Monday, June 15, 2009
डी.के."मुफ़लिस" की ग़ज़लें और परिचय
1957 में पटियाला (पंजाब) मे जन्मे डी.के. सचदेवा जिनका तख़ल्लुस "मुफ़लिस" है , आजकल लुधियाना में बैंक मे कार्यरत हैं.शायरी मे कई सम्मान इन्होंने अर्जित किये हैं जैसे दुशयंत कुमार सम्मान, उपेन्द्र नाथ "अशक" सम्मान और समय-समय पर पत्र और पत्रिकाओं मे छपते रहे हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए.
एक.
हादिसों के साथ चलना है
ठोकरें खा कर संभलना है
मुश्किलों की आग में तप कर
दर्द के सांचों में ढलना है
हों अगर कांटे भी राहों में
हर घडी बे-खौफ चलना है
जो अंधेरों को निगल जाए
बन के ऐसा दीप जलना है
वक़्त की जो क़द्र भूले, तो
जिंदगी भर हाथ मलना है
हासिले-परवाज़ हो आसाँ
रुख हवाओं का बदलना है
इन्तेहा-ए-आरजू बन कर
आप के दिल में मचलना है
जिंदगी से दोस्ती कर लो
दूर तक जो साथ चलना है
रात भर तू चाँद बन 'मुफलिस'
सुब्ह सूरज-सा निकलना है
दो.
वो भली थी या बुरी अच्छी लगी
ज़िन्दगी जैसी मिली अच्छी लगी
बोझ जो दिल पर था घुल कर बह गया
आंसुओं की ये नदी अच्छी लगी
चांदनी का लुत्फ़ भी तब मिल सका
जब चमकती धूप भी अच्छी लगी
जाग उट्ठी ख़ुद से मिलने की लगन
आज अपनी बेखुदी अच्छी लगी
दोस्तों की बेनियाज़ी देख कर
दुश्मनों की बेरुखी अच्छी लगी
आ गया अब जूझना हालात से
वक़्त की पेचीदगी अच्छी लगी
ज़हन में 'मुफलिस' उजाला छा गया
इल्मो-फ़न की रौशनी अच्छी लगी
तीन
रहे क़ायम जहाँ में प्यार प्यारे
फले-फूले ये कारोबार प्यारे
सुकून ओ चैन , अम्नो-आश्ती हो
सदा खिलता रहे गुलज़ार प्यारे
जियो ख़ुद और जीने दो सभी को
यही हो ज़िंदगी का सार प्यारे
हमेशा ही ज़माने से शिकायत
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार प्यारे
शऊरे-ज़िंदगी फूलों से सीखो
करो तस्लीम हंस कर ख़ार प्यारे
लहू का रंग सब का एक-सा है
तो फिर आपस में क्यूं तक़रार प्यारे
किसी को क्या पड़ी सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार प्यारे
बुजुर्गों ने कहा, सच ही कहा है
भंवर-जैसा है ये संसार प्यारे
तुम्हें जी भर के अपना प्यार देगी
करो तो ज़िंदगी से प्यार प्यारे
हुआ है मुब्तिला-ए-शौक़ 'मुफलिस'
नज़र आने लगे आसार प्यारे.
Saturday, June 13, 2009
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है
इस बार का मिसरा श्री द्विजेन्द्र "द्विज" जी की ग़ज़ल से लिया गया है.
नया मिसरा-ए-तरह "सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है"
काफ़िया: तड़पाता, जाता, घबराता आदि
रदीफ़: है
ये बह्रे-मुतक़ारिब की एक मुज़ाहिफ़ शक्ल है जिसके अरकान इस तरह से हैं.
फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े’लुन , फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े
22 22 2 2 2 2 , 22 22 22 2
नोट: हर गुरू के स्थान पर दो लघु आ सकते हैं सिवाय आठवें गुरू के.
