Saturday, March 29, 2025

खिड़की पर अश'आर


जैसे रेल की हर खिड़की की अपनी अपनी दुनिया है
कुछ मंज़र तो बन नहीं पाते कुछ पीछे रह जाते हैं
अमजद इस्लाम अमजद

 सो गए लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
नासिर काज़मी

रात थी जब तुम्हारा शहर आया
फिर भी खिड़की तो मैं ने खोल ही ली
शारिक़ कैफ़ी

दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
झोंका हवा का खिड़की के पर्दे हिला गया
आदिल मंसूरी

खिड़की के रस्ते से लाया करता हूँ
मैं बाहर की दुनिया ख़ाली कमरे में
ज़ीशान साहिल

खिड़की में कटी हैं सब रातें
कुछ चौरस थीं कुछ गोल कभी
गुलज़ार

हैं अँधेरी कोठरी में नूर की खिड़की "ख़याल"
आँख  अपनी बंद करके देख तो  दिल की तरफ़ 
सतपाल ख़याल 

Monday, March 24, 2025

विनोद कुमार शुक्ल





विनोद कुमार शुक्ल-कविता सबसे ग़रीब आदमी की  

सबसे ग़रीब आदमी की
सबसे कठिन बीमारी के लिए

सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए
जिसकी सबसे ज़्यादा फ़ीस हो

सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर
उस ग़रीब की झोंपड़ी में आकर

झाड़ू लगा दे
जिससे कुछ गंदगी दूर हो।

सामने की बदबूदार नाली को
साफ़ कर दे

जिससे बदबू कुछ कम हो।
उस ग़रीब बीमार के घड़े में

शुद्ध जल दूर म्युनिसिपल की
नल से भरकर लाए।

बीमार के चीथड़ों को
पास के हरे गंदे पानी के डबरे

से न धोए।
कहीं और धोए।

बीमार को सरकारी अस्पताल
जाने की सलाह न दे।

कृतज्ञ होकर
सबसे बड़ा डॉक्टर सबसे ग़रीब आदमी का इलाज करे

और फ़ीस माँगने से डरे।
सबसे ग़रीब बीमार आदमी के लिए

सबसे सस्ता डॉक्टर भी
बहुत महँगा है।



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Tuesday, March 18, 2025

"चर्ख़े" पर चंद अश'आर



माने न माने कोई हक़ीक़त तो है यही
चर्ख़ा है जिस के पास उसी की कपास है
निदा फ़ाज़ली

अज़ल से चाँद में चर्ख़ा चला रही है मगर
'नवाज़' अब भी वो बुढ़िया निढाल थोड़ी है
नवाज़ असीमी

नानी ने तर्क कर दी क्यूँ रस्म-ए-क़िस्सा-गोई
क्या चाँद से किसी ने चर्ख़ा उठा लिया है
पारस मज़ारी

जिसे हम लोग मिल कर आश्रम में छोड़ आए थे
वो चरख़ा कातती है चाँद के चेहरे में रहती है
रहमान मुसव्विर

सिरहाने रख के चर्ख़ा और पूनी
थकी बुढ़िया ज़रा लेटी हुई है
नजमा साक़िब

टूट जाएगा ये चर्ख़ा जिस्म का चलते हुए
और क़ैदी क़ैद से आख़िर रिहा हो जाएगा
ताजुन्निसा ताज

Saturday, March 15, 2025

"पुल" लफ़्ज़ पर कुछ अश'आर



तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
दुष्यंत कुमार

पक्ष-ओ-प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
दुष्यंत कुमार

उदासी आसमाँ है दिल मिरा कितना अकेला है
परिंदा शाम के पुल पर बहुत ख़ामोश बैठा है
बशीर बद्र

झिलमिलाते हैं कश्तियों में दिए
पुल खड़े सो रहे हैं पानी में
बशीर बद्र

'हसीब'-सोज़ जो रस्सी के पुल पे चलते थे
पड़ा वो वक़्त कि सड़कों पे चलना भूल गए
हसीब सोज़

ज़िंदगी की ये घड़ी टूटता पुल हो जैसे
कि ठहर भी न सकूँ और गुज़र भी न सकूँ
अहमद फ़राज़

