Tuesday, May 12, 2009
तीसरी किश्त-मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :
1. ग़ज़ल : पवनेन्द्र पवन
सियार जब से शेर का हुआ सलाहकार है
ये राजघर लुटेरों की बना पनाहगार है
ईमानदार आदमी तो बस सिपहसलार है
सम्हालता तो राज अब रँगा हुआ सियार है
कुटुम्ब सारा मोतिये की मर्ज़ का शिकार है
है साँप रस्सी दिख रहा मयान तो कटार है
अमन की तू तलाश में न करना इनका रुख़ कभी
पहाड़ियों की अब नहीं सुकूँ भरी बयार है
निशान तो रहेंगे ही तमाम उम्र के लिए
समय के साथ भर गई गो दिल की हर दरार है
आवाम की आवाम से आवाम के लिए बनी
ये लोक सत्ता धन कुबेरों की किराएदार है
धुआँ-धुआँ सुलगती ये भी इक सिरे से दूजे तक
ये ज़िन्दगी भी होंठों में दबा हुआ सिगार है
न जाने किसने ख़त लिखा कि लौट आ तू गाँव में
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है?
गुलों को छोड़् आ ‘पवन’ बना लें राक-गार्डन
शिलाओं पे तो मौसमों की होती कम ही मार है
2. ग़ज़ल: अमित रंजन गोरखपुरी
न अब कोई हकीम है न कोई गमगुसार है,
वही मरीज़-ए-इश्क, और दर्द बार बार है
उदास बेकरार होके सोचता हूँ हर घडी,
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
झुकी- झुकी, डरी- डरी, कोई निगाह-ए-नश्तरी,
हया के मैकदे, जहां खुमार ही खुमार है
ज़रा सी बात पर न कोई रूठ जाए उम्र भर,
ज़रा सी बात से कहीं अज़ल तलक बहार है
भिगा सकेंगी क्या उसे ये बारिशें खयाल की,
खुदी में भीगता हुआ जो एक आबशार है
संभल के वास्ता करो यहां किसी हसीन से,
मेरे शहर के कातिलों का हुस्न से करार है
सबक है ज़िंदगी का या शहर की तंग कैफ़ियत,
जो कल तलक सलीस* था वो आज होशियार है
लकीर खैंच कर बना रहे तमाम सरहदें,
सिकंदरों को आज भी सराब इख्तियार है
सलीस = साफ़, पारदर्शी
3. ग़ज़ल: धीरज अमेटा धीर
ये कौन उड़ा गया खबर कि मौसमे बहार है?
यहाँ तो दिल उजाड़ है, जिगर भी तार-तार है!
फ़रेब और झूठ का छपा इक इश्तेहार है!
"जो हम से काम ले वो रातों-रात माल-दार है!"
शराबे कैफ़ कब मिली है मैकदे में ज़ीस्त के?
यहाँ है जो भी, नश्शा-ए-अलम का वो शिकार है!
ये हिचकियाँ हैं बेसबब या कोई वजहे खास है,
"मिरे लिये भी क्या कोई उदास, बेक़रार है!"
तमाम नफ़्हे आपसे, ज़ियां बदौलते खुदा?
कोई नहीं जो अपने ही किये पे शर्म-सार है!
जो ज़िन्दगी की दौड़ में कभी न भूले राम-नाम
हयात के भँवर में एक उसी का बेड़ा पार है!
न इतनी एहतियाते गुफ़्तगू बरत के युँ लगे,
पुराने राब्ते पे "धीर", वक़्त का ग़ुबार है!
4. ग़ज़ल: गौतम राजरिषी
ख़बर मिली उन्हें ये जब कि तुमको मुझसे प्यार है
नशे में डूबा चाँद है, सितारों में ख़ुमार है
मैं रोऊँ अपने क़त्ल पर, या इस खबर पे रोऊँ मैं
कि क़ातिलों का सरगना तो हाय मेरा यार है
अकेले इस जहान में ये सोचता फिरूँ मैं अब
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है
ये जादू है लबों का तेरे या सरूर इश्क़ का
कि तू कहे है झूठ और हमको ऐतबार है
सुलगती ख़्वाहिशों की धूनी चल कहीं जलायें और
कुरेदना यहाँ पे क्या, ये दिल तो जार-जार है
ले मुट्ठियों में पेशगी महीने भर मजूरी की
वो उलझनों में है खड़ा कि किसका क्या उधार है
बनावटी ये तितलियाँ, ये रंगों की निशानियाँ
न भाये अब मिज़ाज को कि उम्र का उतार है
भरी-भरी निगाह से वो देखना तेरा हमें
नसों में जलतरंग जैसा बज उठा सितार है
5. ग़ज़ल: मनु ‘बेतख़ल्लुस’
सुख़न में इन दिनों बसा अजब- सा इक ख़ुमार है
सुना है जब से उनको भी हमारा इंतज़ार है
सुनी जो शमअ ने हमारी आरजू तो ये कहा
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
क़रीब और आ रही है तेज चाल की धनक
मचल रही हैं धड़कनें निखर रहा ख़ुमार है
कहें तो क्या कहें अजब है दास्ताने -ज़िंदगी
हैं तुझ पे जो इनायतें वही तो मुझ पे बार है
हैं तेरे मेरे दरमियाँ जो रात-दिन की गर्दिशें
न बस है इन पे कुछ तेरा न मेरा इख़्तियार है
फ़लक ने रहम कब किया जमीं ने कब दुआएँ दीं
मिला है आज क्या तुझे जो इतना ख़ुशगवार है
अभी अंतिम किश्त बाकी है.
