दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
शायरी बहती नद्दियों जैसी
(द्विज)
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस होली विशेष अंक का आगा़ज़ करते हैं.आज की ग़ज़ल के सभी पाठकों को हमारी तरफ़ से होली मुबारक और सभी शायरों का धन्यवाद जिन्होंने अपना कलाम हमे भेजा.आज हम बर्क़ी साहेब के पिता स्व:श्री रहमत इलाही बर्क़ आज़मी के कलाम से शुरूआत करेंगे.लेकिन पहले देखते हैं होली के बारे मे मीर ने क्या कहा है:
आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई
अब देखिए नज़ीर क्या कहते हैं:
गुलजार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग की छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
तब देख नजारे होली के।
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
पहन के आया है फूलों का हार होली में
वह रशक-ए गुल है मुजस्सम बहार होली में
कली कली पे है दूना निखार होली में
चमन चमन है बना लालहज़ार होली मे
बसा है बास से फूलों की गुलशन-ए- आलम
नसीम फिरती है मसतानहवार होली में
तमाम अहल-ए-चमन के दिलों को मोह लिया
उरूस-ए-सब्ज़ह ने कर के सिंगार होली में
महक रहा है रयाज़-ए- जहाँ का हर गोशा
फज़ा-ए- दह्र है सब मुशकबार होली में
ज़मान-ए-भर में मुसर्रत की लह्र दौड गई
रहा न कोई कहीँ सोगवार होली में
ग़मो अलम का निशाँ तक न रह गया बाक़ी
ख़ुशी से सबने किया सब को प्यार होली में
यह धूम धाम है क्यों आ तुझे बताऊँ मै
कि तू हो जिसके सबब होशियार होली में
जले न भक्त प्रहलाद जल गई होलिका
खुदा रसीदह से पाया न पार होली में
वह अपने भक्तों की करता है इस तरह रक्षा
अयाँ है क़ुदरत-ए- परवरदिगार होली में
भरा था नशश्ए नख़वत से जो हिरणकश्यप
हुआ बहुत ही ज़लील और ख़्वार होली में
हमारे पेशे नज़र ह वही समां अब तक
मना रहे हैँ वही यादगार होली में
ख़शी बजा है मगर ऐ मेरे अज़ीज़ न खा
फरेबे हस्तिए नापायदार होली में
पछाड हिर्स को मर्दानगी है गर तुझमें
ग़ुरूर-ए-नफ्स को तू अपने मार होली में
बुराइयों को मिटाने का अहद कर इस दिन
सुधर ख़ुद और जहां को सुधार होली में
सुना उन्हेँ जो हैं फिसको फुजूर के आदी
कलाम-ए- बर्क़-ए हक़ीक़तनेगार होली में
देवी नांगरानी जी ने भी गुलाल भेजा है.
ग़ज़ल
झूमकर नाचकर गीत गाओ
सात रंगों से जीवन सजाओ
पर्व पावन है होली का आया
भाईचारे से इसको मनाओ
हर तरफ़ शबनमी नूर छलके
आसमाँ को ज़मीं पर ले आओ
लाल, पीले, हरे, नीले चहरे
प्यार का रंग उनमें मिलाओ
देवी चहरे हैं रौशन सभी के
दीप विश्वास के सब जलाओ
देव मणि पांडेय जी :
दूर दूर तक खिली हुई है ख़ुशियों की रंगोली ,
आप सभी को बहुत मुबारक बहुत मुबारक होली
प्राण शर्मा जी भी परदेस से आए हैं:
इक-दूजे को क्यों न लुभाएँ प्यारी-प्यारी होली में
सब नाचें ,झूमें मुस्काएं प्यारी- प्यारी होली में
अपना- अपना मन बहलायें प्यारी-प्यारी होली में
बच्चे- बूढे हँसे --हंसाएं प्यारी -प्यारी होली में
ऐसा शोख नज़ारा या रब ज़न्नत में भी कहाँ होगा
रंगों के घन उड़ते जाएँ प्यारी- प्यारी होली में
प्यारी-प्यारी होली है तो प्यारी- प्यारी रहने दो
लोगों के मन खिल-खिल जाएँ प्यारी-प्यारी होली में
लाल ,गुलाबी,नीले,पीले चेहरों के क्या कहने हैं
सब के सब ही "प्राण" सुहाएँ प्यारी- प्यारी होली में
चंद्रभान भारद्वाज जी की ग़ज़लें .
1.
आओ तो आना होली पर;
देते सब ताना होली पर।
तन की आग विरह की पीड़ा,
क्या होती जाना होली पर।
मन का भेद मर्म आंखों का,
हमने पहचाना होली पर।
पढ़ पढ़ पाती मन बहलाया,
मुश्किल बहलाना होली पर।
झूठे निकले अब तक वादे,
अब मत झुठलाना होली पर।
लिक्खा है भविष्य फल में भी,
प्रिय का सुख पाना होली पर।
तुम होगे तो हो जायेगा ,
आंगन बरसाना होली पर।
(2)
आई सुघड़ सहेली होली,
बनकर एक पहेली होली।
रंग गुलाल इत्र के बदले,
माँगे आज हथेली होली।
छप्पन भोगों को तज आई,
खाने गुड़ की ढेली होली।
हम तो छप्पर के कच्चे घर,
शेखावटी हवेली होली।
खुद गहरे रंगों में डूबी,
मुझ को देख अकेली होली।
पूरी उम्र लड़े यादों से,
कर दो दिन अठखॅली होली।
तन बरसाना मन वृन्दावन,
भीगी नारि नवॅली होली।
जगदीश रावतानी
भीगे तन -मन और चोली
हिंदू मुस्लिम सब की होली.
