मुज़फ़्फ़र वारसी
दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक
ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं
इन्सान
हूँ, प्याला-ओ-साग़र
नहीं हूँ मैं
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं
आख़िर
गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
लाल-ओ-ज़मुर्रुदो--ज़र-ओ-गौहर नहीं
हूँ मैं
रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यों दरेग़
रुतबे
में मेहर-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं
करते हो मुझको मनअ़-ए-क़दम-बोस किस लिये
क्या
आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं?
'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़्वार हो, दो शाह को दुआ
वो
दिन गये कि कहते थे "नौकर नहीं हूँ मैं"
ग़ालिब की ग़ज़ल -- कविता कोष से साभार