Tuesday, April 19, 2022

Ek Baar Phir Se..Aapke liye

 तकरीबन 1000 साल से भी पहले ग़ज़ल का जन्म ईरान मे हुआ और वहाँ की फ़ारसी भाषा मे ही इसे लिखा या कहा गया. माना जाता है कि ये "कसीदे" से ही निकली. कसीदे राजाओं की तारीफ मे कहे जाते थे और शायर अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए शासकों की झूठी तारीफ़ करता था और विलासी राजाओं को वही सुनाता था जिससे वो खुश होते थे.शराब , कबाब और शबाब के साथ राजा कसीदे सुनते थे और विलासी राजा औरतों के ज़िक्र से खुश होते थे तो शायर औरतॊं और शराब का ज़िक्र ही ग़ज़लों मे करने लगे वो चाहकर भी जनता का दुख-दर्द बयान नही कर सकते थे.तो ग़ज़ल का मतलब ही औरतों के बारे मे ज़िक्र हो गया.यही पर इसका बहर शास्त्र बना जो फारसी में था.


मुग़ल शासक जब हिंदोस्तान आए तो अपने साथ फ़ारसी संस्कर्ति भी लाए और जहाँ,-जहाँ उन्होने राज किया वहाँ की अदालती और राजकीय भाषा बदल कर फारसी कर दी इस से पहले यहाँ पर शौरसेनी अपभ्रंश भाशा का इस्तेमाल होता था जो आम बोलचाल की भाषा न होकर किताबी भाषा थी जो संस्कृत से होकर निकली थी.जब अदालती भाषा और सरकारी काम काज की भाषा फ़ारसी बनी तो लोगों को मज़बूरन फ़ारसी सीखनी पड़ी.यहाँ के कवियों ने भी मज़बूरन इसे सीखा और ग़ज़ल से हाथ मिलाया और इसका बहर शास्त्र सीखा जिसे अरूज कहा जाता था. इसका वही रूप जो इरान मॆ था यहाँ भी वैसा ही रहा.यहाँ एक बात का ज़िक्र और करना चाहता हूँ ये सब शासक मुस्लिम थे सो इन्होनें मुस्लिम धर्म और फ़ारसी का खूब प्रचार किया् ये सिलसिला सदियों चलता रहा.

अब बात करते हैं12वीं शताब्दी की, दिल्ली मे अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) ने लीक से हटकर साहित्य को खड़ी बोली (या आम बोली जो उस वक्त दिल्ली के आस-पास बोली जाती थी) मे लिखा और वे फ़ारसी के विद्वान भी थे इन्होंने फ़ारसी और हिंदी मे अनूठे प्रयोग किए उस वक्त बोली जाने वाली भाषा को खुसरो ने हिंदवी कहा.

रचनाकार परिचय:-


सतपाल ख्याल ग़ज़ल विधा को समर्पित हैं। आप निरंतर पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित होते रहते हैं। आप सहित्य शिल्पी पर ग़ज़ल शिल्प और संरचना स्तंभ से भी जुडे हुए हैं तथा ग़ज़ल पर केन्द्रित एक ब्लाग आज की गज़ल का संचालन भी कर रहे हैं। आपका एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।

ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ

चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ

यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

यहीं से आधुनिक साहित्य का जन्म हुआ और आम भाषा का इस्तेमाल शुरू हुआ . खुसरो ने पूरे हिंदोस्तान मे फ़ारसी का प्रचार किया और फ़ारसी धीरे-धीरे फ़ैलती गई . जब ये अदालतों की भाषा बनी तो लोगों को इसे सीखना पड़ा.हम खुसरो को पहला गज़लगो भी कह सकते हैं.

अब बात करते हैं कि ये उर्दू क्या है ?

