Wednesday, June 3, 2009
दिल अगर फूल सा नहीं होता- दूसरी किश्त
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.द्विज जी के आशीर्वाद से ही ये काम सफल हो रहा है.
नवनीत शर्मा की ग़ज़ल
उनसे गर राबिता नहीं होता
दरमियाँ फ़ासला नहीं होता
मैं भी ख़ुद से ख़फ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
फिर कोई हादसा नहीं होता
तू जो ख़ुद से ख़फ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे मिला नहीं होता
मैं भी खुद को दिखा नहीं होता
सच से गर वास्ता नहीं होता
कुछ भी तो ख़्वाब-सा नहीं होता
ठान ही लें जो घर से चलने की
फिर कहाँ रास्ता नहीं होता
रोज़ कुछ टूटता है अंदर का
हाँ मगर, शोर-सा नहीं होता
सच की तालीम पा तो लें मौला
क्या करें दाख़िला नहीं होता
उनसे कहने को है बहुत लेकिन
उनसे बस सामना नहीं होता
याद रहते हैं हक़ उन्हें अपने
फ़र्ज़ जिनसे अदा नहीं होता
रोज़ मरते हैं ख्वाब सीने में
अब कोई ख़ौफ़-सा नहीं होता
अजनबीयत ने वहम साफ़ किया
आशना, आशना नहीं होता
ज़ख़्म इतना बड़ा नहीं फिर भी
दर्द दिल का हवा नहीं होता
ख़ुद को खोकर मिली समंदर से
ये नदी को गिला नहीं होता
लोग मिलते हैं, फिर बिछड़ते हैं
हर कोई एक सा नहीं होता
दुश्मनी खुद से गर नहीं होती
कोई जंगल कटा नहीं होता
याद जिंदा थी याद कायम है
खत्म ये सिलसिला नहीं होता
आंख होती है गर गिलास नहीं
अब कोई पारसा नहीं होता
इश्क की राह पे चला ही नहीं
पैर जो आबला नहीं होता
हाय दिल को भी ये खबर होती
दर्द होता है या नहीं होता
छाछ पीने से खौफ क्यों खाता
दूध से गर जला नहीं होता
साथ मेरे वही हुआ अक्सर
जो भी पहले नहीं हुआ होता
हां, तुझे भूलना ही अच्छा है
क्या करें हौसला नहीं होता
सुबह आती है लौट जाती है
देर तक जागना नहीं होता
सोच का फर्क है यकीन करो
वक्त कोई बुरा नहीं होता
काम आता है एक दूजे के
आदमी कब खुदा नहीं होता
तुम भी बदले अगर नहीं होते
मैं भी कुछ और सा नहीं होता
बात यह और है न देख सको
वरना आंखों में क्या नहीं होता
मीर-मोमिन न कह गए होते
हमने भी कुछ लिखा नहीं होता
साफ सुन लो यकीन मत करना
हमसे वादा वफा नहीं होता
ख्वाब सारे ही जब से टूट गए
अब कोई रतजगा नहीं होता
आदतन लोग अब सिहरते हैं
गो कोई हादसा नहीं होता
बात मज़लूम की सुने कोई
अब यही मोजज़ा नहीं होता
तुम जो ग़ैरों के काम आते हो
तुम से अपना भला नहीं होता?