पंख कतर कर जादूगर जब, चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है
पूरी ग़ज़ल जिसमे से ये मिसरा लिया गया:
पंख कतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है
‘जयद्रथ’ हो या ‘दुर्योधन’हो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठाते ‘अर्जुन’ भी घबराता है
जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है
दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है
प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती-गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है
सब कुछ जाने ‘ब्रह्मा’ किस मुँह पूछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताण्डव-सा डमरू कौन बजाता है
‘द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है
इसी बह्र मे चंद और ग़ज़लें.
मीर तक़ी मीर
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वरना दिलबर-ए-नादां भी इस दर्द का चारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत, एक से वाक़िफ़ इनमें नहीं
और तो सब कुछ तंज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
मीर तकी मीर इसी बह्र मे:
उलटी हो गयीं सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया
देख़ा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अहदे जवानी रो-रो काटी ,पीर में लें आखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे , सुबह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करे हैं , हमको बस बदनाम किया
या के सुफ़ेद-ओ-स्याह में हम को दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया , या दिन को ज्यूं त्यूं शाम किया
मीर के दीन-ओ-मजहब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
कश्का खींचा , दैर में बैठा , कब का तर्क इस्लाम किया
फिर मीर साहब
दिल की बात कही नहीं जाती चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है
सुर्ख कभू है आँसू हो के ज़र्द कभू है मुंह मेरा
क्या क्या रंग मुहब्बत के हैं ये भी एक ज़माना है
फुर्सत है याँ कम रहने की बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोलो, बज्म-ए-जहाँ अफ़साना है
तेग़ तले ही उस के क्यों ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी ख़ाक की ओर झुकाना है
और एक बहुत ही दिलकश और मशहूर नग़्मा भी इसी बह्र मे है:
एक था गुल और एक थी बुलबुल दोनो चमन में रहते थे
है ये कहानी बिलकुल सच्ची’मेरे नाना कहते थे
एक था गुल और ...
बुलबुल कुछ ऐसे गाती थी’ जैसे तुम बातें करती हो
वो गुल ऐसे शर्माता था,जैसे मैं घबरा जाता हूँ
बुलबुल को मालूम नही था;गुल ऐसे क्यों शरमाता था
वो क्या जाने उसका नगमा’गुल के दिल को धड़काता था
दिल के भेद ना आते लब पे;ये दिल में ही रहते थे
एक था गुल और ...
और
दूर है मंज़िल राहें मुशकिल आलम है तनहाई का
आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्ता पाई का.(शकील)
नोट: अपनी ग़ज़लें भेजने में जल्दबाजी न करें. अच्छी तरह पहले परवरिश कर लें . बार-बार सुधार कर के भेजने से अच्छा है थोडा देरी से भेजें और भर्ती के अशआर से गुरेज़ करें. आप २०-२५ दिन के अंदर हमें ग़ज़लें भेज सकते हैं.
Tuesday, June 9, 2009
दिल अगर फूल सा नहीं होता - अंतिम छ: ग़ज़लें
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर अतिंम छ: ग़ज़लें.सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया . ये सब द्विज जी के आशीर्वाद से मुमकिन हो रहा है. अगला मिसरा-ए-तरह जल्द दिया जायेगा.नये शायरों को भी हम मौका दे रहे हैं ताकि वो भी आगे आ सकें .
