Monday, October 18, 2021

काफ़िया पर एक विमर्श - सतपाल 'ख्याल'-भाग एक

 विमर्श से पूर्व मेरी बात: 


मैं कोई बहुत बड़ा विशेषज्ञ नही हूँ लेकिन जो भी बज़ुर्गों , किताबों और अनुभव से सीखा वही कह रहा हूँ . कहीं कुछ ग़ल्त हो तो ज़रूर बताएँ.बाकी हमारे आर.पी शर्मा जी जैसे पिंगलाचार्य हैं और द्विज जी जो मेरे आदरणीय गुरु हैं जब भी दुविधा होती है तो ये मेरी शंका का समाधान कर देते हैं.अपनी ग़ज़ल के मतले से शुरू करता हूँ : 

तालिबे-इल्म हूँ हर्फ़े-आखिर नही
फ़न से वाकिफ़ तो हूँ फ़न मे माहिर नहीं 
आज हम काफ़िये पर चर्चा करेंगे :
----------------------------------------- 

काफ़िया क्या है 

काफ़िया या तुक वो शब्द है जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे’र के दूसरे मिसरे के अंत मे रदीफ़ से पहले आता है। अब ये काफ़िया या तुकबंदी भी आसान काम नही है इसके लिए भी कायदे कानून हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है। अब दो शब्द आपस मे तभी हम-काफ़िया होंगे अगर उनमे कोई साम्यता होगी और इसी साम्यता की वज़ह से वो काफ़िया बनेंगे। इसी साम्यता के आधार पर काफ़िये दो तरह के हो सकते हैं :

स्वर साम्य काफ़िये
वो शब्द जिनमे स्वर की साम्यता हो। ऐसे काफ़िये अमूमन उर्दू मे इस्तेमाल किये जाते हैं लेकिन अब देवनागरी मे भी ये चलन हो गया है। मसलन: देखा, सोचा, पाया, आता, पीना,पाला,नाना आदि.

इनमे स्वर :" आ " की एकता है बस, व्यंजन की नहीं, व्यंजन अलग है सबके जैसे: देखा-सोचा मे ’ख" "च" अलग है इनमे कोई एकता नही। तो ये स्वर साम्य काफ़िये हैं और इनका इस्तेमाल खूब होता है।

Saturday, October 16, 2021

ग़ज़ल लेखन और बहरें -भाग 2

 ग़ज़ले के पहले शे'र को मतला , अंतिम को मकता जिसमें शायर अपना उपनाम लिखता है. एक ग़ज़ल मे कई मतले हो सकते हैं और ग़ज़ल बिना मतले के भी हो सकती है. ग़ज़ल में कम से कम तीन शे'र तो होने ही चाहिए. ग़ज़ल का हर शे'र अलग विषय पर होता है एक विषय पर लिखी ग़ज़ल को ग़ज़ले-मुसल्सल कहते हैं. वह शब्द जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे'र के दूसरे मिसरे मे रदीफ़ से पहले आता है उसे क़ाफ़िया कहते हैं. ये अपने हमआवाज शब्द से बदलता रहता है.क़ाफ़िया ग़ज़ल की जान(रीढ़)होता है. एक या एकाधिक शब्द जो हर शे'र के दूसरे मिसरे मे अंत मे आते हैं, रदीफ़ कहलाते हैं. ये मतले में क़ाफ़िए के बाद दो बार आती है. बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है जिसे ग़ैर मरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं.पुरी ग़ज़ल एक ही बहर में होती है. बहर को जानने के लिए हम उसके साकिन और मुतहरिर्क को अलग -अलग करते हैं और इसे तकतीअ करना कहते हैं.बहर के इल्म को अरुज़(छ्न्द शास्त्र) कहते हैं और इसका इल्म रखने वाले को अरुज़ी(छन्द शास्त्री).यहाँ पर एक बात याद आ गई द्विज जी अक्सर कहते हैं कि ज़्यादा अरूज़ी होने शायर शायर कम आलोचक ज़्यादा हो जाता है. बात भी सही है शायर को ज़्यादा अरुज़ी होने की ज़रुरत नहीं है उतना काफ़ी है जिससे ग़ज़ल बिना दोष के लिखी जा सके. बाकी ये काम तो आलोचकों का ज्यादा है. यह तो एक महासागर है अगर शायर इसमें डूब गया तो काम गड़बड़ हो जाएगा.

