Thursday, October 31, 2013
Thursday, September 19, 2013
फ़ानी जोधपुरी
ग़ज़ल
रात की बस्ती बसी है घर चलो
तीरगी ही तीरगी है घर चलो
क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो
हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो
तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा
लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो
क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो
कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो
तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो
माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो
Thursday, August 29, 2013
सुरेन्द्र चतुर्वेदी जी की एक ग़ज़ल
ग़ज़ल
तमाम उम्र मेरी ज़िंदगी से कुछ न हुआ
हुआ अगर भी तो मेरी ख़ुशी से कुछ न हुआ
कई थे लोग किनारों से देखने वाले
मगर मैं डूब गया था, किसी से कुछ न हुआ
तमाम उम्र मेरी ज़िंदगी से कुछ न हुआ
हुआ अगर भी तो मेरी ख़ुशी से कुछ न हुआ
कई थे लोग किनारों से देखने वाले
मगर मैं डूब गया था, किसी से कुछ न हुआ
हमें ये फ़िक्र के मिट्टी के हैं मकां अपने
उन्हें ये रंज कि बहती नदी से कुछ न हुआ
रहे वो क़ैद किसी ग़ैर के ख़यालों में
यही वजह कि मेरी बेरुख़ी से कुछ न हुआ
लगी जो आग तो सोचा उदास जंगल ने
हवा के साथ रही दोस्ती से कुछ न हुआ
मुझे मलाल बहुत टूटने का है लेकिन
करूँ मैं किससे गिला जब मुझी से कुछ न हुआ
उन्हें ये रंज कि बहती नदी से कुछ न हुआ
रहे वो क़ैद किसी ग़ैर के ख़यालों में
यही वजह कि मेरी बेरुख़ी से कुछ न हुआ
लगी जो आग तो सोचा उदास जंगल ने
हवा के साथ रही दोस्ती से कुछ न हुआ
मुझे मलाल बहुत टूटने का है लेकिन
करूँ मैं किससे गिला जब मुझी से कुछ न हुआ
Tuesday, June 11, 2013
दिनेश त्रिपाठी जी की दो ग़ज़लें
ग़ज़ल
जिस्म के ज़ख्म तो भर जाते हैं इक न इक दिन
मुददतें बीत गयीं रूह का छाला न गया .
रो न पड़तीं तो भला और क्या करतीं आँखें ,
ज़िंदगी इनसे तेरा दर्द संभाला न गया .
बस उजाले से उजाले का मिलन होता रहा
घुप अँधेरे से कभी मिलने उजाला न गया .
घर के भीतर न मिला चैन कभी दिल को मगर
पाँव दहलीज से बाहर भी निकाला न गया
प्रश्न क्यों प्रश्न रहे आज तक उत्तर न मिला
इक यही प्रश्न तबीयत से उछला न गया
हो के बेफ़िक्र चली आती हैं जब जी चाहे
इक तेरी याद का आना कभी टाला न गया
ग़ज़ल
एक झूठी मुस्कुराह्ट को खुशी कहते रहे
सिर्फ़ जीने भर को हम क्यों ज़िन्दगी कहते रहे
लोग प्यासे कल भी थे हैं आज भी प्यासे बहुत
फिर भी सब सहरा को जाने क्यों नदी कहते रहे
हम तो अपने आप को ही ढूंढते थे दर-ब-दर
लोग जाने क्या समझ आवारगी कहते रहे .
अब हमारे लब खुले तो आप यूं बेचैन हैं
जबकि सदियों चुप थे हम बस आप ही कहते रहे
.
रहनुमाओं में तिज़ारत का हुनर क्या खूब है
तीरगी दे करके हमको रोशनी कहते रहे
Saturday, May 4, 2013
देवेंद्र गौतम
ग़ज़ल
दर्द को तह-ब-तह सजाता है.
कौन कमबख्त मुस्कुराता है.
और सबलोग बच निकलते हैं
डूबने वाला डूब जाता है.
उसकी हिम्मत तो देखिये साहब!
आंधियों में दिये जलाता है.
शाम ढलने के बाद ये सूरज
अपना चेहरा कहां छुपाता है.
नींद आंखों से दूर होती है
जब भी सपना कोई दिखाता है.
लोग दूरी बना के मिलते हैं
कौन दिल के करीब आता है.
तीन पत्तों को सामने रखकर
कौन तकदीर आजमाता है?
Thursday, January 10, 2013
सुरेश चन्द्र ‘शौक़’
ग़ज़ल
ज़र्रा-ज़र्रा वो बिखेरेगा बिखर जाऊँगा
अपनी तक्मील* बहरहाल मैं कर जाऊँगामेरा ज़ाहिर* भी वही है मेरा बातिन* भी वही
मत समझना कि मैं आईने से डर जाऊँगा
है कोई ठौर ठिकाना न कोई मेरा सुराग़
ढूँढने निकलूँगा खुद को तो किधर जाऊँगा
प्यार बेलौस मेरा जज़्बे मेरे पाकीज़ा
इक न इक रोज़ तेरे दिल में उतर जाऊँगा
जब तू यादों के दरीचों से कभी झाँकेगा
अश्क बन कर तेरी पलकों पे ठहर जाऊँगा
मेरी तक़दीर में काँटे हैं तो काँटे ही सही
तेरे दामन को मगर फूलों से भर जाऊँगा
अपने अश्कों के एवज़ क़हक़हे बख़्शूँगा तुझे
ज़िन्दगी ! तुझ पे ये एहसान भी कर जाऊँगा
“शौक़” हैरान-सा कर दूँगा उसे भी इक रोज़
बेनियाज़* उसके मुक़ाबिल से गुज़र जाऊँगा
*तक्मील=किसी काम को पूरा करने में कोई कसर न रखना
*बहरहाल = जैसे तैसे
*ज़ाहिर= प्रत्यक्ष
*बातिन =अप्रत्यक्ष, अन्दर का
*एवज़=बदले में
*बेनियाज़ =बेपर्वा
Tuesday, December 4, 2012
ओम प्रकाश "नदीम" की एक ग़ज़ल
ग़ज़ल
सामने से कुछ सवालों के उजाले पड़ गए
बोलने वालों के चेहरे जैसे काले पड़ गए
वो तो टुल्लू की मदद से अपनी छत धोते रहे
और हमारी प्यास को पानी के लाले पड़ गए
जाने क्या जादू किया उस मज़हबी तक़रीर ने
सुनने वाले लोगों के ज़हनों पे ताले पड़ गए
भूख से मतलब नहीं, उनको मगर ये फ़िक़्र है
कब कहां किस पेट में कितने निवाले पड़ गए
जब हमारे क़हक़हों की गूंज सुनते होंगे ग़म
सोचते होंगे कि हम भी किसके पाले पड़ गए
रहनुमाई की नुमाइश भी न कर पाए ‘नदीम’
दस क़दम पैदल चले, पैरों में छाले पड़ गए
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