पवनेन्द्र ‘पवन’
अपना-अपना ख़ुदा नहीं होता
ख़ून इतना बहा नहीं होता
सुन के भी अब तो हर तरफ़ चीख़ें
दर्द दिल में ज़रा नहीं होता
कौन करता सुमन-सा दिल अर्पित
तू अगर देवता नहीं होता
चल यक़ीं करके हमसफ़र के साथ
शख़्स हर बेवफ़ा नहीं होता
आग झुलसा के ठूँठ छोड़ गई
अब ये जंगल हरा नहीं नहीं होता
मोजिज़ा होता है मगर सुनिए
मोजिज़ा हर दफ़ा नहीं होता
ये भरे पेट किलबिलाता है
भूख में फ़लसफ़ा नहीं होता
दिल जो लोगे तो दर्द भी लोगे
दर्द दिल से जुदा नहीं होता
जो समझता नहीं ख़ुदा ख़ुद को
आदमी गुमशुदा नहीं होता
यार बन सकता है अदू भी तो
क्या ज़हर भी दवा नहीं होता
होते काँटे न मन की बगिया में
दिल अगर फूल-सा नहीं होता
हो गये सब को हम पराए अब
कोई हम से ख़फ़ा नहीं होता
साथ रहता है जब तलक वो ‘पवन’
मुझको मेरा पता नहीं होता
जगदीश रावतानी आनंदम
दिल अगर फूल सा नही होता
यू किसी ने छला नही होता
था ये बेहतर कि कत्ल कर देते
रोते रोते मरा नही होता
दिल में रहते है दिल रुबाओं के
आशिकों का पता नही होता
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नही तब तक
इश्क जब तक हुआ नही होता
होश में रह के ज़िन्दगी जीता
तो यू रुसवा हुआ नही होता
जुर्म हालात का नतीजा हैं
आदमी तो बुरा नही होता
ख़ुद से उल्फत जो कर नही सकता
वो किसी का सगा नही होता
क्यों ये दैरो हरम कभी गिरते
आदमी गर गिरा नही होता
दर्पन शाह दर्पन
हुस्न गुलशन हुआ नहीं होता
दिल अगर फूल सा नही होता.
आदमी ने कहा नहीं होता
तो खुदा भी खुदा नहीं होता
जाते जाते बता गया वो मुझे
दूर माने जुदा नहीं होता
अक्स शायद बदल गया मेरा
आइना बेवफा नहीं होता
आँख से खूँ टपक गया 'ग़ालिब '
अब रगों में जमा नहीं होता
प्रकाश अर्श
रंग-ओ-बू पर फ़िदा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
आप आकर गए क्यों महफ़िल से
इस तरह हक़ अदा नहीं होता
सब से अक्सर यही मैं कहता हूँ
बा-वफ़ा बे-वफ़ा नहीं होता
कौन कहता है कुछ नहीं मिलता
इश्क़ में क्या छुपा नहीं होता
दिल की कह तो मैं देता उनसे मगर
क्या करूं हौसला नहीं होता
देवी नांगरानी
शोर दिल में मचा नहीं होता
गर उसे कुछ हुआ नहीं होता
काश ! वो भी कभी बदल जाते
सोच में फासला नहीं होता
कुछ ज़मीं में रही कशिश होगी
वर्ना नभ यूँ झुका नहीं होता
झूठ के पाँव क्यों ठिठकते गर
देख सच, वो डरा नहीं होता
अपना नुक्सान यूँ न वो करता
तैश में आ गया नहीं होता
नज़रे-आतिश न होती बस्ती यूँ
मेरा दिल गर जला नहीं होता
दर्द 'देवी' का जानता कैसे
गम ने उसको छुआ नहीं होता
सतपाल ख्याल
अपना सोचा हुआ नहीं होता
वर्ना होने को क्या नहीं होता
उसकी आदत फ़कीर जैसी है
कुछ भी कह लो खफ़ा नहीं होता
न मसलते यूँ संग दिल इसको
दिल अगर फूल-सा नहीं होता.
याद आते न शबनमी लम्हे
ज़ख़्म कोई हरा नहीं होता
ख्वाब मे होती है फ़कत मंज़िल
पर कोई रास्ता नहीं होता
इश्क़ बस एक बार होता है
फिर कभी हौसला नहीं होता
हद से गुज़रे हज़ार बार भले
दर्द फिर भी दवा नहीं होता
दोस्ती है तो दोस्ती मे कभी
कोई शिकवा गिला नहीं होता
मुफ़लिसी में ख़याल अब हमसे
कोई वादा वफ़ा नहीं होता
Monday, June 8, 2009
दिल अगर फूल सा नहीं होता- तीसरी किश्त
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.अंतिम किश्त अभी बाकी है.
