Monday, October 18, 2021

काफिये पर विमर्श -भाग दो : सतपाल ख़याल

 न रवा कहिये न सज़ा कहिये

कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये

ये स्वर साम्य है यहाँ "आ" की एकता है व्यंजन "ज" और " र" अलग हैं.
जैसे "आ" का ये उदाहरण:

आरजू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई

"ई" साम्य काफ़िये देखिए द्विज जी की ग़ज़ल से

मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या

कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या

यहाँ भी स्वर की साम्यता है व्यंजन कि नही.

स्वर और व्यंजन की साम्यता 
आब बात आगे बढ़ाते हैं, हम काफ़िया शब्दों मे जो व्यंजन रिपीट होता है मसलन:चाल-ढाल-खाल-दाल-डाल इनमे "ल" हर्फ़े-रवि कहलायेगा। जो हर काफ़िये के अंत मे आयेगा.और आना, जाना, पाना, खाना,गाना आदि.

जैसे द्विज जी के अशआर देखें:

जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
ज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग

सत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग

उस आदमी का ग़ज़लें कहना क़ुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिसका शऊर होगा

यहाँ "र" हर्फ़े-रवी है.

वास्तव मे काफ़िया या तुक स्वर और व्यंजन की आंशिक एकता से बनते हैं.

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इसके बाद बात करते हैं कि -- ग़ज़ल मे मतले मे जो पाबंदी लगा दी जाती है उसे पूरी ग़ज़ल मे निभाना पड़ता है सो जो पाबंदी आप काफ़िये मे लगा लेते हो वो पूरी ग़ज़ल मे निभानी पड़ती है.

अब आर.पी शर्मा जी के हवाले से बात आगे बढ़ाते है..

काफ़िये दो तरह के होते हैं या आप यूँ भी कह सकते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं एक विशुद्द और दूसरे योजित. योजित माअने जिनमे कोई अंश जुड़ा हो मसलन:

शुद्द शब्द से योजित शब्द या काफ़िये के उदाहरण:

सरदार से सरदारी (ई) का अंश बढ़ा दिया यहाँ शुद्द शब्द है सरदार और योजित है सरदारी .ऐसे ही:दुश्मन से दुशमनी, यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ.

सर्दी से सर्दियाँ...यहाँ याँ का
गर्मी से गर्मियाँ...यहाँ याँ का
किलकारी से किलकारियाँ....यहाँ याँ का
होशियार से होशियारी....यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
दोस्त से दोस्ती...........यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
वफ़ा से वफ़ादार... यहाँ दार का
सितम से सितमगर.....यहाँ गर का.

ऐसे सारे काफ़िये योजित काफ़िये कहलाते हैं जिनमे कुछ अंश जोड़ा गया हो.
शुद्द शब्द तो शुद्द है ही जैसे ज़िंदगी, दोस्त, खुश,खेल आदि.

श्री आर.पी शर्मा जी ने जैसा कहा है कि:

1.पहली शर्त ये है कि मतले मे अगर दोनो काफ़िये योजित हैं तो वो सही काफ़िये इस सूरत मे होंगे कि अगर हम उनके बढ़े हुए अंश निकाल दें तो भी वो आपस मे हम-काफ़िया हों, जैसे:

यँ बरस पड़ते हैम क्या ऐसे वफ़ादारों पर
रख लिया तूने जो अश्शाक को तलवारों पर

नुमाइश के लिए गुलकारियां दोनो तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियां दोनो तरफ़ से हैं.

अब अगर खिड़कियों से तलवारों का कफ़िया बांधेगे तो गल्त हो जाएगा, क्योंकि खिड़की और तलवार से अगर "यों " निकाल दें तो खिड़की और तलवार आपस मे हम काफ़िया नहीं हैं.ऐसे काफ़ियों को मतले मे बांधने से मतला इता दोश युक्त हो जाता है.योजित काफ़िये को मतले मे बांधने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये.अगर मतले मे दोनो काफ़िये योजित रखने हों तो योजित अंश निकालने पर भी शब्द हम-काफ़िया होने चाहिए.जैसे वफ़ादारों और तलवारों मे "ओं" निकाल देने पर भी तलवार और वफ़ादार हम-काफ़िया हैं.

