम्र करना पड़ता है  और फिर संघर्ष की आग में तपकर ही तो  तो सोना कुंदन बनता है |”

“ये सब खुद को समझाने की बाते हैं , संघर्ष इस देश की कमज़ोर व्यवस्था की देन है , न कि कुदरत की | आम लोगों को ऐसे किस्से कहानियाँ सुना कर सदियों तक सियासत ने कोल्हू के बैल बना के रखा है | आप बताओ जिस देश में लोग रोटी को माथा टेक के खाते हों उस देश में .....”

बेटे की बात को बीच में काटकर जसवंत जी बोले “ अरे वो , इश्वर को धन्यवाद देते हैं”

“धन्यवाद नहीं पापा ,वो शुक्र मनाते हैं कि रोटी मिली तो , जिस देश में सैकड़ों लोग भूखे  पेट सोते हों, वहां जिसको रोटी नसीब हो जाए वो शुक्र ही मनायेगा , मैनें नहीं रहना यहाँ|” बेटे ने झल्लाकर कहा|

 

इतने में किसी ने दरवाज़े पे दस्तक दी ,बेटे ने देखा कि बहुत  से लोग कुछ बैनर लेकर ,हाथ जोड़कर खड़े थे ,ये लोग नगरपालिका के इलेक्शन के लिए वोट मांगने आए थे | बेटे ने गुस्से में उनसे बोला कि हर गली –चौराहे पे गटर रुके हुए हैं , नगर पालिका करती क्या है ?

 “इतने में जसवंत जी ने आके बेटे को रोका और हाथ जोड़कर सामने खड़े महाशय से  बोले  , जी जनाब , आपको ही वोट देंगे |”इतना कहकर उनको चलता किया |

 अगले दिन सुबह-सुबह बाप और बेटा बैठे टोवी देख रहे थे तो अचानक हत्या और बलात्कार की खबरों को सुनकर बेटे ने पिता से कहा –

“ इस देश में न किसी की इज्ज़त है , न सुरक्षा | आदमी मर जाए चाहे जानवर ,किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता | एक आदमी हर सैकंड करोड़ों कमा रहा है और एक आदमी परिवार की रोटी के लिए सारी उम्र पिसता है और खुशी–ख़ुशी स्वीकार कर लेता है कि जीवन तो संघर्ष है | जीवन संघर्ष नहीं है, इसे संघर्ष बनाया गया है , जान- बूझ कर इस देश को गरीब और अशिक्षित रखा गया है | ग़रीब , के ग़रीब रहने में ही सत्ता को फायदा है .....” बेटा निरंतर आक्रोश में बड़बड़ाता रहा |

फिर जसवंत जी ने  बेटे को कहा कि जाओ अपनी माता को स्टेशन से ले आओ| बेटा स्कूटर लेकर स्टेशन से अपनी माँ को लेने चला गया जो कुछ दिन मायके रहके वापिस आ रही थी |

काफी देर बाद , जसवंत जी को  निर्मला का फ़ोन आया कि ऋषि अब तक स्टेशन नहीं पहुंचा | ये सुनकर जसवंत जी चिंतित हो गये |

अचानक रिंग बजी और जसवंत  जी ने घबराते हुए फोन उठाया

कोई फोन पर कहा रहा था कि  आपके बेटे को एक धार्मिक जुलूस के कुछ लोगों ने बहुत मारा है वो नेहरू हस्पताल में है |

इतने में जसवंत  जी की पत्नी निर्मला भी रिक्शा लेके दरवाज़े पर पहुंची और खबर सुनते ही घबरा गई | कैसे भी करके दोनों अस्पताल पहुंचे |

डाक्टर ने बताया अब घबराने की कोई बात नहीं अब वो ठीक है |

अगले दिन ऋषि को होशा आया तो जसवंत  जी ने बेटे से कहा – “ बेटा , तुम कैनेडा जाने की तौयारी करो” | इतना कहकर जसवंत  जी ने अपने अन्दर के ज्वार भाटे को आँखों के बाहर आने से रोक लिया |

कुछ सालों बाद अचानक जसवंत जी की हृदय घात से मृत्यु हो गई और भारी मन से उनका बेटा ऋषि घर पहुंचा | शाम के वक्त जब सारा परिवार अफ़सोस में बैठा था तो ऋषि ने बातों –बातों में पिता को याद करते हुए अपनी माँ से कहा कि जब पिता जी मुझे एयर पोर्ट छोड़ने आये थे तो मैंने उनसे कहा कि आप भी कुछ दिन बाद कैनेडा शिफ्ट हो जाना | उस पर पिता जी ने कहा था -

