Tuesday, May 25, 2010
सातवीं क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर" के इस खूबसूरत शे’र के साथ -
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
और माहक साहब के इस फ़लसफ़े-
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
-के साथ हाज़िर हैं सातवीं क़िस्त की तीन ग़ज़लें।
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
प्रीत न आई रास रे जोगी
ले लूँ क्या बनवास रे जोगी
दर-दर यूँ ही भटक रहा हूँ
आता नहीँ क्यों पास रे जोगी
कब तक भूखा प्यासा रहूँ मैं
आ के बुझा जा प्यास रे जोगी
देगा कब तू आख़िर दर्शन
मन है बहुत उदास रे जोगी
कितना बेहिस है तू आख़िर
तुझको नहीं एहसास रे जोगी
मन को चंचल कर देती है
अब भी मिलन की प्यास रे जोगी
छोड़ के तेरा जाऊँ कहाँ दर
मैं तो तेरा दास रे जोगी
सब्र की हो गई हद ‘बर्क़ी’ की
तेरा सत्यानास रे जोगी
विलास पंडित "मुसाफ़िर"
हुक़्म है तेरा ख़ास रे जोगी
मैं तो तेरा दास रे जोगी
जीवन का इक रूप है ये तो
खेले सारे रास रे जोगी
सब कुछ मेरा नाम है तेरे
जो भी मेरे पास रे जोगी
खूब ठिठौली कर लेता है
तू भी है बिंदास रे जोगी
जब से रूठा है तू मुझसे
टूटी मेरी आस रे जोगी
दुनिया को देना है,क्या दें
पत्थर या अल्मास रे जोगी
जोगन तेरी राह तके है
आया सावन मास रे जोगी
बस में होता तो मैं देता
रावण को बनवास रे जोगी
उसमें विष का वास भरा है
शब्द है जो विश्वास रे जोगी
तुझको देख के मुझको रब का
होता है एहसास रे जोगी
शायर तो दुनिया में लाखों
एक "मुसाफ़िर" ख़ास रे जोगी
डा.अजमल ख़ान "माहक" लखनऊ से
ओ जोगी तुम ख़ास रे जोगी
हमको तुम से आस रे जोगी
राम सिया संग जाई बसे वन
तज कर भोग विलास रे जोगी
देख रहे हैं अपने सारे
कौन चला बनवास रे जोगी
मोह में जब तुम इतने उलझे
काहे का सन्यास रे जोगी
जिन को भूख की आदत पड़ गई
उनको क्या उपवास रे जोगी
बीता जीवन,जी लीं साँसें
बीत गया मधुमास रे जोगी
ज्ञानी ध्यानी सब दुखियारे
मोह रचाऐ रास रे जोगी
घर छोड़ा पर जग नांहि छूटा
तू माया का दास रे जोगी
सच मिलता रोता- चिल्लाता
सहता है उपहास रे जोगी
“माहक” दुनिया देख रहा है
आई उसको रास रे जोगी
Sunday, May 23, 2010
छटी क़िस्त-कौन चला बनवास रे जोगी
छ्टी क़िस्त की तीन ग़ज़लें-
योगेन्द्र मौदगिल
तन का क्या विश्वास रे जोगी
तन तो मन का दास रे जोगी
भगवे में भगवान बसे हैं
जटा-जूट विन्यास रे जोगी
उर्मिल पूछ रही लछमन से
कौन दोष मम् खास रे जोगी
जाम-सुराही छूट गये सब
टूट गया अभ्यास रे जोगी
सूरज, चंदा, जुगनू, तारे
किसको किसकी आस रे जोगी
तितली, भंवरे, कोयल, खुशबू
किसको दुनिया रास रे जोगी
मंत्र मणि मंदिर मर्यादा
मन माया मधुमास रे जोगी
पाहुन कुत्ता जांच रहा है
कुत्ता पाहुन-बास रे जोगी
जे विध राखे राम-रमैय्या
सो विध खासमखास रे जोगी