वैसे तो गुलाब और शराब का काफ़िया बांधने पर भी मनाही है लेकिन अहमद-फ़राज़ साहेब कि ग़ज़ल का मतला देखें:

बदन मे आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हरे-ग़म का नशा भी शराब जैसा है.

जब मैने इस बात का ज़िक्र आर.पी शर्मा जी से किया तो उन्होने कहा कि इसके भी आगे भी कई और नियम हैं और बाल की खाल निकालने से कोई फ़ायदा नहीं.सो शायरी मे भी कई घराने हैं जो इता को दोश मानते हैं और कई नही मानते अब मै इस दुविधा मे हूँ कि मै किस घराने से जुड़ूँ.

द्विज जी की ग़ज़ल का मतला देखें:

हज़ूर आप तो पहुँचे हैं आसमानो पर
सिसक रही है अभी ज़िम्दगी ढलानो पर.

यहाँ अगर बढ़े हुए अंश "ओं" को निकाल दें तो आसमान और ढलान हम-काफ़िया हैं.

या फिर एक विशुद्द एक योजित काफ़िया ले लें:जैसे:

है जुस्तज़ू कि खूब से है खूबतर कहाँ
अब ठैरती है देखिए जाकर नज़र कहाँ.

खूबतर योजित है और जाकर शुद्द तो बात बन गई.नही तो इसमे एक और कानून है कि अगर बढ़ा हुआ अंश निकाल देने पर शब्द आपस मे हम-काफ़िया नही है लेकिन उनमे व्याकरण भेद है तो वो दोषमुक्त हो जाएंगे, जैसे : 

देख मुझको न यूँ दुशमनी से
इतनी नफरत न कर आदमी से

यहाँ पर "ई" दोनो काफ़ियों मे बढ़ा हुआ अंश है और इसे निकाल देने से दुशमन और आदम हम-आवाज़ या हम-काफ़िया नही है लेकिन दोनो मे व्याकरण भेद है दुशमन भाववाचक है और आदमी जाति वाचक है तो ये सही मतला है.लेकिन अगर ऐसे हो:


आपसे दोस्ती,
आपसे दुशमनी

तो क्योंकि दोनो भाववाचक हैं और बढ़ा हुआ अंश ई’ निकाल देने से हम-काफ़िया नही है सो ये गल्त हो जायेगा.

अब अगर दोनो शुद्द हों तो झगड़ा ही खत्म.

देख ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों क ख्याल रहने दे (द्विज)

कुछ और उसूल:

1.एक ही शब्द बतौर काफ़िया मतले मे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बशर्ते कि उनके अर्थ जुदा-जुदा हों. ऐसा करने से काफ़िया रदीफ़ सा बन जाता है.एक शब्द बस इस सूरत मे इस्तेमाल कर सकते हैं जो
उनके अर्थ अलग हों जैसे:

हुई है शाम तो आँखों मे बस गया फिर तू
कहां गया मेरे शहर के मुसाफिर तू.

यहाँ फिर के माने 'बाद' और दूसरे मिसरे मे मुसाफिर का अंश है फिर.जैसे सोना और सोना एक मेट्ल है दूसरा सोना. या फिर जैसे कनक का एक अर्थ धतूरा एक कनक सोना.

अगर आपने काफ़िया "हम" बांधा है और रदीफ़ ’न होंगे" और आपने हम मतले के दोनो मिसरों मे ले लिया तो ये उस ग़्ज़ल का काफ़िया न होकर रदीफ़ बन जायेगा.

हम न होंगे.