“ बेटा , मैं एक पेड़ की तरह हूँ | मैं आसमान को देख तो सकता हूँ लेकिन आसमान में उड़ नहीं सकता | तुम पंछी की तरह हो , कहीं  भी उड़ कर जा सकते हो |तुम्हारे लिए फिलहाल कोई सरहद नहीं है | तुम जाओ ,अपने बनाये हुए आकाश में उड़ान भरो | अगर थक जाओ तो विश्राम के लिए बापस आ जाना |”

अगले दिन ऋषि आँगन में लगे उस नीम के पेड़ को देखकर बोला ,जिसे उसके पिता ने ही लगाया था –

“माँ , अब मैं बापस नहीं जाऊँगा | अब मैं इस पेड़ की देखभाल करूंगा | भले इस ज़मीन कि मिट्टी मेरी ख्वाहिशें पूरा नहीं कर सकती लेकिन इस मिट्टी से मेरा रिश्ता है ,जैसा मेरा रिश्ता तुझसे है , माँ |”

 

ग़ज़ल की बारीकियां -प्राण शर्मा

 स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प्रसाद जी और प्राण शर्मा जी और द्विज जी ,पंकज सुबीर जी ,नीरज गोस्वामी जी , सब लोग ब्लागिंग महफ़िलें लगाते थे | आज स्व :प्राण शर्मा जी को याद करते हुए और स्व : महावीर प्रसाद जी को नमन करते हुए ये पोस्ट हाज़िर है -



ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलता है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलती है। उसका रूप जस का तस रहता है।



जितने गिले हैं सारे मुँह से निकाल डालो
रखो न दिल में प्यारे मुँह से निकाल डालो। - बहादुर शाह ज़फर


इस मतले में 'सारे' और ’प्यारे’ काफ़िया है और 'मुँह से निकाल डालो' रदीफ़ है। यहां यह बतलाना उचित है कि ग़ज़ल के प्रारंभिक शेर को मतला और अंतिम शेर को मकता कहते हैं। मतला के दोनों मिसरों में तुक एक जैसी आती है और मकता में कवि का नाम या उपनाम रहता है। मतला का अर्थ है उदय और मकता का अर्थ है अस्त। उर्दू ग़ज़ल के नियमानुसार ग़ज़ल में मतला और मक़ता का होना अनिवार्य है वरना ग़ज़ल अधूरी मानी जाती है। लेकिन आज-कल ग़ज़लकार मकता के परम्परागत नियम को नहीं मानते है और इसके बिना ही ग़ज़ल कहते हैं। कुछेक कवि मतला के बगैर भी ग़ज़ल लिखते हैं लेकिन बात नहीं बनती है; क्योंकि गज़ल में मकता हो या न हो, मतला का होना लाज़मी है जैसे गीत में मुखड़ा। गायक को भी तो सुर बाँधने के लिए गीत के मुखड़े की भाँति मतला की आवश्यकता पड़ती ही है। ग़ज़ल में दो मतले हों तो दूसरे मतले को 'हुस्नेमतला' कहा जाता है। शेर का पहला मिसरा 'ऊला' और दूसरा मिसरा 'सानी' कहलाता है। दो काफ़िए वाले शेर को 'जू काफ़िया' कहते हैं।

शेर में काफिया का सही निर्वाह करने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ एक मोटे-मोटे नियम हैं जिनको जानना या समझना कवि के लिए अत्यावश्यक हैं. दो मिसरों से मतला बनता है जैसे दो पंक्तिओं से दोहा. मतला के दोनों मिसरों में एक जैसा काफिया यानि तुक का इस्तेमाल किया जाता है. मतला के पहले मिसरा में यदि "सजाता" काफिया है तो मतले के दूसरे मिसरा में "लुभाता", "जगाता" या "उठाता" काफिया इस्तेमाल होता है. ग़ज़ल के अन्य शेर "बुलाता", "हटाता", "सुनाता" आदि काफिओं पर ही चलेंगे. मतला में "आता", "जाता", "पाता", "खाता","मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन ये बहर या छंद पर निर्भर है. निम्नलिखित बहर में की ग़ज़ल में "आता", "जाता", "मुस्कराता" आदि काफिये तो इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन "मुस्काता", "लहराता" आदि काफिये नहीं.


