Friday, February 28, 2025

जौन एलिया -बड़े शायर का बड़ा शे'र पहली क़िस्त





जन्म - 14 Dec 1931 -अमरोहा, उत्तर प्रदेश
निधन - 08 Nov 2002 - कराची, सिंध

हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में


जौन एलिया , ग़ालिब के बाद शायद इकलौते शायर हुए जो अन्दर से दार्शनिक भी थे और आप उन्हें वली या औलिया भी कह सकते हैं | ऐसा शायर जो अपनी शायरी जैसा दिखता भी था , अमूमन शायर ,अपनी शायरी से जुदा से ही  दिखते हैं | यूं तो उन के कई शे'र मशहूर हुए लेकिन ये शे'र ख़ासा सराहा गया | इस में वो ख़ुदा पर तंज़ करते हुए कहते हैं कि ख़ुदा ने कहा और झट से ,जल्दी से दुनिया पैदा हो गई और यही वज़ह है कि ऐसी बुरी दुनिया वजूद में आई ,अगर ख़ुदा  जल्दबाजी न करता तो बेहतर दुनिया बन सकती थी | ये सिर्फ़ तंज़ है और ये तंज़ सिर्फ़ शायर ही कर सकता है | 

ये जहाँ 'जौन' इक जहन्नुम है
याँ ख़ुदा भी नहीं है आने का
जौन एलिया 

 दुनिया से हर शायर जैसा मेरा मानना है ,फ़रार चाहता है जैसे ग़ालिब भी कहते हैं -

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब

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और फिर बुद्ध भी इस संसार को दुःख कहते हैं | जिस ने थोड़ी सोच विचार की वो इसी नतीजे पर पहुंचा |

विलियम शेक्सपीयर

 भी कहते हैं
-

"When we are born, we cry that we are come
To this great stage of fools."
(King Lear)

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् 
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः 

गीता भी यही कहती है कि संसार दुखों का घर है और जो ईश्वर की तरफ़ यात्रा आरंभ करता है वो मुक्त हो सकता है 
जौन एलिया  भी इसी उहा-पोह में रहे होंगे जब ये शे'र  कहा होगा और फिर इसी दुनिया में वो कुछ ऐसी कैफ़ियत से भी गुज़रते हैं -

इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
जौन एलिया



लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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Friday, February 21, 2025

नासिर काज़मी- -ग़ज़ल


ग़ज़ल 

 दुख की लहर ने छेड़ा होगा
याद ने कंकर फेंका होगा

आज तो मेरा दिल कहता है
तू इस वक़्त अकेला होगा

मेरे चूमे हुए हाथों से
औरों को ख़त लिखता होगा

भीग चलीं अब रात की पलकें
तू अब थक कर सोया होगा

रेल की गहरी सीटी सुन कर
रात का जंगल गूँजा होगा

शहर के ख़ाली स्टेशन पर
कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

आँगन में फिर चिड़ियाँ बोलीं
तू अब सो कर उट्ठा होगा

यादों की जलती शबनम से
फूल सा मुखड़ा धोया होगा

मोती जैसी शक्ल बना कर
आईने को तकता होगा

शाम हुई अब तू भी शायद
अपने घर को लौटा होगा

नीली धुंदली ख़ामोशी में
तारों की धुन सुनता होगा

मेरा साथी शाम का तारा
तुझ से आँख मिलाता होगा

शाम के चलते हाथ ने तुझ को
मेरा सलाम तो भेजा होगा

प्यासी कुर्लाती कूंजों ने
मेरा दुख तो सुनाया होगा

मैं तो आज बहुत रोया हूँ
तू भी शायद रोया होगा

'नासिर' तेरा मीत पुराना
तुझ को याद तो आता होगा

इस में एक शब्द है "कुर्लाना" ये पंजाबी में बहुत इस्तेमाल होता है लेकिन उर्दू शायरी में पहली बार देखा है | Rekhta इसे हिन्दी ओरिजिन का बताता है | कई बार शायर ऐसे शब्द उठा भी लेता है जो दूसरी भाषा या उसकी रीजनल लैंग्वेज के हों |

ये अशआर क्या तस्वीर खींचते है ..वाह !!