चल मेरे यार ज़रा- सा हँस लें
आज कल कुछ पता नहीं होता
हर अदावत की धूप सह लेता
'दिल अगर फूल सा नहीं होता'
वो है अपना या गैर का ‘नवनीत’
हमसे ये फ़ैसला नहीं होता
योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़ल
जब तलक सिरफिरा नहीं होता
आजकल फैसला नहीं होता
बात सच्ची बताने को अक्सर
घर में भी हौसला नहीं होता
सपने साकार किस तरह होते
तू अगर सोचता नहीं होता
सच तो सच ही रहेगा ऐ यारों
झूठ में हौसला नहीं होता
लूट लेते हैं अपने-अपनों को
आज दुनिया में क्या नहीं होता
शुद्ध हों मन की भावनाएं अगर
कोई किस्सा बुरा नहीं होता
प्रेमचंद सहजवाला की ग़ज़ल
हुस्न गर नारसा नहीं होता
इश्क तब सरफिरा नहीं होता
तू अगर बेवफा नहीं होता
मैं कभी ग़मज़दा नहीं होता
हम भी रिन्दों में हो गए शामिल
जश्न इस से बड़ा नहीं होता
इतने मायूस हम हुए हैं क्यों
क्या कभी सानिहा नहीं होता
ये तो अक्सर हुआ है हुस्न के साथ
तीर खींचा हुआ नहीं होता
अच्छी शक्लें अगर नहीं होती
क्या कहीं आईना नहीं होता
इश्क करना मुहाल होता क्या
दिल अगर फूल सा नहीं होता
गर्दिशों से भरे हों जब अय्याम
तब कोई हमनवा नहीं होता
गौतम राजरिषी की ग़ज़ल
मैं खुदा से खफ़ा नहीं होता
तू जो मुझसे जुदा नहीं होता
ये जो कंधे नहीं तुझे मिलते
तो तू इतना बड़ा नहीं होता
सच की खातिर न खोलता मुँह गर
सर ये मेरा कटा नहीं होता
कैसे काँटों से हम निभाते फिर
दिल अगर फूल-सा नहीं होता
चाँद मिलता न राह में उस रोज
इश्क का हादसा नहीं होता
पूछते रहते हाल-चाल अगर
फासला यूँ बढ़ा नहीं होता
छेड़ते तुम न गर निगाहों से
मन मेरा मनचला नहीं होता
होती हर शै पे मिल्कियत कैसे
तू मेरा गर हुआ नहीं होता
दूर रखता हूँ आइने को क्यूं
खुद से ही सामना नहीं होता
कहती है माँ, कहूँ मैं सच हरदम
क्या करूँ, हौसला नहीं होता
मनु 'बे-तखल्लुस'की ग़ज़ल
तू जो सबसे जुदा नहीं होता,
तुझपे दिल आशना नहीं होता,
कैसे होती कलाम में खुशबू,
दिल अगर फूल सा नहीं होता
मेरी बेचैन धडकनों से बता,
कब तेरा वास्ता नहीं होता
खामुशी के मकाम पर कुछ भी
अनकहा, अनसुना नहीं होता
आरजू और डगमगाती है
जब तेरा आसरा नहीं होता
आजमाइश जो तू नहीं करता
इम्तेहान ये कडा नहीं होता
हो खुदा से बड़ा वले इंसां
आदमी से बड़ा नहीं होता
ज़ख्म देखे हैं हर तरह भरकर
पर कोई फायदा नही होता
राह चलतों को राजदार न कर
कुछ किसी का पता नहीं होता,
जिसका खाना खराब तू करदे
उसका फिर कुछ बुरा नहीं होता
मय को ऐसे बिखेर मत जाहिद
यूं किसी का भला नहीं होता
इक तराजू में तौल मत सबको
हर कोई एक सा नही होता
मेरा सर धूप से बचाने को
अब वो आँचल रवा नहीं होता
रात होती है दिन निकलता है
और तो कुछ नया नहीं होता
हम कहाँ, कब, कयाम कर बैठें
हम को अक्सर पता नहीं होता
सोचता हूँ कि काश हव्वा ने
इल्म का फल चखा नहीं होता
मुझ पे वो एतबार कर लेता
जो मैं इतना खरा नहीं होता
होता कुछ और, तेरी राह पे जो
'बे-तखल्लुस' गया नहीं होता
Monday, June 1, 2009
दिल अगर फूल सा नहीं होता - पहली किश्त
मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पहली पाँच ग़ज़लें.