ग़ज़ल: एम.बी. शर्मा ‘मधुर’
गर मुक़द्दर लिखा नहीं होता
कोई रुस्तम छुपा नहीं होता
कौन जाने कि आए कब कैसे
मौत का कुछ पता नहीं होता
कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता
बुत-परस्ती तो क़ुफ़्र हो शायद
बुतशिकन भी ख़ुदा नहीं होता
हाल मेरा न पूछते आकर
ज़ख़्म फिर से हरा नहीं होता
जानते हैं शराब दोज़ख़ है
नश्अ हर आप-सा नहीं होता
वक़्त नाज़ुक़ वही जहाँ कोई
बीच का रास्ता नहीं होता
ग़ज़ल : पुर्णिमा वर्मन
काश सूरज ढला नहीं होता
दिन मेरा अनमना नहीं होता
धूप में मुस्कुरा नहीं पाते
दिल अगर फूल सा नहीं होता
मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता
राह खुद ही निकल के आती है
जब कोई रास्ता नहीं होता
ज़िंदगी का सफ़र न कट पाता
वो अगर हमनवा नहीं होता
ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस की ग़ज़ल
ग़म में गर मुब्तिला नहीं होता
मुझको मेरा पता नहीं होता
जो सनम-आशना नहीं होता
उसको हासिल खुदा नहीं होता
दर्द का सिलसिला नहीं होता
तू अगर बेवफा नहीं होता
वक़्त करता है फैसले सारे
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता
मैं अगर हूँ तो कुछ अलग क्या है
मैं न होता,तो क्या नहीं होता
दूसरों का बुरा जो करता है
उसका अपना भला नहीं होता
जब तलक आग में न तप जाये
देख , सोना खरा नहीं होता
क्यूं भला लोग डूबते इसमें
इश्क़ में गर नशा नहीं होता
हाँ ! जुदा हो गया है वो मुझसे
क्या कोई हादिसा नहीं होता ?
सीख लेता जो तौर दुनिया के
कोई मुझसे खफा नहीं होता
ये ज़मीं आसमान हो जाये
ठान ही लो तो क्या नहीं होता
जो न गुज़रा तुम्हारी सोहबत में
पल वही खुश-नुमा नहीं होता
कैसे निभती खिजां के मौसम से
दिल अगर फूल-सा नहीं होता
जिंदगी क्या है, चंद समझौते
क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता
हौसला-मंद कब के जीत चुके
काश!मैं भी डरा नहीं होता
बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता
डोर टूटेगी किस घड़ी 'मुफलिस'
कुछ किसी को पता नहीं होता
ग़ज़ल: चन्द्रभान भारद्वाज
प्यार में यूँ दिया नहीं होता;
दिल अगर फूल सा नहीं होता
प्यार की लौ सदा जली रहती
इसका दीया बुझा नहीं होता
एक सौदा है सिर्फ घाटे का
प्यार में कुछ नफा नहीं होता
रात करवट लिये गुजरती है,
दिन का कुछ सिलसिला नहीं होता
ज़िन्दगी भागती ही फिरती है
प्यार का घर बसा नहीं होता
लोग सदियों की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता
पहले हर बात का भरोसा था
अब किसी बात का नहीं होता
प्यार का हर धड़ा बराबर है
कोई छोटा बड़ा नहीं होता
पूरी लगती न 'भारद्वाज' गज़ल
प्यार जब तक रमा नहीं होता
ग़ज़ल: ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर
ग़म ग़ज़ल मे ढला नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
होता है सिर्फ वो मेरे दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता
कौन पढ़ता इबारतें दिल की
चेहरा ग़र आइना नहीं होता
सिर्फ़ इल्ज़ाम और नफरत से
हल कोई मसअला नहीं होता
हम से सब कुछ बयान होता है
पर बयाँ मुद्दआ नहीं होता
हम न होते तो गेसु-ए- सुम्बुल
इतना सँवरा- सजा नहीं होता
याद रखना कि भूल ही जाना
बस में कुछ बा-खु़दा नहीं होता
चाहने से किसी के हम सफरो
कभी अच्छा-बुरा नहीं होता
ज़ख्म-ए-दिल कैकटस है सहरा का
कब भला ये हरा नहीं होता
हम जुनूं केश से कभी नय्यर
इश्क का हक़ अदा नहीं
Wednesday, June 3, 2009
दिल अगर फूल सा नहीं होता- दूसरी किश्त
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.द्विज जी के आशीर्वाद से ही ये काम सफल हो रहा है.
