Monday, March 29, 2010

सुरेन्द्र चतुर्वेदी-ग़ज़लें और परिचय















1955 मे अजमेर(राजस्थान) में जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी के अब तक सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वो आजकल मुंबई फिल्मों मे पटकथा लेखन से जुड़े हैं.इसके अलावा भी इनकी छ: और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

किसी शायर की तबीयत जब फ़क़ीरों जैसी हो जाती है तो वो किसी दैवी शक्ति के प्रभाव में ऐसे अशआर कह जाता है जिस पर ख़ुद शायर को भी ताज्ज़ुब होता है कि ये उसने कहे हैं। फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शे’र भी ऐसे ही हैं-

रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं
....सुरेन्द्र चतुर्वेदी

एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शे’र हूँ मैं दोस्तो
बेखुदी के रास्ते दिल मे उतर जाता हूँ मैं
....सुरेन्द्र चतुर्वेदी

इनकी ग़ज़लें पहले भी शाया की थीं जिन्हें आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं-

http://aajkeeghazal.blogspot.com/2009/06/blog-post_26.html

जब बात सूफ़ियों की चली तो कुछ अशआर ज़हन में आ रहे हैं-

ये मसाइले-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता

फ़स्ले बहार आई पियो सूफ़ियों शराब
बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइए
....आतिश

आज एक और शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा जनाब मुज़फ़्फ़र रिज़मी। इनका एक शे’र जो बेमिसाल है और ऐसी ही किसी फ़कीराना तबीयत में कहा गया होगा-

मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ दे के चला जाऊंगा
....मुज़फ़्फ़र रिज़मी

और जनाब दिलावर फ़िगार ने शायर की मुशकिल को कुछ इस तरह बयान किया है -

दिले-शायर पे कुछ ऐसी ही गुज़रती है 'फ़िगार'
जो किसी क़तरे पे गुज़रे है गुहर होने तक

और अब ऐसे ही गुहर जनाब सुरेन्द्र चतुर्वेदी जिनके बारे में गुलज़ार साहब ने कहा -

मुझे हमेशा यही लगा कि मेरी शक़्ल का कोई शख़्स सुरेन्द्र में भी रहता है जो हर लम्हा उसे उंगली पकड़कर लिखने पे मज़बूर करता है...गुलज़ार

मुलाहिज़ा कीजिए इनकी तीन ग़ज़लें-

ग़ज़ल

कड़ी इस धूप में मुझको कोई पीपल बना दे
मुझे इक बार पुरखों की दुआ का फल बना दे

नहीं बरसा है मेरे गाँव में बरसों से पानी
मेरे मौला मुझे इस बार तू बादल बना दे

किसी दरगाह की आने लगी खुशबू बदन में
कहीं ऐसा न हो मुझको वफ़ा संदल बना दे

अदब , तहज़ीब अपनी ये शहर तो खो चुका है
तू ऐसा कर कि जादू से इसे जंगल बना दे

जतन से बुन रहा हूँ आज मैं बीते दिनों को
न जाने कौन सा पल याद को मखमल बना दे

बग़ाबत पर उतर आए हैं अब हालात मेरे
कोई आकर मेरे हालात को चंबल बना दे

बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 1222 122


ग़ज़ल

ग़र मैं बाज़ार तक पहुँच जाता
अपने हक़दार तक पहुँच जाता

दिन फ़क़ीरी के जो बिता लेता
उसके दरबार तक पहुँच जाता

झांक लेता जो खु़द में इक लम्हा
वो गुनहगार तक पहुँच जाता

रूह में फ़ासला रखा वर्ना
जिस्म दीवार तक पहुँच जाता

मुझमें कुछ दिन अगर वो रह लेता
मेरे क़िरदार तक पहुँच जाता

आयतें उसने ग़र पढ़ी होतीं
वो मेरे प्यार तक पहुँच जाता

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

ग़ज़ल

एक लंबी उड़ान हूँ जैसे
या कोई आसमान हूँ जैसे

हर कोई कब मुझे समझता है
सूफ़ियों की ज़बान हूँ जैसे

मैं अमीरों के इक मोहल्ले में
कोई कच्चा मकान हूँ जैसे

मुझसे रहते हैं दूर-दूर सभी
उम्र भर की थकान हूँ जैसे

बारिशें तेज़ हों तो लगता है
आग के दरमियान हूँ जैसे

लोग हँस-हँस के मुझको पढ़ते हैं
दर्द की दास्तान हूँ जैसे

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22

बात सूफ़ियों की हो और बाबा बुल्ले शाह का नाम न आए। सुनिए अबीदा परवीन की सूफ़ी आवाज़ में साईं बुल्ले शाह का क़लाम