लेकिन एक बात बड़ी दिलचस्प है :

अब दिल है मुकाम बेकसी का
यूँ घर न तबाह हो किसी का.

यहाँ ई का काफ़िया है लेकिन व्यंजन "स’ रिपीट हो गया लेकिन क्योंकि काफ़िया स्वर का है इसलिए ये छूट है या फिर शायद कोई और नियम हो.

एक और देखे:

बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
याद आता है चौंका -बासन चिमटा फुकनी जैसी मां.

यहाँ भी ’नी’ रिपीट हुआ है लेकिन काफ़िया "ई’ का है.

2.कुछ शब्द उच्चारण मे हम आवाज़ लगते हैं लेकिन लिखने मे नही जैसे - पड़ और पढ़, खास और यास, आग और दाग़ इन्हें मलफ़ूज़ी काफ़िये कहते हैं और इस दोष को इक्फ़ा कहते हैं. और उर्दू भाषा मे कुछ शब्द ऐसे है जो लिखे तो एक से जाते हैं लेकिन उच्चारण अलग होता है मसलन - 

सह’र और स’हर एक का मतलब सुबह अए जादू, सक़फ़ और सक्फ़( सीन, काफ़,फ़े) इनके अर्थ अलग हैं इन्हे मक़तूबी काफ़िये कहते हैं. लेकिन हिंदी मे ये भेद नही है.

3.अगर काफ़िये मे आप खफ़ा, वफ़ा लेते हैं तो ज़रूरी नहीं कि आप अशआर मे नफ़ा आदि लें आप नशा, देखा, सोचा.. ले सकते हैं.

जैसा आर. पी शर्मा जी ने ये उदाहरण दिया है
डा॰ इकबाल अपनी एक ग़ज़ल में लाये हैं,

फिर चिराग़े-लाल से रौशन हुए कोहो-दमन
मुझको फिर नग्मों पे उकसाने लगा मुर्गे-चमन।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है, आता है धन जाता है धन।

यहाँ इकबाल जी ने च+मन और द+मन मतले मे बांधे लेकिन आगे जाके ये बंधिश तोड़ दी .इसे" धन" कर दिया तो ये छूट है:

4. एक और कमाल देखें

पुरखों की तहज़ीब से महका बस्ता पीछे छूट गया
जाने किस वहशत मे घर का रस्ता पीछे छूट गया.

यहाँ पर रस्ता , बस्ता काफ़िये मतले मे बांधे और इसके हिसाब से आगे.. सस्ता, या खस्ता आदि आने चाहिए लेकिन..

अहदे-ज़वानी रो-रो काटा मीर मीयां सा हाल हुआ
लेकिन उनके आगे अपना किस्सा पीछे छूट गया.

ये सब चलता है.शायर को इन पेचीदा दलीलों मे न फ़ंस कर उतने से काम रखना चाहिए जिससे वो ग़ज़ल दोषमुक्त लिख सके.ये काम ज़ियादा अरूज़िओं का है लेकिन इन सब का इल्म लाज़िम है कई सरफ़िरों से बहस करने के काम आता है..हा.हा.हा.

5. अगर आप मतले मे कामिल और शामिल का काफ़िया बांधा है तो आगे आपको शामिल, आमिल आदि बांधने पड़ेंगे कातिल गल्त हो जायेगा. सो ये सब है ...लेकिन द्विज जी की एक बात से इस बहस को यहीं विराम देता हूँ कि शायरी मे कुछ भी हर्फ़े-आखिर नही होता. लकीर के फ़कीर होना भी सही नही लेकिन इल्म भी लाज़िम है.

दर्द को दिल में जगह दो "अकबर"
इल्म से शायरी नहीं आती

लेकिन इल्म एक समझ पैदा ज़रूर करता है और दर्द, इल्म की रौशनी मे नगी़ने सा चमकता है.