रेल की गहरी सीटी सुन कर
रात का जंगल गूँजा होगा

शहर के ख़ाली स्टेशन पर
कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

Saturday, February 15, 2025

ताज़ा ग़ज़ल - सतपाल ख़याल


आख़िर  उन का  जवाब आ ही गया 
दिल के बदले गुलाब आ ही गया 

रोज़ बदला है  चाँद सा चहरा 
रफ़्ता -रफ़्ता शबाब आ ही गया 

बस इशारा सा इक किया उस ने 
लेके साक़ी शराब आ ही गया 

साथ लाया उदासियाँ अपने   
इश्क़ ले  कर अज़ाब आ ही गया 

उस ने देखा पलट-पलट के "ख़याल"
कोशिशों का जवाब आ ही गया 


Friday, February 14, 2025

झील में सोने का सिक्का -नवनीत शर्मा

 ईश्वर का प्रमुख गुण है कि वो रचता है ,हर पल ,सतत सृजन करता है ईश्वर और फिर यही गुण कवि का भी है | फ़र्क केवल इतना है कि ईश्वर सहजता से ,स्वभाव से रचयिता है लेकिन कवि साधता है ,पहले विधा को ,भाषा को ,छन्द को , बह्र को ,भाव को और फिर छन्द को धागा बनाकर उसमें भाषा को ,भाव को ,अलंकार को पिरोता है और पाठक के सामने प्रस्तुत करता है | पाठक तक कविता या ग़ज़ल भाव रूप में पहुंचती है और भाव को कवि ने बह्र आदि से सजाया होता है तो पाठक उदास शेर पढ़कर भी विभोर हो जाता और बरबस वाह !! वाह !! कह उठता है | बात जब ग़ज़ल की हो तो बहुत फूँक –फूँक के क़दम रखना पढ़ता है , यानी जब आप किसी औरत से मुख़ातिब होते हैं तो आपके लहज़े में नरमी बहुत ज़रूरी है ,शायद इसीलिए ग़ज़ल को कभी माशूक सी की गई गुफ़्तगू कहा गया है | बात भले आप सियासत के ख़िलाफ़ करें ,भले शायर आक्रोश में हो लेकिन वो नरमी ग़ज़ल की असली पहचान है जैसे ये शेर, मैं नवनीत जी के ग़ज़ल संग्रह “झील में सोने का सिक्का” से रख रहा हूँ-

जिसका किरदार है अयां हर सम्त
उसको हम बेलिबास क्या करते
मैं जो कुछ कह रहा हूँ वो समीक्षा नहीं है बल्कि एक कोशिश है किसी शायर को कागज़ पर उकेरने की | नवनीत जी का ग़ज़ल संग्रह ज्ञान पीठ से छप कर आया है | आजकल नवनीत जी दैनिक जागरण के राज्य संपादक पद पर हैं | उनके ग़ज़ल संग्रह से कुछ मोती चुने हैं मैनें –
पहली ही ग़ज़ल का तीसरा शे’र –
फ़र्क़ यही है जीवन और थियेटर में
चलते नाटक में पर्दा गिर जाता है
और फिर ये देखिए आज के हालात को समझाता ये शे’र –
धुंध को भी धूप ही कहने लगी दुनिया
जादुई चश्में की है ये मेहरबानी सब