धन्यवाद

Monday, March 22, 2010

शाहिद कबीर

जन्म: मई 1932
निधन: मई 2001

किसी अमीर को कोई फ़क़ीर क्या देगा
ग़ज़ल की सिन्फ़ को शाहिद कबीर क्या देगा


लेकिन शाहिद कबीर ने ग़ज़ल को जो दिया है उससे यक़ीनन ग़ज़ल और अमीर हुई है। फ़क़ीर इस दुनिया को वो दे जाते हैं, जो कोई अमीर नहीं दे सकता। फलों से लदी टहनियां हमेशा झुकी हुई मिलती हैं। भले वो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें, नग़्में आज भी ज़िंदा हैं। इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और" " मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे और ग़ज़लें कहीं हैं.आज ही मैनें ये वीडिओ यू टियूब पे डाला है, आइए शाहिद साहब की आवाज़ में पहले इस रेडियो मुशायरे को सुनते हैं-





इनके ग़ज़ल संग्रह ’पहचान’ से एक कोहेनूर निकाल लाया हूँ। हाज़िर है ये बेमिसाल शे’र-

हर इक हँसी में छुपी खौ़फ़ की उदासी है
समुन्दरों के तले भी ज़मीन प्यासी है

और ये दो ग़ज़लें-

ग़ज़ल

दुआ दो हमें भी ठिकाना मिले
परिंदो ! तुम्हें आशियाना मिले

तबीयत से मुझको मिले मेरे दोस्त
मेरे दोस्तों से ज़माना मिले

समंदर तेरी प्यास बुझती रहे
भटकती नदी को ठिकाना मिले

तरसता हूँ नन्हें से लब की तरह
तबस्सुम का कोई बहाना मिले

फिर इक बार ऐ ! दौरे--फ़ुर्सत मिलें
हमें हो चला इक ज़माना मिले

मिले इस तरह सबसे ’शाहिद कबीर’
कोई दोस्त जैसे पुराना मिले

बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12

ग़ज़ल

अब अपने साथ भी कुछ दूर जाकर देख लेता हूँ
नदी में नाव कागज़ की बहा कर देख लेता हूँ

चलो क़िस्मत नहीं तदबीर ही की होगी कोताही
हवा के रुख़ पे भी कश्ती चलाकर देख लेता हूँ

हवाओं के किले *मिसमार हो जाते हैं, ये सच है
ज़मीं की गोद में भी घर बनाकर देख लेता हूँ

*सुकूते-आब से जब दिल मेरा घबराने लगता है
तो सतहे-आब पर कंकर गिरा कर देख लेता हूँ

कोई ’शाहिद’ जब अपने जुर्म का इक़रार करता है
तो मैं दामन में अपने सर झुका कर देख लेता हूँ

*मिसमार-धवस्त, सुकूते-आब( पानी की खामुशी)

बहरे हज़ज सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
(1222x4)

और अंत में ये ग़ज़ल सुनिए-

पानी का पत्थरों पे असर कुछ नहीं हुआ
रोए तमाम उम्र मगर कुछ नहीं हुआ



एक छोटी सी सूचना- मेरी कुछ ग़ज़लें अनुभूति पर शाया हुईं हैं। समय लगे तो ज़रूर पढ़िएगा।

Tuesday, March 16, 2010

गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज'- ग़जलें और परिचय














1934 में उरई (उ.प्र.) में जन्में गोपाल कृष्ण सक्सेना "पंकज" बहुत अच्छे शायर हैं। आपने अंग्रेजी में एम.ए. किया और सागर विश्वविधालय में अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक रहे हैं। एक ग़ज़ल संग्रह "दीवार में दरार है" प्रकाशित हो चुका है। कल उनसे बात करके ग़ज़लें छापने की अनुमति ली। ग़ज़लें हाज़िर करने से पहले मैं इनके एक शे’र के बारे में बताना चाहता हूँ जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया और ये एक बेमिसाल शे’र है-

फुटपाथों पर पड़ा हिमालय
टीलों के सम्मान हो गए


क्या बात है! फिर हिंदी में कही जाने वाली ग़ज़ल को लेकर इनका नज़रिया क़ाबिले-तारीफ़ है-