नवनीत शर्मा की ग़ज़ल
उनसे गर राबिता नहीं होता
दरमियाँ फ़ासला नहीं होता
मैं भी ख़ुद से ख़फ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
फिर कोई हादसा नहीं होता
तू जो ख़ुद से ख़फ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे मिला नहीं होता
मैं भी खुद को दिखा नहीं होता
सच से गर वास्ता नहीं होता
कुछ भी तो ख़्वाब-सा नहीं होता
ठान ही लें जो घर से चलने की
फिर कहाँ रास्ता नहीं होता
रोज़ कुछ टूटता है अंदर का
हाँ मगर, शोर-सा नहीं होता
सच की तालीम पा तो लें मौला
क्या करें दाख़िला नहीं होता
उनसे कहने को है बहुत लेकिन
उनसे बस सामना नहीं होता
याद रहते हैं हक़ उन्हें अपने
फ़र्ज़ जिनसे अदा नहीं होता
रोज़ मरते हैं ख्वाब सीने में
अब कोई ख़ौफ़-सा नहीं होता
अजनबीयत ने वहम साफ़ किया
आशना, आशना नहीं होता
ज़ख़्म इतना बड़ा नहीं फिर भी
दर्द दिल का हवा नहीं होता
ख़ुद को खोकर मिली समंदर से
ये नदी को गिला नहीं होता
लोग मिलते हैं, फिर बिछड़ते हैं
हर कोई एक सा नहीं होता
दुश्मनी खुद से गर नहीं होती
कोई जंगल कटा नहीं होता
याद जिंदा थी याद कायम है
खत्म ये सिलसिला नहीं होता
आंख होती है गर गिलास नहीं
अब कोई पारसा नहीं होता
इश्क की राह पे चला ही नहीं
पैर जो आबला नहीं होता
हाय दिल को भी ये खबर होती
दर्द होता है या नहीं होता
छाछ पीने से खौफ क्यों खाता
दूध से गर जला नहीं होता
साथ मेरे वही हुआ अक्सर
जो भी पहले नहीं हुआ होता
हां, तुझे भूलना ही अच्छा है
क्या करें हौसला नहीं होता
सुबह आती है लौट जाती है
देर तक जागना नहीं होता
सोच का फर्क है यकीन करो
वक्त कोई बुरा नहीं होता
काम आता है एक दूजे के
आदमी कब खुदा नहीं होता
तुम भी बदले अगर नहीं होते
मैं भी कुछ और सा नहीं होता
बात यह और है न देख सको
वरना आंखों में क्या नहीं होता
मीर-मोमिन न कह गए होते
हमने भी कुछ लिखा नहीं होता
साफ सुन लो यकीन मत करना
हमसे वादा वफा नहीं होता
ख्वाब सारे ही जब से टूट गए
अब कोई रतजगा नहीं होता
आदतन लोग अब सिहरते हैं
गो कोई हादसा नहीं होता
बात मज़लूम की सुने कोई
अब यही मोजज़ा नहीं होता
तुम जो ग़ैरों के काम आते हो
तुम से अपना भला नहीं होता?