गंगा गये सो गंगादासा
जमना-जमनादास रे जोगी
कूंए में गूंगी परछाई
जगत पे अट्टाहास रे जोगी
चप्पा-चप्पा मौन खड़ा है
कौन चला बनवास रे जोगी
मैच अभी है शेष ’मौदगिल’
अभी हुआ है टास रे जोगी
प्राण शर्मा
जीवन आया रास रे जोगी
मैं क्यों लूँ बनवास रे जोगी
इतनी उदासी अच्छी नहीं है
कुछ तो हो परिहास रे जोगी
सोच ज़रा ये भी ,मधुवन में
क्यों आये मधुमास रे जोगी
तुलसी, केशव, सूर कबीरा
सबके सब थे दास रे जोगी
जीवन के ये भी हिस्से हैं
सुख,दुःख,भोग-विलास रे जोगी
तू न बुरा माने तो पूछूँ
तुझमें क्या है ख़ास रे जोगी
हर कोई दिल को थामे है
कौन चला बनवास रे जोगी
गिरीश पंकज
किनसे रक्खें आस रे जोगी
टूटा हर विश्वास रे जोगी
पतझर से डरता है काहे
आयेगा मधुमास रे जोगी
जीत ले सबका दिल बढ़ कर के
बन जा खासमख़ास रे जोगी
रोती है ये सारी नगरी
कौन चला बनवास रे जोगी
तोते को सोने का पिंजरा
आता है क्यों रास रे जोगी
प्यार से मिट जाती है दूरी
आयें बैरी पास रे जोगी
मत रोना , होता आया है
सच का तो उपहास रे जोगी
ये तो प्रेम-पियाला पंकज
इसमें है बस प्यास रे जोगी
Wednesday, May 19, 2010
पाँचवीं क़िस्त - कौन चला बनवास रे जोगी
पाँचवीं क़िस्त की ये तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
बाबा कानपुरी
रहता नित उपवास रे जोगी
मन में अति उल्लास रे जोगी
कुछ तो है जो कसक रहा है
क्या मन में संत्रास रे जोगी
झर-झर बहते नैना जैसे
बारिश बारह मास रे जोगी
सूनी-सूनी दसों दिशाएं
कौन चला बनवास रे जोगी
व्यसनों की चादर में लिपटा
यह कैसा सन्यास रे जोगी
लेना एक न देना दो पर
नित करता अभ्यास रे जोगी.
रीता का रीता है "बाबा"
सब कुछ उसके पास रे जोगी
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
बैठ तुम्हारे पास रे जोगी
अनहद का एहसास रे जोगी
तेरे आने से छाया है
हर सू इक उल्लास रे जोगी
तू आ जाये जब भी मन में
हो जाता है रास रे जोगी
कुछ दिन थोड़ी कोशिश करले
जग आयेगा रास रे जोगी
मन में है सो पा जाऊँगा
क्याँ छोडूँ मैं आस रे जोगी
दो पल की फुर्सत का सपना
इक गहरा उच्छवास रे जोगी
ये ही तुझ को खुश कर दे तो
चल मैं तेरा दास रे जोगी
वानप्रस्थ की उम्र हुई पर
कौन चला बनवास रे जोगी
कब तक सहना होगा मुझको
तन्हा ये संत्रास रे जोगी
तेरा मेरा सोच न 'राही'
इसमें भ्रम का वास रे जोगी
चंद्रभान भारद्वाज
कर सूना हर वास रे जोगी
कौन चला बनवास रे जोगी
बाकी अब बिरहिन की पूँजी
आँसू और निश्वास रे जोगी
तोड़ा है शक के पत्थर ने
शीशे सा विश्वास रे जोगी
उठते ही दुल्हन की डोली
उजड़ा सब जनवास रे जोगी
राजा हो या रंक सभी का
जाना तय सुरवास रे जोगी
क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
मन प्रभु का आवास रे जोगी
फैली 'भारद्वाज'उसी की
कण कण बीच सुवास रे जोगी
अज़ीज दोस्तो!