उर्दू की नर्म शाख पर रुद्राक्ष का फल है
सुन्दर को शिव बना रही हिंदी की ग़ज़ल है

ऐसा शायर दोनों भाषाओं कि किस तरह जीता है देखिए-

मुद्दतों से मयक़दे में बंद है
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मट्टी लगे

बदलाव की बात भी है। ग़ज़ल को रिवायत से निकालने का हौसला भी है। गंगा-जमुनी तहज़ीब की रहनुमाई भी-

जुल्फ़ के झुरमट में बिंदिया आपकी
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे

आज के दौर की त्रासदी भी-

पड़ोसी, पड़ोसी के घर तक न पहुँचा
सितारों से आगे जहाँ जा रहा है

ये सब बातें एक शायर को महानता की और लेके जाती हैं। लीजिए तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

शिव लगे , सुंदर लगे ,सच्ची लगे
बात कुछ ऐसी कहो अच्छी लगे

मुद्दतों से मयक़दे में बंद है
अब ग़ज़ल के जिस्म पर मट्टी लगे

याद माँ की उँगलियों की हर सुबह
बाल में फिरती हुई कंघी लगे

जुल्फ़ के झुरमट में बिंदिया आपकी
आदिवासी गाँव की बच्ची लगे

रक़्स करती देह उनकी ख़्वाब में
तैरती डल झील में कश्ती लगे

ज़िंदगी अपने समय के कुंभ में
भीड़ में खोई हुई लड़की लगे

जिस्म "पंकज" का हुआ खंडहर मगर
आँख में ब्रज भूमि की मस्ती लगे

रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल

दो

आप जब लाजवाब होते हैं
कितने हाज़िर जवाब होते हैं

जिनके घर रोटियां नहीं होतीं
उनके घर इन्क़लाब होते हैं

कुछ तो काँटे उन्हें चुभेंगे ही
जिनके घर में गुलाब होते हैं

पानी-पानी शराब होती है
आप जिस दिन शराब होते हैं

मौत के वक़्त एक लम्हें में
उम्र भर के हिसाब होते हैं

खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल

तीन

बुझे दीयों के नाम हो गए
उजियाले बदनाम हो गए

चिड़ियों की नन्हीं चोंचों पर
चोरी के इल्ज़ाम हो गए

ढाई आखर पढ़ा न कोई
सौ-सौ पूर्ण विश्राम हो गए

वैसे तो ये ग़ज़ल चार फ़ेलुन की बहर है लेकिन इन बहरों में कई तरह की छूट ली जाती है। मसलन इस ग़ज़ल का मतला लघु से शुरू हो रहा है। जैसे हमने पहले भी मीर के मीटर को लेकर बात की थी (बेशक ये ग़ज़ल मीर के हिंदी मीटर में नहीं है), लेकिन फ़ेलुन की इस तरह की बहरों में, जो बहरे-मुतदारिक से भी मेल खाती हैं , शायर इनमें काफ़ी छूट लेते हैं। ऐसी छूट बड़े-बड़े शायरों ने भी ली हैं जैसे मीर के शे’र का मिसरा देखिए जो फ़’ऊल से शुरू होता है-

बहुत लिए तसबीह फिरे हम पहना है ज़ुन्नार बहुत

और फ़िराक़ का ये मिसरा देखें 22 को 2121 में रिपलेस कर रहा है।

लाख-लाख हम ज़ब्त करे हैं दिल है कि उमड़ावे है

और फ़िराक़ साहब के ये शे’र-

कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो

बशीर साहब ने कैसे "आसमान" शब्द को फिट किया है-

आसमान के दोनों कोनों के आख़िर
एक सितारा तेरा है, इक मेरा है

एक महत्वपूर्ण लिंक जो मीर के मीटर के बारे में तफ़सील से बताता है-
http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00garden/apparatus/txt_meters.html

लेकिन ये बात भी भी सच है कि इन छूटों से लय तो प्रभावित होती है लेकिन शायर चाहे तो ऐसा कर सकता है अगर और कोई सूरत न बची हो।

शायर का पता-

२५४ मोती निधि काम्पलेक्स, छिंदवाड़ा
मध्य प्रदेश
संपर्क-09926-54056

Tuesday, March 9, 2010

मख़्मूर सईदी साहब को श्रदाँजलि











जाना तो मेरा तय है मगर ये नहीं मालूम
इस शहर से मैं आज चला जाऊँ कि कल जाऊँ
...मख़्मूर