चल मेरे यार ज़रा- सा हँस लें
आज कल कुछ पता नहीं होता
हर अदावत की धूप सह लेता
'दिल अगर फूल सा नहीं होता'
वो है अपना या गैर का ‘नवनीत’
हमसे ये फ़ैसला नहीं होता
योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़ल
जब तलक सिरफिरा नहीं होता
आजकल फैसला नहीं होता
बात सच्ची बताने को अक्सर
घर में भी हौसला नहीं होता
सपने साकार किस तरह होते
तू अगर सोचता नहीं होता
सच तो सच ही रहेगा ऐ यारों
झूठ में हौसला नहीं होता
लूट लेते हैं अपने-अपनों को
आज दुनिया में क्या नहीं होता
शुद्ध हों मन की भावनाएं अगर
कोई किस्सा बुरा नहीं होता
प्रेमचंद सहजवाला की ग़ज़ल
हुस्न गर नारसा नहीं होता
इश्क तब सरफिरा नहीं होता
तू अगर बेवफा नहीं होता
मैं कभी ग़मज़दा नहीं होता
हम भी रिन्दों में हो गए शामिल
जश्न इस से बड़ा नहीं होता
इतने मायूस हम हुए हैं क्यों
क्या कभी सानिहा नहीं होता
ये तो अक्सर हुआ है हुस्न के साथ
तीर खींचा हुआ नहीं होता
अच्छी शक्लें अगर नहीं होती
क्या कहीं आईना नहीं होता
इश्क करना मुहाल होता क्या
दिल अगर फूल सा नहीं होता
गर्दिशों से भरे हों जब अय्याम
तब कोई हमनवा नहीं होता
गौतम राजरिषी की ग़ज़ल
मैं खुदा से खफ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
ये जो कंधे नहीं तुझे मिलते
तो तू इतना बड़ा नहीं होता
सच की खातिर न खोलता मुँह गर
सर ये मेरा कटा नहीं होता
कैसे काँटों से हम निभाते फिर
दिल अगर फूल-सा नहीं होता
चाँद मिलता न राह में उस रोज
इश्क का हादसा नहीं होता
पूछते रहते हाल-चाल अगर
फासला यूँ बढ़ा नहीं होता
छेड़ते तुम न गर निगाहों से
मन मेरा मनचला नहीं होता
होती हर शै पे मिल्कियत कैसे
तू मेरा गर हुआ नहीं होता
दूर रखता हूँ आइने को क्यूं
खुद से ही सामना नहीं होता
कहती है माँ, कहूँ मैं सच हरदम
क्या करूँ, हौसला नहीं होता
मनु 'बे-तखल्लुस'की ग़ज़ल
तू जो सबसे जुदा नहीं होता,
तुझपे दिल आशना नहीं होता,
कैसे होती कलाम में खुशबू,
दिल अगर फूल सा नहीं होता
मेरी बेचैन धडकनों से बता,
कब तेरा वास्ता नहीं होता
खामुशी के मकाम पर कुछ भी
अनकहा, अनसुना नहीं होता
आरजू और डगमगाती है
जब तेरा आसरा नहीं होता
आजमाइश जो तू नहीं करता
इम्तेहान ये कडा नहीं होता
हो खुदा से बड़ा वले इंसां
आदमी से बड़ा नहीं होता
ज़ख्म देखे हैं हर तरह भरकर
पर कोई फायदा नही होता
राह चलतों को राजदार न कर
कुछ किसी का पता नहीं होता,
जिसका खाना खराब तू करदे
उसका फिर कुछ बुरा नहीं होता
मय को ऐसे बिखेर मत जाहिद
यूं किसी का भला नहीं होता
इक तराजू में तौल मत सबको
हर कोई एक सा नही होता
मेरा सर धूप से बचाने को
अब वो आँचल रवा नहीं होता
रात होती है दिन निकलता है
और तो कुछ नया नहीं होता
हम कहाँ, कब, कयाम कर बैठें
हम को अक्सर पता नहीं होता
सोचता हूँ कि काश हव्वा ने
इल्म का फल चखा नहीं होता
मुझ पे वो एतबार कर लेता
जो मैं इतना खरा नहीं होता
होता कुछ और, तेरी राह पे जो
'बे-तखल्लुस' गया नहीं होता
Monday, June 1, 2009
दिल अगर फूल सा नहीं होता - पहली किश्त
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पहली पाँच ग़ज़लें.