'उर्दू' एक तुर्की लफ़्ज है जिसके अर्थ हैं : छावनी, लश्कर। 'मुअल्ला' अरबी लफ़्ज है जिसका अर्थ है : सबसे अच्छा। शाही कैंप, शाही छावनी, शाही लश्कर के लिए पहले 'उर्दू-ए-मुअल्ला' शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ। बाद में बादशाही सेना की छावनियों तथा बाज़ारों (लश्कर बाज़ारों) में हिन्दवी अथवा देहलवी का जो भाषा रूप बोला जाता था उसे 'ज़बाने-उर्दू-ए-मुअल्ला' कहा जाने लगा। बाद को जब यह जुबान फैली तो 'मुअल्ला' शब्द हट गया तथा 'ज़बाने उर्दू' रह गया। 'ज़बाने उर्दू' के मतलब 'उर्दू की जुबान' या अँगरेज़ी में 'लैंग्वेज ऑफ उर्दू'। बाद में इसी को संक्षेप में 'उर्दू' कहा जाने लगा। ये उस वक्त की एक मिली-जुली भाषा थी.फिर ये भाषा मुस्लिम समुदाये के साथ जोड़ दी गई ये काम 17 वीं शताब्दि मे अंग्रेजों के आने के बाद हुआ.इसी भाषा मे धर्म का प्रसार-प्रचार हुआ.इसी दौरान उर्दू अदालती भाषा बनी और आज तक हमारी अदालतों मे इसका इस्तेमाल देवनागरी लिपी मे होता है.

ये भाषा उस वक्त दिल्ली की साथ-साथ पूरे देश की भाषा थी जिसे उर्दू से पहले हिंदोस्तानी कहा जाता था और ये यहाँ के लोगों की आम बोल-चाल की भाषा थी जिसे सियासतदानों ने धर्म के साथ जोड़ दिया और ये मुस्लिमों की भाषा के रूप मे जानी जाने लगी. जबकि सच ये है कि खालिस हिंदुस्तानी भाषा थी जो दो लिपियों मे लिखी जाती थी. एक बोली की दो लिपियाँ थी.बोली एक थी लिपियाँ दो थी लेकिन सियासत ने इस मीठी ज़बान का गला घोंट दिया और हिंदी हिंदूओं की और उर्दू मुस्लिमों की भाषा बन गई और इसी आधार पर आगे जाकर मुल्क का बँटवारा हुआ.

खैर! वापिस चलते हैं 17 वीं सदी मे. जैसे दिल्ली मे फ़ारसी और इस्लाम का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे ही दक्षिण भारत मे भी फ़ारसी और इस्लाम पनपे. यहाँ शासकों और फ़ारसी सूफ़ी संतों ने फ़ारसी का प्रचार किया. ये कोई थोड़े समय मे नहीं हुआ, सदियों मुस्लिम शासकों ने यहाँ राज किया. हमारी भाषा जिसे देवनागरी कहते थे वो हाशिए पर रही. लेकिन उसमे भी साहित्य की रचना होती रही. शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी (1668 से 1744) औरंगाबाद के रहने वाले थे। वली का बचपन औरंगाबाद मे बीता, बीस बरस की उम्र में वो अहमदाबाद आए जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। सन 1700 मे वली दिल्ली आए। यहाँ आकर उनकी शैली की खूब तारीफ़ हुई. वली उर्दू के पहले शायर माने गए.

वली:

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।

दिल को लगती है दिलरुबा की अदा
जी में बसती है खुश-अदा की अदा

यहाँ फ़िर ग़ज़ल गुलो-बुलबुल के फ़ारसी किस्से लेकर चलने लगी, जिनका हिंदोस्तान से कोई वास्ता न था. फ़ारसी मे लिखने की होड़ सी लग गई. मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 ) ने इस विधा को नया रुतबा बख्शा. हालाँकि मीर ने भाषा को हल्का ज़रुर किया और सादगी भी बख्शी.

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

जब दिल्ली खतरे मे पड़ी तो शायर लखनऊ की तरफ गए और शायरी के दो केन्द्र बने लखनऊ और देहली. लेकिन जहाँ दिल्ली मे सूफ़ी शायरी हुई वहीं लखनऊ मे ग़ज़ल विलासता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गई.

दिल्ली मे उर्दू के चार स्तंभ : मज़हर,सौदा, मीर और दर्द ने ग़ज़ल के नन्हें से पौधे को एक फ़लदार शजर बना दिया.

