Thursday, June 5, 2008

श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' जी की ग़ज़लें












परिचय

5 अप्रैल, 1938 को ज्वालामुखी (हिमाचल प्रदेश) में जन्मे ,एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त, श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' ए.जी. आफ़िस से बतौर सीनियर आडिट आफ़िसर रिटायर होकर आजकल शिमला में रहते हैं. तेरी ख़ुश्बू में बसे ख़त... के सुप्रसिद्ध शायर श्री राजेन्द्र नाथ रहबर के शब्दों में: " 'शौक़' साहिब की शायरी किसी फ़क़ीर द्वारा माँगी गई दुआ की तरह है जो हर हाल में क़बूल हो कर रहती है. "
* शौक़' साहिब का ग़ज़ल संग्रह "आँच" बहुत लोकप्रिय हुआ है.
फोन: 98160—07665
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शौक़ साहिब की दो ग़ज़लें









1.

इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े
इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े

कोई जा कर किससे अपना दु:ख—सुख बाँटे
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े

अहले—सियासत ने कैसा तामीर किया घर
कोना—कोना बेहंगम, बेढब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का
दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े

ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े

फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को
आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े

शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
लेकिन रूखे फीके बे—हिस सब दरवाज़े

कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए
'शौक़', खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े.

2 2 x 6

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बेहंगम=बेडौल; ख़लवत=एकान्त; बेहिस=स्तब्ध,सुन्न

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ग़ज़ल:

बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है
नहीं भी हो तो भी मुजरिम दिखाई देता है

जो इक़्तिदार की कुर्सी पे जलवा फ़रमा हैं
न जाने क्यों उन्हें ऊँचा सुनाई देता है

तिरे ज़मीर का आइना गर सलामत है
तो देख उसमें तुझे क्या दिखाई देता है

मिरा नसीब कि ग़म तो अता हुआ, वरना
किसी को तिरा दस्ते-हिनाई देता है

वो तकता रहता है हर वक़्त आसमाँ की तरफ़
खला में जाने उसे क्या दिखाई देता है

करोड़ों लोग हैं दुनिया में यूँ तो कहने को
कहीं –कहीं कोई कोई इन्साँ दिखाई देता है

बहुत ज़ियादा जहाँ रौशनी ख़िरद की हो
निगाहे-दिल को वहाँ कम सुझाई देता है

तज़ाद ज़ाहिरो—बातिन में उसके कुछ भी नहीं
है 'शौक़' वैसा ही जैसा दिखाई देता है.

1212,1122,1212,112 (mujtas kaa zihaf)

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इक़्तिदार=सत्ता ; दस्ते—हिनाई=मेंहदी रचा हाथ; ख़ला=शून्य; ख़िरद=बुद्धि; तज़ाद=प्रतिकूलता ज़ाहिरो—बातिन=प्रत्यक्ष रूप तथा अंत:करण

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Tuesday, May 27, 2008

ज़हीर कुरैशी जी की ग़ज़लें..

परिचय:

जन्म तिथि: 5 अगस्त,1950
जन्मस्थान: चंदेरी (ज़िला:गुना,म.प्र.)
प्रकाशित ग़ज़ल—संग्रह:लेखनी के स्वप्न(१९७५),एक टुकड़ा धूप(1979),चाँदनी का दु:ख(1986),समन्दर ब्याहने आया नहीं है(1992),भीड़ में सबसे अलग(2003)
संपर्क: समीर काटेज, बी—21,सूर्य नगर,शब्द प्रताप आश्रम के पास,
ग्वालियर—4740129(म.प्र.)फोन: 094257 90565.


एक.

अँधेरे की सुरंगों से निकल कर
गए सब रोशनी की ओर चलकर

खड़े थे व्यस्त अपनी बतकही में
तो खींचा ध्यान बच्चे ने मचलकर

जिन्हें जनता ने खारिज कर दिया था
सदन में आ गए कपड़े बदलकर

अधर से हो गई मुस्कान ग़ायब
दिखाना चाहते हैं फूल—फलकर

लगा पानी के छींटे से ही अंकुश
निरंकुश दूध हो बैठा, उबलकर

कली के प्यार में मर—मिटने वाले
कली को फेंक देते हैं मसलकर

घुसे जो लोग काजल—कोठरी में
उन्हें चलना पड़ा बेहद सँभलकर

1222,1222,122(Hazaj ka zihaaf)



दो.

घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए

अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए

मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए

धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए

होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए

इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए

बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.


221,2121,1221,212 (muzaare)
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Wednesday, May 14, 2008

श्री बृज कुमार अग्रवाल जी की ग़ज़ल व परिचय

परिचय
46 वर्षीय श्री बृज कुमार अग्रवाल (आई. ए. एस.) उत्तर प्रदेश के ज़िला फ़र्रुख़ाबाद से हैं.
आप आई.आई. टी. रुड़की से बी.ई. और आई.आई. टी. दिल्ली से एम.टेक. करने के पश्चात 1985 से भारतीय प्रशासनिक सेवा के हिमाचल काडर में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैंI आप साहित्य , कला एवं संस्कृति के मर्मज्ञ व संरक्षक तथा ग़ज़ल को समर्पित एक सशक्त हस्ताक्षर हैं I


ग़ज़ल

सच को बचाना अब तो यहाँ एक ख़्वाब है
जब आईना भी दे रहा झूठे जवाब है ।

चेहरा तो कोई और है ये जानते हैं हम
कहते हैं लोग जिसको सियासत, नकाब है।

माने नियम जो वो तो है कमज़ोर आदमी
तोड़े नियम जो आज वही कामयाब है।

मेरी बेबसी है उसको ही मैं रहनुमा कहूँ
मैं जानता हूँ उसकी तो नीयत ख़राब है ।

दो पल सुकून के मिलें तो जान जाइये
अगले ही पल में आने को कोई अज़ाब है ।

सफ़`आ उलटना एक भी दुश्वार हो गया
किसने कहा था वो तो खुली इक किताब है ।

इसे तोड़ने से पहले कई बार सोचना
तेरा भी वो न हो कहीं मेरा जो ख़्वाब है ।

मेरा सवाल फिर भी वहीं का वहीं रहा
माना जवाब तेरा बहुत लाजवाब है ।

S S I, S I S I , I S S I , S I S
बह्र मुज़ारे

Monday, May 5, 2008

पवनेन्द्र ‘ पवन ’ की दो ग़ज़लें और परिचय

परिचय:

नाम: पवनेन्द्र ‘पवन’
जन्म तिथि: 7 मई 1945.
शिक्षा: बी.एस.सी. (आनर्ज़),एम.एड.
हिन्दी और पहाड़ी ग़ज़ल को समर्पित हस्ताक्षर.
अपने ख़ास समकालीन तेवर और मुहावरे के लिए चर्चित.
पहाड़ी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन.
सम्प्रति: प्राचार्य, एम.इ.टी.पब्लिक सीनियर सेकैंडरी स्कूल, नगरोटा बगवाँ—176047 (हिमाचल प्रदेश)
स्थाई पता: धौलाधार कालोनी ,नगरोटा बगवाँ—176047 (हिमाचल प्रदेश)
दूरभाष : 01892—252079, Mob. : 094182—52675.


ग़ज़ल १

घूमती है दर—ब—दर ले कर पटारी ज़िन्दगी
पेट पापी के लिए बन कर मदारी ज़िन्दगी

गालियाँ कुछ को मिलीं, कुछ ने बटोरी तालियाँ
वक़्त की पिच पर क्रिकेट की एक पारी ज़िन्दगी

दो क़दम चलकर ही थक कर हाँफ़ने लगते हैं लोग
किसने इन पर लाद दी इनसे भी भारी ज़िन्दगी

वक़्त का टी.टी. न जाने कब इसे चलता करे
बिन टिकट के रेल की जैसे सवारी ज़िन्दगी

झिड़कियाँ, आदेश, हरदम गालियाँ सुनती रहे
चौथे दर्ज़े की हो गोया कर्मचारी ज़िन्दगी

मौत तो जैसे ‘पवन’ मुफ़लिस की ठण्डी काँगड़ी
बल रही दिन—रात दफ़्तर की बुख़ारी ज़िन्दगी.

(beher-e -Ramal. faa-i-laatun x3+ faa-i-lun)


ग़ज़ल २


भूख से लड़ता रोज़ लड़ाई माँ का पेट
सूख गया सहता महँगाई माँ का पेट

मुफ़्त ले बैठा मोल लड़ाई माँ का पेट
देकर सबको बहनें भाई माँ का पेट

कोर निगलते ले उबकाई माँ का पेट
खा जाता है ढेर दवाई माँ का पेट

सड़कों पर अधनंगे ठिठुरे सोते हैं जो
उन बच्चों को एक रज़ाई माँ का पेट

मेहमाँ, गृहवासी, फिर कौआ, कुत्ता, गाय,
अंत में जिसकी बारी आई माँ का पेट

झिड़की —ताना, हो जाता है जज़्ब सब इसमें
जाने कितनी गहरी खाई माँ का पेट.

(vazan hai: 8 faa-lun +1 fa)

Monday, April 21, 2008

अमित "रंजन गोरखपुरी" की ग़ज़ल व परिचय












परिचय:
उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
जन्म- 17.01.1983, गोरखपुर

शिक्षा- बी. टेक.
पेशा- इंडियन आयल का. लि. में परियोजना अभियंता
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हूँ और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादत
कर रहा हूं! जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करने का विचार है!

ग़ज़ल

ज़िन्दगी को आज़मा के देखि‌ए,
जश्न है ये मुस्कुरा के देखि‌ए

ज़ख्म काटों के सभी भर जा‌एंगे,
फूल से नज़रें मिला के देखि‌ए

आसमां में चांदनी खिल जा‌एगी,
गेसु‌ओं को सर उठा के देखि‌ए

दूर से ही फ़ैसले अच्छे नही,
फ़ासले थोडे मिटा के देखि‌ए

दर्द-ओ-गम काफ़ूर से हो जा‌एंगे,
मां को सिरहाने बिठा के देखि‌ए

सख्त दीवारें भी पीछे नर्म हैं,
सरहदों के पार जा के देखि‌ए

मज़हबी मुखतार हैं इनको कभी,
जंग-ए-आज़ादी पढा के देखि‌ए

मेहफ़िलों में रौशनी बढ जा‌एगी,
शेर-ए-"रंजन" गुनगुना के देखि‌ए

Faailaatun Faailaatun Faailun

Thursday, April 10, 2008

दीपक गुप्ता जी का परिचय और ग़ज़ल

नाम : दीपक गुप्ता
उम्र: 36 साल

शिक्षा: बी.ए.(1994)

निवास: फ़रीदाबाद (हरियाणा)

पहली किताब 1994 में: सीपियों में बंद मोती.

बेबसाईट : http://www.kavideepakgupta.com/

दीपक जी एक अच्छे हास्य कवि भी हैं.



ग़ज़ल

सबसे अपनापन रखता है
वो इक ऐसा फ़न रखता है

पतझर में जीता है लेकिन
आँखों में सावन रखता है

वो खुद से क्यों डर जाता है

जब आगे दरपन रखता है

वक़्त सभी कुछ सुलझा देगा
क्यों मन में उलझन रखता है

मुझसे झूठे वादे करके
क्यों तू मेरा मन रखता है

दीपक गुप्ता .... 9811153282 ,
बज़न: आठ गुरु.



Wednesday, April 9, 2008

देवी नांगरानी जी की एक ग़ज़ल और परिचय











परिचय:
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ:
ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)

प्रकाशन-
प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।

"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।

ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com


ग़ज़ल:

देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.

बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.

काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.

कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.

हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.

फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.

बज़न :212, 212, 212,212

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