अब एक ग़ज़ल को उदाहरण के तौर पर लेते हैं और तमाम बातों को फ़िर से समझने की कोशिश करते हैं.द्विज जी
की एक ग़ज़ल है :

अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते.
अब इस ग़ज़ल में पाँच अशआर हैं.
यह शे'र मतला (पहला शे'र) है:
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

मक़सद, सरहद, बरगद इत्यादि ग़ज़ल के क़ाफ़िए हैं.
"नहीं होते" ग़ज़ल की रदीफ़ है

"मक़सद नहीं होते" "सरहद नहीं होते" ये ग़ज़ल की ज़मीन है.
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नही होते

ये ग़ज़ल का मक़ता (आख़िरी शे'र) है.

और बहर का नाम है "हजज़"

वज़्न है: 1222x4

अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते

यहाँ पर अ के उपर चंद्र बिंदू है सो उसे लघु के वज़न में लिया है, जैसा हमने उपर पढ़ा.

"न" हमेशा लघु के वज्न में लिया जाता है.
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
1222 1222 1222 1222
यहाँ पर ने" को लघु के वज्न में लिया है.और हमसे को हमस के वज्न में लिया है.
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
इस मिसरे में "तो" को लघु के वज्न में लिया है.

बहुत कुछ सीखने को है , ये इल्म तो एक साग़र है . आप उम्र भर सीखते हैं और शुरु में हमने चर्चा की थी कि शब्द परमात्मा है तो परमात्मा को पाने के लिए हम सब जानते हैं कि गुरु का क्या महत्व है. गुरु के बिना ये विधा सीखना मु्श्किल है लेकिन असंभव नहीं. मैं ये इसलिए कह रहा हूँ कि गुरु मिलना भी सबके नसीब मे नहीं होता लेकिन गुरु नहीं है तो हताश होकर लिखना छोड़ देना भी ग़लत है.ये शायरी कोई गणित नहीं है जो किसी को सिखाई जाए कोई भी इसे सीखकर अगर कहे मैं शायर बन जाऊँगा तो वो धोखे में है, ये तो एक तड़प है जो हर सीने मे नहीं होती. बहरें अपने आप आ जाती हैं जब ख़्याल बेचैन होता है.निरंतर अभ्यास लाज़िम है ,यह नहीं कि आज ग़ज़ल लिखो और सोचो कि कल हम शायर बन जाएंगे तो ग़लत होगा. कितने कच्चे चिट्ठे लिखे जाते हैं फाड़े जाते हैं फिर जाकर कहीं माँ सरस्वती मेहरबान होती हैं. आप इस फ़ाइलातुन से घबराए नहीं. बहरें बनने से पहले भी बहरें थीं वो तो एक ताल है जो शायर के अचेतन मे सोई होती है. जब बहर का पता नहीं था उस वक्त की ग़ज़लें निकाल कर देखता हूँ तो कई ग़ज़लें ऐसी हैं जो बहर मे लिखी गईं थी . आज जब बह्र का पता है तो अब पता चल गया यार ये तो इस बहर मे है. कई शायर ऐसे भी हुए हैं जिन्हें इस का इल्म कम था लेकिन उनकी सारी शायरी वज्न मे है. जब ये बहरें सध जाती है तो सब आसान हो जाता है. बस दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं मश्क(अभ्यास) और सब्र (धैर्य)|


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ग़ज़ल लेखन और ग़ज़ल की बहरें -सतपाल ख़याल