1934 को टोंक (राजस्थान) में जन्मे सुल्तान मुहम्मद खाँ उर्फ़ मख़्मूर सईदी, 2 मार्च 2010 को अपनी ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म करके इस दुनिया से विदा हो गए। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-पेड़ गिरता हुआ,गुफ़्तनी, सियाह बर सफ़ेद, आवाज़ का जिस्म, सबरंग, आते-जाते लम्हों की सदा, बाँस के जंगलों से गुज़रती हवा, दीवारो-दर के दरमियाँ हैं। इन्हें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार,और राजस्थान उर्दू अकादमियों के पुरस्कारों के अलावा केन्द्रीय साहित्य अकादमी से भी सम्मान हासिल हुआ।

शायर तमाम उम्र शे’र उधेड़ता-बुनता रहता है और कुछ खोजता रहता है। इस बात को लेकर मीर ने यूँ कहा है-

गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले


ऐसा ही कुछ मख़्मूर साहब ने भी किया। अपनी उम्र के ७६ सालों में शायरी के पुराने और नये दौर को नज़दीक से देखा है और वक़्त के हिसाब से ख़ुद को ढाला भी। रिवायती और जदीद शायरी की बात आती है तो टी.एस. इलीयट के ये शब्द ख़ास मायने रखते हैं जो कुछ दिन पहले किसी किताब में पढ़ने को मिले-

"साहित्य में भी कवि को परंपरा का ख़याल रखना चाहिए। यदि परंपरा को छोड़कर कवि अपनी ही संवेदनाओं में उलझ जाए और अपने ही दुख-दर्द की बात कहे तो वो असली मक़सद से भटक जाता है। परंपरा के ख़याल से दो फ़ायदे होते हैं-

कवि को पता चल जाता है कि उसे क्या कहना या लिखना है, कैसे कहना है और उसे परंपरा के ज्ञान से अपनी कृति की क़ीमत पता चल जाती है।"

और ये बात भी पक्की है कि शायर को अपने वक़्त के साथ चलते हुए भी अपना अलग रस्ता इख़्तियार करना होता है तभी वो सफ़ल शायर बन सकता है। ऐसा ही कुछ मख़्मूर साहब ने किया, रिवायत की नींव पर जदीद शायरी की मंज़िलें खड़ी कीं। पुरानी और नयी शराबें जब मिलती हैं तो नशा दूना हो जाता है। देखिए, मख़्मूर साहब के अशआर नये लहजे की पैरवी करते हुए

पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में

चारो तरफ़ हवा की लचकती कमान है
ये शाख से परिन्दे की पहली उड़ान है

रेत का ढेर थे हम,सोच लिया था हम ने
जब हवा तेज़ चलेगी तो बिखरना होगा

पार करना है नदी को तो उतर पानी में
बनती जाएगी ख़ुद एक राहगुज़र पानी में

दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई

भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है

मैं तो ये मानता हूँ कि रिवायत हमें ये बताती है कि कैसे कहना है? लेकिन किस अंदाज़ में कहना है? ये शायर ख़ुद तय करता है। अगर शायर अपनी बात को किसी दूसरे पुराने शायर के ओढ़े हुए अंदाज़,मिज़ाज या पुराने प्रतीकों का इस्तेमाल करके, ज़रा से हेर-फेर से शे’र कहता है तो रिवायती शायर है। लेकिन अगर वो ग़ज़ल के मिज़ाज को ठेस पहुँचाए बिना अपने अंदाज़ में, अपने प्रतीकों से अलग बात कह देता है तो वो जदीद है। मगर हुआ यूँ कि इश्क़-मुहव्बत की बात करना वाले को ही लोग रिवायती शायर समझने लग गए। बदकि़स्मती ये है कि ग़ज़ल में काजू, किशमिश,विस्की,विधायक, संसद आदि का ज़िक्र करना जदीद शायरी की निशानी बन गया है, मिज़ाज और लहजा क्या होता कुछ शायर इसे समझने की ज़हमत नहीं उठाते। ख़ैर , मख़्मूर साहब की तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

कितनी दीवारें उठीं है एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ

जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ

वार वो करते रहेंगे ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ

क्या कहें? हर देखने वाले को आख़िर चुप लगी
गुम था मंज़र इख़्तिलाफ़ाते-नज़र के दरमियाँ

किसकी आहट पर अँधेरे में क़दम बढ़ते रहे
रू नुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ

कुछ अँधेरा सा उजाले से गले मिलता हुआ
हमने इक मंज़र बनाया *ख़ैरो-शर के दरमियाँ

बस्तियाँ "मख़्मूर" यूँ उजड़ीं कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ

रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

*ख़ैरो-शर : भलाई और बुराई,इख़्तिलाफ़ात-मतभेद

ग़ज़ल

ख़्वाब इन जागती आँखों को दिखाने वाला
कौन था वो मेरी नींदों को चुराने वाला

एक खुश्बू मुझे दीवाना बनाने वाली
एक झोंका वो मेरे होश उड़ाने वाला

अब इन *अत्राफ में आता ही नहीं वो मौसम
मेरे बाग़ों में जो था फूल खिलाने वाला

घर तो इस शह्र में जलते हुए देखे सबने
नज़र आया न कोई आग लगाने वाला

तोड़कर कर अपनी हदें ख़ुद से गुज़र जाऊंगा मैं
कोई आए तो मेरा साथ निभाने वाला

तुमने नफ़रत के अँधेरों में मुझे क़ैद किया
मैं उजाला था तुन्हें राह दिखाने वाला

बारिशें ग़म की रुकीं हैं न रुकेंगी मख़्मूर
इन दयारों से ये मौसम नहीं जाने वाला

*अत्राफ - दिशाएँ

रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़’इ’लुन
2122 1122 1122 112

ग़ज़ल

इक बार मिलके फिर न कभी उम्र भर मिले
दो अजनबी थे हम जो सरे-राहगुज़र मिले

कुछ मंज़िलों के ख़्वाब थे कुछ रास्ते की धूप
निकले सफ़र पे हम तो यही हमसफ़र मिले

यूँ अपनी सरसरी सी मुलाक़ात ख़ुद से थी
जैसे किसी से कोई सरे-रहगुज़र मिले

इक शख़्स खो गया है जो रस्ते की भीड़ में
उसका पता चले तो कुछ अपनी ख़बर मिले

अपने सफ़र में यूँ तो अकेला हूँ मैं मगर
साया सा एक राह के हर मोड़ पर मिले

बरसों मे घर आजा आये तो बेगाना वार आज
हमसे ख़ुद अपने घर के ही दीवारो-दर मिले

मख़्मूर हम भी रक़्स करें मौजे-गुल के साथ
खुलकर जो हमसे मौसमे-दीवाना ग़र मिले

बहरे-मज़ारे( मुज़ाहिह शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

मीर के इस शे’र के साथ हम इस अज़ीम शायर खिराजे-अक़ीदत पेश करते हैं-

कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले

मख़्मूर साहब की आवाज़ हमेशा गूँजती रहेगी और ज़िंदा रहेगी-

Saturday, February 27, 2010

होली मुबारक

















उधर से रंग लिए आओ तुम, इधर से हम
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके खुश हर दम
खुशी से बोलें, हँसे , होली खेल कर बाहम

बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की क़सम
इसी उम्मीद में था इन्तज़ार होली का...
नज़ीर अकबराबादी

"आज की ग़ज़ल" की तरफ़ से आप सब को होली मुबारक हो। चंद अशआर आप लोगों की नज़्र हैं-

धर्म क्‍या औ’ जात क्‍या, रूप क्‍या औकात क्‍या
रंग होली का हो बस, इससे बड़ी सौगात क्‍या... तिलक राज कपूर

ला के बाज़ार से रगीन गुलाल इतराएँ
हाथ रुख्सारों पे फिसला के मना लें होली...प्रेमचंद सहजवाला

खेलिए होली ब्लागा’इस्पाट पर
रंग में पड़ने न पाए कोई भंग...अहमद अली बर्की

खुशबू को मु्ट्ठियों में क़ैद करके क्या मिलेगा
है मज़ा जब खुशबुओं में क़ैद होकर तुम दिखाओ...दीपक गुप्ता

दुश्मन भी अपना हो जाए,रंगों में ऐसी ताकत है
आज सभी उन रंगों की हमको यार ज़रुरत है..विलास पंडित"मुसाफ़िर"


रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके...चाँद शुक्ला

तन भिगोया मन भिगोया आत्मा भीगी
प्यार ही पिचकारियों का नाम हो जैसे...चन्द्रभान भारद्वाज

ऐसी चली पुरवाई होली में प्यारे
गूँज उठी शहनाई होली में प्यारे

भाग्य खिला फागुन का खूब मज़े लेकर
मस्ती क्या लहराई होली में प्यारे

गले मिले सब भाई -भाई ही बनकर
धन्य हुई हर माई होली में प्यारे

रंग सभी ए "प्राण" लगें सुन्दर-सुन्दर
पाट दिलों की खाई होली में प्यारे ...प्राण शर्मा

