आदरणीय अनिल जन विजय जी ने न केवल कविता कोश के माध्यम से हिंदी की सेवा की बल्कि रूस में भी हिंदी का प्रचार –प्रसार कर रहे हैं | मैं सोच रहा था कि मेरे ब्लॉग पर बहुत सारे विज़िटर रूस से कैसे आते हैं ,तो सहज ही मन में आया की ये अनिल जन विजय जी की बदौलत ही हैं | आज की ग़ज़ल के लगभग आधे पाठक रशिया से हैं ये हैरत की बात भी है और खुशी की भी और एक बात की ग़ज़ल को रशिया में आप पढ़ा रहे हैं |
जन्म
: 28 जुलाई 1957
जन्म
स्थान :बरेली, उत्तर प्रदेश, भारत
प्रमुख कृतियाँ
कविता
नहीं है यह (1982),
माँ, बापू कब आएंगे (1990),
राम जी भला करें (2004)
उनका कविता कोष का लिंक- www.kavitakosh.org/anil
इनका परिचय इनकी ज़बानी-
मैं अनिल जनविजय हूँ । पिछले तीस साल से मास्को में रहता हूँ । रूसी छात्रों को ’हिन्दी साहित्य’और ’अनुवाद’ पढ़ाता हूँ । मास्को रेडियो का हिन्दी डेस्क देखता हूँ । इसके साथ-साथ कविता कोश और गद्य कोश के सम्पादन का भार भी सम्भालता हूँ ।हिन्दी और हिन्दी साहित्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित हूँ ।कविता लिखने-पढ़ने में मेरी रुचि है ।कविताओं का अनुवाद करना भी मुझे पसन्द है ।बहुत से रूसी, फ़िलिस्तीनी, उक्राइनी, लातवियाई, लिथुआनियाई, उज़्बेकी, अरमेनियाई कवियों की और पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिक़मत, लोर्का आदि कवियों की कविताओं का रूसी और अँग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया है ।रूसी कविता से भी वैसे ही अच्छी तरह परिचित हूँ जैसे हिन्दी कविता से ।
अनिल जन विजय द्वारा हिन्दी में अनुवाद की गई ये
रूसी कविता आप सब के लिए –
मूल
रचना -ओसिप मंदेलश्ताम
(यह
कविता स्तालिन के बारे में है)
पहाड़ों
में निष्क्रिय है देव, हालाँकि
है पर्वत का वासी
शांत, सुखी उन लोगों को वह, लगता है सच्चा-साथी
कंठहार-सी
टप-टप टपके, उसकी गरदन से चरबी
ज्वार-भाटे-से
वह ले खर्राटें,
काया
भारी है ज्यूँ हाथी
बचपन
में उसे अति प्रिय थे, नीलकंठी
सारंग-मयूर
भरतदेश
का इन्द्रधनु पसन्द था औ' लड्डू मोतीचूर
कुल्हिया
भर-भर अरुण-गुलाबी पीता था वह दूध
लाह-कीटों का रुधिर ललामी,
मिला
उसे भरपूर
पर
अस्थिपंजर अब ढीला उसका, कई
गाँठों का जोड़
घुटने, हाथ, कंधे सब नकली, आदम का ओढे़ खोल
सोचे
वह अपने हाड़ों से अब और महसूस करे कपाल
बस
याद करे वे दिन पुराने, जब
वह लगता था वेताल
कविता कोष से साभार