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हम निपट लेते जो कश्ती ही भंवर में आती
अब कहाँ जाएँ कि कश्ती में भंवर आया है
और देखिए अपनी ही तरह की नई कहन का लिबास ओढ़कर ,कितना मा'नी-ख़ेज़ शेर कहा है –
किताबों की तरह थे अनपढ़ों में
किसी को भेद क्या मिलता हमारा
मुझे शिव कुमार बटालवी का कहा याद आ गया कि बौद्धिक आदमी दरअसल ता उम्र घुटन महसूस करेगा ,क्योंकि दुनिया की जो तस्वीर शायर ने अपने अन्दर बना रखी होती है वो बाहर देखने को नहीं मिलती और इस घुटन और उदासी का शिकार शायरी हमेशा से रही है | ग़ालिब भी कहता है कि –
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
बाबा बुल्ले शाह कहते है –
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए जित्थे सारे अन्ने
कोई न साडी ज़ात पछाने ,कोई न सानुं मन्ने
इसी संग्रह से और शेर -
तुम एक पूरी सदी हो मगर उदास लगती हो
मैं एक लम्हा सही खुशगवार लगता हूँ
और एक बात, मैंने ये देखा है जो आपके आस –पास जो अभी घट रहा है वो बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में घट रहा होता है , जिसे नवनीत जी का ये शेर कैसे उजागर करता है ,देखिए -
जो घर से निकले तो गलियाँ उदास करती हैं
रहें जो घर में तो फिर घर उदास करता है
इसी ग़ज़ल का एक और शेर-
हवा में तैरती चिड़िया पे नाज़ है मुझको
ज़मी पे टूटा हुआ पर उदास करता है
है न सूफीयों वाला बयान | शायरी वास्तव में सूफ़ियों का ही बयान है ,सूफ़ी जो अपने आस-पास देखता है उसके प्रति संवेदनशील होता है ,वो चिड़िया के टूटे पर देखकर रोता है और नन्हीं से चिड़िया को उड़ते देखकर खुश होता है | एक बात मैं और कहना चाहता हूँ कि भले बहर , कहन, भाषा,शेरीयत , अलंकार ,भाव ,परवाज़ ये सब मिलकर किसी शेर या कविता को रचते हों लेकिन , और ये लेकिन बहुत बड़ा है कि ग़ालिब इसे समझाते हैं –
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
माने कविता फिर भी किसी अदृश्य दिव्य लोक से प्रकट होती है ,कहने वाला सिर्फ माध्यम बन जाता है और ये अनुभव से कह रहा हूँ कि कविता चाहे आप प्रयास से कहो या कभी आमद हो ,दोनों हाल में उसका सोर्स वो अदृश्य जहां ही है | उसी ग़ैब से उतरे लगते है नवनीत जी के ये अशआर-
वो चांदनी जो फूट के रोयी थी रात भर
उसका कोई हिसाब सहर ने दिया नहीं
और रोमांस की इंतिहा –
घर अपने साथ उसे देवता के रखने को
गली से उसकी मैं पत्थर उठा के लौट आया
और –
एक नमकीन फ़ज़ा माज़ी की
रोज़ इक ज़ख्म खुला चाहती है
और ये शेर एक बार सुनाया था नवनीत जी ने फोन पे सो आज तक याद की किताब में बुकमार्क करके रखा है
मौत के आख़री जज़ीरे तक
जिंदगी तैरना सिखाती है
कट –कट के आंसुओं में बही दिल की किरचियाँ
क़िस्तों में मेरी ख़ुद से रिहाई हुई तो है
आस अब आसमां से रखी है
छत का मौसम ख़राब है प्यारे
और देखिए नवनीत जी सिग्नेचर –
शाम ढलने को है उमड़े हैं कुहासे कितने
अब जो गुर्बत में है नानी ,तो नवासे कितने
सियासत पर सहाफ़त से ताल्लुक़ रखने वाला शायर इस तरह वार करता है –
कभी नफ़रत ,कभी डर बुन रही है
सियासत कैसे मंज़र बुन रही है
ज़माने रेशमी हैं , मखमली हैं
हमारी क़ौम खद्दर बुन रही है
आप नवनीत जी से सम्पर्क करके किताब मंगवा सकते हैं और नवनीत जी के ये दो और शेर पढ़िए –
“झील में सोने का सिक्का” गिर जाता है
और पहाड़ों पर पारा गिर जाता है
और –
एक पुराना सिक्का देकर दिन जब रुख़्सत होता है
तब ऐसे लगता है जैसे धरती अंजुल जैसी है
धन्यवाद , भूल –चूक के लिए माफ़ी के साथ
सतपाल ख़याल

सदियों का सारांश “ ग़ज़ल संग्रह – श्री द्विजेंद्र द्विज

 