मेरा एक शे’र भी आपकी नज़्र है-

आप दीवारों पे अब छिड़को गुलाल
वो तो ग़ैर अब हो चुका है देखिए...सतपाल ख़याल


अब न तो वो संगी-साथी रहे , न ही बचपन की वो गलियां , वो घर, वो शहर, सब कुछ बदल गया है । पड़ोस में रहने वाले मुझे नहीं जानते और न ही मैं उन्हें। अजीब सा माहौल है आजकल,ऐसे में सुरजीत पात्र का लिखा और हंस राज हंस का गाया..

दूर इक पिंड विच निक्का जिहा घर सी
कच्चियां सी कंधा ओहदा दोहरा जिहा दर सी...

सुनिए ये आपको आपके गांव की गलियों तक ले जाएगा।




Saturday, February 20, 2010

दिनेश ठाकुर की ग़ज़लें











1963 में उदयपुर में जन्में दिनेश ठाकुर आजकल राजस्थान पत्रिका में वरिष्ट सामाचार संपादक हैं। एक ग़ज़ल संग्रह" हम लोग भले हैं कागज़ पर" छाया हो चुका है। फ़िल्म समीक्षक भी रह चुके हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। हाल ही में अनुभूति पर इनकी ग़ज़लें शाया हुईं और इनके कुछ शे’रों ने मुझे बहुत प्रभावित किया, सो मेल करके इनसे ग़ज़लें मंगवाईं जो आज आपकी नज़्र करूँगा। पहले इनके कुछ अशआर मुलाहि्ज़ा कीजिए-

गज़ल

जहाँ लफ्ज़ डमरू के किरदार में हैं
सुखन मेरा उस शायरी से अलग है

तेरी याद के जुगनुओं की क़सम
ये बारिश के छींटे शरारे हुए

दुःख की तितली के पंखों पर
बाँधो सुख का धागा लम्बा

ये शे’र अपने आप में एक ताज़गी और नयापन ज़ाहिर कर रहे हैं और ग़ज़ल के लहजे को भी बर्करार रखे हुए है। यही एक सफल शायर की निशानी है कि वो किस तरह ग़ज़ल की नज़ाकत का भी ख़याल रखता है और नए प्रयोग भी कर लेता है। इस नए लहजे के बारे में बशीर बद्र साहब का ये शे’र क़ाबिले-ग़ौर है-

कोई फूल धूप की पत्तियों मे हरे रिबन से बंधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया , न कहा हुआ न सुना हुआ

ग़ज़ल तक़रीबन 800 साल पहले अपने काँधे पर सुराही लेकर हिंदुस्तान में दाख़िल हुई। तब से खुसरो से लेकर मुनव्वर राना तक हर शायर ने इसे अपने रंग में रंगना चाहा। किसी ने इसके हाथ में मशाल थमा दी, किसी ने इसके दुपट्टे को तसव्वुफ़ के रंग में रंग दिया,किसी ने इसे कोठे पे बिठा दिया, कोई मैखाने तक ले गया, किसी ने इसे हिज़्र-मिलन के पाठ पढ़ाए और आज तो ग़ज़ल के मायने ही बदल रहे हैं। ग़ज़ल अब संसद मे नज़र आती है, सड़कों पर नज़र आती है। मुनव्वर राना जैसे शायरों ने इसे माँ के रूप में देखा, बेटी भी कहा और लोगों ने इसे सराहा और क़बूल किया। दुश्यंत ने अपने अंदाज़ में इसे लिया, लेकिन वही शायर सफ़ल हुए जिन्होंने प्रयोग तो किए लेकिन ग़ज़ल के असली रंग-रूप, उसकी नज़ाकत, उसकी कोमलता और उसके ख़ास लहजे को ठेस नहीं पहुँचाई और वो शायर जिन्होंने इसकी आत्मा बदलनी चाही वो सफ़ल नहीं हुए। उदाहरण के तौर पर पानी भले बर्फ़ बन जाए, हवा बन जाए, नदी हो जाए या बादल बनकर बरसे लेकिन रहता पानी ही है, essence of water is not changed ,उसी तरह ग़ज़ल की ये essence ये रूह नहीं बदलनी चाहिए और वो होनी भी नई चाहिए। जिसे लोग पढ़कर ही कहें कि ये फ़लां शायर की है।

