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परिचय
5 अप्रैल, 1938 को ज्वालामुखी (हिमाचल प्रदेश) में जन्मे ,एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त, श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' ए.जी. आफ़िस से बतौर सीनियर आडिट आफ़िसर रिटायर होकर आजकल शिमला में रहते हैं. तेरी ख़ुश्बू में बसे ख़त... के सुप्रसिद्ध शायर श्री राजेन्द्र नाथ रहबर के शब्दों में: " 'शौक़' साहिब की शायरी किसी फ़क़ीर द्वारा माँगी गई दुआ की तरह है जो हर हाल में क़बूल हो कर रहती है. "
* शौक़' साहिब का ग़ज़ल संग्रह "आँच" बहुत लोकप्रिय हुआ है.
फोन: 98160—07665
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शौक़ साहिब की दो ग़ज़लें
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1.
इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े
इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े
कोई जा कर किससे अपना दु:ख—सुख बाँटे
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े
अहले—सियासत ने कैसा तामीर किया घर
कोना—कोना बेहंगम, बेढब दरवाज़े
एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े
एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का
दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े
ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े
फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को
आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े
शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
लेकिन रूखे फीके बे—हिस सब दरवाज़े
कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए
'शौक़', खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े.
2 2 x 6
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बेहंगम=बेडौल; ख़लवत=एकान्त; बेहिस=स्तब्ध,सुन्न
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ग़ज़ल:
बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है
नहीं भी हो तो भी मुजरिम दिखाई देता है
जो इक़्तिदार की कुर्सी पे जलवा फ़रमा हैं
न जाने क्यों उन्हें ऊँचा सुनाई देता है
तिरे ज़मीर का आइना गर सलामत है
तो देख उसमें तुझे क्या दिखाई देता है
मिरा नसीब कि ग़म तो अता हुआ, वरना
किसी को तिरा दस्ते-हिनाई देता है
वो तकता रहता है हर वक़्त आसमाँ की तरफ़
खला में जाने उसे क्या दिखाई देता है
करोड़ों लोग हैं दुनिया में यूँ तो कहने को
कहीं –कहीं कोई कोई इन्साँ दिखाई देता है
बहुत ज़ियादा जहाँ रौशनी ख़िरद की हो
निगाहे-दिल को वहाँ कम सुझाई देता है
तज़ाद ज़ाहिरो—बातिन में उसके कुछ भी नहीं
है 'शौक़' वैसा ही जैसा दिखाई देता है.
1212,1122,1212,112 (mujtas kaa zihaf)
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इक़्तिदार=सत्ता ; दस्ते—हिनाई=मेंहदी रचा हाथ; ख़ला=शून्य; ख़िरद=बुद्धि; तज़ाद=प्रतिकूलता ज़ाहिरो—बातिन=प्रत्यक्ष रूप तथा अंत:करण
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