Sunday, May 22, 2011

ग़ज़ल- सुरेन्द्र चतुर्वेदी











ग़ज़ल- सुरेन्द्र चतुर्वेदी

दूर तक ख़ामोशियों के संग बहा जाए कभी
बैठ कर तन्हाई में ख़ुद को सुना जाए कभी

देर तक रोते हुए अक्सर मुझे आया ख़याल
आईने के सामने ख़ुद पर हँसा जाए कभी

जिस्म के पिंजरे का पंछी सोचता रहता है ये
आसमां में पंख फैलाकर उड़ा जाए कभी

उम्र भर के इस सफ़र में बारहा चाहा तो था
मंजिले-मक़सूद मेरे पास आ जाए कभी

मुझमें ग़ालिब की तरह शायर कोई कहने लगा
अनकहा जो रह गया वो भी कहा जाए कभी

ख़ुद की ख़ुशबू में सिमट कर उम्र सारी काट ली
कुछ दिनों तो दूर ख़ुद से भी रहा जाए कभी

हँस पड़ीं साँसे उन्हें जब रोककर मैनें कहा
ज़िंदगी को आखिरी इक ख़त लिखा जाए कभी

9 comments:

निर्मला कपिला said...

हर एक शेर लाजवाब।

तिलक राज कपूर said...

खूबसूरत ग़ज़ल।

शारदा अरोरा said...

badhiya

ana said...

लाजवाब शेर

Pratik Maheshwari said...

खूबसूरत ग़ज़ल! मज़ा आ गया...

"सुख-दुःख के साथी" पे आपके विचारों का इंतज़ार है...

kumar zahid said...

जिस्म के पिंजरे का पंछी सोचता रहता है ये
आसमां में पंख फैलाकर उड़ा जाए कभी

बेहतर शेर

Pawan Kumar said...

सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी की शानदार रचना, जितनी बार पढ़ो उतनी बार नयी और दिलकश लगे.

जिस्म के पिंजरे का पंछी सोचता रहता है ये
आसमां में पंख फैलाकर उड़ा जाए कभी
हर एक शेर लाजवाब।

Dr.Ajmal Khan said...

खूबसूरत ग़ज़ल,हर शेर लाजवाब।..........

Sikander said...

Bahut Shandar hai