दिल्ली स्कूल के चार महारथी थे:

1)मिर्ज़ा मज़हर जान जानां: ( 1699-1781 दिल्ली)

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुझको वो दिमाग़-ओ-दिल रहा है
खुदा के वास्ते उसको ना टोको
यही एक शहर में क़ातिल रहा है
यह दिल कब इश्क़ के क़ाबिल रहा है

2) मिर्ज़ा मुहम्म्द रफ़ी सौदा:(1713-1781दिल्ली): इनका निधन लखनऊ मे हुआ. इन्हें छ: हज़ार रुपए हरेक साल बतौर वजीफ़ा नवाब से मिलता था.

दिल मत टपक नज़र से कि पाया ना जाएगा
यूँ अश्क फिर ज़मी से उठाया न जाएगा.


3) मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 आगरा )
असल मे यही ग़ज़ल के पिता थे. इन्होंने ही ग़ज़ल को रुतबा बख्शा. इन्हें खुदा-ए-सुखन कहा जाता है और सब शायरों ने इनकी शायरी का लोहा माना और इन्हें सब शायरों का सरदार कहा गया. ज्यादातर फ़ारसी मे ही लिखा.

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या
आगे- आगे देखिए होता है क्या

उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया


4) ख़्वाजा मीर दर्द:(1721-1785) सूफ़ी ख्यालात वाला शायर था.

मेरा जी है जब तक तेरी जुस्तजू है|
ज़बान जब तलक है यही गुफ्तगू है|

तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।

ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
हम तो इस जीने के हाथों मर चले

जग में आकर इधर उधर देखा|
तू ही आया नज़र जिधर देखा|

जान से हो गए बदन ख़ाली,
जिस तरफ़ तूने आँख भर के देखा|

तुम आज हंसते हो हंस लो मुझ पर ये आज़माइश ना बार-बार होगी
मैं जानता हूं मुझे ख़बर है कि कल फ़ज़ा ख़ुशगवार होगी|

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दिल्ली मे दूसरे दौर के शायर:

अब ज़िक्र करते हैं दिल्ली में दूसरे दौर के शायरों का. जिनमे प्रमुख हैं मोमिन, ज़ौक़ और गालिब; इन्होंने ग़ज़ल की इस लौ को जलाए रखा. दिल्ली के आखिरी मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र खुद शायर थे सो उन्होंने दिल्ली मे शायरी को बढ़ावा दिया.

शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक:(1789-1854): ये उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते हैं, जिनके अनेक शागिर्दों ने अदबी दुनिया में अच्छा मुक़ाम हासिल किया है.

कहिए न तंगज़र्फ़ से ए ज़ौक़ कभी राज़
कह कर उसे सुनना है हज़ारों से तो कहिए

रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त

मोमिन खां मोमिन (1800-1851): दिल्ली मे पैदा हुए और शायर होने के साथ-साथ ये हकीम भी थे.

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो

उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में मोमिन
आखरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे

मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब':जन्म: (27 दिसम्बर 1796 ,निधन: 15 फ़रवरी 1869 ): इस शायर के बारे मे लिखने की ज़रुरत नहीं है. हिंदोस्तान का बच्चा-बच्चा इन्हें जानता है. गा़लिब होने का अर्थ ही शायर होना हो गया है.

बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आमो-खास की ज़बान पर आ गया लेकिन एक बात और है कि काफी कठिन ग़ज़लें भी इन्होंने कही जिसे समझने के लिए आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की और वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान मे कहे गए. उस वक्त गा़लिब और मीर की निंदा भी की गई .

कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे

गा़लिब ने भाषा मे सुधार भी किया लेकिन गा़लिब भाषा से ऊपर उठ चुका था. वो एक विद्वान शायर था. एक बात तो तय है कि भाषा से भाव बड़ा होता है लेकिन भाषा भी सरल होनी चाहिए ताकि लोग आसानी से समझ सकें.

