Tuesday, September 9, 2008

एक रदीफ़ दो शायर - इंशा और फ़िराक











जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो|
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो|

सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहां पर सयाना हो,
नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो|

तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो|

नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो|

तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,
हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो|

हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,
जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो|

सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग,
'मीर', 'नज़ीर', 'कबीर', और 'इन्शा' सब का एक घराना हो|
**













हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो
वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो

जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे
उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो

जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में
ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो

पहरों-पहरों तक ये दुनिया भूला सपना बन जाए है
मैं तो सरासर खो जाऊं हूँ याद इतना क्यों आओ हो

क्या गमे-दौराँ की परछाईं तुम पर भी पड़ जाए है
क्या याद आ जाए है यकायक क्यों उदास हो जाओ हो

झूठी शिकायत भी जो करूँ हूँ पलक दीप जल जाए हैं
तुमको छेड़े भी क्या तुम तो हँसी-हँसी में रो दो हो

ग़म से खमीरे-इश्क उठा है हुस्न को देवें क्या इलज़ाम
उसके करम पर इतनी उदासी दिलवालो क्या चाहो हो

एक शख्स के मर जाये से क्या हो जाये है लेकिन
हम जैसे कम होये हैं पैदा पछताओगे देखो हो

इतनी वहशत इतनी वहशत सदके अच्छी आँखों के
तुम न हिरन हो मैं न शिकारी दूर इतना क्यों भागो हो

मेरे नग्मे किसके लिए हैं खुद मुझको मालूम नहीं
कभी न पूछो ये शायर से तुम किसका गुण गाओ हो

पलकें बंद अलसाई जुल्फ़ें नर्म सेज पर बिखरी हुई
होटों पर इक मौजे-तबस्सुम सोओ हो या जागो हो

इतने तपाक से मुझसे मिले हो फिर भी ये गैरीयत क्यों
तुम जिसे याद आओ हो बराबर मैं हूँ वही तुम भूलो हो

कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो

गाह तरस जाये हैं आखें सजल रूप के दर्शन को
गाह नींद बन के रातों को नैन-पटों में आओ हो

इसे दुनिया ही में है सुने हैं इक दुनिया-ए-महब्बत भी
हम भी उसी जानिब जावें हैं बोलो तुम भी आओ हो

बहुत दिनों में याद किया है बात बनाएं क्या उनसे
जीवन-साथी दुःख पूछे हैं किसको हमें तुम सौंपो हो

चुपचुप-सी फ़ज़ा-ए-महब्बत कुछ कुछ न कहे है खलवते-राज़
नर्म इशारों से आँखों के बात कहाँ पहुँचाओ हो

अभी उसी का इंतज़ार था और कितना ऐ अहले-वफ़ा
चश्मे-करम जब उठने लगी है तो अब तुम शरमाओ हो

ग़म के साज़ से चंचल उंगलियां खेल रही हैं रात गए
जिनका सुकूत, सुकूते-आबाद है वे परदे क्यों छेड़ो हो

कुछ तो बताओ रंग-रूप भी तुम उसका ऐ अहले-नज़र
तुम तो उसको जब देखो हो देखते ही रह जाओ हो

अकसर गहरी सोच में उनको खोया-खोया पावें हैं
अब है फ़िराक़ का कुछ रोज़ो से जो आलम क्या पूछो हो
**

Monday, September 1, 2008

दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर विशेष















आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए आज पहली सितम्बर को हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि तथा हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल विधा के संस्थापक दुष्यन्त कुमार के जन्म दिवस पर उनको स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनके कालजयी ग़ज़ल संग्रह साये में धूप की भूमिका, जिसमें उन्होंने अपनी हिन्दी ग़ज़लों की भाषा की प्रमुख विशेषताओं के बारे में महत्वपूर्ण बातें कही हैं.



मैं स्वीकार करता हूँ…

—कि ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है. कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है.

—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है. यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल—मिल गये हैं. उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ;ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है.

—कि उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ.

