Wednesday, May 20, 2009
नया मिसरा-ए-तरह -दिल अगर फूल सा नहीं होता
नया मिसरा-ए-तरह : दिल अगर फूल सा नहीं होता
ये बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल है.
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन या फ़’इ’लुन
2122 1212 22 या 112
काफ़िया: सा, वफ़ा..यानि आ का काफ़िया है.
रदीफ़: नहीं होता.
मिसरे के अंत मे आप फ़ा’लुन या फ़’इ’लुन या फ़’इ’ला’न तीनों का इस्तेमाल कर सकते हैं.इस बहर मे आप फ़ा’इ’ला’तुन की जगह फ़’इ’लातुन(2122 or 1122) का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. ये बहर बहुत मक़बूल बहर है गा़लिब कि ये ग़ज़ल (दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है) भी इसी बहर मे है
बशीर बद्र साहब की पूरी ग़ज़ल जिससे ये मिसरा लिया गया है.
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है
मुद्दतों सामना नहीं होता
जी बहुत चाहता सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता
रात का इंतज़ार कौन करे ...( इस मिसरे के अंत मे फ़’इ’लुन का इस्तेमाल हुआ है.)
आज कल दिन में क्या नहीं होता
गा़लिब की इस बहर मे ग़ज़ल:
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
चाल जैसे कड़ी कमाँ का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई
बात पर वाँ ज़ुबान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
(इस शे’र दोनों मिसरों के शुरू मे फ़’इ’लातुन का इस्तेमाल किया गया है)
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ग़लत करे कोई
कौन है जो नहीं है हाजतमंद
किसकी हाजत रवा करे कोई
क्या किया ख़िज्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
जब तवक़्क़ो ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई
गा़लिब की एक और ग़ज़ल इसी बहर में:
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुमको मगर नहीं आती
और
जब कभी दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है.
एक और ग़ज़ल इसी बहर में:
शाम से आँख में नमी सी है,
आज फ़िर आपकी कमी सी है,
दफ़न कर दो हमें की साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है,
वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी सी है,
कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी,
एक तस्लीम लाज़मी सी है,
नाचीज़ की एक ग़ज़ल साहित्य-शिल्पी पर छपी है, समय हो तो ज़रूर पढें..
नोट: अप्रकाशित तरही ग़ज़लों के बारे कोई मेल न करें.ग़ज़ल कहते वक्त ग़ज़ल के लबो-लहज़े का खास ख्याल रखें.आप 20 दिन के अंदर अपनी ग़ज़लें भेज सकते हैं.
सादर
सतपाल खयाल
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2 comments:
all the best to all poets!
ye waalaa sahi hai,,,,satpaal ji,
ise aasha bhonsle ne nahi gaayaa huaa naa,,,,,!!!!!!!
:)
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