दरिया उतर गया है मगर बह गए हैं पुल
उस पार आने जाने के रस्ते नहीं रहे
नवाज़ देवबंदी

ख़याल” अब खाइयाँ है नफ़रतों की
वो पुल जो जोड़ते थे वो कहाँ है
सतपाल ख़याल 


Thursday, March 13, 2025

"बटन" पर कुछ अशआर


दाएरे अँधेरों के रौशनी के पोरों ने
कोट के बटन खोले टाई की गिरह खोली
बशीर बद्र

मोहज़्ज़ब आदमी पतलून के बटन तो लगा
कि इर्तिक़ा है इबारत बटन लगाने से
जौन एलिया

मेरी इक शर्ट में कल उस ने बटन टाँका था
शहर के शोर में चूड़ी की खनक आज भी है
तनवीर ग़ाज़ी

बटन बस शर्ट में इक टाँक देते
तो सब ग़ुस्सा उतर जाता हमारा
फ़हमी बदायूनी

कभी क़मीज़ के आधे बटन लगाते थे
और अब बदन से लबादा नहीं उतरता है
शकील जमाली

जेब ग़ाएब है तो नेफ़ा है बटन के बदले
तुम ने पतलून का पाजामा बना रखा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

है ज़िंदगी क़मीज़ का टूटा  हुआ बटन 
बिँधती हैं उँगलियाँ भी जिसे टाँकते हुए
द्विजेन्द्र द्विज 

एक शे'र मेरा भी -

हो गया मसरूफ़ इतना घर कि अब ये हल है 
तंज़ करते हैं  क़मीज़ों के बटन टूटे हुए 

सतपाल ख़याल 



Monday, March 10, 2025

फ़हमी बदायूनी -बड़े शायर का बड़ा शे'र -6 वीं क़िस्त





4 जून 1952 बदायूँ , उत्तर प्रदेश 
 20 अक्तूबर 2024 बदायूँ ,उत्तर प्रदेश 

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टहलते फिर रहे हैं सारे घर में
तिरी ख़ाली जगह को भर रहे है
 फ़हमी बदायूनी 

शायरी एक्सप्रेशन है , कैफ़ियत है , नज़ाकत है और attitude भी है -

काश वो रास्ते में मिल जाए
मुझ को मुँह फेर कर गुज़रना है

ख़ुशी से काँप रही थीं ये उँगलियाँ इतनी
डिलीट हो गया इक शख़्स सेव करने में

पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा
कितना आसान था इलाज मिरा

बहुत कहती रही आँधी से चिड़िया
कि पहली बार बच्चे उड़ रहे हैं

फ़हमी बदायूनी 


छोटी बहर में कितने अच्छे  अशआर  कहे हैं  फ़हमी बदायूनी  साहब ने | लगातार शे'र कहते रहते थे  और नये-नये शब्द  ,नये ज़ाविये लेकर आते थे  | फ़ेसबुक पर हर रोज़ मुलाक़ात  हो जाती थी | सरहद पार तक इनके शे'र गूँज रहे थे  | ये भी  मीर के घराने से ही लगते  हैं  लेकिन  प्रयोग बहुत करते हैं  ,सादा अल्फाज़ में गहरी बात  कह  जाते थे | इस उम्दा शायर  को सलाम है |

शायर एक  तरह से दीवाने ही होते हैं  जैसे  जौन एलिया कहते हैं -

मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
 ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं


लेखक -सतपाल ख़याल @copyright

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Wednesday, March 5, 2025

तहज़ीब हाफ़ी -बड़े शायर का बड़ा शे'र - पांचवीं क़िस्त


पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था

तहज़ीब हाफ़ी की शोहरत उसकी शायरी से बड़ी है और बहुत कम शायरों को ये नसीब होती है | मुशायरों में बहुत क्रेज़ है इनका और मुशायरे की शायरी थोड़ी अलग होती है जो वाह वाही की ज़्यादा परवाह करती है और तहजीब हाफ़ी ने युवा श्रोताओं की नब्ज़ पकड़ी है | इंटरनेट की दुनिया का सबसे पापुलर शायर है हांफ़ी|  पाकिस्तानी पंजाब के तौंसा शरीफ़ में 1989 में इनका जन्म हुआ | यहाँ की मिट्टी शायर और शायरी के शौकीन ज़्यादा पैदा करती है और लोग ज़मीन से जुड़े हुए सादगी पसंद  हैं | 

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सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
हाथों में फूल हैं मिरे पाँव में रेत है

मिरे हाथों से लग कर फूल मिट्टी हो रहे हैं
मिरी आँखों से दरिया देखना सहरा लगेगा

If you ask me I would say -Poetry is romance with sadness 

T.S. Eliot“Poetry is not an expression of personality but an escape from personality.”

