Monday, March 10, 2025

फ़हमी बदायूनी -बड़े शायर का बड़ा शे'र -6 वीं क़िस्त



1952- 2024

बदायूँ उत्तर प्रदेश

Hijr Ki Dusri Dawa Book>> https://amzn.to/4kuePs2

टहलते फिर रहे हैं सारे घर में
तिरी ख़ाली जगह को भर रहे है
 फ़हमी बदायूनी 

छोटी बहर में ग़ज़लें कहने वाले ये शायर , निरंतर मश्क करते रहते थे | रोज़ शे'र कहते रहना और नये -नये ज़ाविये निकालना और प्रयोग करते रहना | ऐसा लगता है को वो शे'र बनाने वाली किसी लैब में रोज़ बैठते हों | उनका मानना था कि शायर अगर एक -आध शे'र रोज़ कहता रहे और बाद में एक अच्छी सी ज़मीन में सारे कहे हुए अशआर ज़रूरत के मुताबिक़ बैठा ले और शायद बात भी सही है  और चाहते थे कि एक -एक शे'र को किसी किताब में छापा भी जाए ,जिसमें मोहब्बत पर कुछ शे'र , कुछ और मसाइल पर | जैसे कबीर दोहे कहते थे |शायरी वास्तव में एक मश्क ही है और कई बार ऊब भी आती है इस बात से कि कहीं सिंथेटिक तो नहीं शायरी  या फिर कभी-कभी ग़ज़ल की बंदिशें  आप को  रोक भी लेती हैं आप पूरा -पूरा वो कह नहीं पाते जो चाहते हो  ,जैसे ग़ालिब ने भी कहा है -

ब-क़द्र-ए-शौक़ नहीं ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए

 फ़हमी बदायूनी साहब ने बड़े ख़ूबसूरत शे'र कहे हैं  ,आनन्द लीजिए |शायरी एक्सप्रेशन है , कैफ़ियत है , नज़ाकत है और attitude भी है -

काश वो रास्ते में मिल जाए
मुझ को मुँह फेर कर गुज़रना है

ख़ुशी से काँप रही थीं ये उँगलियाँ इतनी
डिलीट हो गया इक शख़्स सेव करने में

पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा
कितना आसान था इलाज मिरा

बहुत कहती रही आँधी से चिड़िया
कि पहली बार बच्चे उड़ रहे हैं

फ़हमी बदायूनी 


लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
disclaimer-affiliatedlink in article


Wednesday, March 5, 2025

तहज़ीब हाफ़ी -बड़े शायर का बड़ा शे'र - पांचवीं क़िस्त


पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था

तहज़ीब हाफ़ी की शोहरत उसकी शायरी से बड़ी है और बहुत कम शायरों को ये नसीब होती है | मुशायरों में बहुत क्रेज़ है इनका और मुशायरे की शायरी थोड़ी अलग होती है जो वाह वाही की ज़्यादा परवाह करती है और तहजीब हाफ़ी ने युवा श्रोताओं की नब्ज़ पकड़ी है | इंटरनेट की दुनिया का सबसे पापुलर शायर है हांफ़ी|  पाकिस्तानी पंजाब के तौंसा शरीफ़ में 1989 में इनका जन्म हुआ | यहाँ की मिट्टी शायर और शायरी के शौकीन ज़्यादा पैदा करती है और लोग ज़मीन से जुड़े हुए सादगी पसंद  हैं | 

tehzeeb hafi shayari book in hindi >> https://amzn.to/4krZ7Og

सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
हाथों में फूल हैं मिरे पाँव में रेत है

मिरे हाथों से लग कर फूल मिट्टी हो रहे हैं
मिरी आँखों से दरिया देखना सहरा लगेगा

If you ask me I would say -Poetry is romance with sadness 

T.S. Eliot“Poetry is not an expression of personality but an escape from personality.”