हम कहाँ उनको याद आते हैं
भूलने वाले भूल जाते हैं

मुस्कराहट हमारी देखते हो
हम तो गम में भी मुस्कराते हैं

झूठ का क्यों न बोल बाला हो
लोग सच का गला दबाते हैं - प्राण शर्मा


उर्दू शायरी में एक छूट है वो ये कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे में "लाया" काफियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन--


वो यूँ बाहर जाता है
गोया घर का सताया है


लेकिन एक बंदिश भी है जिसका मैंने ऊपर उल्लेख किया है कि मतला के पहले मिसरा में "आता" और दूसरे मिसरा में "जाता" काफिये प्रयुक्त हुए हैं तो पूरी ग़ज़ल में समान ध्वनियों के शाब्द -खाता ,भाता, लाता आते हैं. इस हालत में "आता" के साथ "लाया" काफिया बाँधना ग़लत है. इसके अतिरिक्त ध्वनी या स्वर भिन्नता के कारण "कहा" के साथ "वहां", "ठाठ" के साथ "गाँठ", "ज़ोर" के साथ "तौर" काफिये इस्तेमाल करना दोषपूर्ण है.

अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अस्वाभाविकता, छंद-अनभिज्ञता और शब्दों के ग़लत वज़्नों के दोषों की भांति हिन्दी की कुछेक गज़लों के काफियों और रदीफों के अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं. जैसे-


आदमी की भीड़ में तनहा खडा है आदमी
आज बंजारा बना फिरता यहाँ हैं आदमी - राधे श्याम


राधे श्याम के शेर का दूसरा मिसरा "यहाँ" अनुनासिक होने के कारण अनुपयुक्त है.


ख़ुद से रूठे हैं हम लोग
जिनकी मूठें हैं हम लोग - शेर जंग गर्ग

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
खो जाए तो मिटटी है मिल जाए तो सोना है -निदा फाजली


इस शेर में "खिलौना" और "सोना" में आयी "औ" और "ओ" की ध्वनी में अन्तर है.


बंद जीवन युगों में टूटा है
बाँध को टूटना था टूटा है -त्रिलोचन

अपने दिल में ही रख प्यारे तू सच का खाता
सब के सब बेशर्म यहाँ पर कोई शर्म नहीं खाता -भवानी शंकर

फ़िक्र कुछ इसकी कीजिये यारो
आदमी किस तरह जिए यारो -विद्या सागर शर्मा


उपर्युक्त तीनों शेरों में "टूटा", "खाता" और "जिए" की पुनरावृति का दोष है. एक मतला है-


जिंदगी तुझ से सिमटना मेरी मजबूरी थी
अज़ल से भी तो लिपटना मेरी मजबूरी थी -कैलाश गुरु "स्वामी"


"सिमटना" और "लिपटना" में आए "मटना" और "पटना" काफिये हैं. आगे के शेरों में भी इनकी ध्वनियों -कटना, पलटना जैसे काफिये आने चाहिए थे लेकिन कैलाश गुरु "स्वामी" के अन्य शेर में "जलना" का ग़लत इस्तेमाल किया गया है. पढिये-


ये अलग बात तू शर्मिदगी से डूब गया
मैं इक चिराग था जलना मेरी मजबूरी थी


काफ़िया तो शुरू से ही हिंदी काव्य का अंग रहा है। रदी़फ भारतेंदु युग के आस-पास प्रयोग में आने लगी थी। हिंदी के किस कवि ने इसका प्रयोग सबसे पहले किया था, इसके बारे में कहना कठिन है। वस्तुतः वह फ़ारसी से उर्दू और उर्दू से हिंदी में आया। इसकी खूबसूरती से भारतेंदु हरिश्चंद्र, दीन दयाल जी, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथलीशरण गुप्त, सूयर्कान्त त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन आदि कवि इसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप उन्होंने इसका प्रयोग करके हिंदी काव्य सौंदर्य में वृद्धि की। उर्दू शायरी के मिज़ाज़ को अच्छी तरह समझनेवाले हिंदी कवियों में राम नरेश त्रिपाठी का नाम उल्लेखनीय है। उर्दू की मशहूर बहर 'मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' (सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा) में बड़ी सुंदरता से प्रयोग की गई है। उनकी 'स्वदेश गीत' और 'अन्वेषण' कविताओं में 'में' की छोटी रदी़फ की छवि दर्शनीय है-


जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में
हो रक्त बूँद भर भी जब तक हमारे तन में

मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और वन में
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में

तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में


यहाँ पर यह बतलाना आवश्यक है कि रदी़फ की खूबसूरती उसके चंद शब्दों में ही निहित है. शब्दों की लंबी रदी़फ काफ़िया की प्रभावोत्पादकता में बाधक तो बनती ही है, साथ ही शेर की सादगी पर बोझ हो जाती है। इसके अलावा ग़ज़ल में रदी़फ के रूप को बदलना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई फूलदान में असली गुलाब की कली के साथ कागज़ की कली रख दे। गिरजानंद 'आकुल' का मतला है-


इतना चले हैं वो तेज़ सुध-बुध बिसार कर
आए हैं लौट-लौट के अपने ही द्वार पर


यहां 'बिसार' और 'द्वार' काफ़िए हैं उनकी रदी़फ है- 'कर'। चूँकि रदीफ बदलती नहीं है इसलिए अंतिम शेर तक 'कर' का ही रूप बना रहना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग़ज़लकार ने काफ़िया के साथ-साथ 'कर' रदीफ को दूसरे मिसरे में 'पर' में बदल दिया है।

दुष्यंत कुमार का मतला है -


मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे


यहां 'पाने' और 'दिलाने' काफ़िए है; और उनकी रदीफ है- 'आएंगे'। ग़ज़ल के अन्य शेर में 'आएंगे' के स्थान पर 'जाएंगे' रदीफ का इस्तेमाल करना सरासर ग़लत है। पढ़िए-


हम क्या बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गए।
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जाएंगे।


कई अशआर में रदीफ के ऐसे ही प्रयोग मिलते हैं।

साहित्य शिल्पी से साभार 

Monday, October 18, 2021

काफिये पर विमर्श -भाग दो : सतपाल ख़याल

 न रवा कहिये न सज़ा कहिये

कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये

ये स्वर साम्य है यहाँ "आ" की एकता है व्यंजन "ज" और " र" अलग हैं.
जैसे "आ" का ये उदाहरण:

आरजू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई

"ई" साम्य काफ़िये देखिए द्विज जी की ग़ज़ल से

मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या

कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या

यहाँ भी स्वर की साम्यता है व्यंजन कि नही.

स्वर और व्यंजन की साम्यता 
आब बात आगे बढ़ाते हैं, हम काफ़िया शब्दों मे जो व्यंजन रिपीट होता है मसलन:चाल-ढाल-खाल-दाल-डाल इनमे "ल" हर्फ़े-रवि कहलायेगा। जो हर काफ़िये के अंत मे आयेगा.और आना, जाना, पाना, खाना,गाना आदि.

जैसे द्विज जी के अशआर देखें:

जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
ज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग

सत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग

उस आदमी का ग़ज़लें कहना क़ुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिसका शऊर होगा

यहाँ "र" हर्फ़े-रवी है.

वास्तव मे काफ़िया या तुक स्वर और व्यंजन की आंशिक एकता से बनते हैं.

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इसके बाद बात करते हैं कि -- ग़ज़ल मे मतले मे जो पाबंदी लगा दी जाती है उसे पूरी ग़ज़ल मे निभाना पड़ता है सो जो पाबंदी आप काफ़िये मे लगा लेते हो वो पूरी ग़ज़ल मे निभानी पड़ती है.

अब आर.पी शर्मा जी के हवाले से बात आगे बढ़ाते है..

काफ़िये दो तरह के होते हैं या आप यूँ भी कह सकते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं एक विशुद्द और दूसरे योजित. योजित माअने जिनमे कोई अंश जुड़ा हो मसलन:

शुद्द शब्द से योजित शब्द या काफ़िये के उदाहरण:

सरदार से सरदारी (ई) का अंश बढ़ा दिया यहाँ शुद्द शब्द है सरदार और योजित है सरदारी .ऐसे ही:दुश्मन से दुशमनी, यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ.

सर्दी से सर्दियाँ...यहाँ याँ का
गर्मी से गर्मियाँ...यहाँ याँ का
किलकारी से किलकारियाँ....यहाँ याँ का
होशियार से होशियारी....यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
दोस्त से दोस्ती...........यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
वफ़ा से वफ़ादार... यहाँ दार का
सितम से सितमगर.....यहाँ गर का.

