Thursday, August 6, 2009
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
इस बार का तर’ही मिसरा है :
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
पूरा शे’र है -
परस्तिश कि यां तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले
बहरे-मुतका़रिब की एक मुज़ाहिफ़ शक्ल है जिसके अरकान हैं-
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
काफ़िया: सदा, वफ़ा,कहा आदि("आ" स्वर का काफ़िया)
रदीफ़: कर चले
खु़दा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल से ये मिसरा लिया है ये पूरी ग़ज़ल हाज़िर है
ग़ज़ल-
फ़कीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले
बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की खुदा कर चले
गई उम्र दर बंद-ऐ-फिक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले
इसी बहर में मीर ने कई ग़ज़लें कही लेकिन ये चार ग़ज़लें हाज़िर हैं ये ग़ज़लें नेट पर सिर्फ़ "आज की ग़ज़ल पर" ही हैं
एक
मुहव्बत ने खोया खपाया हमें
बहुत उन ने ढूंढा न पाया हमें
गहे* तर रहों गाह *खूबस्तां थी
इन आँखों ने क्या-क्या दिखाया हमें
मले डाले है दिल कोई इश्क़ में
ये क्या रोग यारब लगाया हमें
जवानी -दिवानी सुना क्या नहीं
हसीनों का मिलना भी भाया हमें
न समझी गई दुशमनी इश्क से
बहुत दोस्तों ने जताया हमें
कोई दम कल आई थी मजलिस में "मीर"
बहुत इस ग़ज़ल ने रुलाया हमें
*गहे-कभी, *खूबस्तां-खून से चिपकी हुई
दो
बंधा रात आंसू का कुछ तार सा
हुआ अब्रे-रहमत गुनहगार सा
कोई सादा ही उसको सादा कहे
लगे है हमें वो तो अय्यार सा
*गुलो-सर्व अच्छे सभी हैं वले
न निकला चमन से कोई यार सा
मगर आँख तेरी भी चिपकी कहीं
टपकता है चितवन से कुछ प्यार सा
*गुलो-सर्व- फूल और पेड़
तीन
चलें हम अगर तुमको इकराह है
फ़कीरों की अल्लाह अल्लाह है
चिरागाने-ग़ुल से है क्या रौशनी
गुलिस्तां किसू की क़दमगाह है
मुहव्बत है दरिया मे जा डूबना
कुएं में गिरना यही चाह है
कली सा हो कहते हैं मुख यार का
नहीं मोतबर कुछ ये अफ़वाह है
चार
फ़िराक आँख लगने की जा ही नहीं
पलक से पलक आशना ही नहीं
मुहव्बत यहां की तहां हो चुकी
कुछ इस रोग की है दवा ही नहीं
वो क्या कुछ नहीं हुस्न के शहर में
नही है तो रस्में-वफ़ा ही नहीं
नहीं दैर अगर मीर काबा तो है
हमारा कोई क्या ख़ुदा ही नहीं
इसी बहाने बशीर बद्र साहब की इसी बहर मे लिखी ग़ज़लों का लुत्फ़ लीजिए
बशीर बद्र
ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे
ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे
हँसो आज इतना कि इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई न दे
अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रौशनाई न दे
मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे
ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
असीरों को ऐसी रिहाई न दे
मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
जहां से मदीना दिखाई न दे
मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
क़लम छीन ले रौशनाई न दे
ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे
बशीर बद्र
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे
कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मेरे पाँव शोलों पे चलते रहे
मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे
वो क्या था जिसे हमने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे
मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी
किराये के घर थे बदलते रहे
सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे
लिपट के चराग़ों से वो सो गये
जो फूलों पे करवट बदलते रहे
बशीर बद्र
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
हज़ारों तरफ़ से निशाने लगे
हुई शाम यादों के इक गाँव में
परिंदे उदासी के आने लगे
घड़ी दो घड़ी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते आते ज़माने लगे
कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं
दुकानें खुलीं, कारख़ाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढाई लिखाई का मौसम कहाँ
किताबों में ख़त आने-जाने लगे
बशीर बद्र
न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की
उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की
सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की
मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की
आपकी तर’ही ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा
ख्याल
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
ग़ज़ल लेखन के बारे में आनलाइन किताबें - ग़ज़ल की बाबत > https://amzn.to/3rjnyGk बातें ग़ज़ल की > https://amzn.to/3pyuoY3 ग़ज़...
-
स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...
-
आज हम ग़ज़ल की बहरों को लेकर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं | आपके प्रश्नों का स्वागत है | आठ बेसिक अरकान: फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2) मु-त-फ़ा-इ-लुन(...
3 comments:
लाजवाब पेशकश
---
'विज्ञान' पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!
वाह मजा आ गया...सुंदर, बेहतरीन
वाह सतपाल जी... वाह... क्या खूब ग़ज़लें प्रस्तुत की हैं आपने..!!! शुक्रिया..!!
Post a Comment