मैं अपनी बात बड़ी हलीमी से रख रहा हूँ, कोई भी इसे अन्यथा न ले । बहस या संवाद किसी नतीजे तक न पहुँचे तो क्या फ़ायदा। बात शुरू हुई थी नास और नाश को लेकर और आदरणीय राजेन्द्र जी ने ही देशज शब्द का इस्तेमाल टिप्पणी में किया। देशज या देशी या देसी शायद एक ही अर्थ के शब्द हों । देशज,वो शब्द जो बिना किसी आधार के (तदभव, तत्सम ,गृहित,अनुकरण) विकसित हो गए हों। जिनकी पैदाइश कैसे हुई इसका किसी को पता नहीं हो जैसे- घूँट, घपला पेड़,चूहा ठेस, ठेठ, धब्बा पेठा कबड्डी आदि
और आम हिंदी भाषा में तकरीबन 80% तद्भव, 15% तत्सम 13% विदेशी और 2% देशज शब्द इस्तेमाल होते हैं। शब्दकोश में नास का अर्थ है-वह चूर्ण जो नाक में डाला जाय। वह औषध जो नाक से सूँघी जाय। सूँघना या नसवार, सुँघनी ।
लेकिन ’देशज शब्द’ शब्दकोशों में नहीं मिलते पर अब धीरे-धीरे शामिल किए जा रहे हैं।
नाश यानि नष्ट और अब नास शब्द के कुछ प्रयोग देखें-
जबहिं नाम ह्रदय धरा,भया पाप का नास
मानों चिनगी आग की,परी पुरानी घास ..कबीर
कंस बंस कौ नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं
यह बिपदा कब मेटहिं श्रीपति अरु हौं काहिं .... सूरदास
अब शब्दकोश के लिहाज से ये तो यहाँ नास का प्रयोग ग़लत है या यूँ कहो कि घास’ के साथ तुक मिलाने के लिए कबीर ने नास लिख दिया। लेकिन उन्होंने इसे लिखा वो गुणी और गुरूजन ही हैं हमारे लिए। तुलसी की भाषा को हम क्या कहेंगे कि वो ग़लत है या फिर कबीर ग़लत हैं।
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
शे’र में बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है सब जानते हैं , लेकिन इस शब्द के प्रयोग को हम किस आधार पर ग़लत कहेंगे। मेरा ये प्रशन सिर्फ़ राजेन्द्र जी से नहीं है बल्कि सब से है। मैं आप सब से जानना चाहता हूँ ताकि कुछ हम सब सीख सकें।क्या कबीर का ’नास’ कुछ और है? क्या नास तदभव रूप नहीं है या फिर ये देशी है,क्या है? इसे संवाद तक ही सीमित रखें विवाद न समझें और न ही विवाद का रूप दें। ग़ज़ल कहने वाले तो हर बात सलीक़े और अदब से ही कहते हैं और ये मंच है ही ग़ज़ल के लिए।
बात जोगी की हो रही है तो क्यों न लता की आवाज़ में ये गीत-
जाओ रे ! जोगी तुम जाओ रे ...सुना जाए।
Monday, May 17, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी-चौथी क़िस्त
नवनीत जी की इस अरदास-
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
के साथ और राजेन्द्र स्वर्णकार के इस अनूठे और सुंदर शे’र-
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
के साथ हाज़िर है ये चौथी कि़स्त-
नवनीत शर्मा
खुशियों को बनवास रे जोगी
पीड़ा का मधुमास रे जोगी
कोई मोटा गणित बता दे
बाकी कितने श्वास रे जोगी
कट-कट कर भी बढ़ती जाए
यादों की यह घास रे जोगी