ऐसे सारे काफ़िये योजित काफ़िये कहलाते हैं जिनमे कुछ अंश जोड़ा गया हो.
शुद्द शब्द तो शुद्द है ही जैसे ज़िंदगी, दोस्त, खुश,खेल आदि.

श्री आर.पी शर्मा जी ने जैसा कहा है कि:

1.पहली शर्त ये है कि मतले मे अगर दोनो काफ़िये योजित हैं तो वो सही काफ़िये इस सूरत मे होंगे कि अगर हम उनके बढ़े हुए अंश निकाल दें तो भी वो आपस मे हम-काफ़िया हों, जैसे:

यँ बरस पड़ते हैम क्या ऐसे वफ़ादारों पर
रख लिया तूने जो अश्शाक को तलवारों पर

नुमाइश के लिए गुलकारियां दोनो तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियां दोनो तरफ़ से हैं.

अब अगर खिड़कियों से तलवारों का कफ़िया बांधेगे तो गल्त हो जाएगा, क्योंकि खिड़की और तलवार से अगर "यों " निकाल दें तो खिड़की और तलवार आपस मे हम काफ़िया नहीं हैं.ऐसे काफ़ियों को मतले मे बांधने से मतला इता दोश युक्त हो जाता है.योजित काफ़िये को मतले मे बांधने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये.अगर मतले मे दोनो काफ़िये योजित रखने हों तो योजित अंश निकालने पर भी शब्द हम-काफ़िया होने चाहिए.जैसे वफ़ादारों और तलवारों मे "ओं" निकाल देने पर भी तलवार और वफ़ादार हम-काफ़िया हैं.

वैसे तो गुलाब और शराब का काफ़िया बांधने पर भी मनाही है लेकिन अहमद-फ़राज़ साहेब कि ग़ज़ल का मतला देखें:

बदन मे आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हरे-ग़म का नशा भी शराब जैसा है.

जब मैने इस बात का ज़िक्र आर.पी शर्मा जी से किया तो उन्होने कहा कि इसके भी आगे भी कई और नियम हैं और बाल की खाल निकालने से कोई फ़ायदा नहीं.सो शायरी मे भी कई घराने हैं जो इता को दोश मानते हैं और कई नही मानते अब मै इस दुविधा मे हूँ कि मै किस घराने से जुड़ूँ.

द्विज जी की ग़ज़ल का मतला देखें:

हज़ूर आप तो पहुँचे हैं आसमानो पर
सिसक रही है अभी ज़िम्दगी ढलानो पर.

यहाँ अगर बढ़े हुए अंश "ओं" को निकाल दें तो आसमान और ढलान हम-काफ़िया हैं.

या फिर एक विशुद्द एक योजित काफ़िया ले लें:जैसे:

है जुस्तज़ू कि खूब से है खूबतर कहाँ
अब ठैरती है देखिए जाकर नज़र कहाँ.

खूबतर योजित है और जाकर शुद्द तो बात बन गई.नही तो इसमे एक और कानून है कि अगर बढ़ा हुआ अंश निकाल देने पर शब्द आपस मे हम-काफ़िया नही है लेकिन उनमे व्याकरण भेद है तो वो दोषमुक्त हो जाएंगे, जैसे : 

देख मुझको न यूँ दुशमनी से
इतनी नफरत न कर आदमी से

यहाँ पर "ई" दोनो काफ़ियों मे बढ़ा हुआ अंश है और इसे निकाल देने से दुशमन और आदम हम-आवाज़ या हम-काफ़िया नही है लेकिन दोनो मे व्याकरण भेद है दुशमन भाववाचक है और आदमी जाति वाचक है तो ये सही मतला है.लेकिन अगर ऐसे हो:


आपसे दोस्ती,
आपसे दुशमनी

तो क्योंकि दोनो भाववाचक हैं और बढ़ा हुआ अंश ई’ निकाल देने से हम-काफ़िया नही है सो ये गल्त हो जायेगा.

अब अगर दोनो शुद्द हों तो झगड़ा ही खत्म.

देख ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों क ख्याल रहने दे (द्विज)

कुछ और उसूल:

1.एक ही शब्द बतौर काफ़िया मतले मे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बशर्ते कि उनके अर्थ जुदा-जुदा हों. ऐसा करने से काफ़िया रदीफ़ सा बन जाता है.एक शब्द बस इस सूरत मे इस्तेमाल कर सकते हैं जो
उनके अर्थ अलग हों जैसे:

हुई है शाम तो आँखों मे बस गया फिर तू
कहां गया मेरे शहर के मुसाफिर तू.