दिल्ली के हालात खराब हुए तो कई शायरों ने लखनऊ का रुख किया. जिनमे मीर और सौदा भी शामिल थे. वहाँ के नवाब ने लखनऊ सकूल की स्थापना की. फिर लखनऊ और दिल्ली दो केन्द्र रहे शायरी के. फिर नाम आता है इमामबख्श नासिख का (1787-1838) लखनऊ से थे और आतिश (1778-1846-लखनऊ) का. इन दोनो शायरों ने खूब नाम कमाया. लखनऊ स्कूल का नाम इन दोनो ने खूब रौशन किया.

नासिख: 
साथ अपने जो मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर मुझको दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया

आतिश
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते

अमीर मिनाई: (1826-1900 )
सरक़ती जाये है रुख से नक़ाब, आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब, आहिस्ता-आहिस्ता

और बहुत से शायर आगे जुड़े जैसे:हातिम अली,खालिक, ज़मीर, आगा हसन, हुसैन मिर्ज़ा इश्क इत्यादि. उधर दिल्ली मे गा़लिब, ज़ौक़, मिर्ज़ा दाग ने दिल्ली सकूल को संभाला. यहाँ पर अगर हम दाग़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो सब अधूरा रह जएगा.

मिर्ज़ा दाग (1831-1905) ; मै तो ये मानता हूँ कि दाग़ सबसे अच्छे शायर हुए. उन्होंने ग़ज़ल को फ़ारसी ने निजात दिलाई. इकबाल के उस्ताद थे दाग़. ग़ज़ल को अलग मुहावरा दिया इन्होंने और कई लोगों ने आगे चलकर दाग़ के स्टाइल मे शायरी की. दाग देहलवी एक परंपरा बन गई. 1865 मे बहादुर शाह जफ़र की मौत के बाद ये राम पुर चले गए. दिल्ली स्कूल को दाग से एक पहचान मिली ..

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी

नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़ुबां आते आते

दाग़ इसीलिए सराहे गए कि वो ग़ज़ल की भाषा को जान गए थे और आम भाषा और सादी उर्दू मे उन्होंनें ग़ज़लें कही, यही एक मूल मंत्र है कि ग़ज़ल की भाषा साफ और सादी होनी चाहिए.

ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई

इस शे'र को पढ़के कोई क्या कहेगा कि उर्दू का है या हिंदी का. बस हिंदोस्तानी भाषा मे लिखा एक सादा शे'र है. हिंदी और उर्दू कि बहस यही खत्म होती है कि एक बोली की दो लिपियाँ है देवनागरी और उर्दू.
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नया दौर:

अल्ताफ़ हुसैन हाली (1837-1914) पानीपत, दुरगा सहाय सरूर (1873-1910) और बहुत सारे शायरों ने ग़ज़ल को हम तक पहुँचाया. ये सफ़र खत्म करने से पहले "फ़िराक़ गोरखपुरी (जन्म" 1896 ,निधन: 1982) का ज़िक्र बहुत लाजिमी है. इनका का असली नाम रघुपति सहाय था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में हुआ था। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रध्यापक थे। यहीं पर इन्होंने "ग़ुल-ए-नग़मा" लिखी जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। उन्होंनें "भारत सरकार की उर्दू केवल मुसलमानों का भाषा" इस नीति को पुर्जोर विरोध किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको संसद में राज्य सभा का सदस्य मनोनित किया था ।

रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

और आज के दौर के सभी शायर इस विधा को नये आयाम दे रहे हैं. ग़ज़ल अब गुलो-बुलबुल के किस्सों से बाहर आ चुकी है. ग़ज़ल मे अब महबूब का ही नहीं माँ का भी ज़िक्र होता है, बेटी का भी। सो अब ये उन हवेलियों और कोठों से निकल कर घरों मे सज रही है और हिंदी उर्दू का झगड़ा कोई झगड़ा नही है. भाषा और भाव मे भाव बड़ा रहता है लेकिन भाषा की अहमीयत भी अपनी जगह है. ग़ज़ल एक कोमल विधा है। यहाँ साँस लेने से सफ़ीने डूब जाते हैं; सो ग़ज़ल की नाज़ुक ख्याली का ख्याल रखना पड़ता है. दुश्यंत के इन शब्दों के साथ इस बहस को यहाँ खत्म करता हूँ: "उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ."

