पाँच ग़ज़लें
ग़ज़ल
पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
पत्थरों से प्रार्थनाएँ हैं
मूक जब संवेदनाएँ हैं
सामने संभावनाएँ हैं
साज़िशें हैं सूर्य हरने की
ये जो 'तम' से प्रार्थनाएँ हैं
हो रहा है 'सूर्य' का स्वागत
आँधियों की सूचनाएँ हैं
रास्तों पर ठीक शब्दों के
दनदनाती वर्जनाएँ हैं
घूमते हैं घाटियों में हम
और काँधों पर गुफ़ाएँ हैं
आदमी के रक्त पर पलतीं
आज भी आदिम प्रथाएँ हैं
फूल हैं हाथों में लोगों के
पर दिलों में बद्दुआएँ हैं
स्वार्थो के रास्ते चल कर
डगमगाती आस्थाएँ हैं
छोड़िए भी… फिर कभी सुनना
ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं
ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं
यह ग़ज़ल रमल की एक सूरत.फ़ायलातुन, फ़ायलातुन,फ़ा
2122,2122,2
ग़ज़ल
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खि़ड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिये हर बद्दुआ लिखते हैं हम
जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम
आपने बाँटे हैं जो भी रौशनी के नाम पर
उन अँधेरों को कुचलता रास्ता लिखते हैं हम
ला सके सब को बराबर मंज़िलों की राह पर
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम
मंज़िलों के नाम पर है जिनको रहबर ने छला
उनके हक़ में इक मुसल्सल फ़ल्सफ़ा लिखते हैं हम
रमल:फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलातुन फ़ायलुन
2122,2122,2122,212
ग़ज़ल ३ और ४ एक बहर में हैं:.रमल की एक सूरत :
फ़ायलातुन,फ़िइलातुन फ़िइलातुन,फ़िइलुन
2122,1122,1122,112
ग़ज़ल
आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक
टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक
रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक
अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक
फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ महज़ब का
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक
उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक
देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक
रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक
इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक
पुरसुकून आपका चेहरा ये चमकती आँखें
आप भी शह्र में लगता है नये हैं अब तक
ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई
यूँ तो हमने भी कई शे'र कहे हैं अब तक
दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल
और 'द्विज'! आप तो दो कोस चले हैं अब तक
ग़ज़ल
ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता
शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता
कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं नहीं रहने देता
आस्माँ भी वो दिखाता है परिन्दों को नए
हाँ, मगर उनपे कोई 'पर' नहीं रहने देता
ख़ुश्क़ आँखों में उमड़ आता है बादल बन कर
दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता
उनमें इक रेत के दरिया–सा ठहर जाता है
ख़ौफ़ आँखों में समन्दर नहीं रहने देता
हादिसों का ही धुँधलका–सा 'द्विज' आँखों में मेरी
ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता.
ग़ज़ल
न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब
ज़मीं पे रह के ज़मीं पर कहाँ हैं सब के सब
कोई भी अब तो किसी की मुख़ाल्फ़त में नहीं
अब एक-दूसरे के राज़दाँ हैं सब के सब
क़दम-कदम पे अँधेरे सवाल करते हैं
ये कैसे नूर का तर्ज़े-बयाँ हैं सब के सब
वो बोलते हैं मगर बात रख नहीं पाते
ज़बान रखते हैं पर बेज़बाँ हैं सब के सब
सुई के गिरने की आहट से गूँज उठते हैं
गिरफ़्त-ए-खौफ़ में ख़ाली मकाँ हैं सब के सब
झुकाए सर जो खड़े हैं ख़िलाफ़ ज़ुल्मों के
'द्विज',ऐसा लगता है वो बेज़बाँ हैं सब के सब.
मजत्तस की एक सूरत:
मुफ़ायलुन,फ़िइलातुन,मुफ़ायलुन,फ़िइलुन
I212,1122,1212,112
आप के विचारों का इंतजा़र रहेगा.
आपका द्विज.