यहाँ फिर के माने 'बाद' और दूसरे मिसरे मे मुसाफिर का अंश है फिर.जैसे सोना और सोना एक मेट्ल है दूसरा सोना. या फिर जैसे कनक का एक अर्थ धतूरा एक कनक सोना.

अगर आपने काफ़िया "हम" बांधा है और रदीफ़ ’न होंगे" और आपने हम मतले के दोनो मिसरों मे ले लिया तो ये उस ग़्ज़ल का काफ़िया न होकर रदीफ़ बन जायेगा.

हम न होंगे.

लेकिन एक बात बड़ी दिलचस्प है :

अब दिल है मुकाम बेकसी का
यूँ घर न तबाह हो किसी का.

यहाँ ई का काफ़िया है लेकिन व्यंजन "स’ रिपीट हो गया लेकिन क्योंकि काफ़िया स्वर का है इसलिए ये छूट है या फिर शायद कोई और नियम हो.

एक और देखे:

बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
याद आता है चौंका -बासन चिमटा फुकनी जैसी मां.

यहाँ भी ’नी’ रिपीट हुआ है लेकिन काफ़िया "ई’ का है.

2.कुछ शब्द उच्चारण मे हम आवाज़ लगते हैं लेकिन लिखने मे नही जैसे - पड़ और पढ़, खास और यास, आग और दाग़ इन्हें मलफ़ूज़ी काफ़िये कहते हैं और इस दोष को इक्फ़ा कहते हैं. और उर्दू भाषा मे कुछ शब्द ऐसे है जो लिखे तो एक से जाते हैं लेकिन उच्चारण अलग होता है मसलन - 

सह’र और स’हर एक का मतलब सुबह अए जादू, सक़फ़ और सक्फ़( सीन, काफ़,फ़े) इनके अर्थ अलग हैं इन्हे मक़तूबी काफ़िये कहते हैं. लेकिन हिंदी मे ये भेद नही है.

3.अगर काफ़िये मे आप खफ़ा, वफ़ा लेते हैं तो ज़रूरी नहीं कि आप अशआर मे नफ़ा आदि लें आप नशा, देखा, सोचा.. ले सकते हैं.

जैसा आर. पी शर्मा जी ने ये उदाहरण दिया है
डा॰ इकबाल अपनी एक ग़ज़ल में लाये हैं,

फिर चिराग़े-लाल से रौशन हुए कोहो-दमन
मुझको फिर नग्मों पे उकसाने लगा मुर्गे-चमन।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है, आता है धन जाता है धन।

यहाँ इकबाल जी ने च+मन और द+मन मतले मे बांधे लेकिन आगे जाके ये बंधिश तोड़ दी .इसे" धन" कर दिया तो ये छूट है:

4. एक और कमाल देखें

पुरखों की तहज़ीब से महका बस्ता पीछे छूट गया
जाने किस वहशत मे घर का रस्ता पीछे छूट गया.

यहाँ पर रस्ता , बस्ता काफ़िये मतले मे बांधे और इसके हिसाब से आगे.. सस्ता, या खस्ता आदि आने चाहिए लेकिन..

अहदे-ज़वानी रो-रो काटा मीर मीयां सा हाल हुआ
लेकिन उनके आगे अपना किस्सा पीछे छूट गया.

ये सब चलता है.शायर को इन पेचीदा दलीलों मे न फ़ंस कर उतने से काम रखना चाहिए जिससे वो ग़ज़ल दोषमुक्त लिख सके.ये काम ज़ियादा अरूज़िओं का है लेकिन इन सब का इल्म लाज़िम है कई सरफ़िरों से बहस करने के काम आता है..हा.हा.हा.

5. अगर आप मतले मे कामिल और शामिल का काफ़िया बांधा है तो आगे आपको शामिल, आमिल आदि बांधने पड़ेंगे कातिल गल्त हो जायेगा. सो ये सब है ...लेकिन द्विज जी की एक बात से इस बहस को यहीं विराम देता हूँ कि शायरी मे कुछ भी हर्फ़े-आखिर नही होता. लकीर के फ़कीर होना भी सही नही लेकिन इल्म भी लाज़िम है.

दर्द को दिल में जगह दो "अकबर"
इल्म से शायरी नहीं आती

लेकिन इल्म एक समझ पैदा ज़रूर करता है और दर्द, इल्म की रौशनी मे नगी़ने सा चमकता है.