Friday, May 8, 2009
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है- दूसरी किश्त
मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :
1.ग़ज़ल: नवनीत शर्मा
न जान बाकरार है, न कोई ग़मगुसार है
दुकान-ए-इश्क़ का मियाँ ये आम कारोबार है
जो ज़र्दियों के कारवाँ की धूल शहसवार है
तुम्हें भी बादलो कहो, सदा का इंतजार है
ज़मीन ग़मगुसार है, पहाड़ अश्कबार है
निगाह-ए-ख़ुश्क को यहाँ किसी का इंतजार है
तिजोरियाँ हैं सेठ की, हमारी बस पगार है
'ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है'
निज़ाम आपका अजब, जिरह दलील कुछ नहीं
जो क़त्ल करके चल दिया वो ऊँट बेमुहार है
निगाह साफ़ थी मेरी, तेरी नज़र भी पाक थी
हमारे सामने मगर, कहाँ का ये ग़ुबार है
ये हाल ज़ात का मेरी, तलाश है मुझे मेरी
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
ख़िज़ाँ में जज़्ब हो के अपने ख़ात्मे की देर थी
ये सब ने कह दिया कि अब बहार ही बहार है
कमाल तेरी दीद का कि जान मुझमें आ गई
ये जान आ गई तो अब तुझी पे जाँ निसार है
तुम्हीं हो उसकी सोच में, तुम्हीं हो जान बेटियो
उदास है पिता बहुत कि हाँफता कहार है
जहाँ भी रोशनी दिखे, वहीं पे तीरगी मिले
कहूँ मैं क्या कि सामने ये कौन सा दयार है
जो रंग पैरहन का है वही है रंग जिस्म का
बता ही देंगी बारिशें कि वो रंगा सियार है
2.ग़ज़ल: जगदीश रावतानी
पचास पार कर लिए पर अब भी इंतज़ार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
ग़ुरुर टूटने पे ही समझ सका सचाई को
जो है तो बस ख़ुदा को ज़िन्दगी पे इख़्तियार है
मेरे लबों पे भी ज़रूर आएगी हँसी कभी
न जाने कब से मेरे आईने को इंतज़ार है
मैं नाम के लिए ही भागता रहा तमाम उम्र
वो मिल गया तो दिल मेरा क्यों अब भी बेकरार है
मैं तेरी याद दफ़न भी करूँ तो तू बता कहाँ
कि तू ही तू फ़क़त हरेक शक्ल में शुमार है
अभी तो हाथ जोड़ कर जो कह रहा है वोट दो
अवाम को पता है ख़ुदगरज़ वो होशियार है
डगर-डगर नगर-नगर मैं भागता रहा मगर
सुकूँ नहीं मिला कहीं न मिल सका करार है
वो क्यों यूँ तुल गया है अपनी जान देने के लिए
दुखी है जग से या जुड़ा ख़ुदा से उसका तार है
कभी तो आएँगी मेरी हयात में उदासियाँ
बहुत दिनों से दोस्तों को इसका इंतज़ार है
3.ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस
कली-कली संवर गयी , फ़िज़ा भी ख़ुशगवार है
मेरी तरह इन्हें भी तो तुम्हारा इंतज़ार है
अजब ये दौरे-कशमकश , अजब-सा ये दयार है
यक़ीन है किसी पे अब , न ख़ुद पे ऐतबार है
जबीने-दुश्मनाँ पे तो शिकन ये बे-सबब नहीं
कहीं वो अपने-आप से ज़रूर शर्मशार है
क़सम तुझे है जो सितम-गरी से बाज़ आओ तुम
मेरी भी जान जाए , जो कहूँ मैं मेरी हार है
शफ़क़,धनक, सुरूर , रंग, फूल , चाँदनी , सबा
उसे कभी भी सोचिये बहार ही बहार है
मुक़ाबिला कड़ा है , कैसे जीत पाऊँगा भला ?
तेरी यही तो सोच तेरी जिंदगी की हार है
किसे सुनाऊँ दास्तान , हाले-दिल कहूँ किसे
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बे-करार है
रदीफ़ो-क़ाफ़िया तो इस दफ़ा भी बस में हैं, मगर
अरूज़ो-बह्र सख़्त है , ज़मीन ख़ारज़ार है
सुख़नवरों में हो रहा है जिसका ज़िक्र आजकल
अदब-नवाज़ , ‘मुफ़्लिस’-ए-अज़ीज़ , ख़ाक़सार है
4. ग़ज़ल - कवि कुलवंत
ये क्या हुआ मुझे न आज ख़ुद पे इख़्तियार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
मेरे तो रोम-रोम में बसा उसी का प्यार है
किया है प्यार दिल ने तो वही क़ुसूरवार है
भुला के उसने प्यार को ग़ुरूर हुस्न का किया
हमें तो इक सदी से बस उसी का इंतज़ार है
महक उठी थी रूह मेरी जब मिले थे तुम सनम
चले गए हो तुम तो क्या खिली-खिली बहार है
है सड़ गया समाज पाप लूट झूठ सब जगह
न मिटने वाला हर तरफ़ ये घोर अंधकार है
हवा दहक उठी मिला जो संग आफताब का
नियम ये सृष्टि का जो समझे हर जगह शुमार है.
5.ग़ज़ल :अबुल फैज़ अज़्म सहरयावी
करम का उनके सिलसिला यह मुझपे बार बार है
सुकूने-दिल पे अब कहाँ किसी को इख़्तियार है
चली है बादे-सुबह जो ख़ेराम-ए-नाज़ से अभी
महक उठी कली-कली गुलों पे भी निखार है
पिया था एक जाम जो निगाहे-मस्त से कभी
मेरी नज़र में आज भी उसी का यह ख़ुमार है
हसद का नाम भी न ले खिज़ाँ का ज़िक्र भी न कर
मेरे चमन में हर तरफ बहार ही बहार है
खिज़ां नसीब तू मेरे चमन में क्यूँ ठहर गई
शबे- फ़िराक़ जा तुझे सलाम बार बार है
Friday, May 1, 2009
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है-पहली किश्त
इस बार बहर कुछ मुश्किल हो गई लेकिन फिर भी २०-२२ शयारों ने ग़ज़लें भेजीं है जिने हम तीन किश्तों मे प्रकाशित करेंगे.पहली किश्त मे हम पाँच ग़ज़लें पेश कर रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि आपको ये तरही ग़ज़लें पसंद आयेंगी.
मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर पाँच ग़ज़लें :
1.देवी नांगरानी की ग़ज़ल
ये कौन आ गया यहाँ कि छा गया ख़ुमार है
बहार तो नहीं मगर नफ़स-नफ़स बहार है
न दोस्तों न दुश्मनों में उसका कुछ शुमार है
क़तार में खड़ा हुआ वो आज पहली बार है
मैं जिस ज़मीं पे हूँ खड़ी ग़ुबार ही ग़ुबार है
सभी के दिल में नफरतें ख़ुलूस है न प्यार है
चमन में कौन आ गया जिगर को अपने थामकर
तड़प रही हैं बिजलियाँ, घटा भी अश्कबार है
मुकर रहे हो किस लिये, है सच तुम्हारे सामने
तुम्हारी जीत, जीत है, हमारी हार, हार है
है कौन जिससे कह सकूँ मैं अपने दिल का माजरा
मैं सबको आज़मा चुकी कोई न राज़दार है
2.पूर्णिमा वर्मन की ग़ज़ल
ये चाँद है धुला धुला ये रात खुशगवार है
जगी जगी पलक में सोए से सपन हज़ार है
ये चांदनी की बारिशों में धुल रहा मेरा शहर
नमी नमी फ़िजाओं में बहक रही बयार है
ये कौन छेड़ता है गीत मौन के सितार पर
सुना सुना सा लग रहा ये कौन गीतकार है
नहीं मिला अभी तलक वो पेड़ हरसिंगार का
हवा हवा में घोलता जो खुशबुएँ हज़ार है
न जाने कौन छा रहा है फिर से याद की तरह
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है
3.प्रेमचंद सहजवाला की ग़ज़ल
ये मोजज़ा है क्या कोई, किसी को मुझ से प्यार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास-ओ-बेकरार है
जो दहशतों से कर रहा खुदा की बंदगी यहाँ
वो आदमी तो मज़हबी जूनून का शिकार है
बहार बे-बहार क्यों हुई ज़रा बताओ तो
बहार कह रही है उस को तेरा इंतज़ार है
बहुत से लोग आ रहे हैं इंतेखाब के लिए
मगर यहाँ पे आज दोस्त किस का ऐतबार है
जो तुझ को दे के ख्वाब ख़ुद खरीदते सुकून है
तुम्हारी मेरी ज़िन्दगी पे उन का इख्तियार है
4.चंद॒भान भारद्वाज की ग़ज़ल
नया नया लिबास है नया नया सिंगार है
नई नई निगाह में नया नया खुमार है
किसी के प्यार का नशा चढ़ा हुआ है इस क़दर
जिधर भी देखती नज़र बहार ही बहार है
लिपे पुते मकान के सजे हैं द्वार देहरी,
दिया जला रही उमर किसी का इंतजार है
लगी हुई है दाँव पर यों प्यार में ये ज़िन्दगी
न जीतने में जीत है न हारने में हार है
न नीद आंख में रही न चैन दिल में ही रहा
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेकरार है
दिलों दिलों की बात है नज़र नज़र का खेल यह
किसी को प्यार फूल है किसी को सिर्फ खार है
सगा रहा मगर वो वार इस तरह से कर गया
भरा है 'भारद्वाज' घाव दर्द बरकरार है
5.अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल
तुम्हीं से मेरी ज़िंदगी में जाने-मन बहार है
बताओ तुम कब आओगे तम्हारा इंतेज़ार है
बताना मेरा फर्ज़ है जो मेरा हाल-ए-ज़ार है
तुम आओ या न आओ इसका तुम को इख़्तियार है
ग़मो-अलम,नेशातो- कैफ,हसरतेँ,उदासियाँ
है जिन से मुझको साबक़ा तुम्हारी यादगार है
पुकारती हैं हम को अब भी वह हसीन वादियाँ
जहाँ कहा था मैने तुम से तुझसे मुझको प्यार है
नहीं है कैफ अब कोई वहाँ किसी भी चीज़ में
जहाँ मिले थे पहले हम यही तो वह दयार है
नहीं हो तुम तो आ रही है मेरे दिल से यह सदा
मेर लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है
जो गुलशन-ए-हयात में नेशात-ए-रूह थी मेरी
अभी भी मेरे ज़ेह्न में वह ज़ुल्फ-ए-मुशकबार है
वह चशम-ए-मस्त जिस से मेरी ऱूह में थी ताज़गी
नशा उतर चुका है उसका हालत-ए-ख़ुमार है
तुम्हारा साथ हो अगर नहीं है मुझको कोई ग़म
मुझे अज़ीज़ बर्क़ी सब से आज वस्ले-यार है
Wednesday, April 29, 2009
श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी को श्रदाँजलि
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद
30 अप्रैल, श्री मनोहर शर्मा ‘साग़र’ पालमपुरी जी की पुण्य तिथी है. उनकी ग़ज़लों का प्रकाशन हमारी तरफ़ से उस शायर को श्रदाँजलि है.शायर अपने शब्दों मे हमेशा ज़िंदा रहता है और सागर साहब की शायरी से हमें भी यही आभास होता है कि वो आज भी हमारे बीच में है.सागर साहेब 25 जनवरी 1929 को गाँव झुनमान सिंह , तहसील शकरगढ़ (अब पाकिस्तान)मे पैदा हुए थे और 30 अप्रैल, 1996 को इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गए. लेकिन उनकी शायरी आज भी हमारे साथ है और साग़र साहेब द्वारा जलाई हुई शम्मा आज भी जल रही है, उस लौ को उनके सपुत्र श्री द्विजेंद्र द्विज जी और नवनीत जी ने आज भी रौशन कर रखा है.साग़र साहेब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लों को हम प्रकाशित कर रहे हैं:
ग़ज़ल:
सर्द हो जाएगी यादों की चिता मेरे बाद
कौन दोहराएगा रूदाद—ए—वफ़ा मेरे बाद
बर्ग—ओ—अशजार से अठखेलियाँ जो करती है
ख़ाक उड़ाएगी वो गुलशन की हवा मेरे बाद
संग—ए—मरमर के मुजसमों को सराहेगा कौन
हुस्न हो जाएगा मुह्ताज—ए—अदा मेरे बाद
प्यास तख़लीक़ के सहरा की बुझेगी कैसे
किस पे बरसेगी तख़ैयुल की घटा मेरे बाद !
मेरे क़ातिल से कोई इतना यक़ीं तो ले ले
क्या बदल जाएगा अंदाज़—ए—जफ़ा मेरे बाद ?
मेरी आवाज़ को कमज़ोर समझने वालो !
यही बन जाएगी गुंबद की सदा मेरे बाद
आपके तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल की ये हद भी होगी
आप मेरे लिए माँगेंगे दुआ मेरे बाद
ग़ालिब—ओ—मीर की धरती से उगी है ये ग़ज़ल
गुनगुनाएगी इसे बाद—ए—सबा मेरे बाद
न सुने बात मेरी आज ज़माना ‘साग़र’!
याद आएगा उसे मेरा कहा मेरे बाद
तख़लीक़—सृजन; तख़ैयुल—कल्पना; तर्ज़—ए—तग़ाफ़ुल=उपेक्षा का ढंग
ग़ज़ल:
दिल के तपते सहरा में यूँ तेरी याद का फूल खिला
जैसे मरने वाले को हो जीवन का वरदान मिला
जिसके प्यार का अमृत पी कर सोचा था हो जायें अमर
जाने कहाँ गया वो ज़ालिम तन्हाई का ज़हर पिला
एक ज़रा —सी बात पे ही वो रग—रग को पहचान गई
दुनिया का दस्तूर यही है यारो! किसी से कैसा गिला
अरमानों के शीशमहल में ख़ामोशी , रुस्वाई थी
एक झलक पाकर हमदम की फिर से मन का तार हिला
सपने बुनते—बुनते कैसे बीत गये दिन बचपन के
ऐ मेरे ग़मख़्वार ! न मुझको फिर से वो दिन याद दिला
इन्सानों के जमघट में वो ढूँढ रहा है ‘साग़र’ को
अभी गया जो दिल के लहू से ग़ज़लों के कुछ फूल खिला
ग़ज़ल:
दिल में यादों का धुआँ है यारो !
आग की ज़द में मकाँ है यारो !
हासिल—ए—ज़ीस्त कहाँ है यारो !
ग़म तो इक कोह—ए—गिराँ है यारो !
मैं हूँ इक वो बुत—ए—मरमर जिसके
मुँह में पत्थर की ज़बाँ है यारो !
नूर अफ़रोज़ उजालों के लिए
रौशनी ढूँढो कहाँ है यारो !
टिमटिमाते हुए तारे हैं गवाह
रात भीगी ही कहाँ है यारो !
इस पे होता है बहारों का गुमाँ
कहीं देखी है ये खिज़ाँ है यारो !
हम बहे जाते हैं तिनकों की तरह
ज़िन्दगी मील—ए—रवाँ है यारो
ढल गई अपनी जवानी हर चंद
दर्द—ए—उल्फ़त तो जवाँ है यारो
नीम—जाँ जिसने किया ‘साग़र’ को
एक फूलों की कमाँ है यारो!
ग़ज़ल:
परदेस चला जाये जो दिलबर तो ग़ज़ल कहिये
और ज़ेह्न हो यादों से मुअत्तर तो ग़ज़ल कहिये
कब जाने सिमट जाये वो जो साया है बेग़ाना
जब अपना ही साया हो बराबर तो ग़ज़ल कहिये
दिल ही में न हो दर्द तो क्या ख़ाक ग़ज़ल होगी
आँखों में हो अश्कों का समंदर तो ग़ज़ल कजिये
हम जिस को भुलाने के लिये नींद में खो जायें
आये वही ख़्वाबों में जो अक्सर तो ग़ज़ल कहिये
फ़ुर्क़त के अँधेरों से निकलने के लिये दिल का
हर गोशा हो अश्कों से मुनव्वर तो ग़ज़ल कहिये
ओझल जो नज़र से रहे ताउम्र वही हमदम
जब सामने आये दम—ए—आख़िर तो ग़ज़ल कहिये
अपना जिसे समझे थे उस यार की बातों से
जब चोट अचानक लगे दिल पर तो ग़ज़ल कहिये
क्या गीत जनम लेंगे झिलमिल से सितारों की
ख़ुद चाँद उतर आये ज़मीं पर तो ग़ज़ल कहिये
अब तक के सफ़र में तो फ़क़त धूप ही थी ‘साग़र’!
साया कहीं मिल जाये जो पल भर तो ग़ज़ल कहिये
ग़ज़ल:
दरअस्ल सबसे आगे जो दंगाइयों में था
तफ़्तीश जब हुई तो तमाशाइयों में था
हमला हुआ था जिनपे वही हथकड़ी में थे
मुजरिम तो हाक़िमों के शनासाइयों में था
उस दिन किसी अमीर के घर में था कोई जश्न
बेरब्त एक शोर—सा शहनाइयों में था
हैराँ हूँ मेरे क़त्ल की साज़िश में था शरीक़
वो शख़्स जो कभी मेरे शैदाइयों में था
शोहरत की इन्तिहा में भी आया न था कभी
‘साग़र’!वो लुत्फ़ जो मेरी रुस्वाइयों में था
ग़ज़ल:
कितनी हसीं है शाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
गर्दिश में आये जाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
लौट आयें जिससे प्यार की ख़ुश्बू लिए हुए
रंगीन सुबह—ओ—शाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
घूँघट उठा के फूलों का फिर प्यार से हमें
ये रुत करे सलाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
जो कम करे फ़िराक़ज़दा साअतों का बोझ
ले ग़म से इन्तक़ाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
रुत कोई भी हो इतना है ग़म अहल—ए—सुख़न का
शे`र—ओ—सुख़न है काम सुनाओ कोई ग़ज़ल
जिसका इक एक शे`र हो ख़ु्द ही इलाज—ए—ग़म
जो ग़म करे तमाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
जंगल हैं बेख़ुदी के जो शहर—ए—अना से दूर
कर लें वहीं क़याम सुनाओ कोई ग़ज़ल
होंठों पे तन्हा चाँद के आया है प्यार से
‘साग़र’! तुम्हारा नाम सुनाओ कोई ग़ज़ल
साअतों=क्षणों
ग़ज़ल:
एक वो तेरी याद का लम्हा झोंका था पुरवाई का
टूट के नयनों से बरसा है सावन तेरी जुदाई का
तट ही से जो देख रहा है लहरों का उठना गिरना
उसको अन्दाज़ा ही क्या है सागर की गहराई का
कभी—आस की धू्प सुनहरी, मायूसी की धुंध कभी
लगता है जीवन हो जैसे ख़्वाब किसी सौदाई का
अंगारों के शहर में आकर मेरी बेहिस आँखों को
होता है एहसास कहाँ अब फूलों की राअनाई का
सुबहें निकलीं,शामें गुज़रीं, कितनी रातें बीत गईं
‘साग़र’! फिर भी चाट रहा है ज़ह्र हमें तन्हाई का
Monday, April 20, 2009
प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' की ग़ज़लें और परिचय
जन्म: 24 सितम्बर 1947
निधन: 24 जुलाई 2006
परिचय:
24 सितम्बर, 1947 को कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में जन्मे श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' ने 1968 में पंजाब इंजीनियरिंग कालेज से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में डिग्री की. 'रास्ता बनता रहे' (ग़ज़ल संग्रह) तथा 'संसार की धूप' (कविता संग्रह) के चर्चित कवि, ग़ज़लकार 'परवेज़' की अनुभव सम्पन्न दृष्टि में 'बनिये की तरह चौखट पर पसरते पेट' से लेकर जोड़, तक्सीम और घटाव की कसरत में फँसे, आँकड़े बनकर रह गये लोगों की तक़लीफ़ें, त्रासदी और लहुलुहान हक़ीक़तें दर्ज़ हैं जो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से, पढ़ने-सुनने वाले की रूह तक उतर जाने क्षमता रखती हैं.
हिमाचल के बहुत से युवा कवियों के प्रेरणा—स्रोत व अप्रतिम कवि श्री प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' 24 जुलाई, 2006 इस संसार को अलविदा कह गये.उनकी चार ग़ज़लें आप सब ले लिए:
ग़ज़ल
भुरभुरी हिलती हुई दीवार गिर जाने तो दो
इस अँधेरी कोठरी में रौशनी आने तो दो
एक सूरज वापसी पर साथ लेता आऊँगा
इस अँधेरे से मुझे बाहर ज़रा जाने तो दो
आप मानें या न मानें ये अलग इक बात है
इस अँधेरे की वजह तुम मुझको समझाने तो दो
कुछ न कुछ तो आएगा ही इसके अंदर से जवाब
इस मकाँ के बन्द दरवाज़े को खटकाने तो दो
क्या ख़बर इस ठण्ड में कुछ आग हो जाए नसीब
राख के नीचे दबे शोलों को सुलगाने तो दो
ऐसा लगता है कि मिल जाएगा मंज़िल का सुराग
शम्अ पर जलने की ख़ातिर चन्द परवाने तो दो
इस बियाबाँ में यक़ीनन रंग लाएगी बहार
तुम ज़रा इस सम्त कुछ ताज़ा हवा आने तो दो
बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
ग़ज़ल
हक़ हमारा छीन कर कुछ दान कर देते हैं वो
हम ग़रीबों पर बड़ा एहसान कर देते हैं वो
साफ़ सुनने की जहाँ भी कोशिशें करते हैं हम
बस वहीं बहरे हमारे कान कर देते हैं वो
बाँटते हैं रौशनी ईनआम में कुछ आपको
और कुंठित आपका ईमान कर देते हैं वो
उनके क़िस्से , उनकी बातें, उनके सारे फ़लसफ़े
आदमी को दोस्तो हैवान कर देते हैं वो
क्यूँ यहाँ हर रास्ते पर आज ट्रैफ़िक जाम है
पूछ ले कोई अगर चालान कर देते हैं वो
बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
ग़ज़ल
अजीब रंग के दहरो-दयार थे यारो
तमाम लोग हवा पर सवार थे यारो
हर एक शख़्स को हमने जो ग़ौर से देखा
हर एक शख़्स के चेहरे हज़ार थे यारो
दयार-ए-ग़ैर में शिक़वे फ़ज़ूल थे वर्ना
हमारे दिल में बहुत-से ग़ुबार थे यारो
हमारा ज़र्फ़ कि हँस कर गुज़ार दी हमने
हयात में तो बहुत ग़म शुमार थे यारो
ये बात और कि वो शख़्स बेवफ़ा निकला
ये बात और हमें ऐतबार थे यारो
बहरे-मजतस
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन(फ़'इ'लुन)
1212 1122 1212 22/ 112
ग़ज़ल
वो कि जलते हुए सहरा में घटा जैसा था
ज़िन्दगी का ये सफ़र वर्ना सज़ा जैसा था
धूप दर धूप ही था यूँ तो मुकद्दर अपना
एक वो था कि फ़कत सर्द हवा जैसा था
उसके बारे में सिवा इसके भला क्या कहिये
सबके जैसा था मगर सबसे जुदा जैसा था
हमसे पूछो कि वहाँ कैसे गुज़र की हमने
यूँ उसके शहर का हर शख़्स ख़ुदा जैसा था
ज़िन्दगी क्या थी फ़क़त दर्दे मुसल्सल के सिवा
और वो शख़्स कि मरहम था दवा जैसा था
बहरे-रमल (मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़’इ’लुन(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112/22
Monday, April 13, 2009
डा. दरवेश भारती की एक ग़ज़ल
डा. दरवेश भारती एक अच्छे शायर के साथ-साथ अरूज़ी भी हैं और एक त्रैमासिक पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं.आज की ग़ज़ल पर उनकी एक ग़ज़ल आप सब के लिए.
ग़ज़ल
उनसे मिलना पाप हो गया
जीवन इक अभिशाप हो गया
उनका इकदम भूलना मुझे
दुर्वासा का शाप हो गया
पहले तो था बाप बाप ही
अब तो बेटा बाप हो गया
इतना मुश्किल काम क्या कहे
कैसे यूं चुपचाप हो गया
तुमसे गुपचुप बात हो गयी
गायत्री का जाप हो गया
शायद थे सत्कर्म पूर्व के
उनसे जो संलाप हो गया
जाने क्यों "दरवेश" आजकल
तू से तुम फिर आप हो गया
दो अशआर
ये बनाते हैं कभी रंक कभी राजा तुम्हें
ख्वाब तो ख़्वाब हैं ख़्वाबों पे भरोसा न करो
प्यार कर लो किसी लाचार से बेबस से फकत
चाहे पूजा किसी पत्थर की करो या न करो
शायर का पता:
डा॰ ‘दरवेश’ भारती
1414/14, गाँधी नगर
रोहतक - 124001
(हरियाणा)
+ 91 9968405576, 9416514461
ghazalkebahane.darveshbharti@gmail.com
Monday, April 6, 2009
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है-मिसरा-ए-तरह
अगले तरही मुशायरे के लिये ये "मिसरा-ए-तरह" चुना गया है:
"मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है "
बहरे- हज़ज मसम्मन मक़बूज़ ( मुज़ाहिफ़ शक्ल)
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4
काफ़िया : बेकरार
रदीफ़ : है
शायर : शहरयार
फ़िल्म उमराव जान की मशहूर ग़ज़ल)
अपना नाम पता और परिचय ज़रूर भेजें और ग़ज़लें satpalg.bhatia@gmail.com या dwij.ghazal@gmail.com पर भेजें और भेजेने से पहले ग़ज़ल को अच्छी तरह जाँच परख लें, ज़ल्दबाजी न करें.
अपके लिए शहरयार की पूरी ग़ज़ल :
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है
ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है
तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है
बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है
इस बहर में और भी खूबसूरत ग़ज़लें हैं जैसे:
चरागो-आफ़ताब गुम बड़ी हसीन रात थी और जवां है रात साकिया, शराब ला शराब ला और निकाह की मशहूर ग़ज़ल
फिज़ा भी है जवां जवां, हवा भी है रवाँ रवाँ सुना रहा है ये समां सुनी सुनी सी दास्ताँ .
पिछले मुशायरे मे 26 शायरों ने एक मिसरा-ए-तरह"कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में" को इस तरह निभाया :
मुनीर अरमान नसीमी
हमारे रहनुमाओं के अजब *अतवार हैं अरमाँ
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
मोहम्मद वलीउल्लाह वली
सितम कैसा यह करते हो मेरे सरकार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी
दिगम्बर नासवा
समझ पाया नहीं मैं अब तलक तेरे इरादों को
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
जोगेश्वर गर्ग
सुना मैंने तुम्हारे शह्र की ऐसी रिवायत है
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इकरार चुटकी में
विजय धीमान
हमारा दिल निकलता है , हमारी जान जाती है
कभी इन्कार चुटकी में ,कभी इकरार चुटकी में
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
बदलता रहता है हर दम मिज़ाजे-यार चुटकी में ,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
चंद्रभान भारद्वाज
हुआ है प्यार 'भारद्वाज' अब इक खेल गुड़ियों का,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
नवनीत शर्मा
अजब उलझन का ये मौसम कि जानम भी सियासी है
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
पुर्णिमा वर्मन
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
कभी सर्दी ,कभी गर्मी, कभी बौछार चुटकी में
ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर
वह शोख़ी याद है जाने तमन्ना तुमसे मिलने की
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
पवनेन्द्र पवन
पहाड़ी मौसमों-सा रँग बदलता है तेरा मन भी
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
डी. के मुफ़लिस
किया, जब भी किया उसने, किया इज़हार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
दर्पण शाह ‘दर्शन’
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
मरासिम का किया फिर इस तरह इज़हार चुटकी में।
मनु 'बेतख़ल्लुस'
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
हज़ारों रंग बदले है निगाहे-यार चुटकी में
योगेश वर्मा स्वप्न
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
ज़माना आ गया ऐसा , करो अब प्यार चुटकी में
कवि कुलवंत सिंह
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
कनखियों से जो देखा तो हुआ फिर प्यार चुटकी में.
गौतम राजरिषि
कहो सीखे कहाँ से हो अदाएँ मौसमी तुम ये
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
रजनीश सचान
बदल देता है मेरे दिल का वो आकार चुटकी में,
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
अमितोश मिश्रा
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
किये मरघट हसीनों ने , कई घर-बार चुटकी में
अबुल फ़ैज़ अज़्म सहरयावी
अजब पारा सिफ़त है उसको मैं अब तक नहीं समझा
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
जगदीश रावतानी
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
ज़रा चुटकी उसे काटी पड़ी दीवार चुटकी में
प्रेम भारद्वाज
बड़ी बेताबियाँ देकर बढ़ाई प्रेम की ज्वाला
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
प्रेमचंद सहजवाला
तुम्हारी इस हसीं आदत का दीवाना हुआ हूँ मैं
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी में
द्विजेन्द्र ‘द्विज’
कभी अँधियार चुटकी में कभी उजियार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
प्रकाश "अर्श":
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
हमारे प्यार में लटकी है ये तलवार चुटकी में
सतपाल ‘ख़याल’:
भरोसा क्या करें तुझ पर तेरी फ़ितरत कुछ ऐसी है
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
सियासी लोग हैं इनकी ‘ख़याल’ अपनी सियासत है
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
"मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है "
बहरे- हज़ज मसम्मन मक़बूज़ ( मुज़ाहिफ़ शक्ल)
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4
काफ़िया : बेकरार
रदीफ़ : है
शायर : शहरयार
फ़िल्म उमराव जान की मशहूर ग़ज़ल)
अपना नाम पता और परिचय ज़रूर भेजें और ग़ज़लें satpalg.bhatia@gmail.com या dwij.ghazal@gmail.com पर भेजें और भेजेने से पहले ग़ज़ल को अच्छी तरह जाँच परख लें, ज़ल्दबाजी न करें.
अपके लिए शहरयार की पूरी ग़ज़ल :
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद्द-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है
ये किस मुकाम पर हयात मुझ को लेके आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहाँ न ग़म पे इख़्तियार है
तमाम उम्र का हिसाब माँगती है ज़िन्दगी
ये मेरा दिल कहे तो क्या ये ख़ुद से शर्मसार है
बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
न जिस की शक्ल है कोई न जिस का नाम है कोई
इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इंतज़ार है
इस बहर में और भी खूबसूरत ग़ज़लें हैं जैसे:
चरागो-आफ़ताब गुम बड़ी हसीन रात थी और जवां है रात साकिया, शराब ला शराब ला और निकाह की मशहूर ग़ज़ल
फिज़ा भी है जवां जवां, हवा भी है रवाँ रवाँ सुना रहा है ये समां सुनी सुनी सी दास्ताँ .
पिछले मुशायरे मे 26 शायरों ने एक मिसरा-ए-तरह"कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में" को इस तरह निभाया :
मुनीर अरमान नसीमी
हमारे रहनुमाओं के अजब *अतवार हैं अरमाँ
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
मोहम्मद वलीउल्लाह वली
सितम कैसा यह करते हो मेरे सरकार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी
दिगम्बर नासवा
समझ पाया नहीं मैं अब तलक तेरे इरादों को
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
जोगेश्वर गर्ग
सुना मैंने तुम्हारे शह्र की ऐसी रिवायत है
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इकरार चुटकी में
विजय धीमान
हमारा दिल निकलता है , हमारी जान जाती है
कभी इन्कार चुटकी में ,कभी इकरार चुटकी में
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
बदलता रहता है हर दम मिज़ाजे-यार चुटकी में ,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
चंद्रभान भारद्वाज
हुआ है प्यार 'भारद्वाज' अब इक खेल गुड़ियों का,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
नवनीत शर्मा
अजब उलझन का ये मौसम कि जानम भी सियासी है
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
पुर्णिमा वर्मन
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
कभी सर्दी ,कभी गर्मी, कभी बौछार चुटकी में
ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर
वह शोख़ी याद है जाने तमन्ना तुमसे मिलने की
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
पवनेन्द्र पवन
पहाड़ी मौसमों-सा रँग बदलता है तेरा मन भी
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
डी. के मुफ़लिस
किया, जब भी किया उसने, किया इज़हार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
दर्पण शाह ‘दर्शन’
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
मरासिम का किया फिर इस तरह इज़हार चुटकी में।
मनु 'बेतख़ल्लुस'
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
हज़ारों रंग बदले है निगाहे-यार चुटकी में
योगेश वर्मा स्वप्न
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
ज़माना आ गया ऐसा , करो अब प्यार चुटकी में
कवि कुलवंत सिंह
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
कनखियों से जो देखा तो हुआ फिर प्यार चुटकी में.
गौतम राजरिषि
कहो सीखे कहाँ से हो अदाएँ मौसमी तुम ये
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
रजनीश सचान
बदल देता है मेरे दिल का वो आकार चुटकी में,
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
अमितोश मिश्रा
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
किये मरघट हसीनों ने , कई घर-बार चुटकी में
अबुल फ़ैज़ अज़्म सहरयावी
अजब पारा सिफ़त है उसको मैं अब तक नहीं समझा
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
जगदीश रावतानी
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
ज़रा चुटकी उसे काटी पड़ी दीवार चुटकी में
प्रेम भारद्वाज
बड़ी बेताबियाँ देकर बढ़ाई प्रेम की ज्वाला
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
प्रेमचंद सहजवाला
तुम्हारी इस हसीं आदत का दीवाना हुआ हूँ मैं
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी में
द्विजेन्द्र ‘द्विज’
कभी अँधियार चुटकी में कभी उजियार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
प्रकाश "अर्श":
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
हमारे प्यार में लटकी है ये तलवार चुटकी में
सतपाल ‘ख़याल’:
भरोसा क्या करें तुझ पर तेरी फ़ितरत कुछ ऐसी है
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे
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