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Thursday, September 11, 2008
छोटी बहर की दो ग़ज़लें
ग़ज़ल १
उघड़ी चितवन
खोल गई मन
उजले हैं तन
पर मैले मन
उलझेंगे मन
बिखरेंगे जन
अंदर सीलन
बाहर फिसलन
हो परिवर्तन
बदलें आसन
बेशक बन—ठन
जाने जन—जन
भरता मेला
जेबें ठन—ठन
जर्जर चोली
उधड़ी सावन
टूटा छप्पर
सर पर सावन
मन ख़ाली हैं
लब 'जन—गण—मन'
तन है दल—दल
मन है दर्पन
मृत्यु पोखर
झरना जीवन
निर्वासित है
क्यूँ 'जन—गण—मन'
खलनायक का
क्यूँ अभिनंदन
द्विजेंन्द्र द्विज
**********
ग़ज़ल २
क्या सितम है
दर्द कम है
राहत-ए-जां
हर सितम है
क़लब सोजां
चश्म नम है
ग़म बहुत हो
फ़िर भी कम है.
दिल हमारा
जाम-ए-जम है
जिंदगी कम
दम-ब-दम है
दिल मे ढूँढो
वो सनम है.
क़लब-ए-अखगर
वक्फ़-ए-गम है.
हनीफ़ अखगर
(ये यक रुक्नी ग़ज़ल है -फ़ाइलातुन-२१२२)
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