प्राण शर्मा की ग़ज़ल
जिस्म खुशबू भरा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
थक गया हूँ मैं साफ़ करते हुए
दिल का कमरा सफ़ा नहीं होता
दोस्ती कर के देख ले उस से
हर कोई देवता नहीं होता
डिग्रियां उसकी क्या करे कोई
साथ जो भी खड़ा नहीं होता
जीते-जी अम्मा मर गयी होती
खोया सुत गर मिला नहीं होता
कोई चाहे नहीं उसे बिलकुल
दिल से क्यों दुःख जुदा नहीं होता
हम ही जाएँ हमेशा पास उसके
उससे पल भर को आ नहीं होता
आप बनवा के देख लें लेकिन
घर महज रेत का नहीं होता
हर खुशी सबको गर मिली होती
आदमी दिलजला नहीं होता
द्वार हर इक का खटखटाते हो
सबका ही आसरा नहीं होता
"प्राण" रिसता रहा सभी पानी
काश, ऐसा घड़ा नहीं होता
डा. दरवेश भारती की ग़ज़ल
पीठ पीछे कहा नहीं होता
तुमसे कोई गिला नहीं होता
जो ख़फ़ा है ख़फ़ा नहीं होता
हमने गर सच कहा नहीं होता
ज़िक्र उनका छिड़ा नहीं होता
ज़ख़्म दिल का हरा नहीं होता
तुम जुटाओ ज़रा-सी हिम्मत तो
देखो फिर क्या से क्या नहीं होता
ईंट-पत्थर न चलते आपस में
घर ये हरगिज़ फ़ना नहीं होता
क्या समझता ग़ुरूर क्या शय है
वो जो उठकर गिरा नहीं होता
कुछ न कर पाता कोई तूफ़ाँ भी
भाग्य में गर बदा नहीं होता
नाव क्यों उसके हाथों सौंपी थी
नाख़ुदा तो ख़ुदा नहीं होता
आज होते न वाल्मीकि अगर
वन-गमन राम का नहीं होता
दर्द की चशनी में जो न पके
ख़ुद से वो आशना नहीं होता
कोई सागर कहीं न होता अगर
इक भी दरिया बहा नहीं होता
प्रेम ख़ुद की तरह न सब से करे
फिर वो ‘दरवेश’-सा नहीं होता
जोगेश्वर गर्ग की ग़ज़ल
इश्क में मुब्तिला नहीं होता
तो मुसीबतजदा नहीं होता
बारहा हादसा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कर रहे थे उसे सभी सज़दे
कोई कैसे खुदा नहीं होता
रोज तूफ़ान भी तलातुम भी
कब यहाँ ज़लज़ला नहीं होता
बर नहीं आ रही मेरी कोशिश
उन तलक सिलसिला नहीं होता
रोज होती रही बहस कितनी
हाँ मगर फैसला नहीं होता
पस्त होती यहाँ तभी मुश्किल
पस्त जब हौसला नहीं होता
क्यों हुआ कमनसीब "जोगेश्वर"
क्यों कभी भी नफ़ा नहीं होता
तेजेन्द्र शर्मा की ग़ज़ल:
साथ तेरा अगर मिला होता
जश्न ख़ामोश सा नहीं होता
ऐसे हालात से भी गुजरा हूँ
मुझ को मेरा पता नहीं होता
मैनें ये मान लिया काफ़िर हूँ
तुम से बेहतर ख़ुदा नहीं होता
सोच में तेरी आके ग़ैर रहे
ये वफ़ा का सिला नहीं होता
हर कोई आज उड़ाता है हंसी
काश तुझ से मिला नहीं होता
हाँ शिकायत ज़रूर है तुझ से
ग़ैर से तो गिला नहीं होता
ज़ख़्म जो तुमने दिये सह लेता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल:
जब वो जलवा नुमा नहीं होता
क्या बताऊँ मैं क्या नहीं होता
दिल बहुत ही उदास रहता है
कोई दर्द आशना नहीं होता
नहीं होता सुकून-ए-क़ल्ब मुझे
उसका जब आसरा नहीं होता
याद आती है उसकी सरगोशी
जब भी उसका पता नहीं होता
वही रहता है ख़ान-ए-दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता
इस क़दर मुझ से है वह अब मानूस
कभी मुझ से जुदा नहीं होता
कीजिए आप सब से हुस्न-ए सुलूक
कोई अच्छा बुरा नहीं होता
तोडि़ए मत किसी का शीशा-ए-दिल
कुछ भी इस से भला नहीं होता
अस्ल में है यही फसाद की जड
पूरा अहद –ए-वफा नहीं होता
नहीं चुभते कभी यह ख़ार-ए-अलम
दिल अगर फूल सा नहीं होता
उसका तीर-ए-नज़र निशाने से
कभी बर्क़ी ख़ता नहीं होता
Sunday, May 24, 2009
ज़नाब अख़ग़र पानीपती - परिचय और ग़ज़लें
एक अगस्त 1934 मे जन्मे अख़ग़र पानीपती जी एक वरिष्ठ शायर हैं.अब तक इनके तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.उजालों का सफर उर्दू में, अर्पण हिंदी में,अक्षर नतमस्तक हैं हिंदी में.