मेरी ग़ज़ल को मेरी ग़ज़ल होना चाहिए
तालाब में मिस्ले-कंवल होना चाहिए
..मुनव्वर राना

ग़ज़ल में ये नयापन लाना बहुत कठिन है। इस बात को मुनव्वर साहब के ये शे’र देखें कैसे बयान करता है-

बहुत दुश्वार है प्यारे ग़ज़ल में नादिराकारी
ज़रा सी भूल अच्छे शे’र को *मोहमल बनाती है


* (निरर्थक) *नादिराकारी- art of perfection

अब दिनेश ठाकुर की ये ग़ज़ल बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में

हम यूँ महदूद हो लिये घर में
हँस लिये घर में, रो लिये घर में

जाने किस फूल की तमन्ना थी
ख़ार ही ख़ार बो लिये घर में

जिससे हासिल सबक़ करें बच्चे
इस सलीक़े से बोलिए घर में

वो समझते हैं दिन अमन के हैं
एक मुद्दत जो सो लिये घर में

चारागर पूछता सबब जिनके
हमने वो ज़ख़्म धो लिये घर में

*महदूद-सीमित

मैं तो समझता हूँ कि हम ग़ज़ल की नींव नहीं बदल सकते लेकिन ऊपर मकान अपने ढंग से बना सकते हैं। नींव जितनी अच्छी होगी मकान मज़बूत होगा जैसे लता मंगेशकर गाए भले पाप लेकिन उनका क्लासिकल बेस उस पाप को बेमिसाल बना देता है ऐसा ही शायर के साथ भी है। बिना क्लासिकल पढ़े-सुने कोई शायर थोड़े बन सकता है। गा़लिबो-मीर को जाने समझे बिना शायर होना बेसुरा गायक होने जैसा है। मैनें जब द्विज जी को अपने ये शे’र सुनाए-

नाती-पोतों ने ज़िद्द की तो
अम्मा का संदूक खुला है

घर में हाल बजुर्गों का अब
पीतल के वर्तन जैसा है

तो उन्होंने कहा अब तुम निकले अपने खोल के बाहर । इसी नयेपन की ज़रूरत है लेकिन..essence of ghazal should not change ये एक शर्त है। बशीर साहब ने भी चेताया है-

शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है

शायरी में दोहराव भी बहुत है जिसकी वज़ह से कई बार ऊब भी पैदा होती है । बहुत कुछ कहा जा चुका है और उसी बहुत कुछ कहे हुए को फिर से कहना है । शायद इसीलिए नए लहजे की ज़रूरत ज़्यादा है। एक ही बात को ज़रा से फ़ेर कह देने का चलन बहुत है -

न जाने कौन सी मज़बूरियों का क़ैदी हो,
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो..राहत इंदौरी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता..बशीर बद्र

जिन्हें तुम ने समझा मेरी बेवफ़ाई
मेरी ज़िन्दगी की वो मज़बूरियां थीं..आनंद बख़्शी

(ये बहुत बड़े शायर है और शायरी का मान हैं ये शे’र खाली हम जैसे नए शायरों के समझने के लिए हैं)

दिनेश ठाकुर की एक और ग़ज़ल बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में

यूँ जो वादों से पेट भर जाते
हम तो बदहजमियों से मर जाते.

सबने चेहरे बदल लिये वरना
आदमी आदमी से डर जाते.

काम-धंधे से लग गए ज़ाहिद
हम न होते तो ये किधर जाते.

ख़ुशख़रामी भी रास आ जाती
आप सच बोलकर मुकर जाते.

सबके सब हम पे धर दिए क्योंकर
कुछ तो इल्ज़ाम उसके सर जाते.

हमसुबू कब गए पता ही नहीं
तू उठाता तो हम भी घर जाते

*ख़ुशख़रामी-खूबसूरत चाल *हमसुबू- एक सुराही से पीने वाले

शायरी में दोहराव से तंग आकर द्विज जी का ये शे’र देखें क्या कहता है-

झूमती, लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो
अब कहो ठोकरों से सं‘भलती ग़ज़ल


ये देखिए ताज़गी और नयेपन का नमूना बशीर बद्र साहब का शे’र-

ज़हन में तितलियां उड़ रहीं थी बहुत
कोई धागा नहीं बाँधने के लिए

यक़ीनन ख़यालात तो सबके एक जैसे ही हैं और हमारे एहसास भी एक जैसे, द्विज जी ने एक दिन बताया कि..

what you said is not important but how beautifully we said it, how beautifully we express it, how diffrently we explain it, is something which is very important in poetry.