शायर फ़रार  चाहता है  जैसे ग़ालिब कहता है -

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब





Tuesday, March 4, 2025

नासिर काज़मी -बड़े शायर का बड़ा शे'र -चौथी क़िस्त

 



अकेले घर से पूछती है बे-कसी
तिरा दिया जलाने वाले क्या हुए

जन्म: 8 दिसंबर 1925, अंबाला, ब्रिटिश भारत
मृत्यु: 2 मार्च 1972, लाहौर, पाकिस्तान

Samuel Taylor Coleridge -"Poetry- the best words in the best order."


सही शब्द , सही क्रम में ..ये बात ग़ज़ल पर बहुत फ़िट बैठती है | सही शब्द ,कम शब्द और  सही order में |ये काम मीर तक़ी मीर के बाद नासिर काज़मी साहब ने बहुत अच्छे से किया | बात  वही बस जुदा अंदाज़ में |  वही सिम्पल सिम्बली , दिया ,दरिया ,सहरा ,समन्दर ,कश्ती के ज़रिए बेमिसाल बात कह देना जैसे -,

हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर'
उदासी बाल खोले सो रही है

नासिर काज़मी की शायरी की किताबें >> https://amzn.to/41ox3mf

नासिर ख़ुद मानते थे कि उन पर मीर का गहरा असर रहा लेकिन फिर भी पाठक तक मीर और नासिर  जुदा -जुदा पहुँचते हैं ,यही क़ाबलियत है अच्छे शायर की |  

शे’र होते हैं मीर के, नासिर
लफ़्ज़ बस दाएं बाएं करता है

एक अच्छा शे'र क्या होता है देखिए -

ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ

आती रुत मुझे रोएगी
जाती रुत का झोंका हूँ

शब्द अर्थ लेकर नहीं चलते बल्कि असर लेकर भी चलते हैं और  एक गहरी बात कहता चलूँ  शब्द असर ही नहीं कहने वाले के भाव की सच्चाई लेकर भी चलते हैं | मैंने कहीं पढ़ा है -

Language is intention not the words that comes out from your mouth nor the script in which it is written.


लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
disclaimer-affiliatedlink in article



Monday, March 3, 2025

मुमताज़ गुर्मानी-बड़े शायर का बड़ा शे'र --तीसरी क़िस्त



 आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर 
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा 

मुमताज़ गुर्मानी , डेरा ग़ाज़ी ख़ान  दक्षिण-पश्चिमी पंजाब के मौजूदा दौर के उम्दा शायर हैं | जिस इलाक़े से ये आते हैं वहाँ के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि हर कोई शायरना मिज़ाज का लगता है | बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा के करीब का ये इलाक़ा , जैसे मै नें जाना लोग मिट्टी से ज़्यादा जुड़े हुए हैं,    शहरी हवा अभी यहाँ फिरी नहीं मालूम होती | छोटी-छोटी निशिस्तें करते हैं शायर और मज़ा लेते हैं | कहते हैं कि गुरमानी साहब मुशायरों में कम शिरकत करते हैं लेकिन क्या कमाल की शायरी करते हैं -

कभी मैं पूछता रहता था कौन है दर पर 
और अब मैं दौड़ के जाता हूँ और देखता हूँ 

सुना है मौत मुदावा है जीस्त के ग़म का 
रुको मैं जान से जाता हूँ और देखता हूँ 
मुमताज़ गुर्मानी

Best collection >पाकिस्तानी शायरी (हिन्दी में ) >> https://amzn.to/41EOLTK


इस दौर में बहुत शायरी हो रही है और शायर भी बेशुमार हैं ,ऐसा लगता है हर तीन में एक आदमी शायर हो गया हो लेकिन तकनीक के इस दौर शायरी से वो गहराई ग़ायब हो गई और ये बात भी सही है कि अच्छे शायर के लिए कम्पीटीशन न के बराबर है | कहीं-कहीं कोई गुरमानी साहब की तरह उम्दा शायर मिल जाता है | बाक़ी बहुत से शायर हैं जिन की शायरी उन की ज़ुल्फ़ों से कहीं कमतर हसीन है | नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है | खैर इस शायर का अपना एक अलग अंदाज़ है -