काफ़िया पर एक विमर्श - सतपाल 'ख्याल'-भाग एक

 विमर्श से पूर्व मेरी बात: 


मैं कोई बहुत बड़ा विशेषज्ञ नही हूँ लेकिन जो भी बज़ुर्गों , किताबों और अनुभव से सीखा वही कह रहा हूँ . कहीं कुछ ग़ल्त हो तो ज़रूर बताएँ.बाकी हमारे आर.पी शर्मा जी जैसे पिंगलाचार्य हैं और द्विज जी जो मेरे आदरणीय गुरु हैं जब भी दुविधा होती है तो ये मेरी शंका का समाधान कर देते हैं.अपनी ग़ज़ल के मतले से शुरू करता हूँ : 

तालिबे-इल्म हूँ हर्फ़े-आखिर नही
फ़न से वाकिफ़ तो हूँ फ़न मे माहिर नहीं 
आज हम काफ़िये पर चर्चा करेंगे :
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काफ़िया क्या है 

काफ़िया या तुक वो शब्द है जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे’र के दूसरे मिसरे के अंत मे रदीफ़ से पहले आता है। अब ये काफ़िया या तुकबंदी भी आसान काम नही है इसके लिए भी कायदे कानून हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है। अब दो शब्द आपस मे तभी हम-काफ़िया होंगे अगर उनमे कोई साम्यता होगी और इसी साम्यता की वज़ह से वो काफ़िया बनेंगे। इसी साम्यता के आधार पर काफ़िये दो तरह के हो सकते हैं :

स्वर साम्य काफ़िये
वो शब्द जिनमे स्वर की साम्यता हो। ऐसे काफ़िये अमूमन उर्दू मे इस्तेमाल किये जाते हैं लेकिन अब देवनागरी मे भी ये चलन हो गया है। मसलन: देखा, सोचा, पाया, आता, पीना,पाला,नाना आदि.

इनमे स्वर :" आ " की एकता है बस, व्यंजन की नहीं, व्यंजन अलग है सबके जैसे: देखा-सोचा मे ’ख" "च" अलग है इनमे कोई एकता नही। तो ये स्वर साम्य काफ़िये हैं और इनका इस्तेमाल खूब होता है।

Saturday, October 16, 2021

ग़ज़ल लेखन और बहरें -भाग 2

 ग़ज़ले के पहले शे'र को मतला , अंतिम को मकता जिसमें शायर अपना उपनाम लिखता है. एक ग़ज़ल मे कई मतले हो सकते हैं और ग़ज़ल बिना मतले के भी हो सकती है. ग़ज़ल में कम से कम तीन शे'र तो होने ही चाहिए. ग़ज़ल का हर शे'र अलग विषय पर होता है एक विषय पर लिखी ग़ज़ल को ग़ज़ले-मुसल्सल कहते हैं. वह शब्द जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे'र के दूसरे मिसरे मे रदीफ़ से पहले आता है उसे क़ाफ़िया कहते हैं. ये अपने हमआवाज शब्द से बदलता रहता है.क़ाफ़िया ग़ज़ल की जान(रीढ़)होता है. एक या एकाधिक शब्द जो हर शे'र के दूसरे मिसरे मे अंत मे आते हैं, रदीफ़ कहलाते हैं. ये मतले में क़ाफ़िए के बाद दो बार आती है. बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है जिसे ग़ैर मरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं.पुरी ग़ज़ल एक ही बहर में होती है. बहर को जानने के लिए हम उसके साकिन और मुतहरिर्क को अलग -अलग करते हैं और इसे तकतीअ करना कहते हैं.बहर के इल्म को अरुज़(छ्न्द शास्त्र) कहते हैं और इसका इल्म रखने वाले को अरुज़ी(छन्द शास्त्री).यहाँ पर एक बात याद आ गई द्विज जी अक्सर कहते हैं कि ज़्यादा अरूज़ी होने शायर शायर कम आलोचक ज़्यादा हो जाता है. बात भी सही है शायर को ज़्यादा अरुज़ी होने की ज़रुरत नहीं है उतना काफ़ी है जिससे ग़ज़ल बिना दोष के लिखी जा सके. बाकी ये काम तो आलोचकों का ज्यादा है. यह तो एक महासागर है अगर शायर इसमें डूब गया तो काम गड़बड़ हो जाएगा.