वो ग़ज़ल पढ़ने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था
सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं लहजा भी ग़ज़ल जैसा था..
मुनव्वर राना

दिनेश ठाकुर की एक और ग़ज़ल( ७ फ़ेलुन+ १ फ़े)

पनघट, दरिया कैसे हैं, वो खेत, वो दाने कैसे हैं
रब जाने अब गाँव में मेरे यार पुराने कैसे हैं

जिसको छूकर सब हमजोली झूठी क़समें खाते थे
अब वो पीपल कैसा है, वो लोग स्याने कैसे हैं

छिप-छिपकर तकते थे जिसको अब वो दुल्हन कैसी है
सास, ससुर, भौजी, नंदों के मीठे ताने कैसे हैं

पहली-पहली बारिश में हर आँगन महका करता था
छज्जों का टप-टप करना, वो दौर सुहाने कैसे हैं

रोज़ सुबह इक परदेसी का संदेशा ले आती थी
उस कोयल की चोंच मढ़ाने के अफ़साने कैसे हैं

दिन भर जलकर और जलाकर सूरज का वो ढल जाना
शाम की ठंडी तासींरे, चौपाल के गाने कैसे हैं

परबत वाले मंदिर पे क्या अब भी मेला भरता है
घर से बाहर फिरने के सद शोख़ बहाने कैसे है

यक़ीनन जिस नयेपन और ताज़गी की हम बात करते हैं दिनेश ठाकुर की ये ग़ज़लें उसका प्रमाण हैं। मुनव्वर साहब के इस शे’र के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं-

बेसदा ग़ज़लें न लिख वीरान राहों की तरह
खामुशी अच्छी नहीं आहों कराहों की तरह

Sunday, February 14, 2010

अंसार क़ंबरी-ग़ज़ल और परिचय











1950 में कानपुर में जन्में अंसार क़ंबरी देश के माने हुए शायर हैं और अपने दोहों के लिए भी चर्चित हैं। एक ग़ज़ल संग्रह "सलीबों के क़रीब" भी छाया हो चुका है और उनके दोहों की किताब भी छाया हो चुकी है। बात चल रही थी हिंदी मीटर की तो सोचा क्यों न इसी मीटर की ग़ज़ल पेश की जाए तो लीजिए पहले अंसारी साहब की इसी मीटर में कही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

धूप का जंगल, नंगे पाँव इक बंजारा करता क्या
रेत का दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या

बादल-बादल आग लगी थी छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आंगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका फिर बँटवारा करता क्या

टूट गए जो बंधन सारे और किनारे छूट गए
बीच भँवर में मैनें उसका नाम पुकारा करता क्या

अब इस ग़ज़ल के बाद मैं श्री चंद्रभान भारद्वाज जी की टिप्पणी का उल्लेख ज़रूरी समझता हूँ-

"सतपाल जी,यदि गज़ल बहर में नही है पर मात्रिक छंद के अनुसार है, तो सही है इससे सहमत नही हुआ जा सकता। असल में हिन्दी काव्य में गज़ल विधा ही नही है। अतः जिस भाषा के काव्य से गज़ल आई है उसे यदि हिन्दी में अपनाना है तो उसके नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है चूंकि गज़ल में बहर की मुख्य भूमिका होती है अतः उसे बहर में रखना आवश्यक है। अपनॆ जिस शेर का उदाहरण दिया है उससे भी स्पष्ट है कि ज़रा से हेरफेर से लय अवरुद्ध हो जाती है।"

अब इन्होंने बात पते की कही और सही भी। मैं भी इसी पक्ष में हूँ और बहर का ही पालन करता हूँ और ऐसा करने का ही मशविरा देता हूँ लेकिन जब आर.पी शर्मा जी जैसे विद्वान इसे सही कहते हैं तो हम अपनी राय को झोले में डाल लेते हैं । चंद्रभान भारद्वाज जी की इस टिप्प्णी को हम इस बहस का हासिल मान सकते हैं और बाक़ई ये भाषाई झगड़े कभी ख़त्म होने वाले नहीं और इसे अंसारी साहब के इस शे’र के साथ विराम देते हैं-

जो हम लड़ते रहे भाषा को लेकर
कोई ग़ालिब न तुलसीदास होगा

और मीर साहब की इसी हिंदी मीटर में कही ग़ज़ल
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमार जाने है..को मेंहदी हसन जी की आवाज़ में सुनते हैं-