प्राण शर्मा की ग़ज़ल
जिस्म खुशबू भरा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
थक गया हूँ मैं साफ़ करते हुए
दिल का कमरा सफ़ा नहीं होता
दोस्ती कर के देख ले उस से
हर कोई देवता नहीं होता
डिग्रियां उसकी क्या करे कोई
साथ जो भी खड़ा नहीं होता
जीते-जी अम्मा मर गयी होती
खोया सुत गर मिला नहीं होता
कोई चाहे नहीं उसे बिलकुल
दिल से क्यों दुःख जुदा नहीं होता
हम ही जाएँ हमेशा पास उसके
उससे पल भर को आ नहीं होता
आप बनवा के देख लें लेकिन
घर महज रेत का नहीं होता
हर खुशी सबको गर मिली होती
आदमी दिलजला नहीं होता
द्वार हर इक का खटखटाते हो
सबका ही आसरा नहीं होता
"प्राण" रिसता रहा सभी पानी
काश, ऐसा घड़ा नहीं होता
डा. दरवेश भारती की ग़ज़ल
पीठ पीछे कहा नहीं होता
तुमसे कोई गिला नहीं होता
जो ख़फ़ा है ख़फ़ा नहीं होता
हमने गर सच कहा नहीं होता
ज़िक्र उनका छिड़ा नहीं होता
ज़ख़्म दिल का हरा नहीं होता
तुम जुटाओ ज़रा-सी हिम्मत तो
देखो फिर क्या से क्या नहीं होता
ईंट-पत्थर न चलते आपस में
घर ये हरगिज़ फ़ना नहीं होता
क्या समझता ग़ुरूर क्या शय है
वो जो उठकर गिरा नहीं होता
कुछ न कर पाता कोई तूफ़ाँ भी
भाग्य में गर बदा नहीं होता
नाव क्यों उसके हाथों सौंपी थी
नाख़ुदा तो ख़ुदा नहीं होता
आज होते न वाल्मीकि अगर
वन-गमन राम का नहीं होता
दर्द की चशनी में जो न पके
ख़ुद से वो आशना नहीं होता
कोई सागर कहीं न होता अगर
इक भी दरिया बहा नहीं होता
प्रेम ख़ुद की तरह न सब से करे
फिर वो ‘दरवेश’-सा नहीं होता
जोगेश्वर गर्ग की ग़ज़ल
इश्क में मुब्तिला नहीं होता
तो मुसीबतजदा नहीं होता
बारहा हादसा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कर रहे थे उसे सभी सज़दे
कोई कैसे खुदा नहीं होता
रोज तूफ़ान भी तलातुम भी
कब यहाँ ज़लज़ला नहीं होता
बर नहीं आ रही मेरी कोशिश
उन तलक सिलसिला नहीं होता
रोज होती रही बहस कितनी
हाँ मगर फैसला नहीं होता
पस्त होती यहाँ तभी मुश्किल
पस्त जब हौसला नहीं होता
क्यों हुआ कमनसीब "जोगेश्वर"
क्यों कभी भी नफ़ा नहीं होता
तेजेन्द्र शर्मा की ग़ज़ल:
साथ तेरा अगर मिला होता
जश्न ख़ामोश सा नहीं होता
ऐसे हालात से भी गुजरा हूँ
मुझ को मेरा पता नहीं होता
मैनें ये मान लिया काफ़िर हूँ
तुम से बेहतर ख़ुदा नहीं होता
सोच में तेरी आके ग़ैर रहे
ये वफ़ा का सिला नहीं होता
हर कोई आज उड़ाता है हंसी
काश तुझ से मिला नहीं होता
हाँ शिकायत ज़रूर है तुझ से
ग़ैर से तो गिला नहीं होता
ज़ख़्म जो तुमने दिये सह लेता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल:
जब वो जलवा नुमा नहीं होता
क्या बताऊँ मैं क्या नहीं होता
दिल बहुत ही उदास रहता है
कोई दर्द आशना नहीं होता
नहीं होता सुकून-ए-क़ल्ब मुझे
उसका जब आसरा नहीं होता
याद आती है उसकी सरगोशी
जब भी उसका पता नहीं होता
वही रहता है ख़ान-ए-दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता
इस क़दर मुझ से है वह अब मानूस
कभी मुझ से जुदा नहीं होता
कीजिए आप सब से हुस्न-ए सुलूक
कोई अच्छा बुरा नहीं होता
तोडि़ए मत किसी का शीशा-ए-दिल
कुछ भी इस से भला नहीं होता
अस्ल में है यही फसाद की जड
पूरा अहद –ए-वफा नहीं होता
नहीं चुभते कभी यह ख़ार-ए-अलम
दिल अगर फूल सा नहीं होता
उसका तीर-ए-नज़र निशाने से
कभी बर्क़ी ख़ता नहीं होता
Sunday, May 24, 2009
ज़नाब अख़ग़र पानीपती - परिचय और ग़ज़लें
एक अगस्त 1934 मे जन्मे अख़ग़र पानीपती जी एक वरिष्ठ शायर हैं.अब तक इनके तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.उजालों का सफर उर्दू में, अर्पण हिंदी में,अक्षर नतमस्तक हैं हिंदी में.