मुझ पे तन्हा नहीं अफ़्लाक के दर बंद हुए
मेरा दुश्मन भी मेरे साथ ज़मीं पर आया
मुमताज़ गुर्मानी

 हिन्दी के कवि शमशेर बहादुर सिंह लिखते  हैं न -
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
ऐसे ही शे'र बोलता , शायर नहीं और बानगी देखिए -

आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर 
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा 

लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
disclaimer-affiliatedlink in article

    Saturday, March 1, 2025

    मीर तक़ी मीर- बड़े शायर का बड़ा शे'र -दूसरी क़िस्त


    पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
    जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

    मीर तक़ी मीर (1723 - 1810)

    ओशो ने एक बार कहीं कहा था कि कवि और संत में एक बड़ा अंतर ये है कि संत हर वक़्त संत होता है और कवि सिर्फ़ उस वक़्त संत होता है  जब कविता की आमद हो रही होती है क्योंकि कविता भी एक पारलौकिक घटना है जो किसी शाख़ पर नन्हीं कोंपल की तरह अपने आप फूटती है | ये बात और कि कवि उसे छंद से ,बहर से और उपमाओं से सजाता है | मीर शायद एक ऐसे शायर थे जो हर वक़्त फ़क़ीर भी रहे होंगे | सूफ़ीवाद या भक्ति काल जो 14वीं सदी से 17 वीं सदी तक रहा उस का  असर 1723 में आगरा में  जन्में मीर की शायरी में भी साफ़ झलकता है , हालांकि वो उर्दू के शायर रहे लेकिन उन का कलाम सूफ़ियों जैसा ही है ,एक दीवान उनका फ़ारसी में भी है  ,छ: दीवान उर्दू में हैं  | ग़ालिब भी मीर की तारीफ़ करते हुए कहते हैं - 


    मीर तक़ी मीर की शायरी की किताबें >>  https://amzn.to/3XmUmf1


    रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
    कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था

    मीर की सरलता ही उस की ख़ूबी है और ये आसानी  ही  मुश्किल काम है | वो कुछ ही साधारण अल्फाज़ में बड़ी बात कह देते हैं | आप एक बात आज़मा के देख लेना कोई फ़क़ीर हो या कोई महान वैज्ञानिक ही क्यों न हो वो हमेशा सरल और सहज ही होगा ,ये सरलता ख़ुदा की देन होती है | हम  पढ़-पढ़ कर जटिल हो जाते हैं जबकि सरल होना बेहतर होना है |

    Unlearning is way to simplicity, wisdom and this is essence of sufiism also.

    और ये है सरलता -

    नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
    पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

    शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
    दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का

    राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
    आगे आगे देखिए होता है क्या

    मीर तक़ी मीर 

    ग़ालिब की शायरी के उलट मीर बहुत सरल और सहज है , मानो छोटी सी शीतल नदी जो ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बड़ी आसानी से गुज़र जाती है | वो दौर जब मीर ये अशआर कह रहे थे कोई बहुत शांत नहीं था उस वक़्त अब्दाली दिल्ली पर धावा बोल रहा था  लेकिन मीर किसी फ़क़ीर की तरह प्रेम की लौ लगाए शे'र कहते रहे हालांकि एक बार वो दिल्ली से निकल कर लखनऊ भी आते हैं |

    एक बात और मीर ने हिन्दी मीटर का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया जो उर्दू शायरी में कम देखने को मिलता है जैसे यही शे'र देख लीजिए 

    पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
    जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

    और ये भी -

    उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
    देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

    चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
    पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है

    इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
    जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया

    फिर बाद में कई शायरों ने इस मीटर में ग़ज़लें कहीं | ये थे 'ख़ुदा-ए-सुख़न' मीर तक़ी मीर जिन का असर नासिर काज़मी और जौन एलिया जैसे शायरों पर भी नज़र आता है |



    लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
    disclaimer-affiliatedlink in article