मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
दुष्यंत कुमार
पक्ष-ओ-प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
दुष्यंत कुमार
उदासी आसमाँ है दिल मिरा कितना अकेला है
परिंदा शाम के पुल पर बहुत ख़ामोश बैठा है
बशीर बद्र
झिलमिलाते हैं कश्तियों में दिए
पुल खड़े सो रहे हैं पानी में
बशीर बद्र
'हसीब'-सोज़ जो रस्सी के पुल पे चलते थे
पड़ा वो वक़्त कि सड़कों पे चलना भूल गए
हसीब सोज़
ज़िंदगी की ये घड़ी टूटता पुल हो जैसे
कि ठहर भी न सकूँ और गुज़र भी न सकूँ
अहमद फ़राज़
दरिया उतर गया है मगर बह गए हैं पुल
उस पार आने जाने के रस्ते नहीं रहे
नवाज़ देवबंदी
“ख़याल” अब खाइयाँ है नफ़रतों की
वो पुल जो जोड़ते थे वो कहाँ है
सतपाल ख़याल
2 comments:
वाह, एक से बढ़कर एक अश्यार
बहुत खूब पूल का संकलन …
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