शायर फ़रार  चाहता है  जैसे ग़ालिब कहता है -

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब





Tuesday, March 4, 2025

नासिर काज़मी -बड़े शायर का बड़ा शे'र -चौथी क़िस्त

 



अकेले घर से पूछती है बे-कसी
तिरा दिया जलाने वाले क्या हुए

जन्म: 8 दिसंबर 1925, अंबाला, ब्रिटिश भारत
मृत्यु: 2 मार्च 1972, लाहौर, पाकिस्तान

Samuel Taylor Coleridge -"Poetry- the best words in the best order."


सही शब्द , सही क्रम में ..ये बात ग़ज़ल पर बहुत फ़िट बैठती है | सही शब्द ,कम शब्द और  सही order में |ये काम मीर तक़ी मीर के बाद नासिर काज़मी साहब ने बहुत अच्छे से किया | बात  वही बस जुदा अंदाज़ में |  वही सिम्पल सिम्बली , दिया ,दरिया ,सहरा ,समन्दर ,कश्ती के ज़रिए बेमिसाल बात कह देना जैसे -,

हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर'
उदासी बाल खोले सो रही है

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नासिर ख़ुद मानते थे कि उन पर मीर का गहरा असर रहा लेकिन फिर भी पाठक तक मीर और नासिर  जुदा -जुदा पहुँचते हैं ,यही क़ाबलियत है अच्छे शायर की |  

शे’र होते हैं मीर के, नासिर
लफ़्ज़ बस दाएं बाएं करता है

एक अच्छा शे'र क्या होता है देखिए -

ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ

आती रुत मुझे रोएगी
जाती रुत का झोंका हूँ

शब्द अर्थ लेकर नहीं चलते बल्कि असर लेकर भी चलते हैं और  एक गहरी बात कहता चलूँ  शब्द असर ही नहीं कहने वाले के भाव की सच्चाई लेकर भी चलते हैं | मैंने कहीं पढ़ा है -

Language is intention not the words that comes out from your mouth nor the script in which it is written.


लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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Monday, March 3, 2025

मुमताज़ गुर्मानी-बड़े शायर का बड़ा शे'र --तीसरी क़िस्त



 आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर 
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा 

मुमताज़ गुर्मानी , डेरा ग़ाज़ी ख़ान  दक्षिण-पश्चिमी पंजाब के मौजूदा दौर के उम्दा शायर हैं | जिस इलाक़े से ये आते हैं वहाँ के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि हर कोई शायरना मिज़ाज का लगता है | बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा के करीब का ये इलाक़ा , जैसे मै नें जाना लोग मिट्टी से ज़्यादा जुड़े हुए हैं,    शहरी हवा अभी यहाँ फिरी नहीं मालूम होती | छोटी-छोटी निशिस्तें करते हैं शायर और मज़ा लेते हैं | कहते हैं कि गुरमानी साहब मुशायरों में कम शिरकत करते हैं लेकिन क्या कमाल की शायरी करते हैं -

कभी मैं पूछता रहता था कौन है दर पर 
और अब मैं दौड़ के जाता हूँ और देखता हूँ 

सुना है मौत मुदावा है जीस्त के ग़म का 
रुको मैं जान से जाता हूँ और देखता हूँ 
मुमताज़ गुर्मानी

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इस दौर में बहुत शायरी हो रही है और शायर भी बेशुमार हैं ,ऐसा लगता है हर तीन में एक आदमी शायर हो गया हो लेकिन तकनीक के इस दौर शायरी से वो गहराई ग़ायब हो गई और ये बात भी सही है कि अच्छे शायर के लिए कम्पीटीशन न के बराबर है | कहीं-कहीं कोई गुरमानी साहब की तरह उम्दा शायर मिल जाता है | बाक़ी बहुत से शायर हैं जिन की शायरी उन की ज़ुल्फ़ों से कहीं कमतर हसीन है | नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है | खैर इस शायर का अपना एक अलग अंदाज़ है -

