Monday, November 12, 2012
Tuesday, November 6, 2012
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ जी की एक ग़ज़ल
ग़ज़ल
जिनके रस्तों में उजाले ही उजाले होंगे
कौन कहता है वही मंज़िलों वाले होंगे
उनकी राहों में उजाले ही उजाले होंगे
हिर्स ने फ़स्ल जो फ़ाक़ों की उगाई है यहाँ
सबके हाथों में भला कैसे निवाले होंगे
अपने मेहमान को भरपेट खिलाकर खाना
उसने अपने लिए पत्थर ही उबाले होंगे
अब तो दो घूँट भी पानी के ग़नीमत जानो
यूँ तो महफ़िल में पियाले ही पियाले होंगे
सोज़ खो जाएगा अल्फ़ाज़ के घेरों में कहीं
प्यार के नाम रिसाले ही रिसाले होंगे
धो चुकी होगी उन्हें वक़्त की बारिश अब तक
अब वो मंज़र वहाँ होंगे न हवाले होंगे
होश में तो था कठिन चार क़दम भी चलना
लग़्ज़िशों ने ही मेरे पाँव सँभाले होंगे
शाम है सर्द चलो चल के उन्हें भी सुन लें
दिल से कुछ शे’र नये ‘द्विज’ ने निकाले होंगे
GHazal
kaun kahtaa hai vahee manziloN waale hoNge
azm kee sham’a jo saath apne liye chalte haiN
unkee raahoN meN ujaale hee ujaale hoNge
hirs ne fasl jo faaqoN kee ugaaee hai yahaaN
sabke haathoN meN bhalaa kaise nivaale hoNge
apne mehmaan ko bhar bhar-peT khilaa kar khaanaa
usne apne liye patthar hee ubaale hoNge
ab to do ghooNT bhee paanee ke GHaneemat jaano
yooN to mahfil meN piyaale hee piyaale hoNge
soz kho jaaegaa alfaaz ke gheroN meN kaheeN
pyaar ke naam risaale hee risaale hoNge
dho chukee hogee unheN waqt kee baarish ab tak
ab wo maNzar vahaaN hoNge na hawaale hoNge
hosh meN to thaa kaTHin chaar qadam bhee chalnaa
lagzishoN ne hee mere paaNv saNbhaale hoNge
shaam hai sard chalo chalke unheN hee sun leN
dil se kuCh sher naye `dwij' ne nikaale hoNge.
Saturday, September 15, 2012
नवनीत शर्मा जी की ग़ज़ल
ग़ज़ल
मैं जाकर ख्वाब की दुनिया में जितना जगमगाया हूँ
खुली है आंख तो उतना ही खुद पे सकपकाया हूँ
मुझे बाहर के रस्तों पर नहीं कांटों का डर कोई
वो सब अंदर के हैं बीहड़ मैं जिनपे डगमगाया हूँ
हां अब भी शाम को यादों के कुछ जुगनू चमकते हैं
मैं बेशक सारे खत लहरों के जिम्मे छोड़ आया हूँ
तुम्हारे ख्वाब की ताबीर से वाकिफ हैं सारे ही
मैं अपने ख्वाब की सूरत का इक धुंधला सा साया हूँ
मुझे तुमसे नहीं शिकवा मगर "नवनीत" से तो है
मैं बन कर आंख तेरी अब तलक क्यों डबडबाया हूँ
-नवनीत शर्मा, समाचार संपादक, दैनिक जागरण हिमाचल प्रदेश
Tuesday, August 28, 2012
द्विजेंद्र द्विज जी की एक ताज़ा ग़ज़ल
ग़ज़ल
ये कौन पूछता है भला आसमान से
पंछी कहाँ गए जो न लौटे उड़ान से
‘सद्भाव’ फिर कटेगा किसी पेड़ की तरह
लेंगे ये काम भी वो मगर संविधान से
दंगाइयों की भीड़ थी पैग़ाम मौत का
बच कर निकल सका न वो जलते मकान से
घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से
पागल उन्हें इसी पे ज़माने ने कह दिया
आँखों को जो दिखा वही बोले ज़बान से
`धृतराष्ट्र’ को पसंद के `संजय’ भी मिल गए
आँखों से देख कर भी जो मुकरे ज़बान से
बोले जो हम सभा में तो वो सकपका गया
`द्विज’ की नज़र में हम थे सदा बे—ज़बान—से
Tuesday, August 14, 2012
दुष्यंत कुमार
ग़ज़ल
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं
ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं
Monday, August 6, 2012
अंसार क़म्बरी की एक ग़ज़ल
ग़ज़ल
धूप का जंगल, नंगे पावों इक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या
बादल-बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या
सब उसके आँगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या
तुमने चाहे चाँद-सितारे, हमको मोती लाने थे,
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या
ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका, फिर बंटवारा करता क्या
टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये
बींच भंवर में मैंने उसका नाम पुकारा करता क्या
Wednesday, July 25, 2012
ग़ज़ल- दिनेश ठाकुर
दिनेश जी के ग़ज़ल संग्रह 'परछाइयों के शहर में' से- एक ग़ज़ल-
दिल ग़म से आज़ाद नहीं है
ऐसा क्यों है, याद नहीं है
ख़्वाबों के ख़ंजर पलकों पर
होठों पर फ़रियाद नहीं है
जंगल तो सब हरे-भरे हैं
गुलशन क्यों आबाद नहीं है
दिल धड़का न आँसू आए
यह तो तेरी याद नहीं है
आबादी है शहरे-वफ़ा की
कौन यहाँ बर्बाद नहीं है
सच-सच कहना हँसने वाले
क्या तू भी नाशाद नहीं है..?
कितने चेहरे थे चेहरों पर
कोई चेहरा याद नहीं है
कोई चेहरा याद नहीं है
जो कुछ है इस जीवन में है
कुछ भी इस के बाद नहीं है
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