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संत कबीर :
हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
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निदा फ़ाज़ली:
ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा-भिखारी क्या
वो हर दीदार में ज़रदार है, गोटा-किनारी क्या.
ये काटे से नहीं कटते ये बांटे से नहीं बंटते
नदी के पानियों के सामने आरी-कटारी क्या.
उसी के चलने-फिरने-हँसने-रोने की हैं तस्वीरें
घटा क्या, चाँद क्या, संगीत क्या, बाद-ए-बहारी क्या.
किसी घर के किसी बुझते हुए चूल्हे में ढूँढ उसको
जो चोटी और दाढ़ी में रहे वो दीनदारी क्या.
हमारा मीर जी से मुत्तफिक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का-भारी क्या.
दो-ग़जला: एक ज़मीन और एक ही बहर , एक ही शायर द्वारा लिखी गई दो ग़ज़लों को दो-ग़ज़ला कहते हैं. इनकी ज़मीन एक है . माफ़ी चाहता हूँ ये दोनो ग़ज़लें दो-ग़ज़ला नहीं हैं.द्विज जी को धन्यावाद ग़ल्ती को ठीक करवाने के लिए.
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Dwij said
प्रिय सतपाल
अच्छा किया आपने वो दो—ग़ज़ला शीर्षक बदल दिया.
कबीर साहिब की ज़मीन में निदा फ़ाज़ली साहिब की ग़ज़ल भी अच्छी है
लेकिन आख़िरी शे’र?
‘मीर’ साहिब की ग़ज़ल मेहदी हसन साहिब की आवाज़ में
बचपन से सुनता आ रहा हूँ
:
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ—सा कहाँ से उठता है
‘मीर’ इश्क़ एक भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है?
अब इसके बाद:
हमारा मीर जी से मुत्तफ़िक़ होना है नामुमकिन
उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का—भारी क्या
फ़ाज़ली साहिब का शेर यूँ ही —सा लगा . मुझे समझ नहीं आया. शायद मैं इसे उनके तरीक़े से महसूस नहीं कर पा रहा हूँ. कोई मुझे समझाये वो क्या कहना चाहते हैं, जनाबे मीर से मुत्तफ़िक़ न होकर.
ग़ालिब के शेर:
ये मसायल—ए—तसव्वुफ़, ये तेरा ब्यान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़ार होता.
के बाद गुलज़ार साहिब का:
बड़े सूफ़ियों —से ख्याल थे और बयाँ भी उसका कमाल था
मैने कब कहा कि वली था वो एक शख़्स था बादाख़ार था
भी मुझे आजतक समझ नहीं आया
और
ग़ालिब के:
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं,है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने”
के बाद ‘मख़्मूर’ देहलवी का
“मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शोला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता”
बस यूँ ही—सा लग रहा है.
ये बड़े शायर बज़ुर्गों को कब बख़्शेंगे?
Dwij