आप पानीपत रत्न से नवाज़े जा चुके हैं और आप मुशायरों व कवि सम्मेलनों में शिरकत करते रहते हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आप सब के लिए:
ग़ज़ल
हज़ार ज़ख़मों का आईना था
गुलाब सा जो खिला हुआ था
मेरी नज़र से तेरी नज़र तक
कईं सवालों का फासला था
खुलूस की ये भी इक अदा थी
करीब से वो गुज़र गया था
हमारे घर हैं सराये फ़ानी
ये साफ दीवार पर लिखा था
टटोल कर लोग चल रहे थे
ये चांदनी शब का वाक़या था
तलाश में किस हसीं ग़ज़ल की
रवां ख़यालों का काफिला था
वो इक चरागे-वफ़ा था अख़ग़र
जो तेज आंधी में जल रहा था
बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ऊल फ़ालुन फ़ऊल फ़ालुन
121 22 121 22
ग़ज़ल:
दीवारों ने आंगन बांटा
उतरा-उतरा धूप का चेहरा
एक ज़रा सी बात से टूटा
कितना नाजुक प्यार का रिश्ता
वो है अगर इक बहता दरिया
फिर क्यूं रहता प्यासा-प्यासा
तू किस दुनिया का मतवाला
सबकी अपनी-अपनी दुनिया
अब लगता है भाई-भाई
इक-दूजे के खून का प्यासा
आवारा-आवारा डोले
अंबर पर बादल का टुकड़ा
चेहरा तो है चांद सा रौशन
दामन मैला है अलबत्ता
सच्चाई के साथ न कोई
झूठ-कपट के संग ज़माना
ये भी इन्सां वो भी इन्सां
एक अंधेरा एक उजाला
गुरबत इक अभिशाप है यारो
सच्चा बन जाता है झूठा
कुत्तों को भरपेट है रोटी
भूखा इक खुद्दार का बच्चा
अंधों की इस भीड़ में अख़ग़र
किस से पूछें घर का रस्ता
(आठ फ़ेलुन)
ग़ज़ल:
हिसारे-ज़ात से निकला नहीं है
बशर खुद को अभी समझा नहीं है
किसी को भी पता मेरा नहीं है
जहां मैं हूं मेरा साया नहीं है
नज़र की हद से आगे भी है दुनिया
जिसे तुमने कभी देखा नहीं है
कमी शायद है अपनी जुस्तजू में
वो घर में है मगर मिलता नहीं है
खयालों की भी क्या दुनिया है यारों
कि इसकी कोई भी सीमा नहीं है
जो सब लोगों में खुशियां बांटता था
उसे हंसते कभी देखा नहीं है
जिसे देखो लगे है इक फरिश्ता
मगर इन में कोई बंदा नहीं है
उजालों का नगर है पास बिल्कुल
पहुंचने का मगर रस्ता नहीं है
लगाव हर किसी को है किसी से
जहां में कोई भी तन्हा नहीं है
तुम्हारी जा़ते-अक़दस पर भरोसा
खुदा रक्खे कभी टूटा नहीं है
रवां किन रास्तों पर हूं मैं अख़ग़र
कि पेड़ों का यहां साया नहीं है
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
Saturday, May 23, 2009
जब कोई दूसरा नहीं होता -मोमिन खाँ मोमिन
ये ग़ज़ल आप सब के लिए, इसी ज़मीं पर बशीर बद्र साहेब ने (दिल अगर फूल सा नहीं होता) कही थी.सोचा सब के साथ इसको सांझा किया जाए.