मुझ पे तन्हा नहीं अफ़्लाक के दर बंद हुए
मेरा दुश्मन भी मेरे साथ ज़मीं पर आया
मुमताज़ गुर्मानी

 हिन्दी के कवि शमशेर बहादुर सिंह लिखते  हैं न -
बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।
ऐसे ही शे'र बोलता , शायर नहीं और बानगी देखिए -

आज कुछ शहर के बूढ़ों से मिलूंगा जाकर 
आज मुद्धत से पड़े बंद मकां खोलूँगा 

लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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    Saturday, March 1, 2025

    मीर तक़ी मीर- बड़े शायर का बड़ा शे'र -दूसरी क़िस्त


    पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
    जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

    मीर तक़ी मीर (1723 - 1810)

    ओशो ने एक बार कहीं कहा था कि कवि और संत में एक बड़ा अंतर ये है कि संत हर वक़्त संत होता है और कवि सिर्फ़ उस वक़्त संत होता है  जब कविता की आमद हो रही होती है क्योंकि कविता भी एक पारलौकिक घटना है जो किसी शाख़ पर नन्हीं कोंपल की तरह अपने आप फूटती है | ये बात और कि कवि उसे छंद से ,बहर से और उपमाओं से सजाता है | मीर शायद एक ऐसे शायर थे जो हर वक़्त फ़क़ीर भी रहे होंगे | सूफ़ीवाद या भक्ति काल जो 14वीं सदी से 17 वीं सदी तक रहा उस का  असर 1723 में आगरा में  जन्में मीर की शायरी में भी साफ़ झलकता है , हालांकि वो उर्दू के शायर रहे लेकिन उन का कलाम सूफ़ियों जैसा ही है ,एक दीवान उनका फ़ारसी में भी है  ,छ: दीवान उर्दू में हैं  | ग़ालिब भी मीर की तारीफ़ करते हुए कहते हैं - 


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    रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
    कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था

    मीर की सरलता ही उस की ख़ूबी है और ये आसानी  ही  मुश्किल काम है | वो कुछ ही साधारण अल्फाज़ में बड़ी बात कह देते हैं | आप एक बात आज़मा के देख लेना कोई फ़क़ीर हो या कोई महान वैज्ञानिक ही क्यों न हो वो हमेशा सरल और सहज ही होगा ,ये सरलता ख़ुदा की देन होती है | हम  पढ़-पढ़ कर जटिल हो जाते हैं जबकि सरल होना बेहतर होना है |

    Unlearning is way to simplicity, wisdom and this is essence of sufiism also.

    और ये है सरलता -

    नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
    पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

    शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
    दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का

    राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
    आगे आगे देखिए होता है क्या

    मीर तक़ी मीर 

    ग़ालिब की शायरी के उलट मीर बहुत सरल और सहज है , मानो छोटी सी शीतल नदी जो ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बड़ी आसानी से गुज़र जाती है | वो दौर जब मीर ये अशआर कह रहे थे कोई बहुत शांत नहीं था उस वक़्त अब्दाली दिल्ली पर धावा बोल रहा था  लेकिन मीर किसी फ़क़ीर की तरह प्रेम की लौ लगाए शे'र कहते रहे हालांकि एक बार वो दिल्ली से निकल कर लखनऊ भी आते हैं |

    एक बात और मीर ने हिन्दी मीटर का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया जो उर्दू शायरी में कम देखने को मिलता है जैसे यही शे'र देख लीजिए 

    पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
    जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

    और ये भी -

    उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
    देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

    चलते हो तो चमन को चलिए कहते हैं कि बहाराँ है
    पात हरे हैं फूल खिले हैं कम-कम बाद-ओ-बाराँ है

    इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
    जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया

    फिर बाद में कई शायरों ने इस मीटर में ग़ज़लें कहीं | ये थे 'ख़ुदा-ए-सुख़न' मीर तक़ी मीर जिन का असर नासिर काज़मी और जौन एलिया जैसे शायरों पर भी नज़र आता है |



    लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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    Friday, February 28, 2025