Thursday, November 11, 2021

प्रताप जरयाल की ग़ज़लें













 संक्षिप्त परिचय
पिता का नाम: श्री खरूदी राम जरयाल
जन्मतिथि : 28-04-1969
शिक्षा : स्नातक , प्रभाकर
प्रकाशित साहित्य : कसक हिन्दी काव्य संग्रह , मधुमास ग़ज़ल संग्रह , दस साझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित ।पता : गांव व डाकघर बोह, उपतहसील दरीणी , तहसील शाहपुर , जिला कांगड़ा , हिमाचल प्रदेश । पिन कोड -176206
मोबाइल नंबर - 9817768661
ग़ज़ल

जब कठिन रिश्ता निभाना हो गया
दर्द का  दिल  में  ठिकाना हो गया

प्रीत की चादर  पे  शर्तें  जब तनीं
लुप्त  सारा  ताना-बाना  हो  गया

वो  चले  जाने से पहले  कह  गए
खत्म अब  रिश्ता  पुराना हो गया

उन  सुहाने  मौसमों  के  वक्त  को
दिल से गुज़रे इक ज़माना हो गया

हम हकीकत  में न  जा पाए मगर
उनके दर सपनों में जाना हो गया

क्यों मेरी खुशियां जहां को चुभ गईं
हर नज़र का मैं निशाना हो गया

हर कदम सीखा बहुत कुछ ज़िन्दगी
बस तेरा मिलना बहाना हो गया

2

झील की गहराइयों से क्या डराओगे
वक्त की परछाइयों से क्या डराओगे

हम पहाड़ों पर भी नंगे पांव चलते हैं
तुम हमें कठिनाइयों से क्या डराओगे

हमने रांझे का ही तो किरदार भोगा है
प्रीत में रुसवाइयों से क्या डराओगे

भीड़ से हमने किनारा ही किया अक्सर
तुम हमें तन्हाइयों से क्या डराओगे

उम्र के ढलने का मतलब जानता हो जो
झुर्रियों से , झांइयों से क्या डराओगे

गिरने और संभलने में ही ज़िन्दगी बीती
तो बताओ खाइयों से क्या डराओगे

ज़िन्दगी का फैसला स्वीकार है "जरयाल"
तुम कड़ी सुनवाइयों से क्या डराओगे

Tuesday, October 26, 2021

साहिर की पुण्यतिथि (25 अक्टूबर पर विशेष)- देवमणि पांडेय का लेख

 (साहिर की पुण्यतिथि 25 अक्टूबर पर विशेष) : लेखक देव मणि पांडेय

साहिर और सुधा मल्होत्रा की दास्ताँ

अमृता प्रीतम के लिए साहिर दोपहर की नींद में देखे गए किसी हसीन ख़्वाब की तरह थे। दोपहर की नींद टूटने के बाद भी ख़्वाब की ख़ुमारी घंटों छाई रहती है। अमृता प्रीतम के ज़हन पर साहिर के ख़्वाब की ख़ुमारी ताज़िंदगी छाई रही। एक दिन अमृता प्रीतम ने अपने शौहर सरदार प्रीतम से तलाक़ ले लिया मगर उनका सरनेम ताउम्र अपने पास रखा। सन् 1960 में अमृता ने मुंबई आने का इरादा किया। सुबह ब्लिट्ज अख़बार पर नज़र पड़ी। साहिर और सुधा मल्होत्रा के फोटो के नीचे लिखा था- साहिर की नई मुहब्बत। चित्रकार इमरोज़ के स्कूटर पर बैठ कर उनकी पीठ पर अंगुलियों से साहिर का नाम लिखने वाली अमृता ने शादी किए बिना इमरोज़ के साथ घर बसा लिया।
सब्ज़ शाख़ पर इतराते हुए किसी सुर्ख़ गुलाब की तरह सिने जगत में सुधा मल्होत्रा की दिलकश इंट्री हुई। काली ज़ुल्फें, गोरा रंग, बोलती हुई आंखें, हया की सुर्ख़ी से दमकते हुए रुख़सार और लबों पर रक़्स करती हुई मोहक मुस्कान ... सचमुच सुधा मल्होत्रा का हुस्न मुकम्मल ग़ज़ल जैसा था। साहिर ने इस ग़ज़ल पर एक नज़्म लिख डाली-
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए
तू इससे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पर बुलाया गया है मेरे लिए
चेतन आनंद की फ़िल्म के लिए संगीतकार ख़य्याम ने सुधा मल्होत्रा और गीता दत्त की आवाज़ में इस नज़्म को रिकॉर्ड किया। फ़िल्म नहीं बन सकी। इसी नज़्म को केंद्र में रखकर यश चोपड़ा ने एक कहानी तैयार की। इस पर एक यादगार फ़िल्म 'कभी कभी' बनी। फ़िल्म की नायिका राखी की तरह सुधा मल्होत्रा ने भी अचानक शादी कर ली थी।
