अब बात करते हैं कि ये उर्दू क्या है ?
Wednesday, October 13, 2021
ग़ज़ल का इतिहास और भाषा -भाग 2
Tuesday, October 12, 2021
एक नज़्म -निदा फ़ाज़ली
वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है
सुना है
वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है
न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है
कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है
मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे
मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा
एक पत्थर
वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ
यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं
मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे
साभार -कविता कोश
निदा फ़ाज़ली की मशहूर ग़ज़लें
निदा फाज़ली की मशहूर ग़ज़लें - एक
BBC पर छपे -निदा साहब के लेख
Monday, October 11, 2021
खूबसूरत ग़ज़ल -बशीर बद्र
ग़ज़ल
मुस्कुराती हुई धनक है वही
उस बदन में चमक दमक है वही
फूल कुम्हला गये उजालों के
साँवली शाम में नमक है वही
अब भी चेहरा चराग़ लगता है
बुझ गया है मगर चमक है वही
कोई शीशा ज़रूर टूटा है
गुनगुनाती हुई खनक है वही
प्यार किस का मिला है मिट्टी में
इस चमेली तले महक है वही
छोटी बह्र कि ग़ज़ल -बशीर बद्र
ग़ज़ल
कोई हाथ नहीं ख़ाली है
बाबा ये नगरी कैसी है
कोई किसी का दर्द न जाने
सबको अपनी अपनी पड़ी है
उसका भी कुछ हक़ है आख़िर
उसने मुझसे नफ़रत की है
जैसे सदियाँ बीत चुकी हों
फिर भी आधी रात अभी है
कैसे कटेगी तन्हा तन्हा
इतनी सारी उम्र पड़ी है
हम दोनों की खूब निभेगी
मैं भी दुखी हूँ वो भी दुखी है
अब ग़म से क्या नाता तोड़ें
ज़ालिम बचपन का साथी है
ग़ज़लें -बशीर बद्र
ग़ज़ल
होंठों पे मुहब्बत के फ़साने नहीं आते
साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते
पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी
आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते
दिल उजड़ी हुई इक सराय की तरह है
अब लोग यहाँ रात बिताने नहीं आते
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
इस शहर के बादल तेरी ज़ुल्फ़ों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं बुझाने नहीं आते
क्या सोचकर आए हो मोहब्बत की गली में
जब नाज़ हसीनों के उठाने नहीं आते
अहबाब[1] भी ग़ैरों की अदा सीख गये हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते
एक और ग़ज़ल -बशीर बद्र साहब
ग़ज़ल
आंसुओं से धुली ख़ुशी की तरह
रिश्ते होते हैं शायरी की तरह
जब कभी बादलों में घिरता है
चाँद लगता है आदमी की तरह
किसी रोज़न किसी दरीचे से
सामने आओ रोशनी की तरह
सब नज़र का फ़रेब है वर्ना
कोई होता नहीं किसी की तरह
खूबसूरत, उदास, ख़ौफ़जदा
वो भी है बीसवीं सदी की तरह
जानता हूँ कि एक दिन मुझको
वक़्त बदलेगा डायरी की तरह
ग़ज़ल -बशीर बद्र साहब
ग़ज़ल
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सजाऊंगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा
हयातों मौत फ़िराक़ों विसाल सब यकजा
मैं एक रात में कितने दीये जलाऊंगा
पला बढ़ा हूँ अभी तक इन्हीं अंधेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा
मेरे मिज़ाज की ये मादराना फितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊँगा
तुम एक पेड़ से वाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ बहुत दूर-दूर जाऊँगा
मिरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहाँ से रिज़क लिखा है वहीँ से लाऊंगा
उजालों की परियां -बशीर बद्र
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिये बनाया है
महक रही है ज़मीं चांदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मुहब्बत पे मुस्कुराया है
उसे किसी की मुहब्बत का ऐतबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है
तमाम उम्र मेरा दम उसके धुएँ से घुटा
वो इक चराग़ था मैंने उसे बुझाया है
उजाले की परियां -बशीर बद्र
उजालों की परियां -बशीर बद्र
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स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...
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ग़ज़ल हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है? क्या कमी है ,तुझे हुआ क्या है? किसने जाना है, जो तू जानेगा क्या ये दुनिया है और ख़ुदा क्या है? दर-बदर खाक़ ...