    जौन एलिया -बड़े शायर का बड़ा शे'र पहली क़िस्त





    जन्म - 14 Dec 1931 -अमरोहा, उत्तर प्रदेश
    निधन - 08 Nov 2002 - कराची, सिंध

    हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
    यही मुमकिन था इतनी उजलत में


    जौन एलिया , ग़ालिब के बाद शायद इकलौते शायर हुए जो अन्दर से दार्शनिक भी थे और आप उन्हें वली या औलिया भी कह सकते हैं | ऐसा शायर जो अपनी शायरी जैसा दिखता भी था , अमूमन शायर ,अपनी शायरी से जुदा से ही  दिखते हैं | यूं तो उन के कई शे'र मशहूर हुए लेकिन ये शे'र ख़ासा सराहा गया | इस में वो ख़ुदा पर तंज़ करते हुए कहते हैं कि ख़ुदा ने कहा और झट से ,जल्दी से दुनिया पैदा हो गई और यही वज़ह है कि ऐसी बुरी दुनिया वजूद में आई ,अगर ख़ुदा  जल्दबाजी न करता तो बेहतर दुनिया बन सकती थी | ये सिर्फ़ तंज़ है और ये तंज़ सिर्फ़ शायर ही कर सकता है | 

    ये जहाँ 'जौन' इक जहन्नुम है
    याँ ख़ुदा भी नहीं है आने का
    जौन एलिया 

     दुनिया से हर शायर जैसा मेरा मानना है ,फ़रार चाहता है जैसे ग़ालिब भी कहते हैं -

    रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
    हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
    मिर्ज़ा ग़ालिब

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    और फिर बुद्ध भी इस संसार को दुःख कहते हैं | जिस ने थोड़ी सोच विचार की वो इसी नतीजे पर पहुंचा |

    विलियम शेक्सपीयर

     भी कहते हैं
    -

    "When we are born, we cry that we are come
    To this great stage of fools."
    (King Lear)

    मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् 
    नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः 

    गीता भी यही कहती है कि संसार दुखों का घर है और जो ईश्वर की तरफ़ यात्रा आरंभ करता है वो मुक्त हो सकता है 
    जौन एलिया  भी इसी उहा-पोह में रहे होंगे जब ये शे'र  कहा होगा और फिर इसी दुनिया में वो कुछ ऐसी कैफ़ियत से भी गुज़रते हैं -

    इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
    कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
    जौन एलिया



    लेखक -सतपाल ख़याल @copyright
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    Friday, February 21, 2025

    नासिर काज़मी- -ग़ज़ल


    ग़ज़ल 

     दुख की लहर ने छेड़ा होगा
    याद ने कंकर फेंका होगा

    आज तो मेरा दिल कहता है
    तू इस वक़्त अकेला होगा

    मेरे चूमे हुए हाथों से
    औरों को ख़त लिखता होगा

    भीग चलीं अब रात की पलकें
    तू अब थक कर सोया होगा

    रेल की गहरी सीटी सुन कर
    रात का जंगल गूँजा होगा

    शहर के ख़ाली स्टेशन पर
    कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

    आँगन में फिर चिड़ियाँ बोलीं
    तू अब सो कर उट्ठा होगा

    यादों की जलती शबनम से
    फूल सा मुखड़ा धोया होगा

    मोती जैसी शक्ल बना कर
    आईने को तकता होगा

    शाम हुई अब तू भी शायद
    अपने घर को लौटा होगा

    नीली धुंदली ख़ामोशी में
    तारों की धुन सुनता होगा

    मेरा साथी शाम का तारा
    तुझ से आँख मिलाता होगा

    शाम के चलते हाथ ने तुझ को
    मेरा सलाम तो भेजा होगा

    प्यासी कुर्लाती कूंजों ने
    मेरा दुख तो सुनाया होगा

    मैं तो आज बहुत रोया हूँ
    तू भी शायद रोया होगा

    'नासिर' तेरा मीत पुराना
    तुझ को याद तो आता होगा

    इस में एक शब्द है "कुर्लाना" ये पंजाबी में बहुत इस्तेमाल होता है लेकिन उर्दू शायरी में पहली बार देखा है | Rekhta इसे हिन्दी ओरिजिन का बताता है | कई बार शायर ऐसे शब्द उठा भी लेता है जो दूसरी भाषा या उसकी रीजनल लैंग्वेज के हों |

    ये अशआर क्या तस्वीर खींचते है ..वाह !!