—कि ग़ज़ल की विधा बहुत पुरानी,किंतु विधा है,जिसमें बड़े—बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य—रचना की है. हिन्दी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आज़माया है. परंतु अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को जानने के बावजूद इस विधा में उतरते हुए मुझे संकोच तो है,पर उतना नहीं जितना होना चाहिए था. शायद इसका कारण यह है कि पत्र—पत्रिकाओं में इस संग्रह की कुछ ग़ज़लें पढ़कर और सुनकर विभिन्न वादों, रुचियों और वर्गों की सृजनशील प्रतिभाओं ने अपने पत्रों, मंतव्यों एवं टिप्पणियों से मुझे एक सुखद आत्म—विश्वास दिया है. इस नाते मैं उन सबका अत्यंत आभारी हूँ.

…और कमलेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो यह सिलसिला यहाँ तक न आ पाता. मैं तो—

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,

कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए.

—दुष्यन्त कुमार

और अब प्रस्तुत हैं उनकी पाँच ग़ज़लें :






कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये






ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा*

यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा

तुम्हारे शहर में ये शोर सुन—सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा

कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ऐसा ,ऐसा हुआ होगा

यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं
ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा

चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम—अज—कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा






हालाते जिस्म, सूरती—जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब






मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।





हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।



द्विज.

Friday, August 29, 2008

अहमद फ़राज़ साहेब को श्रद्दाँजलि




14 जनवरी 1931 को पाकिस्तान मे जन्मे अहमद फ़राज़
( वास्तविक नाम: सैय्यद अहमद शाह)
25 अगस्त 2008 को इस दुनिया से विदा हो गए.आज पूरा भारत इस शख्स के जाने से गमज़दा है. सन 2004 मे हिलाले-इम्तियाज़ से नवाजे गए थे फ़राज़.ये शायर अपनी अमिट शाप छोड़कर इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गया.









तेरी बातें ही सुनाने आये
दोस्त भी दिल ही दुखाने आये
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आये








रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

**







अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें








दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों







बरसों के बाद देखा इक शख़्स दिलरुबा सा
अब ज़हन में नहीं है पर नाम था भला सा
अबरू खिंचे खिंचे से आँखें झुकी झुकी सी
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा







अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन
ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन

ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जायेंगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जायेंगे
**






बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
के ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है



बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से
जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू











उसने कहा सुन
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना


यादें


**



फ़राज़ साहेब की एक बेहतरीन ग़ज़ल:

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ुक उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं

सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर कर देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुग्नू ठहर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं

सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आँख भर के देखते हैं

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसका
जो सादा दिल हैं बन सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्कान में
पलंग ज़ावे उसकी कमर को देखते हैं

सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहरवाँ-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
"फ़राज़" आओ सितारे सफ़र के देखते हैं









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Tuesday, August 12, 2008

सतपाल ख्याल की ग़ज़लें और परिचय
















परिचय:

1974 को तलवाड़ा जिला होशियार पुर (पंजाब) में जन्में सतपाल 'ख़्याल' अपनी मूल प्रकृति से शायर हैं. 17—18 वर्ष की उम्र से शे'र कहते आए हैं , लेकिन कहते कम और सुनते ज़्यादा हैं.यही वजह है कि आहिस्ता—आहिस्ता इनकी ग़ज़लों का अपना एक अलग अंदाज़ दिखाई देने लगा है. पिछले कुछ वर्षों से ग़ज़ल के गंभीर विद्यार्थी के रूप में जो ज्ञान इन्होंने अर्जित किया है, उसे इनकी ग़ज़लों में देखा जा सकता है. शेर कहते हैं लेकिन तथाकथित नक़्क़ादों की तरह उधार माँग कर ओढ़े हुए उस्तादाना अंदाज़ में जगह—जगह अजीब—ओ—गरीब टिप्प्णियाँ नहीं करते फिरते. पिछले कई महीनों से कई रचनाकारों को आज की ग़ज़ल के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने वाले सतपाल 'ख़्याल' और इनकी ग़ज़लों को आपके लिए प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है. —
द्विजेन्द्र 'द्विज'

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ग़ज़ल १

हमारे दिल की मत पूछो बड़ी मुश्किल में रहता है
हमारी जान का दुश्मन हमारे दिल में रहता है

सुकूँ मिलता है हमको बस तुम्हारे शह्र में आकर
यहीं वो नूर सा चेहरा कहीं महमिल में रहता है

कोई शायर बताता है कोई कहता है पागल भी
मेरा चर्चा हमेशा आपकी महफ़िल में रहता है.

