आरज़ू
लखनवी - १८७३-१९५१
ग़ज़ल
झूम के आई घटा, टूट के बरसा पानी
कोई मतवाली घटा थी कि जवानी की उमंग
जी
बहा ले गया बरसात का पहला पानी
टिकटिकी बांधे वो फिरते है ,में इस फ़िक्र में हूँ
कही
खाने लगे चक्कर न ये गहरा पानी
बात करने में वो उन आँखों से अमृत टपका
आरजू
देखते ही मुँह में भर आया पानी
ये पसीना वही आंसूं हैं, जो पी जाते थे तुम
"आरजू "लो वो खुला भेद , वो फूटा पानी
1 comment:
शुभकामनाएं हिंदी दिवस की|
Post a Comment