    रेल की गहरी सीटी सुन कर
    रात का जंगल गूँजा होगा

    शहर के ख़ाली स्टेशन पर
    कोई मुसाफ़िर उतरा होगा

    Saturday, February 15, 2025

    ताज़ा ग़ज़ल - सतपाल ख़याल


    आख़िर  उन का  जवाब आ ही गया 
    दिल के बदले गुलाब आ ही गया 

    रोज़ बदला है  चाँद सा चहरा 
    रफ़्ता -रफ़्ता शबाब आ ही गया 

    बस इशारा सा इक किया उस ने 
    लेके साक़ी शराब आ ही गया 

    साथ लाया उदासियाँ अपने   
    इश्क़ ले  कर अज़ाब आ ही गया 

    उस ने देखा पलट-पलट के "ख़याल"
    कोशिशों का जवाब आ ही गया 


    Friday, February 14, 2025

    झील में सोने का सिक्का -नवनीत शर्मा

     ईश्वर का प्रमुख गुण है कि वो रचता है ,हर पल ,सतत सृजन करता है ईश्वर और फिर यही गुण कवि का भी है | फ़र्क केवल इतना है कि ईश्वर सहजता से ,स्वभाव से रचयिता है लेकिन कवि साधता है ,पहले विधा को ,भाषा को ,छन्द को , बह्र को ,भाव को और फिर छन्द को धागा बनाकर उसमें भाषा को ,भाव को ,अलंकार को पिरोता है और पाठक के सामने प्रस्तुत करता है | पाठक तक कविता या ग़ज़ल भाव रूप में पहुंचती है और भाव को कवि ने बह्र आदि से सजाया होता है तो पाठक उदास शेर पढ़कर भी विभोर हो जाता और बरबस वाह !! वाह !! कह उठता है | बात जब ग़ज़ल की हो तो बहुत फूँक –फूँक के क़दम रखना पढ़ता है , यानी जब आप किसी औरत से मुख़ातिब होते हैं तो आपके लहज़े में नरमी बहुत ज़रूरी है ,शायद इसीलिए ग़ज़ल को कभी माशूक सी की गई गुफ़्तगू कहा गया है | बात भले आप सियासत के ख़िलाफ़ करें ,भले शायर आक्रोश में हो लेकिन वो नरमी ग़ज़ल की असली पहचान है जैसे ये शेर, मैं नवनीत जी के ग़ज़ल संग्रह “झील में सोने का सिक्का” से रख रहा हूँ-

    जिसका किरदार है अयां हर सम्त
    उसको हम बेलिबास क्या करते
    मैं जो कुछ कह रहा हूँ वो समीक्षा नहीं है बल्कि एक कोशिश है किसी शायर को कागज़ पर उकेरने की | नवनीत जी का ग़ज़ल संग्रह ज्ञान पीठ से छप कर आया है | आजकल नवनीत जी दैनिक जागरण के राज्य संपादक पद पर हैं | उनके ग़ज़ल संग्रह से कुछ मोती चुने हैं मैनें –
    पहली ही ग़ज़ल का तीसरा शे’र –
    फ़र्क़ यही है जीवन और थियेटर में
    चलते नाटक में पर्दा गिर जाता है
    और फिर ये देखिए आज के हालात को समझाता ये शे’र –
    धुंध को भी धूप ही कहने लगी दुनिया
    जादुई चश्में की है ये मेहरबानी सब




