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Tuesday, August 12, 2008
सतपाल ख्याल की ग़ज़लें और परिचय
परिचय:
1974 को तलवाड़ा जिला होशियार पुर (पंजाब) में जन्में सतपाल 'ख़्याल' अपनी मूल प्रकृति से शायर हैं. 17—18 वर्ष की उम्र से शे'र कहते आए हैं , लेकिन कहते कम और सुनते ज़्यादा हैं.यही वजह है कि आहिस्ता—आहिस्ता इनकी ग़ज़लों का अपना एक अलग अंदाज़ दिखाई देने लगा है. पिछले कुछ वर्षों से ग़ज़ल के गंभीर विद्यार्थी के रूप में जो ज्ञान इन्होंने अर्जित किया है, उसे इनकी ग़ज़लों में देखा जा सकता है. शेर कहते हैं लेकिन तथाकथित नक़्क़ादों की तरह उधार माँग कर ओढ़े हुए उस्तादाना अंदाज़ में जगह—जगह अजीब—ओ—गरीब टिप्प्णियाँ नहीं करते फिरते. पिछले कई महीनों से कई रचनाकारों को आज की ग़ज़ल के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने वाले सतपाल 'ख़्याल' और इनकी ग़ज़लों को आपके लिए प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है. —
द्विजेन्द्र 'द्विज'
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ग़ज़ल १
हमारे दिल की मत पूछो बड़ी मुश्किल में रहता है
हमारी जान का दुश्मन हमारे दिल में रहता है
सुकूँ मिलता है हमको बस तुम्हारे शह्र में आकर
यहीं वो नूर सा चेहरा कहीं महमिल में रहता है
कोई शायर बताता है कोई कहता है पागल भी
मेरा चर्चा हमेशा आपकी महफ़िल में रहता है.
वो मालिक है सब उसका है वो हर ज़र्रे में है ग़ाफ़िल !
वही दाता में मिलता है वही साइल में रहता है.
वो चुटकी में ही करता है तुम्हारी मुश्किलें आसाँ
खुदा को चाहने वाला कभी मुश्किल में रहता है!
**महमिल:पर्दा. साइल: याचक
बहरे हजज़
****
ग़ज़ल २
वो आ जाए ख़ुदा से की दुआ अक्सर
वो आया तो परेशाँ भी रहा अक्सर
ये तनहाई ,ये मायूसी , ये बेचैनी
चलेगा कब तलक ये सिलसिला अक्सर
न इसका रास्ता कोई ,न मंजिल है
‘महब्बत है यही’ सबने कहा अक्सर
चलो इतना ही काफ़ी है कि वो हमसे
मिला कुछ पल मगर मिलता रहा अक्सर
वो ख़ामोशी वही दुख है वही मैं हूँ
तेरे बारे में ही सोचा किया अक्सर
ये मुमकिन है कि पत्थर में ख़ुदा मिल जाए
मिलेगी बेवफ़ा से पर ज़फ़ा अक्सर
(हजज)
****
ग़ज़ल ३
मत ज़िक्र कर तू सबसे मत पूछ हर किसी को
ज़ख्मों का तेरे मरहम मालूम है तुझी को
बख़्शी ख़ुशी जो मुझको सबको वो बख़्श मालिक
जो ग़म दिए हैं मुझको देना न वो किसी को
पूछे नहीं मिलेगा कोई निशाँ ख़ुदा का
ढूँढो तो है ये मुमकिन पा जाओ रौशनी को.
सुब्हों को हम भी निकले सूरज उठाके सर पे
रातों को ज़ख्म अपने दिखलाए चांदनी को
बाहर तो दुख ही दुख है भीतर उतर के देखो
आँखों को बंद कर के तुम ढूँढ लो खुशी को.
(221, 2122, 221 , 2122)
****
ग़ज़ल ४
दरिया से तालाब हुआ हूँ
अब मैं बहना भूल गया हूँ.
तूफ़ाँ से कुछ दूर खड़ा हूँ
साहिल पर कुछ देर बचा हूँ
नज़्में ग़ज़लें सपने लेकर
बिकने मैं बाजा़र चला हूँ
हाथों से जो दी थी गाँठें
दाँतों से वो खोल रहा हूँ
यह कह — कह कर याद किया है
अब मैं तुझको भूल गया हूँ
याद ख़्याल आया वो बचपन
दूर जिसे मैं छोड़ आया हूँ.
वज़न:२२ २२ २२ २२
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ग़ज़ल ५
मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी
न अपनों ने कभी चाहा यही तकलीफ़ दोनों की
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी
अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी
न लफ़्जों का वतन कोई न है मज़हब कोई इनका
ये कहते हैं फ़कत दिल की कभी उर्दू कभी हिंदी
महब्बत है वतन उसका , ज़बाँ उसकी महब्बत है
ख़्याल उसने ग़ज़ल कह दी कभी उर्दू कभी हिंदी.
बहरे हजज़
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