फ़िल्म 'भाई बहन' (1959) में सुधा मल्होत्रा की गायकी से साहिर बेहद मुतास्सिर हुए। फ़िल्म 'दीदी' के संगीतकार एन दत्ता बीमार पड़ गए। साहिर की गुज़ारिश पर गायिका सुधा मल्होत्रा ने साहिर की नज़्म को कंपोज़ किया। सुधा की आवाज़ में यह नज़्म रिकॉर्ड हुई-
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है
साहि की शख़्सियत पर मुहब्बत का रंग छाने लगा था। फ़िल्म 'बरसात की रात' (1960) में साहिर ने गायिका सुधा मल्होत्रा के लिए सिफ़ारिश की। सुधा मल्होत्रा के हुस्न में तपिश थी मगर उनकी गायिकी भी दमदार थी। फ़िल्म की बेमिसाल क़व्वाली में उनकी गायकी का कमाल देखने लायक़ है-
ना तो कारवाँ की तलाश है,
ना तो हमसफ़र की तलाश है.
मेरे शौक़-ए-ख़ाना ख़राब को,
तेरी रहगुज़र की तलाश है
मीडिया ने सुधा मल्होत्रा को साहिर की नई मुहब्बत के रूप में प्रचारित किया। दिल्ली से आईं सुधा मलहोत्रा की उम्र महज 23 साल थी। मगर वे अमृता प्रीतम की तरह दिन में ख़्वाब देखने वाली जज़्बाती लड़की नहीं थीं। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे अब फ़िल्मों के लिए नहीं गाएंगी। दूसरा नेक काम सुधा मलहोत्रा ने ये किया कि अपने बचपन के दोस्त शिकागो रेडियो के मालिक गिरधर मोटवानी से तुरंत शादी कर ली। फ़िल्मी चकाचौंध से दूर अपने घर की दहलीज़ में आस्था का दीया जलाकर सुधा मल्होत्रा गा रहीं थीं-
न मैं धन चाहूँ न रतन चाहूँ
तेरे चरणों की धूल मिल जाए
तो मैं तर जाऊं
राज कपूर ने सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में एक ग़ज़ल सुनी। वे सुधा के घर गए। सुधा ने कहा- राज साहब, अब मैं फ़िल्मों के लिए नहीं गाती। उनके आग्रह पर सुधा ने अमेरिका अपने शौहर को फ़ोन किया। शौहर ने अनुमति दी। फ़िल्म 'प्रेम रोग' में सुधा मलहोत्रा ने एक गीत गाया-
ये प्यार था या कुछ और था
न तुझे पता न मुझे पता
अब्दुल हई उर्फ़ साहिर ने नज़्म की शक्ल में अपनी पहली मुहब्बत ऐश कौर को एक ख़त लिखा था। नतीजा ये हुआ कि कॉलेज प्रशासन ने साहिर को कॉलेज से निकाल दिया। साहिर के दिल में न जाने कैसा ख़ौफ़ बैठ गया कि उन्होंने न तो अमृता प्रीतम से अपनी मुहब्बत का इज़हार किया और न ही सुधा मल्होत्रा से। उनकी ख़ामोशी में उनका इज़हार पोशीदा था। मुहब्बत उनके लिए हसीन ख़्वाबों की एक धनक थी जिसका दूर से वे दीदार किया करते थे। अपनी तनहाइयों को रोज़ शाम को वे जाम से आबाद किया करते थे। मगर दुनिया को साहिर मुहब्बत के ऐसे तराने दे गए जिसमें धड़कते दिलों की गूंज सुनाई पड़ती है।
साहिर अपने गीतों में नया रंग और नई ख़ुशबू लेकर आए। देश, समाज और वक़्त के मसाईल के साथ उनके गीतों में एहसास और जज़्बात की ऐसी नक़्क़ाशी है जिससे उनके गीत बिल्कुल अलग नज़र आते हैं। एक जुमले में किसी अहम् बात को साहिर इतनी ख़ूबसूरती से कह देते हैं कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है- जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं।
8 मार्च 1921 को लुधियाना में जन्मे साहिर लुधियानवी का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। साहिर ने चार मिसरे अपने लिए कहे थे। वो आपके लिए पेश हैं-
न मुंह छुपा के जिए हम न सर झुका के जिए
सितमगरों की नज़र से नज़र मिलाके जिए
अब एक रात अगर कम जिए तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मशअलें जलाके जिए
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