अब एक ग़ज़ल को उदाहरण के तौर पर लेते हैं और तमाम बातों को फ़िर से समझने की कोशिश करते हैं.द्विज जी
की एक ग़ज़ल है :

अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते.
अब इस ग़ज़ल में पाँच अशआर हैं.
यह शे'र मतला (पहला शे'र) है:
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

मक़सद, सरहद, बरगद इत्यादि ग़ज़ल के क़ाफ़िए हैं.
"नहीं होते" ग़ज़ल की रदीफ़ है

"मक़सद नहीं होते" "सरहद नहीं होते" ये ग़ज़ल की ज़मीन है.
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नही होते

ये ग़ज़ल का मक़ता (आख़िरी शे'र) है.

और बहर का नाम है "हजज़"

वज़्न है: 1222x4

अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते

यहाँ पर अ के उपर चंद्र बिंदू है सो उसे लघु के वज़न में लिया है, जैसा हमने उपर पढ़ा.

"न" हमेशा लघु के वज्न में लिया जाता है.
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
1222 1222 1222 1222
यहाँ पर ने" को लघु के वज्न में लिया है.और हमसे को हमस के वज्न में लिया है.
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
इस मिसरे में "तो" को लघु के वज्न में लिया है.

बहुत कुछ सीखने को है , ये इल्म तो एक साग़र है . आप उम्र भर सीखते हैं और शुरु में हमने चर्चा की थी कि शब्द परमात्मा है तो परमात्मा को पाने के लिए हम सब जानते हैं कि गुरु का क्या महत्व है. गुरु के बिना ये विधा सीखना मु्श्किल है लेकिन असंभव नहीं. मैं ये इसलिए कह रहा हूँ कि गुरु मिलना भी सबके नसीब मे नहीं होता लेकिन गुरु नहीं है तो हताश होकर लिखना छोड़ देना भी ग़लत है.ये शायरी कोई गणित नहीं है जो किसी को सिखाई जाए कोई भी इसे सीखकर अगर कहे मैं शायर बन जाऊँगा तो वो धोखे में है, ये तो एक तड़प है जो हर सीने मे नहीं होती. बहरें अपने आप आ जाती हैं जब ख़्याल बेचैन होता है.निरंतर अभ्यास लाज़िम है ,यह नहीं कि आज ग़ज़ल लिखो और सोचो कि कल हम शायर बन जाएंगे तो ग़लत होगा. कितने कच्चे चिट्ठे लिखे जाते हैं फाड़े जाते हैं फिर जाकर कहीं माँ सरस्वती मेहरबान होती हैं. आप इस फ़ाइलातुन से घबराए नहीं. बहरें बनने से पहले भी बहरें थीं वो तो एक ताल है जो शायर के अचेतन मे सोई होती है. जब बहर का पता नहीं था उस वक्त की ग़ज़लें निकाल कर देखता हूँ तो कई ग़ज़लें ऐसी हैं जो बहर मे लिखी गईं थी . आज जब बह्र का पता है तो अब पता चल गया यार ये तो इस बहर मे है. कई शायर ऐसे भी हुए हैं जिन्हें इस का इल्म कम था लेकिन उनकी सारी शायरी वज्न मे है. जब ये बहरें सध जाती है तो सब आसान हो जाता है. बस दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं मश्क(अभ्यास) और सब्र (धैर्य)|


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ग़ज़ल लेखन और ग़ज़ल की बहरें -सतपाल ख़याल