जोग भी मन की ही इच्छा है
तू इच्छा का दास रे जोगी
हँसते चेहरों के पीछे भी
पीड़ा का आवास रे जोगी
काश वो आएँ जिनको सौंपे
पल छिन घड़ियाँ मास रे जोगी
जिनको भूख से रोज उलझना
मजबूरी उपवास रे जोगी
गाँव-नगर जो तैर रहा है
कौन हरे संत्रास रे जोगी
सूखीं सपनों की धाराएँ
जैसे दरिया ब्यास रे जोगी
तू माहिर दुनियादारी में
किसको था आभास रे जोगी
धरती कितनी गर्मी झेले
अन्न गया अब नास रे जोगी
सांझ ढले सब घर को लौटें
अपनी ये अरदास रे जोगी
उससे कहो पहले बन ढूँढे
कौन चला बनवास रे जोगी
राजेन्द्र स्वर्णकार(बीकानेर से)
मन है बहुत उदास रे जोगी
आज नहीं प्रिय पास रे जोगी
पूछ न प्रीत का दीप जला कर
कौन चला बनवास रे जोगी
अब सम्हाले संभल न पाती
श्वास सहित उच्छ्वास रे जोगी
पी'मन में रम-रच गया,जैसे
पुष्प में रंग-सुवास रे जोगी
धार लिया तूने तो डर कर
इस जग से सन्यास रे जोगी
कौन पराया-अपना है रे
क्या घर और प्रवास रे जोगी
चोट लगी तो तड़प उठेगा
मत कर तू उपहास रे जोगी
प्रणय विनोद नहीं रे ! तप है
और सिद्धि संत्रास रे जोगी
छोड़ हमें ’राजेन्द्र’ अकेला
है इतनी अरदास रे जोगी !
Friday, May 14, 2010
तीसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
मुफ़लिस साहब के इस खूबसूरत शे’र -
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
के साथ तीसरी क़िस्त हाज़िर है जिसमें जोगेश्वर गर्ग जी की ग़ज़ल भी का़बिले-गौ़र है।साथ ही दूसरी क़िस्त में चंद्र रेखा ढडवाल के इस खूबसूरत शे’र के लिए उनको बधाई देना चाहता हूँ।
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
लीजिए ये अगली दो ग़ज़लें-
डी.के.'मुफ़लिस'
ओढ़ लिया संन्यास रे जोगी
फिर भी मन का दास रे जोगी
काश ! कभी पूरी हो पाए
जीवन की हर आस रे जोगी
पल-पल वक़्त के नाज़ उठाना
तुझ को क्या एहसास रे जोगी
सारा जग है भूल-भुलैयाँ
आया किसको रास रे जोगी
काम कभी आ ही जाता है
सपनों का विन्यास रे जोगी
बस्ती में हर आँख रूआँसी
कौन चला बनवास रे जोगी
लुक-छिप सब को नाच नचाये
कौन रचाए रास रे जोगी
मीलों मृगतृष्णा के साये
कोसों फैली प्यास रे जोगी
'मुफ़लिस' जब से दूर गया वो
ग़म आ बैठा पास रे जोगी
जोगेश्वर गर्ग
जो बन्दा बिंदास रे जोगी
दुनिया उसकी दास रे जोगी
इतना ध्यान हमेशा रखना
कौन बना क्यों ख़ास रे जोगी
ज्ञान समंदर उतना गहरा
जितनी जिसकी प्यास रे जोगी
भौंचक अवध समझ नहीं पाया
कौन चला वनवास रे जोगी
दुनियादारी ढोते ढोते
फूली अपनी श्वास रे जोगी
इसका- उसका, किस किस का तू
कर बैठा विश्वास रे जोगी
जिसको खुद पर खूब भरोसा
ईश्वर उसके पास रे जोगी
"जोगेश्वर" को भूल न जाना
इतनी सी अरदास रे जोगी
दूसरी क़िस्त- कौन चला बनवास रे जोगी
दूसरी क़िस्त में तीन शाइराओं की ग़ज़लें एक साथ मुलाहिज़ा कीजिए-
देवी नांगरानी