फेसबुक से साभार

Wednesday, October 20, 2021

देवमणि पांडेय जी की पांच ग़ज़लें

=== परिचय : देवमणि पांडेय === 


जन्म : 4 जून 1958 सुलतानपुर (उ.प्र.), 
शिक्षा :  हिन्दी और संस्कृत में प्रथम श्रेणी एम.ए.। 
लेखन विधा : गीत, ग़ज़ल, कविताएं, लेख। 

दो ग़ज़लें वर्ष 2017 में जलगांव विश्व विद्यालय के एम ए हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल। 

चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं- 1.दिल की बातें (1999), 2. ख़ुशबू की लकीरें (2005), 3.अपना तो मिले कोई (2012), 4. कहां मंज़िलें कहां ठिकाना (2020)। सिने गीतकारों और फ़िल्म लेखकों पर इंडिया नेट बुक्स नई दिल्ली से एक किताब प्रकाशित- 'अभिव्यक्ति के इंद्रधनुष : सिने जगत की सांस्कृतिक संपदा।'  

मुम्बई के सांध्य दैनिक 'संझा जनसत्ता' में कई सालों तक साप्ताहिक स्तम्भ 'साहित्यनामचा' का लेखन। हिंदी-उर्दू की साहित्यिक पत्रिकाओं में ग़ज़लें प्रकाशित। देश-विदेश में कई पुरस्कारों और सम्मान से अलंकृत। 


बतौर सिने गीतकार देवमणि पांडेय के कैरियर की शुरूआत निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म 'हासिल' से हुई। डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म 'पिंजर' में उनके लिखे गीत 'चरखा चलाती मां' को सन् 2003 के लिए बेस्ट लिरिक ऑफ दि इयर अवार्ड से नवाज़ा गया। 

गीतकार देवमणि पांडेय ने 'कहां हो तुम' और 'तारा : दि जर्नी आफ लव आदि फिल्मों को भी अपने गीतों से सजाया है। उन्होंने सोनी चैनल के धारावाहिक 'एक रिश्ता साझेदारी का', स्टार प्लस के सीरियल 'एक चाबी है पड़ोस में' और ऐंड टीवी के धारावाहिक 'येशु' भी अपने क़लम का जादू दिखाया है। संगीत अल्बम गुज़ारिश, तन्हा तन्हा और बेताबी में भी उनके गीत पसंद किए गए।  

सम्पर्क :
देवमणि पांडेय : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाड़ा, गोकुलधाम, फ़िल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063, M : 98210 82126 