 ग़ज़ल


ग़ज़ल क्या है, अरूज क्या है ये सब बाद में पहले हम "शब्द" पर चर्चा करेंगे कि शब्द क्या है? शब्द एक ध्वनि है, एक आवाज़ है, शब्द का अपना एक आकार होता है, जब हम उसे लिखते हैं , लेकिन जब हम बोलते हैं वो एक ध्वनि मे बदल जाता है, तो शब्द का आकार भी है और शब्द निरकार भी है और इसी लिए शब्द को परमात्मा भी कहा गया जो निराकार भी है और हर आकार भी उसका है. तो शब्द साकार भी है और निराकार भी. हमारा सारा काव्य शब्द से बना है और शब्द से जो ध्वनि पैदा होती है उस से बना है संगीत अत: हम यह कह सकते हैं कि काव्य से संगीत और संगीत से काव्य पैदा हुआ, दोनों एक दुसरे के पूरक हैं. काव्य के बिना संगीत और संगीत के बिना काव्य के कल्पना नही कर सकते. और हम काव्य को ऐसे भी परिभाषित कर सकते हैं कि वो शब्द जिन्हें हम संगीत मे ढाल सकें वो काव्य है तो ग़ज़ल को भी हम ऐसे ही परिभाषित कर सकते हैं कि काव्य की वो विधा जिसे हम संगीत मे ढाल सकते हैं वो गजल है. ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ चाहे कुछ भी हो अन्य विधाओं कि तरह ये भी काव्य की एक विधा है .हमारा सारा काव्य, हमारे मंत्र, हमारे वेद सब लयबद्ध हैं सबका आधार छंद है.

अब संगीत तो सात सुरों पर टिका है लेकिन शब्द या काव्य का क्या आधार है ? इसी प्रश्न का उत्तर हम खोजेंगे.

हिंदी काव्य शास्त्र का आधार तो पिंगल या छंद शास्त्र है लेकिन ग़ज़ल क्योंकि सबसे पहले फ़ारसी में कही गई इसलिए इसका छंद शास्त्र को इल्मे-अरुज कहते हैं. एक बात आप पल्ले बाँध लें कि बिना बहर के ग़ज़ल आज़ाद नज़्म होती है ग़ज़ल कतई नहीं और आज़ाद नज़्म का काव्य में कोई वजूद नहीं है. हम शुरु करते हैं वज़्न से. सबसे पहले हमें शब्द का वज़्न करना आना चहिए. उसके लिए हम पहले शब्द को तोड़ेंगे, हम शब्द को उस अधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं. शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण. तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे. वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय मे हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी). अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते है और समझते हैं, जैसे:


"आकाश"
ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.
आ+ का+श.

आ: ये एक बड़ी आवाज़ है.
का: ये एक बड़ी आवाज़ है

श: ये एक छोटी आवाज़ है.

और नज़र( न+ज़र)
न: ये एक छोटी आवाज़ है

ज़र: ये एक बड़ी आवाज़ है.

छंद शास्त्र मे इन लंबी आवाज़ों को गुरु और छोटी आवाजों को लघु कहते है और लंबी आवाज के लिए "s" और छोटी आवाज़ के लिए "I" का इस्तेमाल करते हैं. इन्हीं आवाजों के समूह से हिंदी में गण बने. फ़ारसी में लंबी आवाज़ या गुरु को मुतहर्रिक और छोटी या लघु को साकिन कहते हैं .इसी आधार पर हिंदी में गण बने और इसी आधार पर फ़ारसी मे अरकान बने.यहाँ हम लघु और गुरु को दर्शने के लिए 1 और 2 का इस्तेमाल करेंगे.जैसे:


सितारों के आगे जहाँ और भी हैं.
पहले इसे वर्णों मे तोड़ेंगे. यहाँ उसी अधार पर इन्हें तोड़ा गया जैसे उच्चारण किया जाता है.
सि+ता+रों के आ+गे ज+हाँ औ+र भी हैं.

अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.

जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे य+हाँ औ+र भी हैं.

(1+2+2 1 + 2+2 1+2+2 +1 2 + 2)
अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.

122 122 122 122

तो ये 122 क समूह एक रुक्न बन गया और रुक्न क बहुवचन अरकान होता है. इन्ही अरकनों के आधार पर फ़ारसी मे बहरें बनीं.और भाषाविदों ने सभी सम्भव नमूनों को लिखने के लिए अलग-अलग बहरों का इस्तेमाल किया और हर रुक्न का एक नाम रख दिया जैसे फ़ाइलातुन अब इस फ़ाइलातुन का कोई मतलब नही है यह एक निरर्थक शब्द है. सिर्फ़ वज़्न को याद रखने के लिए इनके नाम रखे गए.आप इस की जगह अपने शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे फ़ाइलातुन की जगह "छमछमाछम" भी हो सकता है, इसका वज़्न (भार) इसका गुरु लघु की तरतीब.

ये आठ मूल अरकान हैं , जिनसे आगे चलकर बहरें बनीं.

फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2)
मु-त-फ़ा-इ-लुन(1-1-2-1-2)
मस-तफ़-इ-लुन(2-2-1-2)
मु-फ़ा-ई-लुन(1-2-2-2)
मु-फ़ा-इ-ल-तुन (1-2-1-1-2)
मफ़-ऊ-ला-त(2-2-2-1)
फ़ा-इ-लुन(2-1-2)
फ़-ऊ-लुन(1-2-2)

अब भाषाविदों ने यहाँ कुछ छूट भी दी है आप गुरु वर्णों को लघु में ले सकते हैं जैसे मेरा (22) को मिरा(12) के वज्न में, तेरा(22) को तिरा(12)भी को भ, से को स इत्यादि. और आप बहर के लिहाज से कुछ शब्दों की मात्राएँ गिरा भी सकते हैं और हर मिसरे के अंत मे एक लघु वज़्न में ज्यादा हो सकता है. अनुस्वर वर्णों को गुरु में गिना जाता है जैसे:बंद(21) छंद(21) और चंद्र बिंदु को तकतीअ में नहीं गिनते जैसे: चाँद (21)संयुक्त वर्ण से पहले लघु को गुरु मे गिना जाता है जैसे:
सच्चाई (222)
अब फ़ारसी मे 18 बहरों बनाई गईं जो इस प्रकार है:

1.मुत़कारिब(122x4) चार फ़ऊलुन
2.हज़ज(1222x4) चार मुफ़ाईलुन
3.रमल(2122x4) चार फ़ाइलातुन
4.रजज़:(2212) चार मसतफ़इलुन
5.कामिल:(11212x4) चार मुतफ़ाइलुन
6 बसीत:(2212, 212, 2212, 212 )मसतलुन फ़ाइलुऩx2
7तवील:(122, 1222, 122, 1222) फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन x2
8.मुशाकिल:(2122, 1222, 1222) फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
9. मदीद : (2122, 212, 2122, 212) फ़ाइलातुन फ़ाइलुनx2
10. मजतस:(2212, 2122, 2212, 2122) मसतफ़इलुन फ़ाइलातुनx2
11.मजारे:(1222, 2122, 1222, 2122) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
12 मुंसरेह :(2212, 2221, 2212, 2221) मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
13 वाफ़िर : (12112 x4) मुफ़ाइलतुन x4 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
14 क़रीब ( 1222 1222 2122 ) मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
15 सरीअ (2212 2212 2221) मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मफ़ऊलात सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
16 ख़फ़ीफ़:(2122 2212 2122) फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में .
17 जदीद: (2122 2122 2212) फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
18 मुक़ातज़ेब (2221 2212 2221 2212) मफ़ऊलात मसतफ़इलुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
19. रुबाई
यहाँ पर रुककर थोड़ा ग़ज़ल की बनावट के बारे में भी समझ लेते हैं.

Thursday, October 14, 2021

सूर्य कांत त्रिपाठी निराला की ग़ज़ल

निराला जी ने भी ग़ज़ल में हाथ अजमाया है - 


ग़ज़ल 

भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है
हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है
तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में
और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है
पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है
ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें
सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है

ग़ज़ल का इतिहास और भाषा -अंतिम भाग ,लेखक सतपाल ख़याल

 नया दौर:


अल्ताफ़ हुसैन हाली (1837-1914) पानीपत, दुरगा सहाय सरूर (1873-1910) और बहुत सारे शायरों ने ग़ज़ल को हम तक पहुँचाया. ये सफ़र खत्म करने से पहले "फ़िराक़ गोरखपुरी (जन्म" 1896 ,निधन: 1982) का ज़िक्र बहुत लाजिमी है. इनका का असली नाम रघुपति सहाय था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में हुआ था। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रध्यापक थे। यहीं पर इन्होंने "ग़ुल-ए-नग़मा" लिखी जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। उन्होंनें "भारत सरकार की उर्दू केवल मुसलमानों का भाषा" इस नीति को पुर्जोर विरोध किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको संसद में राज्य सभा का सदस्य मनोनित किया था ।

रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

और आज के दौर के सभी शायर इस विधा को नये आयाम दे रहे हैं. ग़ज़ल अब गुलो-बुलबुल के किस्सों से बाहर आ चुकी है. ग़ज़ल मे अब महबूब का ही नहीं माँ का भी ज़िक्र होता है, बेटी का भी। सो अब ये उन हवेलियों और कोठों से निकल कर घरों मे सज रही है और हिंदी उर्दू का झगड़ा कोई झगड़ा नही है. भाषा और भाव मे भाव बड़ा रहता है लेकिन भाषा की अहमीयत भी अपनी जगह है. ग़ज़ल एक कोमल विधा है। यहाँ साँस लेने से सफ़ीने डूब जाते हैं; सो ग़ज़ल की नाज़ुक ख्याली का ख्याल रखना पड़ता है. दुश्यंत के इन शब्दों के साथ इस बहस को यहाँ खत्म करता हूँ: "उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ."

Wednesday, October 13, 2021

ग़ज़ल का इतिहास और भाषा -भाग -3 : लेखक सतपाल ख़याल

 दिल्ली मे दूसरे दौर के शायर:


अब ज़िक्र करते हैं दिल्ली में दूसरे दौर के शायरों का. जिनमे प्रमुख हैं मोमिन, ज़ौक़ और गालिब; इन्होंने ग़ज़ल की इस लौ को जलाए रखा. दिल्ली के आखिरी मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र खुद शायर थे सो उन्होंने दिल्ली मे शायरी को बढ़ावा दिया.

शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक:(1789-1854): ये उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते हैं, जिनके अनेक शागिर्दों ने अदबी दुनिया में अच्छा मुक़ाम हासिल किया है.

कहिए न तंगज़र्फ़ से ए ज़ौक़ कभी राज़
कह कर उसे सुनना है हज़ारों से तो कहिए

रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त

मोमिन खां मोमिन (1800-1851): दिल्ली मे पैदा हुए और शायर होने के साथ-साथ ये हकीम भी थे.

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो

उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में मोमिन
आखरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे

मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब':जन्म: (27 दिसम्बर 1796 ,निधन: 15 फ़रवरी 1869 ): इस शायर के बारे मे लिखने की ज़रुरत नहीं है. हिंदोस्तान का बच्चा-बच्चा इन्हें जानता है. गा़लिब होने का अर्थ ही शायर होना हो गया है.

बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आमो-खास की ज़बान पर आ गया लेकिन एक बात और है कि काफी कठिन ग़ज़लें भी इन्होंने कही जिसे समझने के लिए आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की और वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान मे कहे गए. उस वक्त गा़लिब और मीर की निंदा भी की गई .

कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे

गा़लिब ने भाषा मे सुधार भी किया लेकिन गा़लिब भाषा से ऊपर उठ चुका था. वो एक विद्वान शायर था. एक बात तो तय है कि भाषा से भाव बड़ा होता है लेकिन भाषा भी सरल होनी चाहिए ताकि लोग आसानी से समझ सकें.

दिल्ली के हालात खराब हुए तो कई शायरों ने लखनऊ का रुख किया. जिनमे मीर और सौदा भी शामिल थे. वहाँ के नवाब ने लखनऊ सकूल की स्थापना की. फिर लखनऊ और दिल्ली दो केन्द्र रहे शायरी के. फिर नाम आता है इमामबख्श नासिख का (1787-1838) लखनऊ से थे और आतिश (1778-1846-लखनऊ) का. इन दोनो शायरों ने खूब नाम कमाया. लखनऊ स्कूल का नाम इन दोनो ने खूब रौशन किया.

नासिख: 
साथ अपने जो मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर मुझको दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया

आतिश
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते

अमीर मिनाई: (1826-1900 )
सरक़ती जाये है रुख से नक़ाब, आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब, आहिस्ता-आहिस्ता

और बहुत से शायर आगे जुड़े जैसे:हातिम अली,खालिक, ज़मीर, आगा हसन, हुसैन मिर्ज़ा इश्क इत्यादि. उधर दिल्ली मे गा़लिब, ज़ौक़, मिर्ज़ा दाग ने दिल्ली सकूल को संभाला. यहाँ पर अगर हम दाग़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो सब अधूरा रह जएगा.