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।
गा़लिब इस शे’र के बदले अपना सारा दिवान देने को तैयार हो गए थे.आप भी इसे पढ़ें और सोचें कि इस ग़ज़ल मे ऐसा क्या है .
ग़ज़ल:
असर उसको ज़रा नहीं होता ।
रंज राहत-फिज़ा नहीं होता ।।
बेवफा कहने की शिकायत है,
तो भी वादा वफा नहीं होता ।
जिक़्रे-अग़ियार से हुआ मालूम,
हर्फ़े-नासेह बुरा नहीं होता ।
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता ।
उसने क्या जाने क्या किया लेकर,
दिल किसी काम का नहीं होता ।
नारसाई से दम रुके तो रुके,
मैं किसी से खफ़ा नहीं होता ।
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।
हाले-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर,
हाथ दिल से जुदा नहीं होता ।
क्यूं सुने अर्ज़े-मुज़तर ऐ ‘मोमिन’
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता ।
शब्दार्थ:
राहत फ़िज़ा--शांति देने वाला, ज़िक्र-ए-अग़यार--दुश्मनों की चर्चा,हर्फ़-ए-नासेह--शब्द नासेह (नासेह-नसीहत करने वाला)यार--दोस्त-मित्र, चारा-ए-दिल--दिल का उपचार, नारसाई--पहुँच से बाहर, अर्ज़ेमुज़्तर--व्याकुल मन का आवेदन
बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे
आज कल दिन में क्या नहीं होता
Wednesday, May 20, 2009
नया मिसरा-ए-तरह -दिल अगर फूल सा नहीं होता
नया मिसरा-ए-तरह : दिल अगर फूल सा नहीं होता
ये बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल है.
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन या फ़’इ’लुन
2122 1212 22 या 112
काफ़िया: सा, वफ़ा..यानि आ का काफ़िया है.
रदीफ़: नहीं होता.
मिसरे के अंत मे आप फ़ा’लुन या फ़’इ’लुन या फ़’इ’ला’न तीनों का इस्तेमाल कर सकते हैं.इस बहर मे आप फ़ा’इ’ला’तुन की जगह फ़’इ’लातुन(2122 or 1122) का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. ये बहर बहुत मक़बूल बहर है गा़लिब कि ये ग़ज़ल (दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है) भी इसी बहर मे है
बशीर बद्र साहब की पूरी ग़ज़ल जिससे ये मिसरा लिया गया है.
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे ...( इस मिसरे के अंत मे फ़’इ’लुन का इस्तेमाल हुआ है.)
आज कल दिन में क्या नहीं होता
गा़लिब की इस बहर मे ग़ज़ल:
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
चाल जैसे कड़ी कमाँ का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई
बात पर वाँ ज़ुबान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
(इस शे’र दोनों मिसरों के शुरू मे फ़’इ’लातुन का इस्तेमाल किया गया है)
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ग़लत करे कोई
कौन है जो नहीं है हाजतमंद
किसकी हाजत रवा करे कोई
क्या किया ख़िज्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
जब तवक़्क़ो ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई
गा़लिब की एक और ग़ज़ल इसी बहर में:
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती
और
जब कभी दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है.
एक और ग़ज़ल इसी बहर में:
शाम से आँख में नमी सी है,
आज फ़िर आपकी कमी सी है,
दफ़न कर दो हमें की साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है,
वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी सी है,
कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी,
एक तस्लीम लाज़मी सी है,
नाचीज़ की एक ग़ज़ल साहित्य-शिल्पी पर छपी है, समय हो तो ज़रूर पढें..
नोट: अप्रकाशित तरही ग़ज़लों के बारे कोई मेल न करें.ग़ज़ल कहते वक्त ग़ज़ल के लबो-लहज़े का खास ख्याल रखें.आप 20 दिन के अंदर अपनी ग़ज़लें भेज सकते हैं.