(1) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

मेरा यक़ीन, हौसला, किरदार देखकर 
मंज़िल क़रीब आ गई रफ़्तार देखकर 

जब फ़ासले हुए हैं तो रोई है मां बहुत
बेटों के दिल के दरमियां दीवार देखकर 

हर इक ख़बर का जिस्म लहू में है तरबतर 
मैं डर गया हूँ आज का अख़बाऱ देखकर 

बरसों के बाद ख़त्म हुआ बेघरी का दर्द  
दिल ख़ुश हुआ है दोस्तो घरबार देखकर 

दरिया तो चाहता था कि सबकी बुझा दे प्यास 
घबरा गया वो इतने तलबगार देखकर 

वो कौन था जो शाम को रस्ते में मिल गया
वो दे गया है रतजगा एक बार देखकर 

चेहरे से आपके भी झलकने लगा है इश्क़ 
जी ख़ुश हुआ है आपको बीमार देखकर 


(2) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

फूल महके यूं फ़ज़ा में रुत सुहानी मिल गई 
दिल में ठहरे एक दरिया को रवानी मिल गई 

घर से निकला है पहनकर जिस्म ख़ुशबू का लिबास
लग रहा है गोया इसको रातरानी मिल गई 

कुछ परिंदों ने बनाए आशियाने शाख़ पर
गाँव के बूढ़े शजर को फिर जवानी मिल गई 

आ गए बादल ज़मीं पर सुनके मिट्टी की सदा
सूखती फ़सलों को पल में ज़िंदगानी मिल गई 

जी ये चाहे उम्र भर मैं उसको पढ़ता ही रहूं
याद की खिड़की पे बैठी इक कहानी मिल गई 

मां की इक उंगली पकड़कर हंस रहा बचपन मेरा
एक अलबम में वही फोटो पुरानी मिल गई 

  
(3) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

बदली निगाहें वक़्त की क्या क्या चला गया 
चेहरे के साथ साथ ही रुतबा चला गया 

बचपन को साथ ले गईं घर की ज़रूरतें 
अपनी किताबें छोड़के बच्चा चला गया 

मेरी तलब को जिसने समंदर अता किया 
अफ़सोस मेरे दर से वो प्यासा चला गया 

वो बूढ़ी आंखें आज भी रहती हैं मुंतज़िर
जिनको अकेला छोड़के बेटा चला गया 

रिश्ता भी ख़ुद में होता है स्वेटर ही की तरह   
उधड़ा जो एक बार, उधड़ता चला गया 

अपनी अना को छोड़के पछताए हम बहुत 
जैसे किसी दरख़्त का साया चला गया 

(4) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

वक़्त के सांचे में ढल कर हम लचीले हो गए 
रफ़्ता रफ़्ता  ज़िंदगी के पेंच ढीले हो गए  

इस तरक़्क़ी से भला क्या फ़ायदा हमको हुआ
बुझ न पाई प्यास कुछ, बस होंठ गीले हो गए 

जी हुज़ूरी की सभी को किस कदर आदत पड़ी 
जो थे परबत कल तलक वो आज टीले हो गए
 
क्या हुआ क्यूं घर किसी का आ गया फुटपाथ पर     
शायद उनकी लाडली के हाथ पीले हो गए 

 आपके बर्ताव में थी सादगी पहले बहुत
जब ज़रा शोहरत मिली तेवर नुकीले हो गए 

हक़ बयानी की हमें क़ीमत अदा करनी पड़ी 
हमने जब सच कह दिया वो लाल-पीले हो गए 

हो मुख़ालिफ़ वक़्त तो मिट जाता है नामो-निशां
इक महाभारत में गुम कितने क़बीले हो गए 

(5) देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

इस जहां में प्यार महके ज़िंदगी बाक़ी रहे.
ये दुआ मांगो दिलों में रौशनी बाक़ी रहे. 

आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जायेगा,
ये ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमी बाक़ी रहे. 

दोस्तों से दिल का रिश्ता काश हो कुछ इस तरह,
दुश्मनी के साये में भी दोस्ती बाक़ी रहे. 

ख़्वाब का सब्ज़ा उगेगा दिल के आंगन में ज़रूर,  
शर्त है आँखों में अपनी कुछ नमी बाक़ी रहे. 

इश्क़ जब कीजे किसी से दिल में ये जज़्बा भी हो,
लाख हों रुसवाइयां पर आशिक़ी बाक़ी रहे. 

दिल में मेरे पल रही है ये तमन्ना आज भी,
इक समंदर पी चुकूं और तिश्नगी बाक़ी रहे.
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