मिर्ज़ा दाग (1831-1905) ; मै तो ये मानता हूँ कि दाग़ सबसे अच्छे शायर हुए. उन्होंने ग़ज़ल को फ़ारसी ने निजात दिलाई. इकबाल के उस्ताद थे दाग़. ग़ज़ल को अलग मुहावरा दिया इन्होंने और कई लोगों ने आगे चलकर दाग़ के स्टाइल मे शायरी की. दाग देहलवी एक परंपरा बन गई. 1865 मे बहादुर शाह जफ़र की मौत के बाद ये राम पुर चले गए. दिल्ली स्कूल को दाग से एक पहचान मिली ..

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी

नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़ुबां आते आते

दाग़ इसीलिए सराहे गए कि वो ग़ज़ल की भाषा को जान गए थे और आम भाषा और सादी उर्दू मे उन्होंनें ग़ज़लें कही, यही एक मूल मंत्र है कि ग़ज़ल की भाषा साफ और सादी होनी चाहिए.

ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई

इस शे'र को पढ़के कोई क्या कहेगा कि उर्दू का है या हिंदी का. बस हिंदोस्तानी भाषा मे लिखा एक सादा शे'र है. हिंदी और उर्दू कि बहस यही खत्म होती है कि एक बोली की दो लिपियाँ है देवनागरी और उर्दू.
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ग़ज़ल का इतिहास और ग़ज़ल की भाषा- भाग एक

 तकरीबन 1000 साल से भी पहले ग़ज़ल का जन्म ईरान मे हुआ और वहाँ की फ़ारसी भाषा मे ही इसे लिखा या कहा गया. माना जाता है कि ये "कसीदे" से ही निकली. कसीदे राजाओं की तारीफ मे कहे जाते थे और शायर अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए शासकों की झूठी तारीफ़ करता था और विलासी राजाओं को वही सुनाता था जिससे वो खुश होते थे.शराब , कबाब और शबाब के साथ राजा कसीदे सुनते थे और विलासी राजा औरतों के ज़िक्र से खुश होते थे तो शायर औरतॊं और शराब का ज़िक्र ही ग़ज़लों मे करने लगे वो चाहकर भी जनता का दुख-दर्द बयान नही कर सकते थे.तो ग़ज़ल का मतलब ही औरतों के बारे मे ज़िक्र हो गया.यही पर इसका बहर शास्त्र बना जो फारसी में था.


मुग़ल शासक जब हिंदोस्तान आए तो अपने साथ फ़ारसी संस्कर्ति भी लाए और जहाँ,-जहाँ उन्होने राज किया वहाँ की अदालती और राजकीय भाषा बदल कर फारसी कर दी इस से पहले यहाँ पर शौरसेनी अपभ्रंश भाशा का इस्तेमाल होता था जो आम बोलचाल की भाषा न होकर किताबी भाषा थी जो संस्कृत से होकर निकली थी.जब अदालती भाषा और सरकारी काम काज की भाषा फ़ारसी बनी तो लोगों को मज़बूरन फ़ारसी सीखनी पड़ी.यहाँ के कवियों ने भी मज़बूरन इसे सीखा और ग़ज़ल से हाथ मिलाया और इसका बहर शास्त्र सीखा जिसे अरूज कहा जाता था. इसका वही रूप जो इरान मॆ था यहाँ भी वैसा ही रहा.यहाँ एक बात का ज़िक्र और करना चाहता हूँ ये सब शासक मुस्लिम थे सो इन्होनें मुस्लिम धर्म और फ़ारसी का खूब प्रचार किया् ये सिलसिला सदियों चलता रहा.

अब बात करते हैं12वीं शताब्दी की, दिल्ली मे अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) ने लीक से हटकर साहित्य को खड़ी बोली (या आम बोली जो उस वक्त दिल्ली के आस-पास बोली जाती थी) मे लिखा और वे फ़ारसी के विद्वान भी थे इन्होंने फ़ारसी और हिंदी मे अनूठे प्रयोग किए उस वक्त बोली जाने वाली भाषा को खुसरो ने हिंदवी कहा.

ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ

चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ

यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

यहीं से आधुनिक साहित्य का जन्म हुआ और आम भाषा का इस्तेमाल शुरू हुआ . खुसरो ने पूरे हिंदोस्तान मे फ़ारसी का प्रचार किया और फ़ारसी धीरे-धीरे फ़ैलती गई . जब ये अदालतों की भाषा बनी तो लोगों को इसे सीखना पड़ा.हम खुसरो को पहला गज़लगो भी कह सकते हैं.