 ग़ज़ल


ग़ज़ल क्या है, अरूज क्या है ये सब बाद में पहले हम "शब्द" पर चर्चा करेंगे कि शब्द क्या है? शब्द एक ध्वनि है, एक आवाज़ है, शब्द का अपना एक आकार होता है, जब हम उसे लिखते हैं , लेकिन जब हम बोलते हैं वो एक ध्वनि मे बदल जाता है, तो शब्द का आकार भी है और शब्द निरकार भी है और इसी लिए शब्द को परमात्मा भी कहा गया जो निराकार भी है और हर आकार भी उसका है. तो शब्द साकार भी है और निराकार भी. हमारा सारा काव्य शब्द से बना है और शब्द से जो ध्वनि पैदा होती है उस से बना है संगीत अत: हम यह कह सकते हैं कि काव्य से संगीत और संगीत से काव्य पैदा हुआ, दोनों एक दुसरे के पूरक हैं. काव्य के बिना संगीत और संगीत के बिना काव्य के कल्पना नही कर सकते. और हम काव्य को ऐसे भी परिभाषित कर सकते हैं कि वो शब्द जिन्हें हम संगीत मे ढाल सकें वो काव्य है तो ग़ज़ल को भी हम ऐसे ही परिभाषित कर सकते हैं कि काव्य की वो विधा जिसे हम संगीत मे ढाल सकते हैं वो गजल है. ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ चाहे कुछ भी हो अन्य विधाओं कि तरह ये भी काव्य की एक विधा है .हमारा सारा काव्य, हमारे मंत्र, हमारे वेद सब लयबद्ध हैं सबका आधार छंद है.

अब संगीत तो सात सुरों पर टिका है लेकिन शब्द या काव्य का क्या आधार है ? इसी प्रश्न का उत्तर हम खोजेंगे.

हिंदी काव्य शास्त्र का आधार तो पिंगल या छंद शास्त्र है लेकिन ग़ज़ल क्योंकि सबसे पहले फ़ारसी में कही गई इसलिए इसका छंद शास्त्र को इल्मे-अरुज कहते हैं. एक बात आप पल्ले बाँध लें कि बिना बहर के ग़ज़ल आज़ाद नज़्म होती है ग़ज़ल कतई नहीं और आज़ाद नज़्म का काव्य में कोई वजूद नहीं है. हम शुरु करते हैं वज़्न से. सबसे पहले हमें शब्द का वज़्न करना आना चहिए. उसके लिए हम पहले शब्द को तोड़ेंगे, हम शब्द को उस अधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं. शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण. तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे. वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय मे हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी). अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते है और समझते हैं, जैसे:


"आकाश"
ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.
आ+ का+श.

आ: ये एक बड़ी आवाज़ है.
का: ये एक बड़ी आवाज़ है

श: ये एक छोटी आवाज़ है.

और नज़र( न+ज़र)
न: ये एक छोटी आवाज़ है

ज़र: ये एक बड़ी आवाज़ है.

छंद शास्त्र मे इन लंबी आवाज़ों को गुरु और छोटी आवाजों को लघु कहते है और लंबी आवाज के लिए "s" और छोटी आवाज़ के लिए "I" का इस्तेमाल करते हैं. इन्हीं आवाजों के समूह से हिंदी में गण बने. फ़ारसी में लंबी आवाज़ या गुरु को मुतहर्रिक और छोटी या लघु को साकिन कहते हैं .इसी आधार पर हिंदी में गण बने और इसी आधार पर फ़ारसी मे अरकान बने.यहाँ हम लघु और गुरु को दर्शने के लिए 1 और 2 का इस्तेमाल करेंगे.जैसे:


सितारों के आगे जहाँ और भी हैं.
पहले इसे वर्णों मे तोड़ेंगे. यहाँ उसी अधार पर इन्हें तोड़ा गया जैसे उच्चारण किया जाता है.
सि+ता+रों के आ+गे ज+हाँ औ+र भी हैं.

अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.

जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे य+हाँ औ+र भी हैं.

(1+2+2 1 + 2+2 1+2+2 +1 2 + 2)
अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.

122 122 122 122

तो ये 122 क समूह एक रुक्न बन गया और रुक्न क बहुवचन अरकान होता है. इन्ही अरकनों के आधार पर फ़ारसी मे बहरें बनीं.और भाषाविदों ने सभी सम्भव नमूनों को लिखने के लिए अलग-अलग बहरों का इस्तेमाल किया और हर रुक्न का एक नाम रख दिया जैसे फ़ाइलातुन अब इस फ़ाइलातुन का कोई मतलब नही है यह एक निरर्थक शब्द है. सिर्फ़ वज़्न को याद रखने के लिए इनके नाम रखे गए.आप इस की जगह अपने शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे फ़ाइलातुन की जगह "छमछमाछम" भी हो सकता है, इसका वज़्न (भार) इसका गुरु लघु की तरतीब.

ये आठ मूल अरकान हैं , जिनसे आगे चलकर बहरें बनीं.

फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2)
मु-त-फ़ा-इ-लुन(1-1-2-1-2)
मस-तफ़-इ-लुन(2-2-1-2)
मु-फ़ा-ई-लुन(1-2-2-2)
मु-फ़ा-इ-ल-तुन (1-2-1-1-2)
मफ़-ऊ-ला-त(2-2-2-1)
फ़ा-इ-लुन(2-1-2)
फ़-ऊ-लुन(1-2-2)

अब भाषाविदों ने यहाँ कुछ छूट भी दी है आप गुरु वर्णों को लघु में ले सकते हैं जैसे मेरा (22) को मिरा(12) के वज्न में, तेरा(22) को तिरा(12)भी को भ, से को स इत्यादि. और आप बहर के लिहाज से कुछ शब्दों की मात्राएँ गिरा भी सकते हैं और हर मिसरे के अंत मे एक लघु वज़्न में ज्यादा हो सकता है. अनुस्वर वर्णों को गुरु में गिना जाता है जैसे:बंद(21) छंद(21) और चंद्र बिंदु को तकतीअ में नहीं गिनते जैसे: चाँद (21)संयुक्त वर्ण से पहले लघु को गुरु मे गिना जाता है जैसे:
सच्चाई (222)
अब फ़ारसी मे 18 बहरों बनाई गईं जो इस प्रकार है:

1.मुत़कारिब(122x4) चार फ़ऊलुन
2.हज़ज(1222x4) चार मुफ़ाईलुन
3.रमल(2122x4) चार फ़ाइलातुन
4.रजज़:(2212) चार मसतफ़इलुन
5.कामिल:(11212x4) चार मुतफ़ाइलुन
6 बसीत:(2212, 212, 2212, 212 )मसतलुन फ़ाइलुऩx2
7तवील:(122, 1222, 122, 1222) फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन x2
8.मुशाकिल:(2122, 1222, 1222) फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
9. मदीद : (2122, 212, 2122, 212) फ़ाइलातुन फ़ाइलुनx2
10. मजतस:(2212, 2122, 2212, 2122) मसतफ़इलुन फ़ाइलातुनx2
11.मजारे:(1222, 2122, 1222, 2122) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
12 मुंसरेह :(2212, 2221, 2212, 2221) मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
13 वाफ़िर : (12112 x4) मुफ़ाइलतुन x4 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
14 क़रीब ( 1222 1222 2122 ) मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
15 सरीअ (2212 2212 2221) मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मफ़ऊलात सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
16 ख़फ़ीफ़:(2122 2212 2122) फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में .
17 जदीद: (2122 2122 2212) फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
18 मुक़ातज़ेब (2221 2212 2221 2212) मफ़ऊलात मसतफ़इलुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
19. रुबाई
यहाँ पर रुककर थोड़ा ग़ज़ल की बनावट के बारे में भी समझ लेते हैं.