Friday, April 6, 2012

राहत इंदौरी
















राहत इंदौरी साहब ने शायरी को इबादत बना लिया है और इबादत भी किसी पहुँचे हुए फ़क़ीर जैसी।

सब अपनी-अपनी ज़ुबां में अपने रसूल का ज़िक्र कर रहे हैं
फ़लक पे तारे चमक रहे हैं, शजर पे पत्ते खड़क रहे हैं

ऐसे शे’र कहते वक़्त शायर रुहानीयत के शिखर पर पहुँच जाता है और फिर उसके अल्फ़ाज़ सचमुच जी उठते हैं।

मुलाहिज़ा कीजिए -

मेरे पैयंबर का नाम है जो , मेरी ज़बां पर चमक रहा है
गले से किरनें निकल रही हैं,लबों से ज़म-ज़म टपक रहा है

मैं रात के आख़री पहर में, जब आपकी नात लिख रहा था
लगा के अल्फ़ाज़ जी उठे हैं , लगा के कागज़ धधक रहा है

सब अपनी-अपनी ज़ुबां में अपने रसूल का ज़िक्र कर रहे हैं
फ़लक पे तारे चमक रहे हैं, शजर पे पत्ता खड़क रहा है

मेरे नबी की दुआएँ हैं ये , मेरे ख़ुदा की अताएँ हैं ये
कि खुश्क मिट्टी का ठीकरा भी , हयात बनकर खनक रहा है

Monday, March 26, 2012

आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक-द्विजेन्द्र द्विज




















टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक


 












ग़ज़ल : द्विजेन्द्र द्विज
इने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक

टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक
रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक

अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक

फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ महज़ब का
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक

उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक

देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक

रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक


इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक

पुरसुकून आपका चेहरा ये चमकती आँखें
आप भी शह्र में लगता है नये हैं अब तक

ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई
यूँ तो हमने भी कई शे’र कहे हैं अब तक

दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल
और ‘द्विज’! आप तो दो कोस चले हैं अब तक

Monday, March 19, 2012

चलो आओ चलें अब इस जहां से-सचिन अग्रवाल




















ग़ज़ल

बहुत महंगे किराए के मकां से
चलो आओ चलें अब इस जहां से

यूँ ही तुम थामे रहना हाथ मेरा
हमे जाना है आगे आसमां से

ये तुम ही हो मेरे हमराह वरना
मेरे पैरों में दम आया कहां से


मेरी आँखों से क्या ज़ाहिर नहीं था
मैं तेरा नाम क्या लेता जुबां से


सचिन अग्रवाल

Tuesday, March 13, 2012

डा. अहसान आज़मी की एक ग़ज़ल




















ग़ज़लनशेमन तो नशेमन है चमन तक छोड़ देते हैं
हम अपने पेट की खातिर वतन तक छोड़ देते हैं

खु़दाया क्या इबादत के लिए इतना नहीं काफ़ी
बुलाता है हमें जब तू बदन तक छोड़ देते हैं

अँधेरों से अगर आवाज़ देता है कोई बेकस
हम अपने सहन की उजली किरन तक छोड़ देते हैं

मुहब्बत से अगर दुशमन भी हमसे मांग ले पानी
दो-इक चुल्लू नहीं गंग-ओ-जमन तक छोड़ देते हैं

सुना "अहसान" कुछ बच्चे लिबासों को तरसते हैं
अगर ये बात है तो लो कफ़न तक छोड़ देते हैं

डा. अहसान आज़मी

Wednesday, March 7, 2012

होली मुबारक















तू बगल में हो जो प्यारे रंग में भीगा हुआ
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार...नज़ीर अकबराबादी

Tuesday, February 14, 2012

श्रदाँजलि


16 जून, 1936-13 फरवरी, 2012
वास्तविक नाम: डॉ. अखलाक मुहम्मद खान"शहरयार "
जन्म स्थान: आंवला, बरेली, उत्तर प्रदेश।

कुछ प्रमुख कृतियां: इस्म-ए-आजम [1965], ख्वाब का दर बंद है [1987], शाम होने वाली है [2005], मिलता रहूंगा ख्वाब में। 'उमराव जान', 'गमन' और 'अंजुमन' जैसी फिल्मों के गीतकार । साहित्य अकादमी पुरस्कार [1987], ज्ञानपीठ पुरस्कार [2008]। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर और उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे। इस अज़ीम शायर को विनम्र श्रदाँजलि जो कल इस संसार को हमेशा के लिए अलविदा कह गए-

ज़िंदगी जैसी तवक़्को थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है अहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ यह ज़मीं कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यक़ीं कुछ कम है

अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़्यादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

Saturday, January 21, 2012

कँवल ज़िआई

हमारा दौर अँधेरों का दौर है ,लेकिन
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है
















जन्म 15 मार्च 1927, निधन 28 अक्टूबर 2011

प्रकाशित कृतियाँ

प्यासे जाम’ ( सन 1973–देवनागरी लिपि में)
‘लफ़्ज़ों की दीवार ‘ (सन 1993 –उर्दू लिपि में)

शीघ्र प्रकाश्य

‘कागज़ का धुँआ’
‘धूप का सफ़र’


‘हरदयाल सिंह दत्ता’ उर्फ़ कँवल ज़िआई 28 अक्टूबर को परम-पिता प्रमात्मा में विलीन हो गए। लेकिन अपने पीछे अदब का बहुत बड़ा सरमाया छोड़ गए और उनकी ये ग़ज़लें उन्हें हमेशा हमारे बीच होने का अहसास करवाती रहेंगी। उनके बेटे यशवंत दत्ता जी ने एक साईट बनाई है इसमें उनके बारे में तमाम जानकारी उन्होंने दी है, लिंक है-

http://kanwalziai.com/

आज उनकी खूबसूरत ग़ज़लें सांझा कर रहा हूँ और इस मंच की तरफ़ से और इस मंच से जुड़े पाठकों की तरफ़ से इस अज़ीम शायर को विनम्र श्रदाँजलि।

ग़ज़ल

वक्त बाज़ी बदल गया बाबा
मौत का वार चल गया बाबा

ज़ेहन शेरों में ढल गया बाबा
खोटा सिक्का था चल गया बाबा

रह गयी गर्दे कारवां बाक़ी
कारवां तो निकल गया बाबा

अपनी मस्जिद को रो रहा है तू
मेरा मंदिर भी जल गया बाबा

एक हथियार के खिलौने से
एक पागल बहल गया बाबा

तेरे भाई की बात तू जाने
मेरा भाई बदल गया बाबा

जिन दरख्तों ने साये बांटे थे
उन दरख्तों का फल गया बाबा

ग़ज़ल

परख फज़ा की, हवा का जिसे हिसाब भी है
वो शख्स साहिबे फन भी है, कामयाब भी है

जो रूप आप को अच्छा लगे वो अपना लें
हमारी शख्सियत कांटा भी है ,गुलाब भी है

हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं
हमारे जिस्म में गंगा भी है ,चनाब भी है

हमारा दौर अँधेरों का दौर है ,लेकिन
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है

किसी ग़रीब की रोटी पे अपना नाम न लिख
किसी ग़रीब की रोटी में इन्क़लाब भी है

मेरा सवाल कोई आम सा सवाल नहीं
मेरा सवाल तेरी बात का जवाब भी है

इसी ज़मीन पे हैं आख़री क़दम अपने
इसी ज़मीन में बोया हुआ शबाब भी है