अगर मैं ये कहूँ कि मैं समीक्षा कर रहा हूँ तो ये अमर्यादित होगा , बस अपने मन की बात करना चाहता हूँ जो कि काफी चलन में भी है | मैं द्विज सर से तकरीबन ३० साल से जुड़ा हुआ हूँ | द्विज जी वो सूर्य हैं जिससे मैनें भी रौशनी हासिल की है तो मेरा कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर हो जाएगा | उनको बधाई देते हुए मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ |
शाइरी वास्तव में जन , गण और मन की व्यथा का सारांश ही तो है और ये व्यथा बाबा आदम के ज़माने से जस की तस बनी हुई है | इस व्यथा से हर कोई वाक़िफ़ होता है लेकिन शाइर इस व्यथा को अपने अंदाज़ में , एक विशेष भाषाई शैली में ,शेर कहकर पाठक को ठीक उसी धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है जिस पर खड़े होकर वो ख़ुद शेर कहता है | एक सच्चा शेर कुछ ऐसा कमाल का चमत्कार करता है कि पाठक को विभोर कर देता है और पढ़ने वाले को लगता है कि ये उसने ही कहा है ,उसके लिए ही है और उसकी ही पीड़ा है , उसके ही जीवन का सारांश है|
अब देखिए द्विज जी कैसे कुरेदते है व्यथा को , कैसे सजाते है व्यथा को , कैसे तंज़ करते हैं और कैसे पाठक के मन में टीस पैदा करते हैं | ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ में ही ये क़ाबलियत है कि वो सब कुछ एक साथ लेकर चलती है ,बह्र भी ,कहन भी , शेरीयत भी ,भाषा भी ,संगीत भी और शाइर के शेर कहने की कुव्वत भी –
तमाम हसरतें सोई रहें सुकून के साथ
चलो कि दिल को बना लें एक मज़ार
हम सब इस खिते में पैदा हुए हैं , हमारी पीड़ा सांझी है और मैं तो ये समझता हूँ कि ये पीड़ा इश्वर की देन नहीं है ये व्यवस्था की देन है ,सियासत की देन है और ये सिलसिला सदियों से वैसा ही है ,कुछ नहीं बदला –
एक अपना कारवाँ है ,एक सी है मुश्किलें
रास्ता तेरा अगर है पुरख़तर मेरा भी है
मैं उड़ानों का तरफ़दार उसे कैसे कहूँ
बाल-ओ –पर है जो परिंदों के कतरने वाला
और द्विज जी के इस शेर को सुनकर एक और उनका शेर मेरे ज़हन में लडकपन से बैठा हुआ है –
पंख पकड़कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समन्दर पार का सपना ,सपना ही रह जाता है
जिसे बाद में द्विज जी ने कुछ इस तरह से इसे संवार कर लिखा -
पंख क़तर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
नील गगन की आंख का सपना ,सपना ही रह जाता है
मैं कई बार उनसे बात करता हूँ और अक़सर पूछता हूँ कि ये दुनिया क्या आदम के ज़माने से ही ऐसी है या फिर अब हुई है ,क्यों अवतारी आत्माएं भी इसे वैसा नहीं बना पाई जैसा शायर चाहता है | तो द्विज जी ने के एक बार बड़ी अच्छा कोट(quote) अंग्रेजी साहित्य का सांझा किया -
“If you know everything then go and commit suicide” When you realized the TRUTH then you left this materialistic world like Budh did.
सो ग़ालिब भी कुछ ऎसी मनोदशा में कहता है –
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
इरादा छोड़ भी दो खुद्कुशी का
नया कुछ नाम रख लो ज़िन्दगी का (द्विज जी )
लेकिन द्विज जी के भीतर का शायर पलायन का रास्ता इख्तियार नही करता , नायक की तरह हार भी नहीं मानता और अंत तक लड़ता है और कहता है –
मैं उस दरख्त का अंतिम वो ज़र्द पत्ता हूँ
जिसे हमेशा हवा के ख़िलाफ़ लड़ना था
द्विज जी की शाइरी , हिन्दी या उर्दू से परहेज़ नहीं करती बल्कि दोनों को दुलारती है –
ताज़गी, खुशबू ,इबादत ,मुस्कुराहट ,रौशनी
किस लिए है आज मेरी कल्पनाओं के खिलाफ़
द्विज जी भले दुष्यंत के हाथ से ग़ज़ल को पकड़कर आगे चलते हैं लेकिन वो इसे और आगे लेकर जाते हैं जहां रिवायत और जदीदियत में फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है और यही उनको दुष्यंत से अलग भी करता है |
