Saturday, March 19, 2011
प्रफुल्ल कुमार परवेज़
ग़ज़ल
वो बेहिसाब है तन्हा तमाम लोगों में
जो आदमी है सरापा तमाम लोगों में
तू झूठ, सच की तरह बोलने में माहिर है
अज़ीम है तेरा रुतबा तमाम लोगों में
ख़ुदी की बात लबों पर ज़रा-सी क्या आई
मैं घिर गया हूँ अकेला तमाम लोगों में
मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में
ये क्या मुकामे-जहाँ है कि अब गरज़ के सिवा
बचा नहीं कोई रिश्ता तमाम लोगों में
इक आरज़ू थी जो शायद कभी न हो पूरी
हबीब-सा कोई मिलता तमाम लोगों में
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
बहरे-मजतस
{ थाईलैड से यह ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ , दूर हूँ , लेकिन हिंदी लिखकर ऐसा लगा मानो घर पर बैठा हूँ }
Saturday, February 19, 2011
नज़ीर बनारसी
(1909-1996)
हमने जो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर करके ..नज़ीर बनारसी
ग़ज़ल
इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ
जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ
कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ
सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शोकेस में चुपचाप खड़ा हूँ
वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ
दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ
मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ ,मैं दरिया से जुदा हूँ
हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूली पे चढ़ा हूँ
दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ऊलुन
22 1 1 221 1221 122
(हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल)
Friday, December 31, 2010
वक़्त ने फिर पन्ना पलटा है
न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है..वसीम बरेलवी
इस नये साल के मौक़े पर द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो किसी दुआ से कम नहीं है और आप सब को नये साल की शुभकामनाएँ।
द्विजेन्द्र द्विज
ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में
सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में
है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में
बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में
राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में
वक़्त! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में
ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में
हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में
अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में
काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में
देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में
कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.
Monday, December 6, 2010
सत्यप्रकाश शर्मा की एक ग़ज़ल
सत्यप्रकाश शर्मा
तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है
ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?
बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है
वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है
इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)
शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335
तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है
ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?
बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है
वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है
इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)
शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335
Friday, December 3, 2010
सोच के दीप जला कर देखो- अंतिम क़िस्त
मैनें लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है
मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।
सतपाल ख़याल
उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो
क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो
क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो
हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो
दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो
मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है
मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।
सतपाल ख़याल
उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो
क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो
क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो
हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो
दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो
मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।
Monday, November 29, 2010
सोच के दीप जला कर देखो
इस बहर में शे’र कहना सचमुच पाँव में पत्थर बाँध कर पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। क्योंकि इसमें तुकबंदी की तो बहुत गुंज़ाइश थी लेकिन शे’र कहना बहुत कठिन। इसी वज़ह से तीन-चार शायरों को हम इसमें शामिल नहीं कर सके । दानिश भारती जी(मुफ़लिस) ने कुछ ग़ल्तियों की तरफ़ इशारा किया था, उनको हमने सुधारने की कोशिश की है और आप सबसे गुज़ारिश है कि कहीं कुछ ग़ल्ति नज़र आए तो ज़रूर बताएँ। हमारा मक़सद यह भी रहता है कि नये प्रयासों को भी आपके सामने लेकर आएँ और अनुभवी शायरों को भी। भावनाएँ तो हर शायर की एक जैसी होती हैं लेकिन उनको व्यक्त करने की शैली जुदा होती है। और यही अंदाज़े-बयां एक शायर को दूसरे से जुदा करता है और यही महत्वपूर्ण है।
द्विज जी का ये शे’र
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-
द्विजेंद्र द्विज
चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो
जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो
द्विज जी का ये शे’र
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-
द्विजेंद्र द्विज
चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो
अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो
आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो
सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो
जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो
जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो
लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो
यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो
सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो
Thursday, November 25, 2010
सोच के दीप जला कर देखो-आठवीं क़िस्त
पहले शायर : कमल नयन शर्मा । आप द्विज जी के भाई हैं और एयर-फ़ोर्स में हैं। इस मंच पर हम इनका स्वागत करते हैं।
कमल नयन शर्मा
दुख को मीत बना कर देखो
खुद को सँवरा पा कर देखो
मिलता है वो, मिल जाएगा
मन के अंदर जाकर देखो
कब भरते हैं पेट दिलासे
असली फ़स्लें पाकर देखो
भर देंगे वो तेरी झोली
उनकी धुन में गा कर देखो
कब लौटे है जाने वाले
फिर भी आस लगाकर देखो
मत भटको यूं द्वारे-द्वारे
सोच के दीप जला कर देखो
आप 'कमल' खुद खिल जाओगे
जल से बाहर आकर देखो
दूसरे शायर हैं जनाब कवि कुलवंत जी
कुलवंत सिंह
सोच के दीप जला कर देखो
खुशियां जग बिखरा कर देखो
सबको मीत बना कर देखो
प्रेम का पाठ पढ़ा कर देखो
खून बने अपना ही दुश्मन
हक़ अपना जतला कर देखो
मज़मा दो पल में लग जाता
कुछ सिक्के खनका कर देखो
सिलवट माथे दिख जायेंगी
शीशे को चमका कर देखो
जनता उलझी है सालों से
नेता को उलझा कर देखो
खुद में खोये यह बहरे हैं
जोर से ढ़ोल बजा कर देखो
और शाइरा निर्मला कपिला जी का स्वागत है आज की ग़ज़ल पर।
निर्मला कपिला
मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो
सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो
राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो
लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो
औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो
देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो
बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो
कमल नयन शर्मा
दुख को मीत बना कर देखो
खुद को सँवरा पा कर देखो
मिलता है वो, मिल जाएगा
मन के अंदर जाकर देखो
कब भरते हैं पेट दिलासे
असली फ़स्लें पाकर देखो
भर देंगे वो तेरी झोली
उनकी धुन में गा कर देखो
कब लौटे है जाने वाले
फिर भी आस लगाकर देखो
मत भटको यूं द्वारे-द्वारे
सोच के दीप जला कर देखो
आप 'कमल' खुद खिल जाओगे
जल से बाहर आकर देखो
दूसरे शायर हैं जनाब कवि कुलवंत जी
कुलवंत सिंह
सोच के दीप जला कर देखो
खुशियां जग बिखरा कर देखो
सबको मीत बना कर देखो
प्रेम का पाठ पढ़ा कर देखो
खून बने अपना ही दुश्मन
हक़ अपना जतला कर देखो
मज़मा दो पल में लग जाता
कुछ सिक्के खनका कर देखो
सिलवट माथे दिख जायेंगी
शीशे को चमका कर देखो
जनता उलझी है सालों से
नेता को उलझा कर देखो
खुद में खोये यह बहरे हैं
जोर से ढ़ोल बजा कर देखो
और शाइरा निर्मला कपिला जी का स्वागत है आज की ग़ज़ल पर।
निर्मला कपिला
मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो
सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो
राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो
लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो
औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो
देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो
बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो
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आज हम ग़ज़ल की बहरों को लेकर चर्चा आरम्भ कर रहे हैं | आपके प्रश्नों का स्वागत है | आठ बेसिक अरकान: फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2) मु-त-फ़ा-इ-लुन(...