Wednesday, October 13, 2021

ग़ज़ल का इतिहास और भाषा -भाग 2

 अब बात करते हैं कि ये उर्दू क्या है ?


'उर्दू' एक तुर्की लफ़्ज है जिसके अर्थ हैं : छावनी, लश्कर। 'मुअल्ला' अरबी लफ़्ज है जिसका अर्थ है : सबसे अच्छा। शाही कैंप, शाही छावनी, शाही लश्कर के लिए पहले 'उर्दू-ए-मुअल्ला' शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ। बाद में बादशाही सेना की छावनियों तथा बाज़ारों (लश्कर बाज़ारों) में हिन्दवी अथवा देहलवी का जो भाषा रूप बोला जाता था उसे 'ज़बाने-उर्दू-ए-मुअल्ला' कहा जाने लगा। बाद को जब यह जुबान फैली तो 'मुअल्ला' शब्द हट गया तथा 'ज़बाने उर्दू' रह गया। 'ज़बाने उर्दू' के मतलब 'उर्दू की जुबान' या अँगरेज़ी में 'लैंग्वेज ऑफ उर्दू'। बाद में इसी को संक्षेप में 'उर्दू' कहा जाने लगा। ये उस वक्त की एक मिली-जुली भाषा थी.फिर ये भाषा मुस्लिम समुदाये के साथ जोड़ दी गई ये काम 17 वीं शताब्दि मे अंग्रेजों के आने के बाद हुआ.इसी भाषा मे धर्म का प्रसार-प्रचार हुआ.इसी दौरान उर्दू अदालती भाषा बनी और आज तक हमारी अदालतों मे इसका इस्तेमाल देवनागरी लिपी मे होता है.

ये भाषा उस वक्त दिल्ली की साथ-साथ पूरे देश की भाषा थी जिसे उर्दू से पहले हिंदोस्तानी कहा जाता था और ये यहाँ के लोगों की आम बोल-चाल की भाषा थी जिसे सियासतदानों ने धर्म के साथ जोड़ दिया और ये मुस्लिमों की भाषा के रूप मे जानी जाने लगी. जबकि सच ये है कि खालिस हिंदुस्तानी भाषा थी जो दो लिपियों मे लिखी जाती थी. एक बोली की दो लिपियाँ थी.बोली एक थी लिपियाँ दो थी लेकिन सियासत ने इस मीठी ज़बान का गला घोंट दिया और हिंदी हिंदूओं की और उर्दू मुस्लिमों की भाषा बन गई और इसी आधार पर आगे जाकर मुल्क का बँटवारा हुआ.

खैर! वापिस चलते हैं 17 वीं सदी मे. जैसे दिल्ली मे फ़ारसी और इस्लाम का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे ही दक्षिण भारत मे भी फ़ारसी और इस्लाम पनपे. यहाँ शासकों और फ़ारसी सूफ़ी संतों ने फ़ारसी का प्रचार किया. ये कोई थोड़े समय मे नहीं हुआ, सदियों मुस्लिम शासकों ने यहाँ राज किया. हमारी भाषा जिसे देवनागरी कहते थे वो हाशिए पर रही. लेकिन उसमे भी साहित्य की रचना होती रही. शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी (1668 से 1744) औरंगाबाद के रहने वाले थे। वली का बचपन औरंगाबाद मे बीता, बीस बरस की उम्र में वो अहमदाबाद आए जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। सन 1700 मे वली दिल्ली आए। यहाँ आकर उनकी शैली की खूब तारीफ़ हुई. वली उर्दू के पहले शायर माने गए.

वली:

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।

दिल को लगती है दिलरुबा की अदा
जी में बसती है खुश-अदा की अदा

यहाँ फ़िर ग़ज़ल गुलो-बुलबुल के फ़ारसी किस्से लेकर चलने लगी, जिनका हिंदोस्तान से कोई वास्ता न था. फ़ारसी मे लिखने की होड़ सी लग गई. मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 ) ने इस विधा को नया रुतबा बख्शा. हालाँकि मीर ने भाषा को हल्का ज़रुर किया और सादगी भी बख्शी.

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

जब दिल्ली खतरे मे पड़ी तो शायर लखनऊ की तरफ गए और शायरी के दो केन्द्र बने लखनऊ और देहली. लेकिन जहाँ दिल्ली मे सूफ़ी शायरी हुई वहीं लखनऊ मे ग़ज़ल विलासता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गई.

दिल्ली मे उर्दू के चार स्तंभ : मज़हर,सौदा, मीर और दर्द ने ग़ज़ल के नन्हें से पौधे को एक फ़लदार शजर बना दिया.

दिल्ली स्कूल के चार महारथी थे:

1)मिर्ज़ा मज़हर जान जानां: ( 1699-1781 दिल्ली)

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुझको वो दिमाग़-ओ-दिल रहा है
खुदा के वास्ते उसको ना टोको
यही एक शहर में क़ातिल रहा है
यह दिल कब इश्क़ के क़ाबिल रहा है

2) मिर्ज़ा मुहम्म्द रफ़ी सौदा:(1713-1781दिल्ली): इनका निधन लखनऊ मे हुआ. इन्हें छ: हज़ार रुपए हरेक साल बतौर वजीफ़ा नवाब से मिलता था.

दिल मत टपक नज़र से कि पाया ना जाएगा
यूँ अश्क फिर ज़मी से उठाया न जाएगा.


3) मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 आगरा )
असल मे यही ग़ज़ल के पिता थे. इन्होंने ही ग़ज़ल को रुतबा बख्शा. इन्हें खुदा-ए-सुखन कहा जाता है और सब शायरों ने इनकी शायरी का लोहा माना और इन्हें सब शायरों का सरदार कहा गया. ज्यादातर फ़ारसी मे ही लिखा.

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या
आगे- आगे देखिए होता है क्या

उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया


4) ख़्वाजा मीर दर्द:(1721-1785) सूफ़ी ख्यालात वाला शायर था.

मेरा जी है जब तक तेरी जुस्तजू है|
ज़बान जब तलक है यही गुफ्तगू है|

तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।

ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
हम तो इस जीने के हाथों मर चले

जग में आकर इधर उधर देखा|
तू ही आया नज़र जिधर देखा|

जान से हो गए बदन ख़ाली,
जिस तरफ़ तूने आँख भर के देखा|

तुम आज हंसते हो हंस लो मुझ पर ये आज़माइश ना बार-बार होगी
मैं जानता हूं मुझे ख़बर है कि कल फ़ज़ा ख़ुशगवार होगी|

Tuesday, October 12, 2021

एक नज़्म -निदा फ़ाज़ली

 वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है
सुना है
वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है
न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है
कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है
मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे
मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा
एक पत्थर
वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ
यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं
मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे


साभार -कविता कोश

निदा फ़ाज़ली की मशहूर ग़ज़लें

 अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं

निदा फाज़ली की मशहूर ग़ज़लें - एक

 कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
 
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलताa

BBC पर छपे -निदा साहब के लेख

 आज निदा साहब का ज़िक्र आया तो मुझे BBC पर छपे उनके की लेख याद आये जिन्हें बड़ी खूबसूरती से उन्होंने लिखा है | आप इन सब लेखों को इस साईट पर जाकर पढ़ सकते हैं -


Monday, October 11, 2021

खूबसूरत ग़ज़ल -बशीर बद्र


ग़ज़ल

 मुस्कुराती हुई धनक है वही
उस बदन में चमक दमक है वही

फूल कुम्हला गये उजालों के
साँवली शाम में नमक है वही

अब भी चेहरा चराग़ लगता है
बुझ गया है मगर चमक है वही

कोई शीशा ज़रूर टूटा है
गुनगुनाती हुई खनक है वही

प्यार किस का मिला है मिट्टी में
इस चमेली तले महक है वही

छोटी बह्र कि ग़ज़ल -बशीर बद्र

 

ग़ज़ल 


कोई हाथ नहीं ख़ाली है
बाबा ये नगरी कैसी है

कोई किसी का दर्द न जाने
सबको अपनी अपनी पड़ी है

उसका भी कुछ हक़ है आख़िर
उसने मुझसे नफ़रत की है

जैसे सदियाँ बीत चुकी हों
फिर भी आधी रात अभी है

कैसे कटेगी तन्हा तन्हा
इतनी सारी उम्र पड़ी है

हम दोनों की खूब निभेगी
मैं भी दुखी हूँ वो भी दुखी है

अब ग़म से क्या नाता तोड़ें
ज़ालिम बचपन का साथी है

ग़ज़लें -बशीर बद्र

 

ग़ज़ल 

होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते

पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते

दिल उजड़ी हुई इक सराय की तरह है
अब लोग यहाँ रात बिताने नहीं आते

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते

इस शहर के बादल तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते

क्या सोचकर आए हो मोहब्बत की गली में
जब नाज़ हसीनों के उठाने नहीं आते

अहबाब[1] भी ग़ैरों की अदा सीख गये हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते

एक और ग़ज़ल -बशीर बद्र साहब

 

ग़ज़ल 

आंसुओं से धुली ख़ुशी की तरह
रिश्ते होते हैं शायरी की तरह

जब कभी बादलों में घिरता है
चाँद लगता है आदमी की तरह

किसी रोज़न किसी दरीचे से
सामने आओ रोशनी की तरह

सब नज़र का फ़रेब है वर्ना
कोई होता नहीं किसी की तरह

खूबसूरत, उदास, ख़ौफ़जदा
वो भी है बीसवीं सदी की तरह

जानता हूँ कि एक दिन मुझको
वक़्त बदलेगा डायरी की तरह

ग़ज़ल -बशीर बद्र साहब


ग़ज़ल 


 किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सजाऊंगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा

हयातों मौत फ़िराक़ों विसाल सब यकजा
मैं एक रात में कितने दीये जलाऊंगा

पला बढ़ा हूँ अभी तक इन्हीं अंधेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा

मेरे मिज़ाज की ये मादराना फितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊँगा

तुम एक पेड़ से वाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ बहुत दूर-दूर जाऊँगा

मिरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहाँ से रिज़क लिखा है वहीँ से लाऊंगा

उजालों की परियां -बशीर बद्र

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ग़ज़ल 
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है

उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है

महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है

उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है

तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है

उजाले की परियां -बशीर बद्र

 
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ग़ज़ल 

मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला

बहुत अजीब है ये क़ुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला

ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वो ही न मिला

उजालों की परियां -बशीर बद्र

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ग़ज़ल 

 हर जनम में उसी की चाहत थे
हम किसी और की अमानत थे

उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई,
हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे

तेरी चादर में तन समेट लिया,
हम कहाँ के दराज़क़ामत थे

जैसे जंगल में आग लग जाये,
हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे

पास रहकर भी दूर-दूर रहे,
हम नये दौर की मोहब्बत थे

इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया,
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे

दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना,
ये दिये रात की ज़रूरत थे