वो मालिक है सब उसका है वो हर ज़र्रे में है ग़ाफ़िल !
वही दाता में मिलता है वही साइल में रहता है.

वो चुटकी में ही करता है तुम्हारी मुश्किलें आसाँ
खुदा को चाहने वाला कभी मुश्किल में रहता है!


**महमिल:पर्दा. साइल: याचक
बहरे हजज़
****




ग़ज़ल २

वो आ जाए ख़ुदा से की दुआ अक्सर
वो आया तो परेशाँ भी रहा अक्सर

ये तनहाई ,ये मायूसी , ये बेचैनी
चलेगा कब तलक ये सिलसिला अक्सर

न इसका रास्ता कोई ,न मंजिल है
‘महब्बत है यही’ सबने कहा अक्सर

चलो इतना ही काफ़ी है कि वो हमसे
मिला कुछ पल मगर मिलता रहा अक्सर

वो ख़ामोशी वही दुख है वही मैं हूँ
तेरे बारे में ही सोचा किया अक्सर

ये मुमकिन है कि पत्थर में ख़ुदा मिल जाए
मिलेगी बेवफ़ा से पर ज़फ़ा अक्सर
(हजज)
****












ग़ज़ल ३

मत ज़िक्र कर तू सबसे मत पूछ हर किसी को
ज़ख्मों का तेरे मरहम मालूम है तुझी को

बख़्शी ख़ुशी जो मुझको सबको वो बख़्श मालिक
जो ग़म दिए हैं मुझको देना न वो किसी को

पूछे नहीं मिलेगा कोई निशाँ ख़ुदा का
ढूँढो तो है ये मुमकिन पा जाओ रौशनी को.

सुब्हों को हम भी निकले सूरज उठाके सर पे
रातों को ज़ख्म अपने दिखलाए चांदनी को

बाहर तो दुख ही दुख है भीतर उतर के देखो
आँखों को बंद कर के तुम ढूँढ लो खुशी को.

(221, 2122, 221 , 2122)
****












ग़ज़ल ४

दरिया से तालाब हुआ हूँ
अब मैं बहना भूल गया हूँ.

तूफ़ाँ से कुछ दूर खड़ा हूँ
साहिल पर कुछ देर बचा हूँ

नज़्में ग़ज़लें सपने लेकर
बिकने मैं बाजा़र चला हूँ

हाथों से जो दी थी गाँठें
दाँतों से वो खोल रहा हूँ

यह कह — कह कर याद किया है
अब मैं तुझको भूल गया हूँ

याद ख़्याल आया वो बचपन
दूर जिसे मैं छोड़ आया हूँ.

वज़न:२२ २२ २२ २२
****












ग़ज़ल ५

मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी

न अपनों ने कभी चाहा यही तकलीफ़ दोनों की
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी

अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी

न लफ़्जों का वतन कोई न है मज़हब कोई इनका
ये कहते हैं फ़कत दिल की कभी उर्दू कभी हिंदी

महब्बत है वतन उसका , ज़बाँ उसकी महब्बत है
ख़्याल उसने ग़ज़ल कह दी कभी उर्दू कभी हिंदी.

बहरे हजज़
****





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Tuesday, July 29, 2008

नवनीत शर्मा की ग़ज़लें और परिचय













परिचय:
22 जुलाई 1973 को मनोहर शर्मा साग़र पालमपुरी के घर मारण्डा (पालमपुर) मे जन्में नवनीत शर्मा हिमाचल प्रदेश विश्व्विद्यालय से एम. बी. ए. हैं. हिमाचल में हिंदी कविता के सशक्त युवा हस्ताक्षरों में अग्रणी नवनीत शर्मा की कविताओं का जादू तो सुनने —पढ़ने वाले के सर चढ़ कर बोलता ही है ,इनकी ग़ज़लें भी अपने ख़ास तेवर रखती हैं.हिन्दी और पहाड़ी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखने वाले क़लम के धनी नवनीत पिछले ग्यारह वर्षों से समाचार पत्रों के सम्पादन से जुड़े हैं.
संप्रति : मुख्य उप संपादक, दैनिक जागरण, बनोई,तहसील शाहपुर— ज़िला काँगड़ा (हि.प्र.)
मोबाइल नं.: 94180— 40160
**
एक.







अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने
अब जो ग़ुर्बत में है नानी तो नवासे कितने

चोट खाए हुए लम्हों का सितम है कि उसे
रूह के चेहरे पे दिखते हैं मुहाँसे कितने

सच के क़स्बे पे मियाँ झूठ की है सरदारी
अब अटकते हैं लबों पर ही ख़ुलासे कितने

थे बहुत ख़ास जो सर तान के चलते थे यहाँ
अब इसी शहर में वाक़िफ़ हैं अना से कितने

अब भी अंदर है कोई शय जो धड़कती है मियाँ
वरना बाज़ार में बिकते हैं दिलासे कितने .

2122,1122,1122 ,112

दो.







अनकही का जवाब है प्यारे
ये जो अंदर अज़ाब है प्यारे

आस अब आस्माँ से रक्खी है
छत का मौसम ख़राब है प्यारे

अश्क, आहें ख़ुशी ठहाके भी
ज़िंदगी वो किताब है प्यारे

रोक लेते हैं याद के हिमनद
दिल हमारा चिनाब है प्यारे

प्यार अगर है तो उसकी हद पाना
सबसे मुश्किल हिसाब है प्यारे

कट चुकी हैं तमाम ज़ंजीरें
फिर भी ख़ाना ख़राब है प्यारे

कौन तेरा है किसका है तू भी
ऐसा कोई हिसाब है प्यारे!
212,212,1222

तीन.









मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से
तुम्हारे शहर से लौटी है ख़ामुशी फिर से


यहाँ दरख़्तों के सीने पे नाम खुदते हैं
मगर है दूर वो दस्तूर—ए—बंदगी फिर से

गड़ी है ज़िन्दगी दिल में कँटीली यादों —सी
ज़रा निजात मिले, तो हो ज़िंदगी फिर से

बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से

सनम तो हो गया तब्दील एक पत्थर में
मेरे नसीब में आई है बंदगी फिर से

मुझे भुलाने चले थे वो भूल बैठे हैं
उन्हीं के दर पे मैं पत्थर हूँ दायमी फिर से

1212, 1122, 121 2,112

bahr' mujtas

चार.








यह जो बस्ती में डर नहीं होता
सबका सजदे में सर नहीं होता

तेरे दिल में अगर नहीं होता
मैं भी तेरी डगर नहीं होता

रेत के घर पहाड़ की दस्तक
वाक़िया ये ख़बर नही होता

ख़ुदपरस्ती ये आदतों का लिहाफ़
ख़्वाब तो हैं गजर नहीं होता

मंज़िलें जिनको रोक लेती हैं
उनका कोई सफ़र नहीं होता

पूछ उससे उड़ान का मतलब
जिस परिंदे का पर नहीं होता

आरज़ू घर की पालिए लेकिन
हर मकाँ भी तो घर नहीं होता

तू मिला है मगर तू ग़ायब है
ऐसा होना बसर नहीं होता

इत्तिफ़ाक़न जो शे`र हो आया
क्या न होता अगर नहीं होता.

212,212,1222

पाँच.








वहम जब भी यक़ीन हो जाएँ
हौसले सब ज़मीन हो जाएँ

ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ
सच अगर बदतरीन हो जाएँ

ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ
हम कहाँ तक महीन हो जाएँ

ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं
लोग जब भी मशीन हो जाएँ

आपको आप ही उठाएँगे
चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ.

212,212,1222


छ:







उनका जो ख़ुश्बुओं का डेरा है
हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है

सच के क़स्बे का जो अँधेरा है
झूठ के शहर का सवेरा है

मैं सिकंदर हूँ एक वक़्फ़े का
तू मुक़द्दर है वक्त तेरा है

दूर होकर भी पास है कितना
जिसकी पलकों में अश्क मेरा है

जो तुझे तुझ से छीनने आया
यार मेरा रक़ीब तेरा है

मैं चमकता हूँ उसके चेहरे पर
चाँद पर दाग़ का बसेरा है.

212,212,1222


सात.










