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Monday, March 2, 2009
योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़लें व परिचय
योगेन्द्र मौदगिल जी अच्छे हास्य-व्यंग्य कवि एवं गज़लकार हैं। अनेक सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों व क्लबों से सम्मानित हैं आप को 2001 में गढ़गंगा शिखर सम्मान , 2002 में कलमवीर सम्मान , 2004 में करील सम्मान , 2006 में युगीन सम्मान, 2007 में उदयभानु हंस कविता सम्मान व 2007 में ही पानीपत रत्न से सम्मानित.
हरियाणा की एकमात्र काव्यपत्रिका कलमदंश का 6 वर्षों से निरन्तर प्रकाशन व संपादन। दैनिक भास्कर में 2000 में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ तरकश का लेखन। इनकी कविताओं की 6 मौलिक एवं 10 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हैं। हाल ही मे इनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है और आप इसे प्राप्त कर सकते हैं.आज हम तीन ग़ज़ले आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं.
ग़ज़ल
भँवर से बच के निकलें जो उन्हें साहिल डुबोते हैं
अजूबे तेरी दुनिया में कभी ऐसे भी होते हैं
ये परदे की कलाकारी भला व्यवहार थोड़े है
जो रिश्तों को बनाते हैं वही रिश्तों को खोते हैं
वो फूलों से भी सुंदर हैं वो कलियों से भी कोमल हैं
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं
किसी को पेट भरने तक मयस्सर भी नहीं रोटी
बहुत से लोग खा-खा कर यहां बीमार होते हैं
जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते
बिछा कर धूप का टुकड़ा ऒढ़ अखब़ार सोते हैं
हमीं ने आसमानों को सितारों से सजाया है
हमीं धरती के सीने में बसंती बीज बोते हैं
मुहब्बत से भरी नज़रें तो मिलती हैं मुकद्दर से
बहुत से लोग नज़रों के मगर नश्तर चुभोते हैं
बहरे-हजज़ सालिम
ग़ज़ल
रफ्ता-रफ्ता जो बेकसी देखी
अपनी आंखों से खुदकुशी देखी
आप सब पर यक़ीन करते हैं
आपने खाक़ ज़िन्दगी देखी
आग लगती रही मक़ानों में
लो मसानों ने रौशनी देखी
एक अब्बू ने मूंद ली आंखें
चार बच्चों ने तीरगी देखी
उतनी ज्यादा बिगड़ गयी छोरी
जितनी अम्मां ने चौकसी देखी
बाद अर्से के छत पे आया हूं
बाद अरसे के चांदनी देखी
बहरे-खफ़ीफ़
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
ग़ज़ल
कट गये पीपल ठिकाना पंछियों का खो गया
पहले जैसा आना जाना पंछियों का खो गया
कौन जाने कब शहर में गोलियां पत्थर चलें
मौज में उड़ना उड़ाना पंछियों का खो गया
दिन में होती हैं कथाएं रात में भी रतजगे
शोरोगुल में चहचहाना पंछियों का खो गया
शह्र में बढ़ता प्रदूषण खेत घटते देख कर
प्यार की चोंचें लड़ाना पंछियों का खो गया
कौन है जो दाद देगा अब मेरी परवाज़ को
सोच कर ये छत पे आना पंछियों का खो गया
इतनी महंगाई के दाना दाना है अब कीमती
बैठ मुण्डेरों पे खाना पंछियों का खो गया
अब कहां अमुवा की डाली अब ना गूलर ढाक हैं
मस्त हों पींगे चढ़ाना पंछियों का खो गया
बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
मौदगिल जी की किताब "अंधी आँखे गीले सपने" के खूबसूरत अशआर :
* बिन बरसे कैसे जायेंगे शब्दों के घन छाए तो
आँसु भी विद्रोह करेंगे हमने गीत सुनाए तो.
* माना कि सूरज की तरह हर शाम ढलना है हमे
हर हाल मे लेकिन अभी भी और चलना है हमे.
*लहू के छींटे दरवाजे पर राम भजो
सहमे-सहमे दीवारो-दर राम भजो.
*वो भी मुझ जैसा लगता है
शीशे मे उतरा लगता है.
*बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे
जाने कितनी उम्रें पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.
* यादें जंगल जैसी क्यों हैं
उल्झा-उलझा सोच रहा हूँ.
*घर मे चिंता खड़ी होगयीं
बच्चियां अब बड़ी हो गयीं.
*तन-मन जुटा कमाई मे
अनबन भाई-भाई में.
*फ़ैशनों की झड़ी हो गई
मेंढकी जलपरी हो गई.
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