ओढे शब्द लिबास रे जोगी
आई ग़ज़ल है रास रे जोगी
धूप में पास रहे परछाईं
शाम को ले सन्यास रे जोगी
छल से जल में आया नज़र जो
चाँद लगा था पास रे जोगी
हिम्मत टूटी,दिल भी टूटा
टूटा जब विश्वास रे जोगी
सहरा के लब से जा पूछो
होती है क्या प्यास रे जोगी
जीस्त ने जब गेसू बिखराए
खोया होश हवास रे जोगी
’देवी’ मत ज़ाया कर इनको
पूंजी इक इक स्वास रे जोगी
चंद्र रेखा ढडवाल(धर्मशाला हिमाचल प्रदेश)
जितने खिले मधुमास रे जोगी
उतने हुए बे-आस रे जोगी
ताल सरोवर पनघट तेरे
अपनी तो बस प्यास रे जोगी
मेघ बरसते थे,दिन बीते
अब तो बरसती प्यास रे जोगी
साथ प्रिया बन-बन डोले तो
काहे का बनवास रे जोगी
हमको अयोध्या में रहते भी
देख मिला बनवास रे जोगी
जिसने शिलाओं को तोड़ा हो
वो ही करे अब न्यास रे जोगी
खेत भी होंगे राजसिंहासन
आम जो होंगे ख़ास रे जोगी
आज इस गाँवों कल उस नगरी
क्यों बँधवाई आस रे जोगी
खेल रहा था खेल फ़क़त तू
हमने किया विश्वास रे जोगी
सारा जबीन
जब से गया बनवास रे जोगी
टूटी प्रीत की आस रे जोगी
सब सखियां ये पूछ रही हैं
कौन चला बनवास रे जोगी
धन दौलत नहीं मांगूं तुझसे
मांगूं तेरा पास रे जोगी
किस को समझूँ अब मैं दोषी
कुछ भी न आया रास रे जोगी
लौटेगा तू 'सारा' की है
आँखों में विश्वास रे जोगी
Monday, May 10, 2010
कौन चला बनवास रे जोगी- पहली क़िस्त
"कौन चला बनवास रे जोगी" राहत इन्दौरी साहब की ग़ज़ल से लिए इस मिसरे पर कई शायरों ने ग़ज़लें कहीं है या यों कहो कि राहत साहब की ज़मीन पर शायरों ने हल चलाने की हिम्मत की है। कई ग़ज़लें आईं है जो कि़स्तों मे पेश की जाएँगी।पहले हाज़िर हैं दो ग़ज़लें-
एम.बी.शर्मा "मधुर"
यूँ लेकर सन्यास रे जोगी
आएँ न भगवन पास रे जोगी
मन का द्वार न खुल पाया तो
वन भी कारावास रे जोगी
रावण आज अयोध्या में जब
राम ले क्यूँ बनवास रे जोगी
जो दुनिया से भागा उसपे
कौन करे विश्वास रे जोगी
युग बीते जो मिट न सकी वो
जीवन अनबुझ प्यास रे जोगी
जो ख़ुद से ही हारा उसको
कौन बँधाए आस रे जोगी
इंसानों में ज़ह्र जब इतना
साँपों में क्या ख़ास रे जोगी
सत्य ‘मधुर’ भी कड़वा लगता
आए किसको रास रे जोगी
पवनेंद्र "पवन"
बाहर योग-अभ्यास रे जोगी
भीतर भोग-विलास रे जोगी
रात सुरा यौवन की महफ़िल
दिन को है उपवास रे जोगी
घर में चूल्हे-सी,जंगल में
दावानल-सी प्यास रे जोगी
सन्यासी के भेस में निकला
इन्द्रियों का दास रे जोगी
झोंपड़ छोड़ महल में रहना
ये कैसा सन्यास रे जोगी
मर्यादा को बंधन समझा
घर को कारावास रे जोगी
लोग हैं जितने ख़ास वतन में
उन सब का तू ख़ास रे जोगी
घर सूना कर ख़ूब रचाता
वृंदावन में रास रे जोगी
जब सुविधाएँ पास हों सारी
सब ऋतुएँ मधुमास रे जोगी
दूर ‘पवन’ को अब भी दिल्ली
तेरे बिल्कुल पास रे जोगी
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