किसी को ठौर –ठिकानों में पस्त रखता है
हमें वो पाँव के छालों में मस्त रखता है
जब अख़बार और मीडिया सरकारी जूतियाँ सीधी करने लगे तो शायर चुप नहीं बैठा ,शायद इसलिए कहते हैं कि सच को जानना हो तो उस समय की लिखी कविता कों पढ़ो ,उस समय के लिखे इतिहास या अख़बार को नहीं | सलाम है द्विज जी की इस निर्भीकता को –
किसानों पर ये लाठी भांज कर फसलें उगायेगी
अभी देखा नहीं तुमने मेरी सरकार का जादू
और फिर देखो ये हिम्मत और ज़ब्त –
रू –ब-रू हमसे हमेशा रहा है हर मौसम
हम पहाड़ों का भी किरदार सम्भाले हुए हैं
इन्हें भी कब का अंधेरा निगल गया होता
हमारे अज्म ने रखे हैं हौसले रौशन
अनछूहे सिम्बल और कहन की बेमिसाल बानगी ये शेर –
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकंदर को सिकंदर नहीं रहने देता
देखो शायर कैसे आंखे मिलाकर आसमान से सवाल पूछता है, ये मग़रूर आस्मां हमारे राहबरों जैसा ही तो है -
जुरअत करे ,कहे तो कोई आसमान से
पंछी कहां गए ,जो न लौटे उड़ान से
खामुशी की बर्फ़ में अहसास को जमने न दे
गुफ़्तगू की धुप में आकर पिघलकर बात कर
आप जैसे– जैसे द्विज जी की ग़ज़लें पढ़ते जायेंगे वैसे एक सुरूर सा तारी हो जाएगा आप पर और फिर एक से एक शेर कभी बारिश तो कभी बिजली बनकर कौंदेंगे, आपको खुश भी करेंगे ,उदास भी और पहाड़ की तरह अडिग रहने का उपदेश भी देंगे |
गिरा है आंख से जो एक आंसू
वही क़तरा समन्दर हो गया तो
यहां भी मुंतज़िर कोई नहीं था
मिला ये क्या मुझे घर वापसी से
गमे-जाना , ग़में –दुनिया से आख़िर
ग़ज़ल में किस तरह घुल –मिल गया है
ज़ब्त जब इम्तिहान तक पहुंचा
ग़म भी मेरा बयान तक पहुंचा
औज़ार बाँट कर ये सभी तोड़ - फोड़ के
रक्खोगे किस तरह भला दुनिया को जोड़ के
वास्तव में ग़म चाहे कोई भी हो ज़िंदगी का ही ग़म है, उसे रिवायती अंदाज़ में कहो या फिर जदीद शाइरी के हवाले से , जुड़ा वो हमेशा ज़िंदगी से ही होगा | कुछ आप बीती , कुछ जगबीती सब कुछ मिला- जुला , यही कुछ द्विज जी की ग़ज़लों में भी है ,हर रंग है इनमें और एक अपना अलहदा रंग भी है -
मैं भी रंगने लगा हूँ बालों को
वो भी अब झुर्रियां छुपाती है
माँ , मैं ख़्वाबों से खौफ़ खाता हूँ
क्यों मुझे लोरियां सुनाती है ?
अब ख़त्म हो चुका तक़रीर का वो जादू
सारा बयान तेरा सस्ता –सा चुटकुला है
बीते कल को अपनी दुखती पीठ पर लादे हुए
ढोयेंगे कल आने वाले कल को भी थैलों में लोग
यक़ीनन हो गया होता मैं पत्थर
सफ़र में मुड़के पीछे देखता जो
और एक मेरा पसंदीदा शेर जो द्विज जी के पहले ग़ज़ल संग्रह “जन गण मन” से है , जो मुझे बेहद पसंद है -
है ज़िन्दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिंधती हैं उंगलियाँ भी जिसे टांकते हुए
और शायद सारांश भी यही है ज़िन्दगी के सदियों के सफ़र का कि बस चलते रहो, जैसे कोई नदी दिन –रात चलती है , चलना आदत भी है , मजबूरी भी है और शायद गतिशीलता, आधार भी है जीवन का –
फ़क़त चलते चले जाना सफ़र है
सफ़र में भूख क्या और तिश्नगी क्या
आगे बढ़ने पे मिलेंगे तुझे कुछ मंज़र भी हसीन
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ
और मुझे आस है कि अभी बहुत कुछ अनकहा है द्विज जी के पास जो फिर से एक और ग़ज़ल संग्रह में फिर से महकेगा |बड़ी खूबसूरती के साथ ज्ञानपीठ ने इसे छापा है और विजय कुमार स्वर्णकार जी ने कम शब्दों में वो सब कुछ कह दिया जो “सदियों का सारांश” का सार है | हिमाचल , जो बर्फ और सेबों के लिए जाना जाता है वो अब द्विज जी की ग़ज़लों से भी जाना जाएगा और हिमाचल भी ग़ज़ल से वैसे ही महकेगा जैसे दिल्ली और लखनऊ महकते हैं अगर कुछ खाद –पानी हिमाचल का भाषा विभाग भी डाले तो ग़ज़ल हिमाचल में और फल –फूल सकती है |
धुंध की चादर हटा देंगे अभी सूरज मियाँ
फिर पहाड़ों पर जगेगी धूप भी सोई हुई