Tuesday, March 18, 2025

"चर्ख़े" पर चंद अश'आर



माने न माने कोई हक़ीक़त तो है यही
चर्ख़ा है जिस के पास उसी की कपास है
निदा फ़ाज़ली

अज़ल से चाँद में चर्ख़ा चला रही है मगर
'नवाज़' अब भी वो बुढ़िया निढाल थोड़ी है
नवाज़ असीमी

नानी ने तर्क कर दी क्यूँ रस्म-ए-क़िस्सा-गोई
क्या चाँद से किसी ने चर्ख़ा उठा लिया है
पारस मज़ारी

जिसे हम लोग मिल कर आश्रम में छोड़ आए थे
वो चरख़ा कातती है चाँद के चेहरे में रहती है
रहमान मुसव्विर

सिरहाने रख के चर्ख़ा और पूनी
थकी बुढ़िया ज़रा लेटी हुई है
नजमा साक़िब

टूट जाएगा ये चर्ख़ा जिस्म का चलते हुए
और क़ैदी क़ैद से आख़िर रिहा हो जाएगा
ताजुन्निसा ताज

No comments: