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जन्म :27 जून 1955
शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों मे जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आज तक इनके साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।
संप्रति: पिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह ( "वक्त के साथ" जो वेब पर उपलब्ध)
मझे बहुत खुशी हो रही है उनकी ग़ज़लें यहाँ पेश करते हुए. साहित्य की सेवा जो उन्होंने अनुभुति और अभिव्यक्ति द्वारा की है वो सराहनीय है और आने वाले कल का सरमाया है.उनकी नई रचनाएँ इस चिठ्ठे पर यहाँ पढ़ें
ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com
पेश है उनकी तीन ग़ज़लें:
ग़ज़ल:
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खुद को जला रहा था सूरज
दुनिया सजा रहा था सूरज
दिनभर के लंबे दौरे से
थक कर नहा रहा था सूरज
केसर का चरणामृत पीकर
दोना बहा रहा था सूरज
दिन सलवट सलवट बिखरा था
कोना तहा रहा था सूरज
शांत नगर का धीरे धीरे
होना बता रहा था सूरज
लेने वाला कोई नहीं था
सोना बहा रहा था सूरज
ग़ज़ल
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शब्दों का जंजाल है दुनिया
मीठा एक ख़याल है दुनिया
फूल कली दूब और क्यारी
रंग-रंगीला थाल है दुनिया
हाथ विदा का रेशम रेशम
लहराता रूमाल है दुनिया
कभी दर्द है कभी सर्द है
मौसम बड़ा निहाल है दुनिया
अपनों की गोदी में सोई
सपनों का अहवाल है दुनिया
खुशियों में तितली सी उड़ती
दुख में खड़ा बवाल है दुनिया
जंगल में है मोर नाचता
घर में रोटी दाल है दुनिया
रोज़ रोज़ की हड़तालों में
गुमी हुई पड़ताल है दुनिया
भीड़ भड़क्का आना जाना
हलचल हालचाल है दुनिया
रेशम के ताने बाने में
उलझा हुआ सवाल है दुनिया
तुझे फूँकने ले जाएगी
लकड़ी वाली टाल है दुनिया
(वज़्न है: आठ गुरु)
ग़ज़ल
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बाँधकर ढोया नहीं था आसमाँ
हमने पर खोया नहीं था आसमाँ
राह में तारे बहुत टूटे मगर
दर्द से रोया नहीं था आसमाँ
हाथ थामे चल रहा था रात दिन
थक के भी सोया नहीं था आसमाँ
फिर ज़मीं समझा रही थी रौब से
क्लास में गोया नहीं था आसमाँ
चाह थी हर एक को उसकी मगर
खेत में बोया नहीं था आसमाँ
किस तरह बूँदें गिरी ये दूब पर
रात ने धोया नहीं था आसमां
बहेर-रमल(2122 2122 212 )
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