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    हम निपट लेते जो कश्ती ही भंवर में आती
    अब कहाँ जाएँ कि कश्ती में भंवर आया है
    और देखिए अपनी ही तरह की नई कहन का लिबास ओढ़कर ,कितना मा'नी-ख़ेज़ शेर कहा है –
    किताबों की तरह थे अनपढ़ों में
    किसी को भेद क्या मिलता हमारा
    मुझे शिव कुमार बटालवी का कहा याद आ गया कि बौद्धिक आदमी दरअसल ता उम्र घुटन महसूस करेगा ,क्योंकि दुनिया की जो तस्वीर शायर ने अपने अन्दर बना रखी होती है वो बाहर देखने को नहीं मिलती और इस घुटन और उदासी का शिकार शायरी हमेशा से रही है | ग़ालिब भी कहता है कि –
    रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
    हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
    बाबा बुल्ले शाह कहते है –
    चल बुल्लिया चल ओथे चलिए जित्थे सारे अन्ने
    कोई न साडी ज़ात पछाने ,कोई न सानुं मन्ने
    इसी संग्रह से और शेर -
    तुम एक पूरी सदी हो मगर उदास लगती हो
    मैं एक लम्हा सही खुशगवार लगता हूँ
    और एक बात, मैंने ये देखा है जो आपके आस –पास जो अभी घट रहा है वो बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में घट रहा होता है , जिसे नवनीत जी का ये शेर कैसे उजागर करता है ,देखिए -
    जो घर से निकले तो गलियाँ उदास करती हैं
    रहें जो घर में तो फिर घर उदास करता है
    इसी ग़ज़ल का एक और शेर-
    हवा में तैरती चिड़िया पे नाज़ है मुझको
    ज़मी पे टूटा हुआ पर उदास करता है
    है न सूफीयों वाला बयान | शायरी वास्तव में सूफ़ियों का ही बयान है ,सूफ़ी जो अपने आस-पास देखता है उसके प्रति संवेदनशील होता है ,वो चिड़िया के टूटे पर देखकर रोता है और नन्हीं से चिड़िया को उड़ते देखकर खुश होता है | एक बात मैं और कहना चाहता हूँ कि भले बहर , कहन, भाषा,शेरीयत , अलंकार ,भाव ,परवाज़ ये सब मिलकर किसी शेर या कविता को रचते हों लेकिन , और ये लेकिन बहुत बड़ा है कि ग़ालिब इसे समझाते हैं –
    आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
    'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
    माने कविता फिर भी किसी अदृश्य दिव्य लोक से प्रकट होती है ,कहने वाला सिर्फ माध्यम बन जाता है और ये अनुभव से कह रहा हूँ कि कविता चाहे आप प्रयास से कहो या कभी आमद हो ,दोनों हाल में उसका सोर्स वो अदृश्य जहां ही है | उसी ग़ैब से उतरे लगते है नवनीत जी के ये अशआर-
    वो चांदनी जो फूट के रोयी थी रात भर
    उसका कोई हिसाब सहर ने दिया नहीं
    और रोमांस की इंतिहा –
    घर अपने साथ उसे देवता के रखने को
    गली से उसकी मैं पत्थर उठा के लौट आया
    और –
    एक नमकीन फ़ज़ा माज़ी की
    रोज़ इक ज़ख्म खुला चाहती है
    और ये शेर एक बार सुनाया था नवनीत जी ने फोन पे सो आज तक याद की किताब में बुकमार्क करके रखा है
    मौत के आख़री जज़ीरे तक
    जिंदगी तैरना सिखाती है
    कट –कट के आंसुओं में बही दिल की किरचियाँ
    क़िस्तों में मेरी ख़ुद से रिहाई हुई तो है
    आस अब आसमां से रखी है
    छत का मौसम ख़राब है प्यारे
    और देखिए नवनीत जी सिग्नेचर –
    शाम ढलने को है उमड़े हैं कुहासे कितने
    अब जो गुर्बत में है नानी ,तो नवासे कितने
    सियासत पर सहाफ़त से ताल्लुक़ रखने वाला शायर इस तरह वार करता है –
    कभी नफ़रत ,कभी डर बुन रही है
    सियासत कैसे मंज़र बुन रही है
    ज़माने रेशमी हैं , मखमली हैं
    हमारी क़ौम खद्दर बुन रही है
    आप नवनीत जी से सम्पर्क करके किताब मंगवा सकते हैं और नवनीत जी के ये दो और शेर पढ़िए –
    “झील में सोने का सिक्का” गिर जाता है
    और पहाड़ों पर पारा गिर जाता है
    और –
    एक पुराना सिक्का देकर दिन जब रुख़्सत होता है
    तब ऐसे लगता है जैसे धरती अंजुल जैसी है
    धन्यवाद , भूल –चूक के लिए माफ़ी के साथ
    सतपाल ख़याल