छोड़ भाषा मज़हबी ये
बोलें हम रंगों की बोली.
चल पड़ें हम साथ मिलकर
जैसे दीवानों की टोली.
तू क्यों होती लाल पीली
ये है होली ये है होली
तू भी रंग जा ऐसे जैसे
मीरा थी कान्हा की हो ली
पुर्णिमा बर्मन जी ने भी गुलाल भेजा है:
हवा-हवा केसर उड़ा टेसू बरसा देह
बातों मे किलकारियाँ मन मे मीठा नेह
शहर रंग से भर गया चेहरों पर उल्लास
गली-गली मे टोलियाँ बांटें हास-उलास
योगेन्द्र मौदगिल जी की झूमती ग़ज़ल
झूम रहा संसार, फाग की मस्ती में.
रंगों की बौछार, फाग की मस्ती में.
सारे लंबरदार, फाग की मस्ती में.
बूढ़े-बच्चे-नार, फाग की मस्ती में.
गले मिले जुम्मन चाचा, हरिया काका,
भूले मन की खार फाग की मस्ती में.
जाने कैसी भांग पिला दी साली ने,
बीवी दिखती चार, फाग की मस्ती में.
आंगन में उट्ठी जो बातों-बातों में,
तोड़ें वो दीवार, फाग की मस्ती में.
चाचा चरतु चिलम चढ़ा कर चांद चढ़े,
चाची भी तैयार, फाग की मस्ती में.
इतनी चमचम, इतनी गुझिया खा डाली,
हुए पेट बेकार फाग की मस्ती में.
काली करतूतों को बक्से में धर कर,
गली में आजा यार फाग की मस्ती में.
ननदों ने भी पकड़, भाभी के भैय्या को,
दी पिचकारी मार, फाग की मस्ती में.
कईं तिलंगे खड़े चौंक में भांप रहे,
पायल की झंकार, फाग की मस्ती में.
गुब्बारे दर गुब्बारे दर गुब्बारे.......
हाय हाय सित्कार, फाग की मस्ती में.
होली है अनुबंधों की, प्रतिबंध नहीं,
सब का बेड़ा पार, फाग की मस्ती में.
चिड़िया ने भी चिड़े को फ्लाइंग-किस मारी,
दोनों पंख पसार फाग की मस्ती में.
कीचड़ रक्खें दूर 'मौदगिल' रंगों से,
भली करे करतार, फाग की मस्ती में.
नवनीत जी :
लाल, भगवा, या हरा, नीला कहो, सबके सब कबके सियासी हो गए
जो बचें हैं रंग अब बाजार में आओ उनके साथ होली खेल लें।
चाँद शुक्ला जी की ग़ज़ल
ग़ज़ल
रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके
आँख का कजरा बह जाता है रोते-रोते
खाली नैनों संग करे क्या गोरी जी के
फूलों से दिल को जितने भी घाव मिले हैं
रफ़ू किया है काँटों की सुई से सी के
सब कुछ होते हुए तक़ल्लुफ़ मत करना तुम
हम तो अपने घर ही से आए हैं पी के
तेरी माँग के ''चाँद'' सितारे रहें सलामत
जलते रहें चिराग़ तुम्हारे घर में घी के
डा अहमद अली बर्क़ी
आई होली ख़ुशी का ले के पयाम
आप सब दोस्तों को मेरा सलाम
सब हैँ सरशार कैफो मस्ती मेँ
आज की है बहुत हसीँ यह शाम
सब रहें ख़ुश यूँ ही दुआ है मेरी
हर कोई दूसरोँ के आए काम
भाईचारे की हो फ़जा़ ऐसी
बादा-ए इश्क़ का पिएँ सब जाम
हो न तफरीक़ कोई मज़हब की
जश्न की यह फ़ज़ा हो हर सू आम
अम्न और शान्ती का हो माहोल
जंग का कोई भी न ले अब नाम
रंग मे अब पडे न कोई भंग
सब करें एक दूसरे को सलाम
रहें मिल जुल के लोग आपस में
मेरा अहमद अली यही है पयाम
द्विजेन्द्र द्विज
पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन-पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार
पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार
मेरी एक ग़ज़ल आप सब के लिए:
बात छोटी सी है पर हम आज तक समझे नही
दिल के कहने पर कभी भी फ़ैसले करते नहीं
सुर्ख़ रुख़्सारों पे हमने जब लगाया था गुलाल
दौड़कर छत्त पे चले जाना तेरा भूले नहीं
हार कुंडल , लाल बिंदिया , लाल जोड़े मे थे वो
मेरे चेहरे की सफ़ेदी वो मगर समझे नहीं
हमने क्या-क्या ख़्वाब देखे थे इसी दिन के लिए
आज जब होली है तो वो घर से ही निकले नहीं
अब के है बारूद की बू चार -सू फैली हुई
खौफ़ फैला हर जगह आसार कुछ अच्छे नहीं.
उफ़ ! लड़कपन की वो रंगीनी न तुम पूछो `ख़याल'
तितलियों के रंग अब तक हाथ से छूटे नहीं
***उरूस-ए-सब्ज़ह-सब्ज़ की दुल्हन,रयाज़-ए- जहाँ -बाग़-ए जहाँ , फज़ा-ए- दह्र -ज़माने की फ़ज़ा ,
खुदा रसीदह - जिसकी खुदा तक पहुँच हो ,नशश्ए नख़वत - ग़ुरूर का नशा ,हक़ीक़तनेगार -हक़ीकत बयान करने वाला