तेरी याद सिकंदर अब भी
दिल बाक़ी है बंजर अब भी

सरहद—सरहद कंदीलें हैं
और दिलों में ख़ंजर अब भी

सारे ख़त वो ख़ुश्बू वाले
इक रिश्ते के खण्डर अब भी

जितना ज़ख़्मी उतना बेबस
कुछ रिश्तों का मंज़र अब भी

बेटे के सब आँसू सूखे
माँ की आँख समंदर अब भी

छू आए हो चाँद को लेकिन
दूर बहुत है अंबर अब भी

हिंदी तर्पण करने वालो
कितने और सितंबर अब भी

रूह तपा कर जी लो वरना
दुनिया सर्द दिसंबर अब भी

बाहर—बाहर हँसना— रोना
अंदर मस्त कलंदर अब भी

अर्से से आज़ाद है बस्ती
लोग मगर हैं नंबर अब भी.

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बहुत ही जिंदा दिल इन्सान है नवनीत. भाषा पर इतनी अच्छी पकड़ कि क्या कहना.एक बहुत अच्छा मंच संचालक, बात करने का लहजा़ कमाल का फ़िर चाहे हिंदी हो या पंजाबी . बहुत ही साफ़ दिल इन्सान है नवनीत . He is multitalented man.

सतपाल ख्याल
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Saturday, July 19, 2008

डा.अहमद अली बर्की की ग़ज़लें और परिचय












25 दिसंबर 1954 को जन्मे डा. अहमद अली 'बर्क़ी' साहब तबीयत से शायर हैं.

शायर का परिचय ख़ुद बक़ौल शायर :

मेरा तआरुफ़

शहरे आज़मगढ है बर्क़ी मेरा आबाई वतन
जिसकी अज़मत के निशां हैं हर तरफ जलवा फेगन

मेरे वालिद थे वहां पर मर्जए अहले नज़र
जिनके फ़िक्रो— फ़न का मजमूआ है तनवीरे सुख़न

नाम था रहमत इलाही और तख़ल्लुस बर्क़ था
ज़ौफ़ेगन थी जिनके दम से महफ़िले शेरो सुख़न

आज मैं जो कुछ हूँ वह है उनका फ़ैज़ाने नज़र
उन विरसे में मिला मुझको शऊरे —फिकरो —फ़न

राजधानी देहली में हूँ एक अर्से से मुक़ीम
कर रहा हूँ मैं यहां पर ख़िदमते अहले वतन

रेडियो के फ़ारसी एकाँश से हूँ मुंसलिक
मेरा असरी आगही बर्क़ी है मौज़ूए सुख़न .


डा. अहमद अली बर्की़ आज़मी साहब की तीन ग़ज़लें

१.









सता लें हमको, दिलचस्पी जो है उनकी सताने में
हमारा क्या वो हो जाएंगे रुस्वा ख़ुद ज़माने में

लड़ाएगी मेरी तदबीर अब तक़दीर से पंजा
नतीजा चाहे जो कुछ हो मुक़द्दर आज़माने में

जिसे भी देखिए है गर्दिशे हालात से नाला
सुकूने दिल नहीं हासिल किसी को इस ज़माने में

वो गुलचीं हो कि बिजली सबकी आखों में खटकते हैं
यही दो चार तिनके जो हैं मेरे आशियाने में

है कुछ लोगों की ख़सलत नौए इंसां की दिल आज़ारी
मज़ा मिलता है उनको दूसरों का दिल दुखाने में

अजब दस्तूर—ए—दुनिया— ए —मोहब्बत है , अरे तौबा
कोई रोने में है मश़ग़ूल कोई मुस्कुराने में

पतंगों को जला कर शमए—महफिल सबको ऐ 'बर्क़ी'!
दिखाने के लिए मसरूफ़ है आँसू बहाने में.


बहर—ए—हज़ज=1222,1222,1222,1222

२.










नहीं है उसको मेरे रंजो ग़म का अंदाज़ा
बिखर न जाए मेरी ज़िंदगी का शीराज़ा

अमीरे शहर बनाया था जिस सितमगर को
उसी ने बंद किया मेरे घर का दरवाज़ा

सितम शआरी में उसका नहीं कोई हमसर
सितम शआरों में वह है बुलंद आवाज़ा

गुज़र रही है जो मुझपर किसी को क्या मालूम
जो ज़ख़्म उसने दिए थे हैं आज तक ताज़ा

गुरेज़ करते हैं सब उसकी मेज़बानी से
भुगत रहा है वो अपने किए का ख़मियाज़ा

है तंग का़फिया इस बहर में ग़ज़ल के लिए
दिखाता वरना में ज़ोरे क़लम का अंदाज़ा

वो सुर्ख़रू नज़र आता है इस लिए 'बर्क़ी'!
है उसके चेहरे का, ख़ूने जिगर मेरा, ग़ाज़ा

बह्र—ए—मजत्तस= 1212,1122,1212,112
**
अमीरे शहर=हाकिम; सितम शआरी-=ज़ुल्म; हमसर= बराबर का

सितम शआर=ज़लिम, ग़ाज़ा=क्रीम, बुलंद आवाज़ा-=मशहूर


३.