आप पानीपत रत्न से नवाज़े जा चुके हैं और आप मुशायरों व कवि सम्मेलनों में शिरकत करते रहते हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आप सब के लिए:
ग़ज़ल
हज़ार ज़ख़मों का आईना था
गुलाब सा जो खिला हुआ था
मेरी नज़र से तेरी नज़र तक
कईं सवालों का फासला था
खुलूस की ये भी इक अदा थी
करीब से वो गुज़र गया था
हमारे घर हैं सराये फ़ानी
ये साफ दीवार पर लिखा था
टटोल कर लोग चल रहे थे
ये चांदनी शब का वाक़या था
तलाश में किस हसीं ग़ज़ल की
रवां ख़यालों का काफिला था
वो इक चरागे-वफ़ा था अख़ग़र
जो तेज आंधी में जल रहा था
बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन
121 22 121 22
ग़ज़ल:
दीवारों ने आंगन बांटा
उतरा-उतरा धूप का चेहरा
एक ज़रा सी बात से टूटा
कितना नाजुक प्यार का रिश्ता
वो है अगर इक बहता दरिया
फिर क्यूं रहता प्यासा-प्यासा
तू किस दुनिया का मतवाला
सबकी अपनी-अपनी दुनिया
अब लगता है भाई-भाई
इक-दूजे के खून का प्यासा
आवारा-आवारा डोले
अंबर पर बादल का टुकड़ा
चेहरा तो है चांद सा रौशन
दामन मैला है अलबत्ता
सच्चाई के साथ न कोई
झूठ-कपट के संग ज़माना
ये भी इन्सां वो भी इन्सां
एक अंधेरा एक उजाला
गुरबत इक अभिशाप है यारो
सच्चा बन जाता है झूठा
कुत्तों को भरपेट है रोटी
भूखा इक खुद्दार का बच्चा
अंधों की इस भीड़ में अख़ग़र
किस से पूछें घर का रस्ता
(आठ फ़ेलुन)
ग़ज़ल:
हिसारे-ज़ात से निकला नहीं है
बशर खुद को अभी समझा नहीं है
किसी को भी पता मेरा नहीं है
जहां मैं हूं मेरा साया नहीं है
नज़र की हद से आगे भी है दुनिया
जिसे तुमने कभी देखा नहीं है
कमी शायद है अपनी जुस्तजू में
वो घर में है मगर मिलता नहीं है
खयालों की भी क्या दुनिया है यारों
कि इसकी कोई भी सीमा नहीं है
जो सब लोगों में खुशियां बांटता था
उसे हंसते कभी देखा नहीं है
जिसे देखो लगे है इक फरिश्ता
मगर इन में कोई बंदा नहीं है
उजालों का नगर है पास बिल्कुल
पहुंचने का मगर रस्ता नहीं है
लगाव हर किसी को है किसी से
जहां में कोई भी तन्हा नहीं है
तुम्हारी जा़ते-अक़दस पर भरोसा
खुदा रक्खे कभी टूटा नहीं है
रवां किन रास्तों पर हूं मैं अख़ग़र
कि पेड़ों का यहां साया नहीं है
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
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