जैसे रेल की हर खिड़की की अपनी अपनी दुनिया है
कुछ मंज़र तो बन नहीं पाते कुछ पीछे रह जाते हैं
अमजद इस्लाम अमजद
सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
नासिर काज़मी
रात थी जब तुम्हारा शहर आया
फिर भी खिड़की तो मैं ने खोल ही ली
शारिक़ कैफ़ी
दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
झोंका हवा का खिड़की के पर्दे हिला गया
आदिल मंसूरी
खिड़की के रस्ते से लाया करता हूँ
मैं बाहर की दुनिया ख़ाली कमरे में
ज़ीशान साहिल
खिड़की में कटी हैं सब रातें
कुछ चौरस थीं कुछ गोल कभी
गुलज़ार
हैं अँधेरी कोठरी में नूर की खिड़की "ख़याल"
आँख अपनी बंद करके देख तो दिल की तरफ़
सतपाल ख़याल
3 comments:
वाह !! खिड़की पर कुछ बेहतरीन अश्यार पढ़वाने के लिए शुक्रिया
खूबसूरत अश्यार !
वाह! खिड़की एक पहलू अनेक।
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