दर्द—ए—दिल अपनी जगह दर्द—ए—जिगर अपनी जगह
अश्कबारी कर रही है चश्मे—ए—तर अपनी जगह

साकित—ओ—सामित हैं दोनों मेरी हालत देखकर
आइना अपनी जगह आइनागर अपनी जगह


बाग़ में कैसे गुज़ारें पुर—मसर्रत ज़िन्दगी
बाग़बाँ का खौफ़ और गुलचीं का डर अपनी जगह

मेरी कश्ती की रवानी देखकर तूफ़ान में
पड़ गए हैं सख़्त चक्कर में भँवर अपनी जगह

है अयाँ आशार से मेरे मेरा सोज़—ए—दुरून
मेरी आहे आतशीं है बेअसर अपनी जगह

हाल—ए—दिल किसको सुनायें कोई सुनता ही नहीं
अपनी धुन में है मगन वो चारागर अपनी जगह

अश्कबारी काम आई कुछ न 'बर्क़ी'! हिज्र में
सौ सिफ़र जोड़े नतीजा था सिफ़र अपनी जगह

बहरे रमल(२१२२ २१२२ २१२२ २१२ )

संपर्क:

aabarqi@gmail.com

DR.AHMAD ALI BARQI AZMI

598/9, Zakir Nagar, Jamia Nagar

New Delhi-11025

Tuesday, July 8, 2008

देवमणि पांडेय की ग़ज़लें और परिचय







परिचय:
4 जून 1958 को सुलतानपुर (उ.प्र.) में जन्मे देवमणि पांडेय लोकप्रिय कवि और मंच संचालक हैं। अब तक दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- "दिल की बातें" और "खुशबू की लकीरें"। मुम्बई में एक केंद्रीय सरकारी कार्यालय में कार्यरत पांडेय जी ने फ़िल्म 'पिंजर', 'हासिल' और 'कहां हो तुम' के अलावा कुछ सीरियलों में भी गीत लिखे हैं। आपके द्वारा संपादित सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' ने मुम्बई के रचनाकारों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई है। पेश हैं उनकी दो गज़लें-
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ग़ज़ल १








उदासी के मंज़र मकानों में हैं
कि रंगीनियाँ अब दुकानों में हैं

मोहब्बत को मौसम ने आवाज़ दी
दिलों की पतंगें उड़ानों में हैं

इन्हें अपने अंजाम का डर नहीं
कई चाहतें इम्तहानों में हैं

न जाने किसे और छलनी करें
कई तीर उनकी कमानों में हैं

दिलों की जुदाई के नग़मे सभी
अधूरी पड़ी दास्तानों में हैं

वहां जब गई रोशनी डर गई
वो वीरानियाँ आशियानों में हैं

ज़ुबाँ वाले कुछ भी समझते नहीं
वो दुख दर्द जो बेज़ुबानों में हैं

परिंदों की परवाज़ कायम रहे
कई ख़्वाब शामिल उड़ानों में हैं

{वज़न है:122,122,122,12 }



ग़ज़ल २








बसेरा हर तरफ़ है तीरगी का
कहीं दिखता नहीं चेहरा ख़ुशी का

अभी तक ये भरम टूटा नहीं है
समंदर साथ देगा तिश्नगी का

किसी का साथ छूटा तो ये जाना
यहां होता नहीं कोई किसी का

वो किस उम्मीद पर ज़िंदा रहेगा
अगर हर ख़्वाब टूटे आदमी का

न जाने कब छुड़ा ले हाथ अपना
भरोसा क्या करें हम ज़िंदगी का

लबों से मुस्कराहट छिन गई है
ये है अंजाम अपनी सादगी का

{वज़न है: 1222,1222,122}
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Devmani Pandey (Poet)
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