
ग़ज़ल १
अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा
और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा
फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा
‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर
‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा
क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं
और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा
ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब
ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा

ग़ज़ल २
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम
जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम
आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम
ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम
मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम

ग़ज़ल ३
कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में
वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर
शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में
ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं
लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में
घर के सुंदर—स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में
धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो ‘हिम—पात’ हमारी यादों में
जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग—पग पर है तन्हाई
सन्नाटों की महफ़िल—सी, हर बात हमारी यादों में
सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में
सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था
कौंधे हैं ‘ द्विज ,’ वो बनकर ‘ सुकरात ’ हमारी यादों में