सादर
सतपाल खयाल
Friday, May 15, 2009
दुखद समाचार
जन्म: 25 दिसम्बर,1946
निधन: 13 मई,2009
पहाड़ी गांधी सम्मान से अलंकृत डा. प्रेम भारद्वाज का बुधवार शाम को देहावसान हो गया और वो इस फ़ानी दुनिया से विदा होकर पंचतत्व मे विलीन हो गये. प्रमात्मा उनकी आत्मा को शांति दे.
उनकी एक ग़ज़ल :
निकाले ख़ुल्द से आदम को जुग बीते जनम निकले
हवस की क़ैद से से लेकिन न वो निकले न हम निकले
अना की खन्दकों से पार हो मैदाने हस्ती में
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना कि ख़ुद दस्ते-करम निकले
मुरव्वत, प्यार, नफ़रत, इन्क़िलाबी दौर, मज़हब हो
कि इस तन्ज़ीम की बुनियाद में अहले-कलम निकले
लड़ाई अज़्मतों की तब समुन्दर पार जा पहुँची
लखन रेखा मिटा कर जब सिया के दो क़दम निकले
सफ़र में लूट,डाके, चोरियाँ आसेब, आवाज़ें
हक़ीक़त में तो ये सब रहनुमाँ के ही करम निकले
ख़ुशामद रात भर करके वो सुबह आँखें दिखाता है
कि रस्सी जल गई सालिम न फिर भी उसके ख़म निकले
हुए माशूक़, साहूकार माहिर सूदख़ोरी में
अदा कर दो वुजूद अपना बक़ाया ही रक़म निकले
किसे आख़िर बनाएँ राज़दाँ वो सब के सब अपने
दबाकर जीभ दाँतों के तले खाकर क़सम निकले
अधूरी प्रेमगाथा के लिए है क़ौल ग़ालिब का
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
Tuesday, May 12, 2009
मेरे लिए भी क्या कोइ उदास बेकरार है - अखिरी दो ग़ज़लें
मिसरा-ए-तरह : "मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है " पर दो ग़ज़लें :
1.ग़ज़ल: ख़ुर्शीदुल हसन नैय्यर
चमन में जो बहार है गुलों पे जो निखार है
तेरी निगाह का असर तेरे लबों का प्यार है
भिगो गई है जो फ़ज़ा हवा जो मुश्कबार है
ये ज़ुल्फ़े-यार की महक वो चश्म-ए-आबदार है
उफ़क़ पे जो धनक चढ़ी शफ़क़ का जो सिंगार है
यही है ओढ़नी का रंग, यही जो हुस्न-ए-यार है
न नींद आँख में रही न दिल पे इख़्तियार है
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है
झुकी नज़र ख़मोश लब अदाओं में शुमार है
इन्हीं अदा-ए-दिलबरी पे जान-ओ-दिल निसार है
किसी से इश्क़ जब हुआ तो हम पे बात ये खुली
जुनूँ के बाद भी कोई मकाँ कोई दयार है
सुना कि बज़्म में तेरी मेरा भी ज़िक्र आएगा
तो ख़ुश हुआ कि दोस्तों में मेरा भी शुमार है
‘हसन’ की है ये आरज़ू कि उनसे जा कहे कोई
तेरी अदा पे जाने मन ग़ज़ल का इन्हेसार है
2.ग़ज़ल: सतपाल खयाल
किसी को इस जहाँ मे क्या मेरा भी इंतज़ार है !
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है.
ये रौनकें , ये महिफ़िलें ये मेले इस जहान के
ए ज़िंदगी ! खुदा का भी तुझी से कारोबार है.
उसी ने डाले मुश्किलों मे मेरे जानो-दिल मगर
उसी पे जाँ निसार है उसी पे दिल निसार है.
तुमीं को हमने पा लिया , तुमीं को हमने खो दिया
तू ही हमारी जीत है, तू ही हमारी हार है
यही सवाल आज तक मैं खुद से पूछता रहा
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है.
हमारे हिस्से मे सदा शिकस्त ही रही ख्याल
मुकद्दरों के खेल इनपे किसका इख्तियार है.
द्विज जी के आशिर्वाद से ये तरही आयोजन सफ़ल रहा और मै सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ कि उन्होंने अपने कलाम हमे भेजे.अगला तरही मिसरा जल्द दिया जायेगा.
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